गुरुजी: पिता, उद्धारक, शिव

Guruji Maharaj Meditation एक केवल विधाता ही अपने संतों के साथ आत्मीय एवं अंतरंग सम्बन्ध स्थापित करते हैं और उनके संत अपने आराध्य के साथ| यद्यपि लाखों गुरुजी से अवगत हैं, फिर भी हम उनके बारे में अत्यंत कम जानते हैं| वास्तव में व्यक्ति स्वरूप गुरूजी के बारे में तो हमारा ज्ञान शून्य से अधिक कुछ भी नहीं है| ऐसा प्रतीत होता है कि यह उनकी अभिलाषा के अनुसार है| आध्यात्मिक कथाएं मात्र जिज्ञासुओं के लिए नहीं हैं, क्योंकि आध्यात्मिकता केवल जिज्ञासा का प्रसंग नहीं है| वास्तव में यह एक अत्यंत गूढ़ विषय है, जिसको समझने के लिए बहुत उद्यम और सतत परिश्रम की आवश्यकता है|

गुरुजी के जीवन की जानकारी इतनी सीमित है कि उसे मात्र रूपरेखा ही कह सकते हैं| जो रूपरेखा हमारे समक्ष है उसे पूर्ण विश्वसनीयता के साथ सत्यापित नहीं किया जा सकता है क्योंकि समय के साथ याददाश्त पर विश्वास करना कठिन हो जाता है - प्रसंग कहानियाँ बन जाते हैं और कहानियाँ और लम्बी लोक कथाएँ| इस आधार पर जो हमें ज्ञात है वह वर्णित है|

गुरुजी दिव्य ज्योत थे जिनका जन्म 7 जुलाई 1954 को पंजाब की मलेरकोटला तहसील के डुगरी गांव में हुआ था| पंजाब सदा से सिख गुरुओं का पुण्य स्थल रहा है| जैसे यीशु मसीह के जन्म पर तीन ज्ञानी पुरुष पहुँच गए थे, गुरुजी के जन्म पर सर्प दिखे थे - एक प्रमुख किन्तु अद्भुत संयोग जो उनकी वास्तविकता से अवगत कराता है| वह शिव थे और हैं, जिनका चित्रण उनके नीले कंठ और हाथ में लिपटे हुए सांपों से दृष्टिगोचर होता है - यह भी सत्य है कि कुछ अनुयायियों ने उनका यह रूप देखा है|

डुगरी कृषि प्रधान ग्राम था और गुरुजी का बचपन भी उसी वातावरण में व्यतीत हुआ| उनके पिता बताते हैं कि उनका छोटा पुत्र अक्सर खेती में सहायता करता था| जब भी ऐसा होता था, उनके खेत की पैदावार आस पास के खेतों से कई गुना अधिक होती थी| गुरुजी अक्सर निकट ही संत सेवा दासजी के डेरे पर मिलते थे, उनके परिवार के सदस्यों की इच्छा के विपरीत, जो चाहते थे कि गुरूजी अपनी पढ़ाई की ओर ध्यान दें| उनकी इस आध्यात्मिक प्रवृत्ति को रोकने के लिए उनको कभी कभी कमरे में बंद कर दिया जाता था| फिर भी गुरुजी डेरे पर संतों के साथ बैठे हुए मिलते थे, जहाँ पर बहुत बड़ी संख्या में अनुयायी आते थे| भविष्यद्रष्टा संत लोगों को सजग करते थे कि गुरुजी को अकेला छोड़ दें क्योंकि वह "तीनों लोकों के स्वामी" हैं|

इन शब्दों की महत्ता - कि गुरुजी त्रिलोकीनाथ हैं - उस समय भी, या दशकों उपरान्त, जब उनके भक्तों की संख्या बहुत बढ़ गयी, समझ में नहीं आई| किन्तु देवत्व कभी छिपा नहीं रह सकता, क्योंकि कष्ट निवारण तो उसकी प्रवृत्ति है| उनके बचपन के एक दृष्टान्त के अनुसार उनके एक सहपाठी का पेन परीक्षा से पूर्व टूट गया था| गुरुजी ने उसको अपना पेन दे दिया जिससे उसने अपनी परीक्षा पूर्ण करी, और गुरुजी ने उस टूटे पेन से सफलतापूर्वक अपने उत्तर लिखे| यह उनकी कक्षा के विद्यार्थियों के लिए कोई महत्त्वपूर्ण घटना नहीं थी - उनके अनुसार गुरुजी को परीक्षाओं में आने वाले प्रश्न पहले से ही पता होते थे! उनके अध्यापक शिष्य की कक्षा से अचानक थोड़ी देर के लिए अंतर्ध्यान हो जाने की घटनाओं से सदा विस्मित रहते थे|

गुरुजी अपने पिता की इच्छा पूर्ति के लिए पढ़ते रहे, जो अन्य सामान्य अभिवावकों के समान चाहते थे कि उनका पुत्र एम ए की उपाधि प्राप्त कर ले| गुरुजी ने अंग्रेजी और अर्थ शास्त्र में दो उपाधियाँ प्राप्त करीं|

कुछ समय के उपरान्त गुरुजी ने इस संसार में अपनी आध्यात्मिक यात्रा के लिए घर छोड़ दिया| वह अक्सर अपने किसी परिचित के घर पर प्रकट हो जाते थे, कुछ दिन रहते थे और फिर या तो चल पड़ते थे या कई दिनों के लिए लुप्त हो जाते थे| उनके माता पिता समझ गए कि उनका पुत्र कोई साधारण पुरुष नहीं है| उनकी माँ अन्य भक्तों की भांति उनको "गुरुजी" से संबोधित करती थीं और उन्हें सत्संगों में अक्सर गुरुजी के पैर छूते हुए देखा जा सकता था| यदि कोई भक्त निडर हो कर उनका नाम पूछ भी लेता था, तो गुरुजी उसको एक छोटा किन्तु अर्थसंगत उत्तर देते थे, कि उन महापुरुषों के कोई नाम नहीं होते| इस कथन का अभिप्राय मात्र इतना होता था कि उनके व्यक्तित्व के समान स्वयं ब्रह्म में ही समाहित है, दोनों एक ही हैं| नाम के लिए जिस भिन्नता की आवश्यकता होती है, उसका लोप हो चुका है| एक निजी मानव शरीर होते हुए भी वह व्यक्तित्वहीन और अंतर्यामी थे|

Guruji Maharaj Blue Chola तत्पश्चात उस शरीर का उद्देश्य मानवता को उसके दुखों और कष्टों से छुटकारा दिलाना हो गया| लोग, बड़ी संख्या में गुरुजी के पास अपनी समस्याओं से मुक्त होने के लिए पहुंचने लगे - अधिकांशतः आर्थिक, गृहस्थी, व्यवसाय और व्यापार, कर्मजनित रोगों से संबंधित होती थीं| शीघ्र ही उनकी प्रतिभा समूचे पंजाब में फैल गयी और लोगों ने उनको ढूंढ निकाला| गुरुजी सदा कहते रहे कि "असल चीज़ तो कोई मंगदा नहीं"| वह तो दिव्यता के मूर्त रूप थे और उनकी इच्छा थी कि लोग उनके पास प्रेम के लिए, केवल प्रेम के लिए आएं| नम्रतापूर्वक समर्पित प्रेम से वह अकल्पनीय, असंभव वस्तुएँ तक देने में सक्षम थे| गुरुजी तो दाता थे; उनकी न कोई आशा थी न ही उन्होंने किसी से कभी कुछ ग्रहण किया|

गुरुजी विभिन्न स्थानों पर रहे - जालंधर, चंडीगढ़, पंचकूला और नयी दिल्ली - और सत्संगों की नदी, पवित्र गंगा की भांति इन बंजर, भौतिकवाद से तप्त प्रदेशों में, बहने लगी| यही स्थान थे जहाँ पर लोग न केवल पूरे भारत से, अपितु समस्त विश्व से उनके आशीर्वाद लेने के लिए आने लगे| गुरुजी के सत्संगों में वितरित होने वाले चाय और लंगर प्रसाद उनके परम आशीर्वाद से संपन्न थे| उनके द्वार सबके लिए खुले थे, चाहे वह उच्च या निम्न, अमीर या गरीब, पड़ोसी या विदेशी हो| स्वयं दिव्यता से परिपूर्ण, उनके लिए सब एक समान थे और अपने भक्तों को भी ऐसा ही पालन करने को कहते थे| उन्होंने भक्तों को शंकाओं से उत्पन्न, व्यर्थ के अंधविश्वास एवं निराधार परम्पराओं को त्यागने को कहा| उनका कथन था कि सब ईश्वर से प्रेम करें, सब धर्म समान हैं और उन सबका मूल एक ही है| एक परमेश्वर है और मानवता का एकमात्र स्वरूप विश्व बंधुत्व का है| अतः, इस तर्क पर, जाति और मत के आधार पर कोई अंतर संभव नहीं हैं| ज्योतिष और अज्ञानता पर आधारित उपाय उनको अस्वीकार थे| वह अपने भक्तों को अपने कर्मों को समाप्त करने में सहायता करते थे; यह जानते हुए भी कि उनके शरीर को हानि भी होती है वह अधिक बुरे कर्म अपने पर अंतरित कर लेते थे| उनके और उनके अनुयायियों के लिए, संगत, उनके भक्तों की सभा, सर्वोच्च थी|

बदले में, उनको अपने अनुयायियों से मात्र इतनी अभिलाषा थी कि वह अच्छा आचरण करें; किसी की भी निंदा न करें, सबकी सहायता करें और किसी की भी हानि न करें| यद्यपि वह पूर्व कर्मों की आंधी में से अपने भक्तों को निकाल कर उनको जीव और आत्मा का दर्शन कराते थे, वह उनको सदा सुकर्म और सदाचार करते हुए अध्यात्म मार्ग पर चलने की प्रेरणा भी देते थे| उनमें सम्पूर्ण समर्पण और अप्रतिबंधित आस्था अति आवश्यक थी| "कल्याण कित्ता", गुरुजी कहते थे और भक्त को सदा उनका आशीर्वाद प्राप्त होता था| एक बार उन्होंने समझाया कि उनका आशीर्वाद केवल इस जन्म के लिए नहीं है, आत्मबोध (मोक्ष प्राप्ति) तक है|

गुरुजी ने कभी कोई प्रवचन नहीं किया; वह सदा व्यावहारिक आध्यात्मिकता के कर्ता थे, जैसा वह अक्सर कहा भी करते थे| उनके सन्देश उन शबदों के माध्यम से प्रसारित होते थे जो उनकी सभा में बैठे हुए भक्तों के ह्रदय को भावविभोर कर देते थे| अतः अनुयायी, गुरु शिष्य में स्थापित पवित्र सम्बन्ध बनने पर, उनके सन्देश सार्वजनिक या निजी रूप में ग्रहण कर लेते थे| यह पावन रिश्ता आपसी सम्बन्ध का मूल आधार था| वह भक्त का जीवन उस स्तर तक उठा देते थे जहाँ पर सुख, आपूर्ति और शांति सुगम होती हैं| शबद मार्गदर्शक बन जाते थे जो न केवल अनुयायी को उसका वास्तविक लक्ष्य बता देते थे, वह उसको उसकी वर्तमान स्थिति से भी अवगत करा देते थे|

गुरुजी ने 31 मई 2007 को, शिष्यों का प्रिय, सदा गुलाब के पुष्पों सा सुगन्धित, शरीर त्याग दिया| एक प्रकार से यह एक शिक्षा ही थी| उन्होंने अनुयायियों को बता दिया था कि जीवन कितना क्षणभंगुर है| जिस भांति वह चले गए, उन्होंने यह पाठ सबके मनसपटल पर स्थायी तौर से छोड़ दिया है| अति सुन्दर बाग में स्थित, सबको मंत्रमुग्ध करने वाला, पवित्र "बड़ा मंदिर" उनकी आध्यात्मिक धरोहर है| वह इतना अद्वितीय है कि उसे पृथ्वी पर स्वर्ग ही कहा जा सकता है| और इतना शक्तिशाली है कि आशीर्वाद के लिए मात्र उसके निकट से गुजरना ही पर्याप्त है|