करीब चार साल पहले हम गुरुजी के यहाँ जलंधर गए। मेरी पत्नी, गुड्डी ने गुरुजी से शिकायत की कि मैं पालथी मारकर बैठ नहीं पाता था। गुरुजी ने मुझे आशीर्वाद दिया और बस बोले, "बैठेगा"। मैं अपनी शादी पर भी पालथी मारकर नहीं बैठ पाया था। गुरुजी से आशीर्वाद मिलने के बाद मैं ऐसा कर पाया।
पिछले कुछ सालों से मेरा प्रोस्टेट आकार में बढ़ गया था। उस कारण मुझे मूत्र रोक पाने में कठिनाई होती, जिसके वजह से मुझे कभी-कभी शर्मिंदगी भी महसूस होती। मुझे इस बात की चिंता थी कि मेरे बड़े भाई, जो डॉक्टर हैं, और जिनका अपोलो हॉस्पिटल में बढ़े हुए प्रोस्टेट का ऑपरेशन हो चुका था। मेरे छोटे भाई को भी एक सौम्य ट्यूमर था जिसका ऑपरेशन न्यू यॉर्क में हुआ था, जहाँ वह रहता था।
हालात और परिवार के कहने पर मैं मई 1998 में हस्पताल जाँच के लिए गया। मेरे पी. एस. ए. ( प्रोस्टेट स्पेसिफिक एंटीजन ) की संख्या 4.15 थी, थोड़ी बढ़ी हुई। जनवरी 1999 में मिलिट्री हॉस्पिटल में जाँच हुई जिसमें पी. एस. ए. की संख्या 6.20 आई, जिसने मुझे चिंतित कर दिया। फिर गुरुजी ने मुझे आशीर्वाद दिया। मेरी हालत में तेज़ी से सुधार आया। मई 1999 में मैं एक और जाँच के लिए गया जहाँ पी. एस. ए. की संख्या 1.589 आई, जिसपर स्पेशलिस्ट को बिलकुल विश्वास नहीं हुआ और वह हक्का-बक्का रह गया।
मैंने चिकित्सकों को बताया कि गुरुजी के आशीर्वाद के अतिरिक्त मैंने और कोई इलाज नहीं किया था। उनके आग्रह पर कि यह संख्या गलत हो सकती थी, मैंने एक प्राइवेट लेबोरेटरी से टेस्ट कराया। मेरी पी. एस. ए. की संख्या 3.34 आई जो सामान्य थी। मैं गुरुजी का बहुत आभारी हूँ।
मुझे पीठ में भी दर्द रहता था। उस समय गुरुजी के आशीर्वाद से, प्रसाद, कीर्तन और लंगर द्वारा, और सत्संग के आध्यात्मिक वातावरण से मेरी वो पीड़ा भी गायब हो गई।
गुरुजी का आशीर्वाद मेरी भाभी, हरबीर और उसकी बेटी रुबीना को भी प्राप्त हुआ। उनका परिवार पिछले नौ सालों से शिकागो में बसा हुआ था और दिसम्बर 1998 के तीसरे हफ्ते में भारत आने वाला था। उनके निकलने से दस दिन पहले जब वह पैकिंग कर रहे थे, हरबीर के ऊपर एक सूटकेस गिर गया। उसका सिर ज़ोर से जाकर दीवार पर लगा और उसे ब्रेन हेमोरेज हो गया। चिकित्सकों ने उन्हें चेतावनी दी कि भारत जाना उसके लिए जानलेवा हो सकता था। उसने यह खतरा मोल लेने का निश्चय किया। धुंध के कारण उनके विमान को दूसरी जगह ले जाया गया। वह अपने संबंधी के घर पहुँची और उसने पाया कि वह बिस्तर से उठ पाने में असमर्थ थी। मेरी पत्नी और मैंने उसके तकिये के नीचे गुरुजी की तस्वीर रखी और उसे गुरुजी का प्रसाद (मिश्री) समय-समय पर देने लगे। दो घंटे बाद हरबीर उठी और बात करने लगी। हम अगले दिन उन्हें गुरुजी के पास लेकर गए और हरबीर संगत में तीन घंटे बैठी। वह खुश भी थी और ठीक भी। रुबीना ने उसे नये साल के क्लब के कार्यक्रम छोड़ कर गुरुजी के यहाँ उनके आशीर्वाद के लिए आने को कहा। उस दिन हम सुबह के दो बजे तक गुरुजी के साथ थे। हरबीर खुश और ठीक लग रही थी।
गुरुजी ने रुबीना को बैचेलर ऑफ डेंटल सर्जरी के पाठ्यक्रम के लिए भी आशीर्वाद दिया। ( गुरुजी मज़ाक में बी. डी. एस. को "बति दन्दां दा सर्वनाश" कहते थे जिसका यथाशब्द मतलब होता है बत्तीस दाँतों को खराब करना। उन्होंने रुबीना को कहा कि उसकी दूसरी बीमारी, अस्थमा, ठीक होने से पहले कुछ समय के लिए और बिगड़ सकती थी।
जैसे गुरुजी ने पहले ही कह दिया था, ऐसा लग रहा था कि हरबीर ठीक हो गई थी, पर रुबीना की हालत और बिगड़ गई। पहली और दूसरी जनवरी को हरबीर ने अपनी सारी दवाइयाँ फेंक दीं और दोनों दिन बहुत खरीददारी की। वह सब कुछ आराम से कर पा रही थी। शिकागो पहुँचकर जब उसने अपनी जाँच करवाई तो पता चला कि उसकी सारी बीमारियाँ दूर हो गई थीं -- यह सब गुरुजी के आशीर्वाद से हुआ।
रुबीना का हाल थोड़ा अलग था। शिकागो पहुँचकर उसे हस्पताल में भर्ती होना पड़ा। थोड़े दिनों बाद चिकित्सकों ने उसे कहा कि उनके पास और कोई दवाई नहीं बची थी जिनसे वह उसका इलाज कर पाते। यहाँ, शाम को, हमने गुरुजी को यह सब बताया। गुरुजी बोले कि उन्होंने पहले ही उसे ठीक कर दिया था। अगली सुबह हमने रुबीना को फोन किया। उसकी हस्पताल से छुट्टी हो रही थी और अगले दिन कॉलेज जाने का सोच रही थी। एक रात पहले उसे सपने में गुरुजी के दर्शन हुए थे और उन्होंने उसे ठीक कर दिया था!
कुलबीर रेखी को भी गुरुजी का आशीर्वाद प्राप्त हुआ। 1968 से उसे हाइपो-थायरॉइड की परेशानी थी। उसका ऑपरेशन हुआ था और वह ठीक थी परन्तु 1995 से उसे फिर से दवाइयाँ लेनी शुरू करनी पड़ी थीं। चार साल बाद, मई 1999 में गुरुजी ने उसे आशीर्वाद दिया। अद्भुत बात यह है कि जब जून में जाँच हुई तो पता चला कि उनकी थायरॉइड की समस्या गायब हो गई थी, जबकि उनके लिए दवाइयाँ लेना एक आजीवन आवश्यकता थी। वे विस्मित थे कि गुरुजी के आशीर्वाद से एक आजीवन समस्या का उपचार हो गया था।
कमांडर बी. एस. रेखी, एक भक्त
दिसम्बर 2009