1996 में डुगरी ग्राम (गुरुजी का जन्मस्थल) के श्री बख्शीश सिंह गुरुजी की शरण में आये। उनकी पुत्री का एक कान का पर्दा क्षतिग्रस्त था जब से वह 1 साल की थी। उसे ज्वर के अतिरिक्त गले में खारिश रहती थी और कान से पस भी बहती थी। ऐसा पिछले 12 सालों से चल रहा था। चिकित्सकों, पंडितों, ज्योतिषियों, बाबा और संतों - सब मार्ग अपना के देख लिए थे पर असफलता ही हाथ लगी थी।
अंततः बख्शीश ने गुरुजी से विनती करने का विचार बनाया। गुरुजी उन दिनों पंचकुला में थे। जब बख्शीश अपनी बेटी के साथ वहाँ पहुँचे तो गुरुजी ध्यान में बैठे थे। एक सेवक ने जब गुरुजी को उनके आगमन का समाचार दिया तो गुरुजी ने उन्हें अगले सप्ताह आने का आदेश दिया। बख्शीश निराश अवश्य हुए क्योंकि उन्हें वहाँ तक पहुँचने में चार घंटे लगे थे पर वह अगले सप्ताह छः बजे आने का विचार बनाकर लौट गये।
अगले सप्ताह जब बख्शीश पहुँचे तो गुरुजी ने उनके आने का कारण पूछा। बख्शीश ने अपनी बेटी की समस्या बता कर गुरुजी से उनकी कृपा के लिए प्रार्थना करी। गुरुजी ने प्रश्न किया कि वह कौनसी कक्षा में पढ़ रही है। व्यथित पिता ने उत्तर दिया कि वह आठवीं कक्षा में है। गुरुजी मुस्कुरा कर बोले, "कल्याण हो गया, जा ऐश कर।" बख्शीश को यह साधारण पर शक्तिशाली वचन अस्पष्ट लगे तो वह खड़े रहे। गुरुजी ने पूछा कि क्या उनको कुछ और चाहिए। बख्शीश के यह पहले दर्शन थे। पिता ने हाथ जोड़कर गुरुजी से उनकी बेटी को लम्बे समय से चले आ रहे कष्टों से निवृत करने की बात दोहराई। गुरुजी के निर्देशानुसार, वह संगत में बैठे और उन्होनें प्रसाद और लंगर भी ग्रहण किया। फिर गुरुजी के आदेशानुसार उनको डुगरी जाने वाली अंतिम बस में बैठा दिया गया।
अगले दिन ही बख्शीश ने अपनी बेटी के रोग में सुधार देखा और थोड़े ही दिनों में वह रोग समाप्त भी हो गया। अब बख्शीश परिवार ने हर सप्ताह के अंत में गुरुजी के दर्शन के लिए आना आरम्भ कर दिया। उनका बस किराये का खर्च चिकित्सक के खर्च से कहीं कम था।
परिवार पर कृपा हुई
वर्ष बीतते गये ; गुरुजी अब दिल्ली आ गये। बख्शीश और उनकी बेटी ने भी दिल्ली आना आरम्भ कर दिया। एक ऐसे ही दर्शन के अवसर पर गुरुजी ने अपने भक्त को अपनी पत्नी और पुत्र को साथ लाने को कहा, जिन्होंने अभी तक गुरुजी के दर्शन नहीं किये थे। यात्रा और घर सम्बंधित समस्याओं के कारण बख्शीश उनको लेकर नहीं आये और अगली बार भी अपनी बेटी के साथ ही आये। गुरुजी ने उनके बारे में पूछा। जब ऐसा कुछ बार हुआ तो गुरुजी ने उनको चेतावनी दी - पत्नी और पुत्र को लेकर आओ।
उनकी पत्नी और पुत्र सतसंग में आये तो गुरुजी ने उनकी पत्नी से उसके रोग के बारे में प्रश्न किया। उनकी पत्नी ने बताया कि उन्हें पेट में दर्द रहता है जिसका कारण रीढ़ की हड्डी की समस्या है। चिकित्सकों की राय में उसका कोई उपचार नहीं था। गुरुजी ने हँसकर उत्तर दिया कि उनके दर्द का मूल कारण तो मानसिक है। अपनी बेटी का विवाह कराने से वेदना समाप्त हो जायेगी।
गुरुजी ने उनको दर्शन के लिए दो सप्ताह में एक बार आने को कहा। गुरुजी के इस गंभीरता रहित कथन से उनकी पीड़ा कुछ ही दर्शनों के बाद समाप्त हो गई। गुरुजी की ऊर्जा ऐसी है। वह अपने सब अनुयायियों से अत्यन्त प्रेम करते हैं और उन सबका भी ध्यान रखते हैं जो संगत के सम्पर्क में हैं, भले ही वह संगत में आकर गुरुजी के दर्शन कर पायें याँ नहीं। उल्लेखनीय है कि बख्शीश के अन्य परिवार के सदस्यों को उन्होनें विशेष रूप से बुलाया।
भक्त को मुक्ति
बख्शीश दिल्ली माह में एक बार आते थे। एक बार गुरुजी ने उनको अपने पास बुलाकर दो सज्जनों से परिचय कराया। वार्ता के दौरान बख्शीश के पिता का उल्लेख आया जो 85 वर्ष के रहे होंगे। वह स्वस्थ थे, उनकी द्रष्टि सामान्य थी और दन्त पीड़ा तक नहीं होती थी। बख्शीश ने कुछ निर्भीक होकर गुरुजी को अपने पिता के रोग के बारे में बताया जो घुटनों से टखनों तक था। चिकित्सक उनके रोग या पीड़ा को कम नहीं कर पाए थे। गुरुजी ने बख्शीश को आश्वासन दिया कि वह चिंता न करें, उनके पिता को रोग से निवृत्ति मिल जाएगी। प्रभु ने यह भी कहा कि यद्यपि चिकित्सक सहायता करते हैं, उन्हें भी अपनी जीविका अर्जित करनी है।
बख्शीश के जाते समय गुरुजी ने एक फूलमाला, जो उनके किसी अन्य भक्त ने उनके चरणों में चढ़ाई थी, उनको दी और कहा कि उसे जल में डालकर उनके पिता उस पवित्र जल से स्नान कर लें। उसके बाद माला को पास के बहते जल में प्रवाहित कर दें। गुरुजी के निर्देश का अक्षरशः पालन हुआ और उनके पिता की वेदना तुरन्त समाप्त हो गई।
इसके अतिरिक्त एक और महत्वपूर्ण घटना हुई। बख्शीश के पिता गुरुजी द्वारा मोहित हो गए। जब उनको भोजन करने को कहा जाता तो वह कहते कि उन्होनें गुरुजी का लंगर ग्रहण कर लिया है। परिवार के सदस्यों ने शीघ्र ही समझ लिया कि परिवार प्रमुख अब पूर्णतः मानसिक रूप से गुरुजी की शरण में पहुँच गए हैं; घर में उनकी उपस्थिति केवल भौतिक है। कुछ समय पश्चात उनके पिता ने अपना शरीर त्याग दिया। उनका अंत अपने पौत्र - पौत्रियों से बात करते हुए अत्यंत शांतिपूर्ण रहा। आज भी बख्शीश अपने स्वप्नों में उनको गुरुजी के सम्मुख नतमस्तक होते हुए देखते हैं।
यह स्पष्ट है कि गुरुजी ने बख्शीश के पिता के अंतिम समय में उनके जीवन की बागडोर अपने हाथ में ले ली थी और उनको अति सुगमता से मृत्यु द्वार से होते हुए स्वर्गलोक तक पार करा दिया।
ट्रेक्टर पर गुरु कृपा
एक कृषक के लिए उसका ट्रेक्टर परिवार के सदस्य की भाँति होता है, अंतर केवल उसकी भिन्न आकृति का है। बख्शीश ने नया ट्रेक्टर खरीदने से पूर्व गुरुजी से पूछा कि कौनसा खरीदा जाए। गुरुजी ने कोई भी नया (पुराना नहीं) ट्रेक्टर खरीदने का सुझाव दिया। बख्शीश ने नये कल - पुर्ज़ों सहित स्वराज ट्रेक्टर खरीदा। उसकी ट्रॉली अत्यंत भारी धातु की बनी हुई थी और पूरे गाँव में अपने प्रकार की पहली थी। चूँकि वह ट्रेक्टर बख्शीश की भूमि से तीन गुना अधिक भूमि पर कार्य करने में समर्थ है, उस पर कभी भी अधिक भार नहीं पड़ता है।
बख्शीश के अनुसार उस ट्रेक्टर पर भी गुरु कृपा है। यह इस सन्दर्भ से स्पष्ट हो जाएगा। बख्शीश के पुत्र को स्वपन आया कि जब वह उसे चला रहा था तो कुछ लोगों ने ट्रेक्टर को रोकने का प्रयास किया। ट्रेक्टर पर बैठे हुए एक व्यक्ति ने उसे ट्रेक्टर रोकने को कहा अन्यथा वह उससे ट्रेक्टर छीन लेंगे। उसने ट्रेक्टर रोक दिया पर उसी समय गुरुजी प्रकट हुए और उन्होंने उसे ट्रेक्टर चलाने का निर्देश दिया। उसने अपना वाहन आगे चलाया तो देखा कि उपस्थित जन समूह ने हटकर उसको जाने का मार्ग दे दिया। बख्शीश के पुत्र ने जब अपने परिवार को यह बात बताई तो उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि गुरुजी ने किसी आने वाली विपदा से ट्रेक्टर की रक्षा की है।
बख्शीश बड़े किसान बने
2004 - 2005 में गुरुजी ने संगत के कुछ सदस्यों को अपने ग्राम डुगरी जाने की स्वीकृति दी। संगत के 30 - 35 सदस्य जब डुगरी पहुँचे तो बख्शीश ने उन्हें लस्सी परोसी। रात को बख्शीश की पत्नी को स्वप्न में गुरुजी ने पूछा कि क्या घर में घी की कमी है? जब उसने नहीं में उत्तर दिया तो गुरुजी ने प्रश्न किया कि केवल लस्सी देकर उसने मक्खन क्यों रख लिया था। वह शर्मिन्दा होकर उठ गई। अगले दिन प्रातः काल उसने यह घटना अपने परिवार के सदस्यों को सुनाई तो उन्होंने अनजाने में की हुई गलती को दोबारा न होने देने का निश्चय किया। अब मौका मिलने पर वह लस्सी मक्खन के साथ ही देते हैं। यद्यपि यह स्पष्ट नहीं है कि गुरुजी ने ऐसा क्यों किया। एक अन्य पक्ष से विचार किया जाए तो जितना अतिथि को दिया जाता है, परिवार उससे कहीं अधिक ईश्वर से प्राप्त करता है। उस परिपेक्ष में बख्शीश भी अब बड़े कृषक हो गए हैं।
पर बख्शीश परिवार पर गुरुजी की अभी और कृपा शेष थी। बख्शीश की एसिडिटी की समस्या के लिए गुरुजी ने उन्हें अभिमंत्रित तांबे लोटे से जल पीने को कहा और वह रोग भी शीघ्र ही समाप्त हो गया।
जब बख्शीश तांबे लोटा लेकर घर लौटे तो उनके पुत्र ने विनोद करते हुए कहा कि उसे छोड़कर घर के प्रत्येक सदस्य को गुरुजी ने कुछ न कुछ दिया है - बहन और पिता को तांबे लोटा, माँ को चित्र और तांबे लोटा - एक वही रह गया था। अगली बार जब वह गुरुजी के दर्शन के लिए पहुँचा तो गुरुजी ने उसे बुलाकर एक चित्र दिया। गुरुजी के इस आकस्मिक प्रतिदान से वह अति चकित और बेहद प्रसन्न हुआ।
बख्शीश परिवार पर गुरुजी की अनुकम्पा यही दर्शाती है कि उनकी अप्रतिबंधित कृपा और संरक्षण सदा भक्त के साथ रहते हैं।
बख्शीश सिंह, डुगरी (गुरुजी का ग्राम)
जुलाई 2007