प्यार करे अपार जो,
महर का जिसकी कोई अंत ना;
हाथ जोड़, नतमस्तक होकर,
करूँ उस गुरु की वन्दना।
गुरुजी के साथ मेरी आध्यात्मिक यात्रा 25 मार्च 2006 को आरम्भ हुई -- जिस दिन मैं पहली बार उनके यहाँ गई -- और उसके कुछ ही समय बाद मेरे चौथे सेमेस्टर की परीक्षाएँ हुईं। परीक्षा से पहले मैं गुरुजी का आशीर्वाद लेने नहीं जा सकी क्योंकि हमारे घर से एम्पायर एस्टेट बहुत दूर था और मैं अपनी परीक्षा की वजह से बहुत तनाव में थी।
15 दिनों बाद मुझे गुरुजी के दर्शन हुए। सुबह के 5 बज रहे होंगे जब मैंने उनको सपने में देखा। मैं अपने पिता के साथ स्कूटर पर बड़े मंदिर (मुझे बाद में पता चला कि वह इस नाम से जाना जाता है) जा रही थी। मैंने देखा कि मंदिर में गुरुजी मंजी (चारपाई) पर बैठे हुए थे। जब मैंने उनके आगे माथा टेका तो वे बोले, "देखा पंज मिनट वी नी लगे। (देखा, यहाँ आने में पाँच मिनट भी नहीं लगे)।" मेरी नींद खुल गई और मेरी नज़र दीवार पर लगी घड़ी पर गई तो मैंने देखा कि वास्तव में इस पूरी दर्शन प्रक्रिया में मुझे सिर्फ तीन मिनट लगे थे। मैंने जो देखा था उस पर मुझे विश्वास नहीं हो रहा था क्योंकि यह ख्याल कि गुरुजी चारपाई पर बैठे हुए थे, बिलकुल अविश्वसनीय था। मुझे बाद में पता चला कि गुरुजी जब बड़े मंदिर आते थे तो चारपाई पर बैठते थे।
मेरी परीक्षा गुरुजी के यहाँ जाने के एक महीने बाद शुरू हुई। वह मेरे जीवन की अब तक की सबसे अच्छी परीक्षा रही। मैंने सारे प्रश्नों के उत्तर दिए और उनमें से बहुत तो ऐसे थे जो मैंने परीक्षा से ठीक पहले पढ़े थे। मुझे इसमें गुरुजी की कृपा स्पष्ट नज़र आ रही थी।
मेरी दूसरी परीक्षा में चार दिन थे लेकिन एक दुर्घटना की वजह से मुझे उस परीक्षा में बैठ पाना मुश्किल लग रहा था। मैं अपने पिता के पीछे स्कूटर पर बैठी हुई थी, मन में गुरुजी का शुक्राना कर रही थी और मैं गिर गई। उस समय यातायात बहुत अधिक थी और हम नई दिल्ली के झंडेवालां मंदिर की लाल बत्ती पर थे। अवश्य कोई मुझे कुचलकर निकल जाता। परन्तु आश्चर्य की बात है कि जब मैं सड़क पर गिरी हुई थी और हिल नहीं पा रही थी, वहाँ से कोई गाड़ी नहीं, यहाँ तक कि कोई पैदल यात्री भी नहीं गुज़रा। गुरुजी ने वो सारा नज़ारा 'स्थिर' कर दिया और ऐसा प्रतीत हुआ कि जैसे उस समय एक पत्ता तक नहीं हिला। जब मेरे पिता ने मुझे उठाया तब जाकर वहाँ यातायात का आना-जाना शुरू हुआ।
मैं ठीक थी लेकिन मेरे दाहिने हाथ पर गहरे घाव थे और वो सूज गया था लेकिन हड्डी नहीं टूटी थी। मुझे चिंता हो गई कि मैं अपनी अगली परीक्षा कैसे लिखूँगी। मुझे अपनी परीक्षा के लिए एक लिखने वाले की सहायता लेने का सुझाव दिया गया लेकिन क्योंकि मेरी परीक्षा में लिखने का नहीं थी बल्कि रेखा-चित्र बनाने थे, मैं जानती थी कि यह सब मैं किसी लिखने वाले सहायक को बोलकर नहीं समझा पाऊँगी। इसी बीच मेरे साथ एक ऐसा अनुभव हुआ जिससे मुझे एहसास हुआ कि गुरुजी मेरे साथ थे और मुझे चिंता करने की आवश्यकता नहीं थी।
हमारी कॉलोनी के साथ ही एक फौजी प्रशिक्षण केंद्र था जहाँ सैनिक बैंड अभ्यास करता था। उनके बैंड के शोर की वजह से मैं पढ़ाई नहीं कर पाती थी। तंग आकर मैंने गुरुजी से शिकायत की। अभी मैंने मन में उनसे शिकायत की ही थी कि बैंड की आवाज़ बंद हो गई और अगले दस दिन बंद रही, मेरी परीक्षा समाप्त होने तक!
गुरुजी से दिव्य सहारा पाकर मैंने अपनी परीक्षा स्वयं लिखने का निर्णय लिया। गुरुजी में पूरा विश्वास रखते हुए जब मैं परीक्षा देने बैठी तो मैंने पाया कि एक बार जो मैंने लिखना शुरू किया तो पूरी परीक्षा बिना रुके लिख पाई। उस समय मुझे बिलकुल दर्द नहीं हुआ लेकिन जैसे ही मैंने परीक्षक को अपना पेपर दिया, मैं अपना हाथ हिला नहीं पा रही थी। गुरुजी के आशीर्वाद से उस परीक्षा में मेरे 70 अंक आए। लेकिन सिर्फ इतना ही नहीं हुआ। मेरी बाकी की हर परीक्षा में गुरुजी की कृपा मेरे साथ थी।
मेरी अगली परीक्षा चार दिनों के बाद दोपहर में थी लेकिन मेरी तैयारी ठीक से नहीं हुई थी। परीक्षा वाले दिन मैं पढ़ाई करने के लिए सुबह चार बजे उठी। चार घंटे बीत गए और मैं सिर्फ एक खंड पढ़ पाई थी और बाकी के चार खंड पूरे करने के लिए मेरे पास सिर्फ दो घंटे थे। मैं थक गई थी और हिम्मत भी हार चुकी थी लेकिन गुरुजी ने मुझे संभाल लिया। मैंने गुरुजी से सहायता के लिए प्रार्थना की और उन्हें अपने निकट महसूस किया। जल्द ही मैं एक नये जोश से पढ़ाई करने लग गई और पन्ने पलटती गई और हर खंड से छोटे-छोटे भाग पढ़ती चली गई। परीक्षा में लगभग आधे सवाल उन चार खंडों में से आये। सवाल उन भागों में से थे जो मैंने सुबह ही पढ़े थे, उन्हीं पंक्तियों में से जो मैंने सुबह चुन कर पढ़ी थीं, यहाँ तक कि उन अक्षरों तक जहाँ तक मैंने पढ़े थे। खंडों के बाकी भागों में से कुछ नहीं पूछा गया था।
तब जाकर मुझे समझ आया: गुरुजी स्वयं प्रश्नपत्र तैयार करते हैं और वे ही सुनिश्चित करते हैं कि हम समय से पढ़ाई कर लें। वे हमारे साथ पढ़ाई भी करते हैं! जब हम उदास होते हैं तो वे हमें हिम्मत प्रदान करते हैं, हमसे बेहतर काम करवाते हैं और हमारी सोच से बढ़कर सर्वश्रेष्ठ परिणाम देकर हमें पुरस्कृत करते हैं।
गुरुजी की कृपा से मेरी परीक्षा अच्छी हुई और मेरे 89 अंक आए। अगर उनका आशीर्वाद ना होता तो मैं फेल हो जाती!
जल्द ही, गुरुजी के यहाँ जाने के लिए शुक्रवार हमारा निर्धारित दिन बन गया। मैं अपने पिता के कार्यालय तक बस में जाती और वहाँ से हम दोनों एम्पायर एस्टेट जाते। लेकिन एक शुक्रवार की तपती दोपहर में मैं अपना पर्स ले जाना भूल गई और मेरे पास मात्र दस रुपये थे। उसी दिन बस चालक ने अपना मार्ग भी बदल दिया और मुझे एक अनजान जगह पर उतर जाने के लिए कहा। अब मेरे पास पाँच रुपये बचे थे और उनसे या तो मैं अपने पिता को फोन करके वहाँ बुला सकती थी जो जगह मैं स्वयं नहीं जानती थी या मैं घर वापस जा सकती थी। मैंने गुरुजी से प्रार्थना की और चलती रही। एक घंटा चलते रहने के बाद मैं अपने पिता के कार्यालय पहुँची, सूजे हुए और छालों से भरे हुए पैरों के साथ। फिर हम वहाँ से मंदिर के लिए निकले।
शाम को जब मैं गुरुजी से आज्ञा लेने गई तो वे मेरी ओर देखकर बोले, "चल दफा हो!" मैं फूट-फूट कर रोने लगी क्योंकि वैसे ही उस दिन मुझे बहुत कष्ट उठाने पड़े थे। उस समय मैं यह नहीं जानती थी कि गुरुजी ने किसी दुष्ट शक्ति को दफा किया था जो मुझे उनके यहाँ आने से रोक रही थी। और सचमुच, उनके कहे गए शब्द आशीर्वाद साबित हुए: गुरुजी के मंदिर जाते समय मुझे फिर कभी किसी परेशानी का सामना नहीं करना पड़ा है।
समारोह के अवसर पर उनका आशीर्वाद: गुरु पूर्णिमा, शिवरात्रि और बैसाखी
जल्द ही गुरु पूर्णिमा आने वाली थी और मेरे पिता सेवा करने के लिए मंदिर जल्दी जाना चाहते थे। उस दिन बारिश हुई थी और जब तक हम मंदिर पहुँचे (संगत ने सुबह-सुबह ही मंदिर अच्छे से साफ कर दिया था), वह फिर से गंदा हो गया था। हम अन्य संगत के साथ सफाई में जुट गए। उस समय मैंने अपने पीठ के दर्द के बारे में भी नहीं सोचा जो मुझे पिछले छः सालों से था और मैंने पूरे मंदिर में दो या तीन बार झाड़ू लगाया। साधारणतया इतना परिश्रम करने के बाद मैं अपने पैरों पर खड़ी हो पाने में भी असमर्थ होती। लेकिन उस दिन गुरुजी के आशीर्वाद के वजह से मैं यह सब कर पाई। उस रात गुरुजी ने मुझे नृत्य करने के लिए भी कहा -- और मैंने किया।
उस दिन सेवा और नृत्य करके मुझे क्या मिला? यह मुझे गुरुजी की महासमाधि लेने के एक महीने बाद समझ आया। मैं बड़े मंदिर में एक दम्पति का सत्संग सुन रही थी। गुरुजी ने उनमें से एक से नृत्य करवाया था जिसके बाद उन दोनों के शरीर का दर्द ठीक हो गया था। तब मुझे अनुभूति हुई कि गुरु पूर्णिमा के बाद मुझे फिर कभी पीठ में दर्द नहीं हुआ था। यहाँ तक कि मैं अपने दर्द के बारे में भूल चुकी थी। कितनी बार हमें पता ही नहीं चलता है कि गुरुजी ने हम पर कितनी कृपा की है।
एक साल बाद, साल 2007 की शिवरात्रि के अवसर पर एक बार फिर गुरुजी ने अपना अपार प्रेम मुझपर बरसाया। बड़े मंदिर में गुरुजी के दर्शन के लिए लंबी पंक्तियाँ थीं और मैं देर रात तक वहाँ सेवा कर रही थी जिसके कारण मैं गुरुजी के दर्शन नहीं कर पाई थी। सारी संगत को जब गुरुजी के दर्शन हो गए उसके बाद मैं अंदर गई तो मुझे पता चला कि गुरुजी का हुक्म था कि किसी को भी मुख्य हॉल में प्रवेश ना करने दिया जाए और संगत लंगर करने के बाद बिना उनकी आज्ञा लिए घर वापस जाए। मैंने एक महिला संगत, जो द्वार पर पहरा दे रही थी, को बहुत समझाने की कोशिश की कि मैं अंदर गुरुजी के दर्शन के लिए जाना चाहती थी ना कि आज्ञा लेने के लिए, लेकिन उन्होंने मेरी एक नहीं सुनी। लेकिन गुरुजी ने मेरी सुन ली और मुझे अंदर बुलाया। मुझे समझ आ गया कि जब कोई हमारी नहीं सुनता है तब गुरुजी हमारे साथ होते हैं, उनकी नज़र हमेशा हम पर होती है और वे अलग-अलग माध्यम से हमसे सम्पर्क बनाते हैं।
गुरुजी हमारे साथ निशब्द सम्पर्क में होते हैं, यह बात एक बार फिर बैसाखी के अवसर पर मुझे स्पष्ट हो गई। मैं एक दिन पहले एम्पायर एस्टेट गयी थी क्योंकि मेरे तीन विषयों की प्रैक्टिकल परीक्षा होने वाली थी। गुरुजी साइडबोर्ड पर बैठे हुए थे और माथा टेकते समय मैंने मन में ही उन्हें बैसाखी की शुभकामनाएँ दीं।
बैसाखी के दिन मेरा पूरा कमरा गुरुजी की दिव्य सुगंध से भर गया। गुरुजी की तस्वीर से सुगंध आ रही थी और मुझे लगा जैसे गुरुजी मुझे बुला रहे थे। मेरे माता-पिता मंदिर के लिए पहले ही निकल चुके थे इसलिए मैंने संगत में अपनी एक सहेली को फोन किया जो अपने माता-पिता के साथ मंदिर जा रही थी। यद्यपि उनकी गाड़ी में जगह नहीं थी, फिर भी वे मुझे अपने साथ ले चलने के लिए मान गए और मैं सारा रास्ता अपनी सहेली की गोद में बैठकर गई और सारे रास्ते गुरुजी से प्रार्थना करती रही कि वे मेरी सहेली और उसके परिवार को आशीर्वाद दें।
और हम सब अचम्भित रह गए जब गाड़ी में सबको गुरुजी की सुगंध आई। हमने बाहर देखा तो पाया कि गुरुजी की गाड़ी हमारी गाड़ी के साथ ही थी! गुरुजी ने मेरी प्रार्थना का उत्तर दे दिया था। हम बड़े मंदिर तक बाकी का रास्ता गुरुजी की गाड़ी के पीछे-पीछे 'जय गुरुजी' करते हुए गए!
परन्तु घर जल्दी वापस जाकर पढ़ने के लिए मेरे पास कोई साधन नहीं था। मेरे माता-पिता मुझे पहले ही कह चुके थे कि किसी भी हाल में वे जल्दी वापस नहीं जाएँगे। मैंने निश्चय कर लिया कि मैं सारी रात मंदिर में ही बिताऊँगी और सुबह परीक्षा देने के लिए सीधा वहीं से कॉलेज जाऊँगी। मैं गुरुजी के दर्शन के लिए मुख्य हॉल में गई। गुरुजी ने मेरी आँखों में देखा और हल्की सी मुस्कान दी मानो कह रहे हों, "देखो, तुम आ गई।" जब मैं दर्शन करके हॉल से निकली तो संगत के तीन लोग मेरे पास आए और बोले कि वे मुझे घर जल्दी छोड़ देंगे ताकि मैं परीक्षा देने से पहले कम-से-कम ठीक से सो सकूँ और जितना हो सके पढ़ सकूँ। अगली सुबह मेरी परीक्षा बहुत अच्छी हुई और तीनों विषयों में मेरे सबसे ज़्यादा अंक आए।
उस बैसाखी का बहुत ज़्यादा महत्त्व था। अगर उस दिन मैं बड़े मंदिर नहीं जाती तो गुरुजी की शारीरिक उपस्थिति में हुए आखरी समारोह का सुअवसर खो देती।
मुझे जब भी गुरुजी की याद आती है, वे अपनी उपस्थिति की अनुभूति करा देते हैं। एक बार मैं एम्पायर एस्टेट जाने में असमर्थ थी क्योंकि मुझे अपनी परीक्षा की तैयारी करनी थी और अपने प्रोग्रामिंग असाइनमेंट पूरे करने थे। मुझे इसके बारे में कुछ नहीं पता था जिसके वजह से मैं और ज़्यादा तनाव में थी। वह बृहस्पतिवार की शाम थी और मेरे पिता मंदिर के लिए निकल चुके थे। मैं इस बात से बहुत परेशान हो रही थी कि अब पंद्रह दिनों तक मैं गुरुजी के दर्शन नहीं कर पाऊँगी। मैं अपनेआप को रोक नहीं पाई और अपनी पढ़ाई छोड़कर कंप्यूटर पर गुरुजी की तस्वीर देखने लग गई। मेरे देखते ही देखते, गुरुजी के माथे पर त्रिशूल बन गया और मैं उसे देखकर स्तब्ध रह गई। उनके माथे पर नसों ने त्रिशूल का आकार ले लिया। मुझे ऐसा लगा जैसे गुरुजी मुझे बोल रहे हों, "तू चिंता ना कर, मैं हमेशा तेरे साथ हूँ।"
मुझे परीक्षा देने की मिली। गुरुजी में विश्वास की वजह से मैं अपनी परीक्षाओं में सफल रही और कुल मिलाकर मेरे 76.25 प्रतिशत अंक आए यद्यपि इस एक विषय में मैं तीन अंकों से पास होने से चूक गई।
आपको जीवन में जो कुछ भी मिलता है वह गुरुजी का आशीर्वाद है। अगर आप वास्तव में उनसे प्रेम करते हैं और उनका आदर करते हैं तो उनका आशीर्वाद स्वीकारना सीखिए और कभी शिकायत मत कीजिए अगर आपको वह नहीं मिला जो आपको चाहिए। उनमें विश्वास रखिए और इस बात में भी विश्वास रखिए कि गुरुजी वो देते हैं जो आपके लिए सर्वश्रेष्ठ होता है। वे आपके जीवन की हर छोटी से छोटी घटना सुनियोजित करते हैं।
मेरी शैक्षणिक उपलब्धियों पर गुरुजी का आशीर्वाद
यह पहली बार नहीं हुआ था कि गुरुजी ने मेरी शिक्षा पर अपने आशीर्वाद की कृपा बरसाई। एक साल पहले, एम्पायर एस्टेट में मुझे उनका आशीर्वाद प्राप्त हुआ था। एम्पायर एस्टेट में जब मैंने गुरुजी के आगे माथा टेका तो वे बोले, " चलो ऊपर।" गुरुजी के कहे गए शब्दों का अर्थ ऊपरी मंज़िल पर जाने तक सीमित नहीं था। उस दिन जब मैं घर पहुँची तो मेरी सहेली का संदेश आया हुआ था जिसमें वह मुझे दिल्ली यूनिवर्सिटी में 82 प्रतिशत अंक लाकर द्वितीय स्थान पर आने के लिए बधाई दे रही थी! यह परिणाम उसी समय आया था जिस समय गुरुजी ने मुझसे बात की थी। इससे पहले मैं दिल्ली यूनिवर्सिटी में सातवें स्थान पर आई थी; गुरुजी ने मेरी द्वितीय स्थान पर तरक्की कर दी।
ऐसा बहुत बार हुआ था कि अपनी पढ़ाई की वजह से मैं गुरुजी के यहाँ नहीं जा पाती थी। एक बार मेरी एक परीक्षा शनिवार के दिन पड़ रही थी और एम्पायर एस्टेट जाने का हमारा दिन बृहस्पतिवार था। मैं अपने पिता के साथ गई लेकिन पहली बार मैं उन्हें 'चलो-चलो' कहकर घर जल्दी चलने के लिए निवेदन करती रही। हमने पहली बारी में ही लंगर कर लिया और जब गुरुजी के पास आज्ञा लेने गए तो वे मुस्कुराकर बोले, "चलो-चलो।" इसे मैंने उनका आश्वासन माना कि मेरी परीक्षा अच्छी होगी।
मेरी बाकी की पाँच परीक्षाएँ शुक्रवार के दिन पड़ीं और गुरुजी ने हमारे दर्शन का दिन बृहस्पतिवार से बदलकर शुक्रवार करके यह सुनियोजित कर दिया कि मैं उनके दर्शन से वंचित ना रहूँ।
लेकिन मैं अपने माता-पिता के साथ सोमवार को मंदिर नहीं जा पाती थी। एक सोमवार गुरुजी मंदिर आए और संगत को अपने हाथों से प्रसाद देकर उन्हें आशीर्वाद दिया। मैंने रोते हुए गुरुजी से शिकायत की कि मैं हर सोमवार मंदिर जाने की कोशिश करती थी लेकिन जिस सोमवार वे मंदिर आए थे, उसी दिन नहीं जा पाई थी। मैं रोती रही और गुरुजी दूरसंवेदन से बोले, "तेरा नंबर आएगा।" उस शुक्रवार जब मैं गुरुजी के यहाँ गई तो हैरान रह गई जब उन्होंने मुझे वही प्रसाद दिया।
उस समय मैं यह नहीं जानती थी कि उस सोमवार गुरुजी मंदिर क्यों आए थे। वे अपनी संगत को एक आखरी बार अपना आशीर्वाद देना चाहते थे; उसके अगले सप्ताह उन्होंने अपना मानव चोला त्याग दिया था।
यह विचार कि अब मैं उनसे फिर कभी नहीं मिल पाऊँगी का मतलब था कि अब शुक्रवार और सोमवार के दिन मेरे लिए निरर्थक हो गए थे। परन्तु गुरुजी ने कुछ और ही सोच रखा था। अगले शुक्रवार, 1 जून को, जो संगत बड़े मंदिर में थी, उनमें से बहुत संगत ने एक चमत्कार अनुभव किया। पूरा मंदिर गुरुजी की दिव्य सुगंध से भर गया और मुझे आश्वासन मिला कि वे सदैव हमारे साथ होंगे।
मैं अभी गुरुजी की महासमाधि के धक्के से उभर भी नहीं पाई थी कि दिल्ली यूनिवर्सिटी की एंट्रेंस की परीक्षाएँ शुरू हो गईं। मेरी दो परीक्षाएँ 9 और 10 जून को होनी थीं परन्तु मैं ना तो मानसिक तौर पर और ना ही पढ़ाई के दृष्टिकोण से उनके लिए तैयार थी। मैंने कंप्यूटर साइंस की परीक्षा दी लेकिन कंप्यूटर ऍप्लिकेशन्स की परीक्षा छोड़ दी क्योंकि हमें 'भोग' की रस्म के लिए 10 जून को गुरुजी के गाँव जाना था। मुझे उम्मीद नहीं थी कि डी यू एम सी एस की मेरिट सूची में मेरा नाम आएगा।
एक महीने बाद जब परिणाम आया तो 83 अंक पाकर मैं दिल्ली यूनिवर्सिटी में पाँचवे स्थान पर थी। यद्यपि मैं एंट्रेंस की परीक्षा में पास नहीं हुई थी, मुझे उत्कृष्टता के मूल पर दाखिला मिला। यह घटना इस बात को दर्शाती है कि हमारे जीवन में वही होता है जो गुरुजी ने हमारे लिए सोचकर रखा होता है।
गुरुजी की उपस्थिति और हमारे लिए उनकी योजना, एक ही सिक्के के दो पहलू प्रतीत होते हैं। लेकिन कभी-कभी उन्हें शारीरिक रूप में ना देख पाना हमारे लिए दुःखदायी हो जाता है। मैं और भी ज़्यादा उदास इसलिए हो जाती हूँ क्योंकि मेरा कॉलेज घर से बहुत दूर है जिसके वजह से मेरे लिए मंदिर जाना मुश्किल हो जाता है। जब मैं बहुत उदास हो जाती हूँ तो मुझे लगने लगता है कि अब गुरुजी मेरे साथ नहीं हैं। एक बार मैं गुरुजी से दूर होने का दुःख सह नहीं पा रही थी और बहुत रोयी। अगली सुबह जब मैंने कॉलेज जाने के लिए बस ली तो उसमें 'गुरु मेरी पूजा' शबद चल रहा था और पूरे सप्ताह मेरी बस में शबद चले!
गुरुजी ने मेरे पिता को नया जीवन दिया
24 सितम्बर, सोमवार के दिन, मैंने एक सपना देखा जिसमें मैं मंदिर में बैठी हुई बहुत रो रही थी। एक आंटी मेरे पास मेरा हाल-चाल पूछने आईं तो मैंने उन्हें कहा कि मेरे पिता अब इस दुनिया में नहीं थे। उन्होंने मुझे आश्वासन दिया कि मेरे पिता को कुछ नहीं होगा और मैंने गुरुजी से अपने पिता की लंबी आयु के लिए प्रार्थना की। मैं रोते हुए जाग गई लेकिन मैंने इस सपने के बारे में किसी को कुछ नहीं बताया। इसके बाद जो हुआ वह यह दर्शाता है कि संगत के जीवन की डोर गुरुजी के हाथों में है।
हमेशा की तरह, उस शाम मेरे पिता अपने स्कूटर पर मंदिर गए। रास्ते में उनके स्कूटर की टक्कर मिट्टी के एक ढेर से हो गई जो सामने आती हुई गाड़ियों की रोशनी की वजह से उन्हें नज़र नहीं आया। वह स्कूटर के साथ हवा में करीब पाँच फीट की ऊँचाई पर उड़कर गिरे। उनकी बायीं टाँग की हड्डी टूटी, कंधे पर अंदरूनी चोट लगी और दोनों कोहनियों और घुटनों में बाहरी चोट लगी। सिर्फ गुरुजी की कृपा और आशीर्वाद के वजह से उस दिन मेरे पिता घर लौटे। मुझे अपने सपने का मतलब तब समझ आया और कैसे गुरुजी के अपार आशीर्वाद ने मेरे पिता का जीवन बचाया।
फिर एक बार, हमारे मंदिर जाने वाले निर्धारित दिन पर मुझे वायरल संक्रमण हो गया। मैं मंदिर जाना चाहती थी लेकिन मुझे डर था कि गुरुजी मेरा कष्ट अपने ऊपर ले लेंगे। इसलिए मैंने एक मूर्खतापूर्ण हरकत कर दी और दवाई दुगुनी मात्रा में ले ली। जब मैं गुरुजी के आगे बैठकर लंगर कर रही थी तो वे मेरी ओर ही देखे जा रहे थे। फिर गुरुजी की तबियत खराब होने लग गई और उन्होंने लंगर के बाद करीब सारी संगत को घर जाने की आज्ञा दे दी। अगले दिन जब मैं उठी तो बिलकुल ठीक थी और मुझे पता चला कि पिछली रात संगत को घर भेजने के बाद गुरुजी ने रक्त की उल्टियाँ की थीं। वे मुझे कष्ट में नहीं देख पाए थे और उन्होंने मेरी तकलीफ अपने ऊपर ले ली। क्या ऐसा प्रेम कहीं और मिल सकता है?
आपका शुक्राना गुरुजी, मेरे पिता को नया जीवन प्रदान करने के लिए और इतने प्रेम और स्नेह से हमारा ख्याल रखने के लिए जो हम कभी आपके लिए नहीं कर पाएँगे। सदा ही, जय गुरुजी!
अनु शर्मा, एक भक्त
मार्च 2008