1983 में, जब गुरुजी जलंधर में थे, 11 साल का छोटू – जैसे गुरुजी उसे बुलाते थे – को पहली बार गुरुजी के दर्शन प्राप्त हुए। तब छोटू, उनकी एक श्रद्धालु, श्रीमती सुधा अहूजा, के यहाँ काम करता था। उसने जलंधर में गुरुजी को बहुत चमत्कार करते हुए देखा था, चाहे वो अपने श्रद्धालुओं को अमृत देना हो, या फिर बीमारियों को निदान करना और उनका उपचार मात्र चम्मच से करना हो। पर क्योंकि छोटू का अपना ऐसा कोई अनुभव नहीं था, उसने ना कभी गुरुजी को समझा और ना ही उन्हें अपनाया। कुछ समय बाद, अहूजा परिवार दिल्ली आ गया और उन्हें फिर गुरुजी की उपस्थिति में होने का अवसर मिला जब गुरुजी 1995 में दिल्ली आये।
छोटू को चाबियाँ कैसे मिलीं
छोटू, जो ड्राइवर का काम करता था, दिल्ली के रास्ते बहुत कम जानता था इसलिए अक्सर गलती करता। एक बार छोटू को श्रीमती सुधा को गुरुजी के मंदिर ले जाने को कहा गया। हमेशा की तरह, उसे रास्ता निश्चित रूप से पता नहीं था और श्रीमती सुधा के बताने पर ही वहाँ तक पहुँच सका। जैसे ही वे मंदिर पहुँचे, गुरुजी ने सुधा से उनके ड्राइवर को कहकर घर से कुछ लाने को कहा। यद्यपि सुधा ने गुरुजी से कहा कि छोटू को रास्ता ठीक से नहीं पता था, गुरुजी ने आग्रह किया कि छोटू जाए। छोटू को भेजा गया और उसे खुद को और बाकी सबको भी अचरज हुआ जब वह 40 मिनटों में ही वापस आ गया।
सुधा को लगा कि छोटू को कम-से-कम एक रास्ता तो याद हो गया था। लेकिन उस रात घर जाते समय फिर छोटू ने एक गलत मोड़ ले लिया। आने वाले दिनों में भी, वह गुरुजी के मंदिर पहुँच नहीं पाया और ना ही वहाँ से वापस आ पाया। सुधा गुस्सा थीं कि क्यों वह घर नहीं पहुँच पाता था जबकि गुरुजी के कहने पर तो वह पहुँच गया था। परंतु इस सवाल में ही इसका जवाब भी छुपा था। छोटू अपने आप नहीं पहुँचा था; गुरुजी ने उसका मार्ग दर्शन किया था।
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1996 में, गुरुजी पंजाब गए हुए थे और छोटू बीमार पड़ गया। उसे बहुत तेज़ बुखार था और वह दो दिन तक बिस्तर से उठ भी नहीं पाया था। उसने अपने दूसरी मंज़िल के घर से उतर कर चिकित्सक के पास अपने स्कूटर पर जाने का निश्चय किया। जैसे ही वो नीचे पहुँचा, वह बेहोश हो गिर पड़ा। अपने घर के दरवाज़े तक पहुँचते हुए वह दो बार लड़खड़ाया। फिर भी उसने अपने स्कूटर पर जाने का सोचा। जैसे ही वह स्कूटर पर निकला, गुरुजी की कृपा से, उसने बहुत अच्छा महसूस किया और चिकित्सक तक सकुशल पहुँचा। उसे रक्त जाँच और कुछ और जांच कराने को कहा गया। परन्तु अब उसे परिणाम से डर लग रहा था क्योंकि उसे लंबे समय से धूम्रपान करने की आदत थी। उसके जांच के परिणाम आश्चर्यजनक थे। गुरुजी की कृपा से, सब रिपोर्ट् ठीक आई थीं।
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गुरुजी 1997 में दिल्ली वापस आए। तब तक छोटू गाड़ी चलाना छोड़ चुका था क्योंकि उसको दिल्ली में गाड़ी चलाना बहुत मुश्किल लगता था। गुरुजी तब एम्पायर एस्टेट में विराजमान थे और उन्हें किसी के यहाँ जाना था। सुधा का स्थायी ड्राइवर उस दिन छुट्टी पर था इसलिए मजबूरन, और गुरुजी की आज्ञा लेकर, छोटू को गाड़ी चलानी थी। छोटू थोड़ा हिचकिचा रहा था क्योंकि उसने कुछ सालों से गाड़ी चलाना छोड़ दिया था, परन्तु गुरुजी ने उसकी गाड़ी चलाने की योग्यता को सराहा। फिर गुरुजी ने छोटू को निर्देश दिया कि वह दोबारा गाड़ी चलाना शुरू करे और उसे एक बहुत सक्षम ड्राइवर बनने का प्रोत्साहन दिया। हैरानी की बात है कि तीन साल तक छोटू के पास ड्राइविंग लाइसेंस नहीं था, लेकिन एक बार भी उसे इसका दंड नहीं भरना पड़ा। अन्त में गुरुजी ने खुद उसका लाइसेंस कुछ ही घंटों में बनवाया।
क्योंकि छोटू प्रतिदिन गुरुजी के सम्पर्क में था, उसने बहुत सारी अदभुत घटनाएँ देखीं। वह अविनाशी गुरु स्वयं संगत को लंगर परोसते और संगत हमेशा तृप्त होकर लंगर करती। वह लोग जो साधारणतः घर पर दो ही रोटियाँ खाते, बिना किसी परेशानी के चार-पाँच रोटियाँ खा लेते। कभी-कभी संगत के लिए गुरुजी खुद चाय बनाते, और बिना नापे चीनी और चाय पत्ती मर्तबान भरकर डालते। फिर भी चाय हमेशा बढ़िया बनती, ना चीनी अधिक मात्रा में होती और ना ही चाय पत्ती।
फिर भी, छोटू ने कभी गुरुजी के आगे माथा नहीं टेका था।
गुरुजी ने छोटू की माँ के प्राण बचाए
एक दिन छोटू एक बुरी खबर लेकर मंदिर पहुँचा: छोटू की माँ गंभीर रूप से बीमार थीं। छोटू परेशान था। उस शाम गुरुजी, जो बाहर जा रहे थे, छोटू को अपने साथ ले गए और उन्होंने पता किया कि छोटू क्यों परेशान था। फिर गुरुजी ने छोटू को घर वापस जाने का निर्देश दिया क्योंकि उनको लगा कि ऐसी परिस्थिति में छोटू को अपनी माँ के पास जाना चाहिए। घर वापस पहुँचकर छोटू ने अपना सामान बाँधा, चाय प्रसाद लिया और तुरंत ही निकल पड़ा। अभी वह कॉलोनी के गेट तक ही पहुँचा था, जब उसने एक और प्रिय भक्त, सुदाम, को जल्दी में अपनी ओर आते देखा। उसने आकर कहा कि गुरुजी छोटू को वापस बुला रहे थे। गुरुजी ने उसे प्रसाद का एक डिब्बा दिया और बोले, "तूँ भी की याद करेंगा, जा लैजा आहा प्रसाद। चार दिनां विच्च मुड़ आईं। (यह प्रसाद साथ ले जा, तू भी क्या याद करेगा। चार दिन में वापस आ जाना।)" छोटू यह सोचते हुए गया कि क्या वह उस रात दिल्ली से जा भी पाएगा, चार दिन में वापस आने की तो क्या ही बात है।
छोटू को उस दिन की आखिरी बस पकड़ने की कोई संभावना नहीं दिख रही थी। परन्तु उसे हैरानी हुई जब उसने देखा कि उसके लिए एक बस इंतज़ार कर रही थी। उसमें सिर्फ 15-20 यात्री बैठे हुए थे और जैसे ही छोटू बस में चढ़कर बैठा, बस चल पड़ी . . . और वह अगली सुबह अपने गाँव में था। वह अपनी माँ से मिला, जो बहुत बीमार थीं। यहाँ तक कि उन्होंने पिछले 10-12 दिनों से कुछ खाया भी नहीं था। छोटू ने उन्हें चिकित्सक के पास लेकर जाने का उसी समय इंतज़ाम किया। उनकी जांच हुई और उन्हें कुछ दवाईयाँ लिखकर दी गईं। छोटू को याद आया कि उसके पास गुरुजी का प्रसाद था और उसने अपनी बहन को वह माँ को देने के लिए कहा। उस प्रसाद के डिब्बे में पंजीरी थी (शुद्ध घी से बनी एक भारतीय मिठाई), जो एक तंदुरुस्त व्यक्ति को भी पचाने में मुश्किल होती है। यह सोचना ही अकल्पनीय था कि छोटू की माँ उसे पचा पाएँगी। परन्तु, उसने वह थोड़ी सी माँ को चखाई। कुछ मिनटों बाद, छोटू ने चाय माँगी तो सबको हैरानी हुई जब उसकी माँ ने भी चाय पीने की इच्छा प्रकट की। रात को जब सब खाना खाने बैठे, छोटू की माँ ने आधी रोटी माँगी और खाई।
अगली सुबह उनकी हालत में तेज़ी से सुधार देखा गया और वह पूरा नाश्ता कर पायीं। दोपहर के खाने पर तो सब विस्मित रह गए। छोटू ने अभी कुछ ही चमच्च चावल खाये थे, और उसकी माँ ने चावल की पूरी प्लेट खा ली थी। गाँव के लोगों ने छोटू को बधाई दी और उसकी माँ के स्वास्थ में इतने ज़बरदस्त सुधार का श्रेय उसे दिया। छोटू जानता था कि यह किसने किया था, पर वह चुप रहा क्योंकि उसे पता था कि गाँव के लोग यह नहीं समझ पायेंगे कि इसके पीछे गुरुजी का हाथ था।
छोटू अगले दिन उठा तो उसने देखा कि उसकी माँ कमरे में नहीं थी। वह परेशान होकर उन्हें ढूँढ़ने लगा। उसकी बहन ने उससे कहा कि चिंता करने की कोई बात नहीं थी। करीब दो किलोमीटर दूर, चढ़ाई पर एक दुकान थी जहाँ गेहूँ पीसने लेकर जाना था और उसकी माँ ने वह काम करने का निश्चय किया था। गेहूँ की बोरी उठाकर उसकी माँ उस दुकान के लिए निकली थी। छोटू अपनी बहन पर गुस्सा हुआ और विस्मित था कि उसने माँ को इतना वज़न उठाकर और वह भी इतनी दूर कैसे जाने दिया था। वह भागा-भागा दुकान पर गया।
उसकी माँ वहाँ बैठी हुई थी। वह ज़िद कर रहीं थीं कि वह बिल्कुल ठीक हैं और उनकी चिंता करने की कोई अवश्यकता नहीं थी। घर वापस पहुँचकर छोटू ने चाय और नाश्ता किया और थोड़ी देर आराम करने के लिए लेट गया। आधी नींद में, छोटू को गुरुजी के दर्शन हुए और वह बोले, "हुन तां मन्दा है ना सानू (अब तो तू मानता है मुझे)।" छोटू भौंचक्का था कि कैसे सैकड़ों किलोमीटर दूर होते हुए भी गुरुजी उस तक पहुँच गए थे। चार दिन में वापस आने का गुरुजी का निर्देश उसे याद आया। वह उठा, उसने अपना सामान बाँधा, और सबको यह कहकर कि उसे दिल्ली में एक ज़रूरी काम याद आ गया था, तुरन्त वहाँ से निकल पड़ा। अगली सुबह वह दिल्ली वापस पहुँचा और जैसे ही उसने किचन का दरवाज़ा खोला, गुरुजी ने किचन के अन्दर झाँक कर देखा। छोटू को अन्दर आता देख गुरुजी बोले, "हुन तां मन्दा है ना सानू। " ठीक वही शब्द जो छोटू ने सैकड़ों किलोमीटर दूर सुने थे। पहली बार, उसने गुरुजी के आगे माथा टेका !
उस दिन से, गुरुजी की कृपा छोटू की माँ पर निरंतर बरसती रही, और उनकी कोई भी बीमारी के बारे में गुरुजी को जैसे ही बताया जाता वह तुरन्त उसका उपचार कर देते।
31 मई 2007 को गुरुजी की महासमाधि के बाद, माँ के गिरते स्वास्थ के बारे में जब छोटू को पता चला तो उसे बहुत भारी झटका लगा। वह बहुत अकेला और असहाय महसूस करने लगा; उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह किसके पास मदद के लिए जाए। परन्तु, हमेशा की तरह, उसे तुरन्त ही सहायता मिली। अगले ही दिन उसकी माँ के स्वास्थ में बहुत सुधार आया, यह साबित करते हुए कि गुरुजी की कृपा और संरक्षण अभी भी कायम हैं। सही अर्थों में छोटू यह पाता है कि जब भी वह किसी बीमारी की खबर सुनता है, गुरुजी तुरन्त उस स्थिति को काबू में कर लेते हैं और सब सामान्य हो जाता है।
दुःखद घटनाओं की पीड़ा घटी
एक बार दोपहर के समय छोटू मेन हॉल में आराम कर रहा था, बिल्कुल गुरुजी के कमरे के बाहर, जब गुरुजी ने आकर उसे उठाया और पानी का गिलास लाने को कहा। जब छोटू गिलास में पानी डाल रहा था तो गिलास टूट गया – एक संकेत कि कुछ बुरा होने वाला था। अगली ही दोपहर जो हुआ उससे छोटू सोच में पड़ गया। आधी नींद में उसने देखा कि गुरुजी उसके पास आते हैं और कहते हैं, "घर नहीं जाना कंजरा? जा घर हो आ।" परन्तु छोटू घर नहीं गया और कुछ दिनों बाद उसे पता चला कि गाँव में उसके घर की छत गिर गई थी। जब गुरुजी को इस बात का पता चला, वह बोले: "चंगा होया, कल्याण हो गया तेरा (जो हुआ अच्छा हुआ, तेरा कल्याण हो गया)।" छोटू को तो छत का गिरना एक खर्चा नज़र आया और गुरुजी के शब्द उसे उनकी बेपरवाही लगी। यह तो बाद में उसकी समझ में आया कि गुरुजी किस 'कल्याण' की बात कर रहे थे। छत सुबह के 6-6:30 बजे गिरी थी – छोटू की माँ उसकी दो साल की बेटी को शौचालय ले गयी, उसके 15 मिनट बाद। अपने घर फोन करने के बाद छोटू को यह बात पता चली। जब वह फोन करके वापस आया, गुरुजी ने उसे पूरी बात क्रम में बताने को कही। तब गुरुजी बोले कि अगर उसकी माँ और बेटी बाहर नहीं गए होते तो उस नुक्सान का कभी भरपाया नहीं हो पाता; उनकी कृपा से नुक्सान बहुत कम हुआ था। और तो और, 10-15 दिन बाद जब छोटू अपने घर वापस गया तो वह एक और घर खरीद पाया, जो उसकी माँ को पसंद था। यहाँ तक कि, उसने अपने परिवार को वहाँ शिफ्ट करा कर अच्छे तरीके से बसा भी दिया। यह सब गुरुजी के दिव्य आशीर्वाद के बिना असंभव था।
एक और घटना घटी जिससे छोटू को अपने गुरु के भगवान होने का बोध हुआ। जब छोटू और उसकी पत्नी दिल्ली में थे, उसकी पत्नी गर्भवती हुई। अच्छी देखभाल के लिए छोटू ने अपनी पत्नी को गाँव वापस भेज दिया। जब बच्चे के जन्म की तिथि नज़दीक आई तो वह अपनी पत्नी के पास जाना चाहता था पर गुरुजी ने उसे जाने की आज्ञा नहीं दी। उन्हें बेटी हुई, परन्तु वह जन्म से ही अस्वस्थ थी और बहुत रोगों से पीड़ित थी। छोटू फिर छुट्टी पर जाना चाहता था, परन्तु गुरुजी उससे बोले कि उसे घर जाने की कोई अवश्यकता नहीं थी। करीब दो महीने बाद छोटू को पता चला कि उसकी बेटी चल बसी। वह बहुत दुःखी हुआ। उसने यह बात गुरुजी को बतायी तो वे बोले: "चल चंगा होया; कलेश मुक्या (जो हुआ अच्छा हुआ; तुम्हारी परेशानियाँ खत्म हुईं)।" गुरुजी के ऐसा कहने पर छोटू को बहुत गुस्सा चढ़ा; उसने निश्चय किया कि वह गुरुजी से बात नहीं करेगा। परन्तु गुरुजी ने छोटू को उसी समय अपने परिवार से बात करने को कहा। छोटू ने अपनी माँ से बात की और उन्होंने वही बात दोहराई जो गुरुजी ने सैकड़ों मील दूर बैठे हुए बोली थी। छोटू की माँ ने उसे बताया कि उसकी बेटी जन्म से ही खराब स्वास्थ और अत्यन्त कमज़ोरी की वजह से बहुत पीड़ा में थी। उसकी माँ बोली कि उस नन्ही सी लड़की के लिए अपना शरीर छोड़ना बेहतर था बजाय इसके कि वह इतनी पीड़ा सहे। जब छोटू को पूरी बात का पता चला तो उसे अपने अनुचित गुस्से पर बहुत पछतावा हुआ। तब गुरुजी ने छोटू को बताया कि उन्होंने उसे गाँव जाने की छुट्टी इसलिए नहीं दी थी कि उसे अपने बच्चे से बहुत लगाव ना हो जाए।
यह घटनाएँ हमें यह दर्शाती हैं कि गुरुजी जो भी हमारे लिए सोचते हैं वह हमारे भले के लिए ही होता है और उसमें हमारा ही फायदा होता है, यद्यपि उस समय हमें भले ही ऐसा प्रतीत ना हो। इसलिए, गुरुजी का पूरा आसरा पाने के लिए ज़रूरी है कि हम उन्हें पूर्ण रूप से सम्पर्ण करें।
पुत्र प्राप्ति का आशीर्वाद
एक बार छोटू अपने गाँव गया और गुरुजी की आज्ञा लेकर अपनी पत्नी को दिल्ली लेकर आया। जब पति-पत्नी गुरुजी के यहाँ आये, गुरुजी ने छोटू की पत्नी को देखा और बोले, "आ गई कल्याण करौन; सूट पाया कर जे मुंडा लैणा है तां (तुम मेरा आशीर्वाद लेने आई हो; सल्वार कमीज़ पहना करो अगर पुत्र का आशीर्वाद चाहिए)।" छोटू की पत्नी ने कभी सल्वार कमीज़ नहीं पहनी थी, वह हमेशा साड़ी ही पहनती थी, जैसा छोटू के गाँव में रिवाज़ था। बहुत लोगों ने कोशिश की थी कि वह सल्वार कमीज़ पहने, पर उसने नहीं पहनी थी। अगले दिन जब छोटू अपने कमरे में गया तो उसने देखा कि एक अपरिचित महिला उसकी ओर पीठ करके बैठी हुई थी। उसने बाहर आकर लोगों से अपनी पत्नी के बारे में पूछा; लोगों ने उसे कहा कि उसकी पत्नी कमरे में ही थी। वह फिर भीतर गया तो उसने देखा कि वह महिला तो उसकी पत्नी ही थी। वह अपनी पत्नी को पहचान नहीं पाया था क्योंकि उसने सल्वार कमीज़ पहनी हुई थी। निस्सन्देह, वह गर्भवती हुई।
एक बार गुरुजी छोटू को सुबह 11 बजे मार्किट ले गए। अचानक 2 बजे के करीब, गुरुजी ने छोटू को घर वापस जाने को कहा क्योंकि उसकी पत्नी घर पर अकेली थी। छोटू ने वैसा ही किया पर उसे यह नहीं पता था कि उसे ऐसा करने के लिए क्यों कहा गया था। छोटू ने घर वापस जाकर खाना खाया, चाय पी और वापस निकला गुरुजी को लेकर आने के लिए। करीब आधा किलोमीटर जाने के बाद उसे ध्यान आया कि कम-से-कम अपनी पत्नी को तो देख ले क्योंकि गुरुजी ने विशेष रूप से उसे अपनी पत्नी को देखने के लिए वापस भेजा था। वह वापस गया तो उसने देखा कि उसकी पत्नी बहुत दर्द में थी। उसे प्रसव का दर्द हो रहा था और उसे उसी समय पास के हस्पताल ले जाया गया।
छोटू ने अभी मुश्किल से गाड़ी पार्क ही की थी जब एक नर्स ने आकर उसे यह खुशखबरी दी कि उसे बेटा हुआ था। छोटू को समझ आया कि कैसे गुरुजी ने निर्देश दे कर उसे वापस भेजा था। तत्पश्चात कदम-कदम पर गुरुजी ने पति-पत्नी का मार्गदर्शन किया, उन्हें निर्देश दिया कि चिकित्सकों के कहने पर ही हस्पताल से डिस्चार्ज लें और किसी बात की जल्दी ना करें। और तो और, पहले चालीस दिनों के लिए माँ और बेटे दोनों के लिए निर्देश दिया गया कि वे दूसरी मंज़िल के अपने कमरे से निचली मंज़िल तक भी नहीं उतरेंगे। 41 दिन पर पति-पत्नी और उनका नवजात शिशु गुरुजी का आशीर्वाद लेने आए और गुरुजी ने शिशु का नाम वरुण रखा।
छोटू को ड्राइविंग की सीख मिली
गुरुजी ने छोटू को कुछ और लोगों के साथ दिल्ली से डुगरी (गुरुजी का जन्मस्थान) जाने का निर्देश दिया। जिस दिन उन्हें वापस आना था, उससे एक रात पहले गुरुजी ने फोन किया और उन्हें सुबह जल्दी ही वहाँ से चल पड़ने का निर्देश दिया ताकि वह गुरुजी के यहाँ सुबह 10 बजे तक वापस पहुँच जाएँ। रात को वह समय से सोये और सुबह 3 बजे उठ गए। परन्तु, उन्होंने पास में ही मलेरकोटला जाने का और फिर वहाँ से दिल्ली के लिए निकलने का निश्चय किया। मलेरकोटला में नाश्ता करने से वे खुद को रोक नहीं पाए और उस वजह से उन्हें देर हो गई। अन्त में छोटू एक और व्यक्ति के साथ, दिल्ली के लिए 8 बजे निकला। करीब 10 बजे, जब वे नैशनल हाइवे 1 पर थे, ना जाने कहाँ से एक ट्रॉली सर्विस लेन में बायीं ओर से दूसरी ओर को जाते हुए सड़क के बीचों-बीच आ गई। ड्राइवर ने अपनी गाड़ी (ह्युंडई एक्सेंट) रोकने की पूरी कोशिश की, पर वह रोक ना सका और ट्रॉली में जा टकराया। टक्कर इतनी ज़ोर से हुई कि ट्रॉली उलट गई। पर छोटू और उसका साथी सुरक्षित थे। गाड़ी ट्रॉली के बीच वाले पहिये से जाकर टकरायी थी; बहुत आसानी से वह ट्रॉली के नीचे जा सकती थी जिससे गाड़ी में बैठे हुए लोगों की मौत हो जाती। परन्तु, गुरुजी की कृपा से वे बिलकुल सुरक्षित थे। वहाँ पर पुलिस आई और गाड़ी को रस्सी से खींचकर दिल्ली ले जाने का प्रबन्ध किया गया क्योंकि गाड़ी चला कर लेकर जाने की हालत में नहीं थी।
जब गुरुजी को इस घटना का पता चला तो वह बहुत परेशान हुए। जब छोटू गुरुजी के यहाँ रात को पहुँचा तो गुरुजी ने उसे उनके निर्देश की गंभीरता ना समझने के लिए डाँट लगाई।
गुरुजी के शब्द भगवान के शब्द होते हैं; वह भगवान का हुक्म होते हैं। गुरुजी के शब्दों की अवहेलना करना खुद को खतरे में डालना है। छोटू ने यह बात खुद को मुश्किल में डालकर सीखी, परन्तु यह विचारणीय है कि फिर भी गुरु की कृपा ने उसे असली अनर्थ से बचाया।
परन्तु छोटू ने दोबारा ऐसी ही गलती की। गुरुजी छोटू के साथ ड्राइव पर जाने के लिए बाहर आए थे। क्योंकि गुरुजी ने छोटू को पहले ही बता दिया था, वह गुरुजी की गाड़ी लेकर गेट पर तैयार खड़ा था। गाड़ी एकदम चकाचक साफ थी, क्योंकि गुरुजी सफाई बहुत पसन्द करते थे। गेट पर आकर गुरुजी ने उस गाड़ी की ओर देखा जो थोड़ी दूरी पर खड़ी थी। परन्तु वह गाड़ी साफ नहीं की गई थी। यह सोचकर कि उसे साफ करने में कम-से-कम 20 मिनट लगेंगे, छोटू ने गुरुजी से पूछा कि क्या वह उस गाड़ी में जाना चाहेंगे जो गेट पर तैयार खड़ी थी। गुरुजी ने उस गाड़ी में जाने के लिए हाँ कर दी और उसमें बैठ गए।
गुरुजी का निर्देश ना मानने की अपनी गलती का छोटू को एहसास हुआ और वह उस गलती को सुधारना चाहता था। उसने गुरुजी से पूछा कि क्या वह दूसरी गाड़ी में जाना चाहेंगे। गुरुजी बोले कि इसके बारे में दोबारा सोचने का कोई फायदा नहीं, क्योंकि जो गाड़ी तैयार थी उसमें वह बैठ चुके थे। इसके बाद जो हुआ वह आश्चर्यजनक था। गुरुजी को जहाँ जाना था वहाँ तक तो छोटू आराम से गाड़ी चलाकर ले गया, परन्तु वापस आते समय, छोटे मंदिर से करीब 10 किलोमीटर दूर, गाड़ी रुक-रुक के चली।
वापस पहुँचकर, छोटू ने वर्कशॉप फोन किया जहाँ से गाड़ी आई थी और उन्हें बहुत ज़ोर की डाँट लगाई। अगले दिन सर्विस सेंटर से एक इंजीनियर को उस मसले की जाँच के लिए भेजा गया। जब वह इंजीनियर गाड़ी को टेस्ट ड्राइव के लिए लेकर गया, तो गुरुजी की गाड़ी बिना किसी दिक्कत के चली। छोटू थोड़ा विस्मित हुआ, इसलिए एक्सपर्ट को साथ बिठाकर वह गाड़ी चलाकर ले गया। गाड़ी बिलकुल ठीक चली; छोटू को शर्मिन्दगी महसूस हुई। वापस आकर जब उसने गुरुजी को यह सारी बात बतायी, गुरुजी बोले, "महापुरषां दे वचन नहीं मोड़ी दे (महापुरुषों के बोले गए शब्दों के विरुद्ध कभी नहीं जाते)।" उसने हाथ जोड़े और अपनी गलती पर अफसोस किया।
सदा ही दयालु और स्नेहमय जो वे हैं, गुरुजी ने हमेशा छोटू को अपनी छत्र-छाया में रखा। छोटू और संगत का गुरुजी से यही निवेदन है कि गुरुजी हमेशा ही उन्हें अपने संरक्षण में रखें।
छोटू, एक भक्त
मार्च 2008