गुरु गोविन्द दोहु खड़े, काके लागूँ पाय
गोविन्द से गुरु बड़े जो गोविन्द दिखाए
इन पंक्तियों में कबीर सोच रहे हैं कि जब गुरु और भगवान दोनों उनके सामने खड़े हों, तो उन्हें किसके चरण पहले छूने चाहिए। तब उन्हें ज्ञात होता है कि गुरु की कृपा के बिना कोई गोविन्द (भगवान) को पा नहीं सकता। हालाँकि, हमारी स्थिति में तो कोई भ्रम नहीं है: गुरुजी भगवान हैं।
मैंने गुरुजी के बारे में सबसे पहले तब सुना जब मैं अपने मामा, कर्नल (सेवानिवृत्त) एस के जोशी के यहाँ गया। यह 1996 की बात है जब मेरे अंदर का निराशावादी युवक मुझे पूरी तरह से गुरुजी में विश्वास नहीं करने दे रहा था। वह 1997 में अप्रैल का पहला हफ़्ता था जब मुझे चंडीगढ़ में गुरुजी के पहले दर्शन हुए। उन्होंने मुझसे पूछा कि मैं कहाँ से आया हूँ और मैंने उनको बताया की मैं कर्नल जोशी का भांजा हूँ और जयपुर से आया हूँ। उन्होंने अपना हाथ मेरे सिर पर रखा और बोले, "कल्याण हो"। दो दिन बाद जब मैं दिल्ली लौटा तो मुझे नौकरी का प्रस्ताव मिला जिसके बारे में मैं बहुत उत्साहित था। तुरन्त कल्याण, देखा आपने। और यह तब, जब मैंने चंडीगढ़ में चाय प्रसाद और लंगर ग्रहण करने से मना कर दिया था।
गुरुजी के दर्शन के बाद भी मुझमें कुछ ख़ास बदलाव नहीं आया। मुझे उनके सर्व-शक्तिमान होने का ज्ञान हो, इसमें अभी कुछ और समय बाकी था। यकीन मानिए, वह घड़ी भी गुरुजी ही सुनिश्चित करते हैं। इसी बीच, गुरुजी दिल्ली चले गए। मैं अक्सर दिल्ली आया करता था, पर करीब ढाई साल तक मैं गुरुजी के दर्शन के लिए नहीं गया। इस दौरान, मेरी माँ और बहन पूर्ण रूप से गुरुजी को समर्पित हो चुके थे; परन्तु मैं अभी भी पहले जैसा ही था।
मरी माँ और मैं, मेरी बहन के लिए एक योग्य रिश्ते की तलाश में थे पर दो साल तक कुछ नहीं हुआ था। अप्रैल 2000 में हमें किसी का फोन आया, जो आगे जाकर मेरी बहन के ससुर बने और उन्होंने हमें कहा कि वह यह रिश्ता पक्का करना चाहते हैं। मेरी बहन उस समय दिल्ली में थी और उसने लड़के की तस्वीर गुरुजी को दिखाई। गुरुजी सहजता से बोले, "चंगा मुंडा है (अच्छा लड़का है)" और हमारी सारी चिन्ताएँ एक क्षण में दूर हो गयीं। गुरुजी के आशीर्वाद से शादी की तारीख जनवरी 2001 में तय हुई और आगे की घटनाओं से मेरे दृष्टिकोण में परिवर्तन आया।
शादी उस स्कूल के मैदान में होनी थी जहाँ मेरी माँ पढ़ाती थी। केटरर से विचार-विमर्श करने के बाद, हमने वह स्थान निर्धारित कर लिया जहाँ तंदूर रखा जाएगा और जहाँ खाना बनाने का सारा काम होगा। शादी से बस तीन दिन पहले, स्कूल की डायरेक्टर - जो मेरी माँ से गुरुजी के बारे में सुनने के बाद उनकी अनुयायी हो गईं थीं - ने हमें आकर बताया कि गुरुजी उनके सपने में आये थे और उन्हें वह स्थान बताकर गए जहाँ खाना पकाने की सारी व्यवस्था करनी थी। हालाँकि मैंने इस पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया, मेरी माँ ने तुरन्त खाना पकाने का स्थान बदल दिया। शादी बहुत अच्छे से हो गयी और आज भी, छः साल बाद, लोग कहते हैं कि उन्होंने कभी किसी शादी पर इससे ज़्यादा स्वादिष्ट भोजन नहीं किया है।
ये घटनाएँ इस चीज़ पर ज़ोर देती हैं, बल्कि इशारा करती हैं कि गुरुजी सर्वविद्यमान हैं - हमारे जीवन के हर छोटे से छोटे पहलू में और हर समय में। फिर भी, मैं तब भी वही था - निराशावादी और भक्तिहीन।
मेरी बहन के शादी के पन्द्रह दिन बाद, मुझमें बदलाव आया। मैं अपनी मोटर-साइकिल पर कार्यालय से वापस आ रहा था। मैं हाईवे पर था और देर रात थी। अचानक, एक कुत्ता मेरी मोटर-साइकिल से टकराया। मोटर-साइकिल इतनी तेज़ रफ़्तार पर थी कि अगर एक छोटा सा कंकड़ भी पहिये के बीच में आ जाता तो संतुलन बिगड़ जाता। एक बस बिल्कुल मेरे पीछे थी और अगर मैं संतुलन खो बैठता तो वह बस मेरे ऊपर होती और मैं वहीं खत्म हो जाता। पर गुरुजी के आशीर्वाद से मेरा संतुलन नहीं बिगड़ा और मैं बच गया; यह देखकर सड़क पर लोग भौच्चके रह गए। मेरा मन किया कि मैं भगवान को धन्यवाद दूँ, और घर के रास्ते में एक मंदिर में रुककर मैं नतमस्तक हो गया। उसी समय, मुझे गुरुजी की विशिष्ट सुगंध आई।
यह पहली बार था जब सब तर्क (या फिर निराशावाद) मुझे छोड़ गया, और मैं गुरुजी की मानसिक छवि को नतमस्तक हो गया। एक निराशावादी से एक अनुयायी होने का परिवर्तन एक क्षण में हो गया।
दस मिनट में शादी
जल्द ही मेरा तबादला रेवाड़ी (दिल्ली जयपुर हाईवे पर) हो गया और अब मैं गुरुजी के दर्शन के लिए अक्सर आया करता था। अब मेरी माँ को मेरी शादी की चिंता हो रही थी। एक दिन मैं अपनी माँ के साथ अपने मामा के यहाँ था, तब मेरी मामी की ममेरी बहन भी वहीं थी। शाम को हम गुरुजी के दर्शन के लिए गए। लंगर के बाद, जब हम गुरुजी के साथ बैठे थे, गुरुजी ने मुझे बुलाया और उनके चरण-कमल दबाने को कहा। कुछ मिनट बाद, उन्होंने मेरी मामी की ममेरी बहन, जया, को भी कहा। दस मिनट बाद वह बोले, "शादी कर लो"। जोड़ियाँ स्वर्ग में बनती हैं - मैं इस बात को पूरी तरह मानता हूँ। इस तरह मैं और मेरे मामा सांडू बने - एक तथ्य, जो गुरुजी हमें बार-बार याद दिलाते रहते हैं।
मैंने सत्संग में अक्सर यह सुना है कि गुरुजी हमारे सारे विचार जानते हैं, किन्तु वास्तव में इससे कहीं ज़्यादा है।
हमारे सारे विचार उन्हीं के हैं। जो हमारे विचार हैं, वे उस स्रोत के परे कैसे हो सकते हैं? हम कोई भी क्रिया, उस क्रिया के स्रोत के परे कैसे कर सकते हैं? हमारा अस्तित्व पूरे ब्रह्माण्ड के सार से अलग कैसे हो सकता है? बहुत सरल है: हम हैं, क्योंकि वे हैं।
हो सकता है कि हम यह तथ्य जानते ना हों, या स्वीकारते ना हों, किन्तु हमारा अस्तित्व उनके साथ एकात्मकता के कारण ही है। वह कुछ लोग जिन्हें उनके दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ है या जिन्हें गुरुजी अपनी सुगंध का आनंद प्राप्त कराते हैं या जो उनका आशीर्वाद अपने जीवन में महसूस करते हैं, वह बहुत भाग्यवान होते हैं। मैं अपने जीवन का हर वो पल संजो कर रखता हूँ जब मैं उनकी वह विशिष्ट सुगंध महसूस करने के बाद उसका स्रोत ढूँढता हूँ, और फिर एहसास होता है कि उसका स्रोत तो दिव्य है।
मुझे लगता है कि जिन चमत्कारों का श्रेय हम गुरुजी को देते हैं, वह चमत्कार इसीलिए कहलाते हैं क्योंकि वह नामुमकिन होते हैं। मैं गुरुजी के प्रति अपनी निष्ठा यही सोच कर बढ़ाता हूँ क्योंकि मैं यह मानता हूँ कि मैं जो कुछ भी हूँ और मेरे पास जो कुछ भी है (यह दोनों विचार धर्मद्रोही हैं), वह गुरुजी की इच्छा है।
गुरुजी के आशीर्वाद की पुनर्गणना करना तो एक कभी ना खत्म होने वाला अभ्यास है। क्योंकि हमारी स्मृति हमारे जन्म के समय के परे नहीं जा सकती है, मैं यही कहता हूँ कि मुझे गुरुजी का आशीर्वाद प्राप्त हुआ है कि मेरा जन्म इस दुनिया में, इन माँ-बाप के यहाँ हुआ, मुझे ऐसे मित्र मिले, मैं भाग्यवान हूँ कि मेरा ऐसे पालन-पोषण हुआ, मैं भाग्यवान हूँ कि मुझे रोग हुआ और फिर उसका उपचार भी हुआ, मैं भाग्यवान हूँ कि मेरे साथ दुर्घटना घटी और मैं ठीक हो गया, मैं भाग्यवान हूँ कि मुझे अत्युत्तम बहन और जीजा मिले, मैं भाग्यवान हूँ कि मुझे अत्युत्तम पत्नी और प्यारी बेटी है और मैं सचमुच, सचमुच भाग्यवान हूँ कि मुझे गुरुजी का आशीर्वाद प्राप्त हुआ। मैं गुरुजी के आगे नतमस्तक हूँ कि उन्होंने इस जीवन में मुझे अपने दर्शन का अवसर दिया और बस यही चाहता हूँ कि उनकी कृपा हम पर सदैव बनी रहे। मैं उनसे प्रार्थना करता हूँ कि मेरे परिवार को वह अपने चरण-कमलों में रखें। जय गुरुजी।
भावेश पांडे, सीनियर एग्जीक्यूटिव, जयपुर
जुलाई 2007