ॐ नमः शिवाय गुरुजी सदा सहाय
तेरे कवन कवन गुण कह कह गावां
तूँ साहिब गुणी निधान
तुम्हरी महिमा बरन न साको
तूं ठाकुर ऊँच भगवाना
हम गुरुजी के पास अप्रैल 2005 में आए। हमें एक मित्र ने उनके बारे में 2002 में ही बता दिया था, पर, जैसा कहते हैं ना, गुरुजी के पास कोई तभी आ सकता है, जब उनकी इच्छा हो।
2005 में हम बॉम्बे में रहते थे और अक्सर हमारा दिल्ली आना होता क्योंकि दिल्ली हमारे लिए घर था। एक महिला भक्त ने, जिससे हम एक पार्टी में मिले, हमें गुरुजी के बारे में याद दिलाया। उन्होंने हमसे गुरुजी के बारे में बात की और यह उनका विश्वास था कि "निस्संदेह यह आपका 'बुलावा' होगा और आपको एम्पायर एस्टेट अवश्य जाना चाहिए।"
हम गए, परन्तु पहले दिन हम लंगर के लिए नहीं रुके। दूसरे दिन हम फिर गए, जैसे कोई चुम्बक हमें अपनी ओर खींच रहा हो। हम भाग्यशाली थे कि गुरुजी ने हमसे बात की। उन्होंने हमसे पूछा की किसने हमें यहाँ भेजा था और वह चाहते थे कि अगले दिन (रविवार) हम फिर से आएँ। हमने उन्हें बताया कि अगले दिन हम हवाई जहाज़ से बॉम्बे वापस जा रहे थे तो वह बोले, "टिकट कैंसिल करा ...... ब्लेसिंग नहीं लैनी?" उन्होंने हमें तांबे का लोटा भी लेकर आने को कहा। उन्होंने वह लोटा मेरी पत्नी के लिए अभिमंत्रित किया और अगली सुबह हम बॉम्बे लौटे। हम उन भाग्यशाली लोगों में से थे जिन्हें गुरुजी का आशीर्वाद प्राप्त हुआ, उसकी असल मूल्य और गहराई जानने से भी पहले। उस समय हम एक बहुत ही सामान्य परिवार थे, बिना कोई मुख्य समस्या के; गुरुजी ने हमें आशीर्वाद दिया और हमारी वो परेशानियाँ दूर कर दीं जिनके बारे में हमें जानकारी भी नहीं थी।
अप्रैल 2005 के बाद, मैं हमेशा दिल्ली में अपनी मीटिंग बृहस्पतिवार या शुक्रवार को रखने की कोशिश करता ताकि मैं गुरुजी के दर्शन कर सकूँ। जब मई 2005 में पहली बार मैं उनके पास वापस गया, और लंगर के बाद रुका, गुरुजी ने मेरी ओर देखा और बोले, "तू फिर आ गया मुड़के (तू फिर से वापस आ गया)।" और जब मैंने उनसे कहा कि दिल्ली में मेरी मीटिंग थी इसलिए मैं उनके दर्शन के लिए आया था, वह बोले: "बस देखदा चल हुन तू (तू बस अब देखते जाना)।" जितना हो पाता उतना हम उनके पास आते रहे। उनमें एक खिंचाव था। जब भी हम दर्शन के लिए एम्पायर एस्टेट आते, हम बहुत संतुष्टटा और आनन्द का अनुभव करते - जैसे हम किसी और ही दुनिया में पहुँच गए हों।
गुरुजी ने हमें संदेश भिजवाया कि हम उनके जन्मदिन के उत्सव पर 7 जुलाई को बड़े मंदिर आएँ। यह एक बहुत ही विशेष अनुभव था और उसके बाद हम बहुत ही धन्य हो गए। गुरुजी हमें "बॉम्बे वाले" बुलाते थे, और जब हम उनसे आज्ञा लेते वह हमेशा हमें "जाओ ऐश करो" कहकर आशीर्वाद देते। तब हमने उनके आशीर्वाद की गहराई नहीं समझी, पर अब हमें समझ आता है कि बॉम्बे में जो हम तीन साल रहे वो क्यों इतने खुशहाल और सुखद निकले।
गुरुजी के 'रक्षा कवच' की हमें पहली बार जुलाई 2005 में अनुभूति हुई। जुलाई 26 को मुंबई में इतना अधिक पानी भर गया था जैसा पहले कभी नहीं हुआ था। पूरे शहर में सभी को बहुत परेशानी झेलनी पड़ी, पर हमें कोई परेशानी नहीं हुई। हमारे अधिकतर मित्रों को किसी ना किसी परेशानी का सामना करना पड़ा, पर हम सुरक्षित और उनके आशीर्वाद के सरंक्षण में थे। हमारी बेटी स्कूल से वापस घर सुरक्षित पहुँच गयी जबकि उसी स्कूल में हमारे मित्रों के बच्चों को रात स्कूल की बस में ही काटनी पड़ी। मेरे बहुत सहकर्मी अगली दोपहर को घर पहुँचे, पर मैं उसी शाम घर पहुँचा, बस करीब एक घंटा देर से। जिस कालोनी में हम रहते थे, उस में पानी और बिजली की कोई समस्या नहीं हुई। यहाँ तक कि हमारे यहाँ काम करने वाले भी नियमित रूप से काम पर आते रहे। एक हफ्ते में ही हमारी ज़िन्दगी बिलकुल सामान्य रूप से चल रही थी जबकि पूरा शहर सामान्य अवस्था में आने के लिए संघर्ष कर रहा था।
गुरुजी अन्तर्यामी हैं और कुछ भी उनसे छुपा नहीं है, यह बात हमें जल्दी ही स्पष्ट हो गयी थी। मेरे एक प्रारंभिक दर्शन के दौरान, एक महिला का सत्संग सुनते समय वह बोले, "साई भगत, तू वी सुन (साई बाबा के भक्त, तू भी सुन)।" मैंने संगत में कभी उल्लेख नहीं किया था कि मैं कई बार शिरडी होकर आया था और मुझे शिरडी साई बाबा में आस्था थी; वह यह जानते थे।
एक बार मेरी पत्नी की एक छोटी सर्जरी होनी थी। हमने यह बात गुरुजी को बतायी भी नहीं थी, परन्तु अगली बार जब मैं मुंबई से गुरुजी के दर्शन के लिए आया, वह बोले: "हो गयी तेरी वाइफ ठीक?"
मुंबई में रहते हुए हम हमेशा ऐसे अवसरों की ताक में रहते कि हम गुरुजी के दर्शन के लिए दिल्ली आ सकें और उन्होंने हमें ऐसे आशीर्वाद दिया जैसे एक पिता देते हैं। मुझे याद है कि हम दिल्ली उतरते और हवाई जहाज़ में ही हमें उनकी सुगन्ध आ जाती। लालची बच्चों की तरह हमेशा हमारी कोशिश रहती कि जितना हो सके हम उनके सिंहासन के करीब बैठें। जब हम संगत से लौटते, तब भी कुछ समय तक हमारे कपड़े उनकी सुगन्ध से महकते रहते, पर अपनी नादानी में हम यह सोचते कि ऐसा हमारा उनके करीब बैठने के कारण है। एक बार, गुरुजी के अपने कमरे से बाहर आने से पहले ही मुझे पहली मंज़िल पर भेज दिया गया और लंगर के बाद बैठने का मौका भी मुझे नहीं मिला। उस दिन उनकी सुगन्ध मेरे कपड़ों में अगली सुबह तक रही - एक स्पष्ट चिह्न कि यह उनका आशीर्वाद था ना कि उनके करीब बैठने के कारण।
अगस्त 2006 में कभी, गुरुजी ने हमें "मुंबई वाले" बुलाना बंद कर दिया। मेरी कम्पनी मुझे सिंगापुर या इंगलैंड भेजने के विचार में थी। सारे कार्य पूर्ण हो गए थे और इंगलैंड से मेरा परमिट आ गया। हमारे अगले दर्शन पर मेरी पत्नी ने गुरुजी को यह बात बतायी। "तू की करना है लंदन जाके," वह बोले, "तू ऐथे आजा दिल्ली, मेरे कोल (तू लंदन जाकर क्या करेगा, तू मेरे पास दिल्ली आजा)।" हम थोड़ा निराश हुए पर हमारे लिए यह बात बिलकुल स्पष्ट थी कि हमें उनका कहा मानना है। जल्द ही मुझे दिल्ली में एक नौकरी का प्रस्ताव आया और मैं गुरुजी के दर्शन के लिए दिल्ली आया। उन्होंने मुझे दूर से देखा और बोले, "मिल गयी तैनू नौकरी दिल्ली दी, हुन तू आजा (तुझे दिल्ली में नौकरी मिल गयी, अब तू इधर बस जा)।" उसके बाद, सब कुछ बस अपने आप होता गया मानो जैसे हमारे जीवन की डोर उनके हाथों में थी। उनके आशीर्वाद से हमारी बेटी का दाखिला देहरादून में एक अच्छे स्कूल में हो गया। 13 अप्रैल 2007 को हमने मुंबई से अपने सारे नाते तोड़ दिए और दिल्ली उतरते ही सीधे बड़े मंदिर गए।
दिल्ली आने के बाद, हम नियमित रूप से उनके दर्शनों के लिए जाते, लेकिन लंगर के बाद रुकने का अवसर हमें कम ही मिलता। एक शाम एम्पायर एस्टेट से वापस जाते हुए, हम गाड़ी में बात कर रहे थे और हमारी इच्छा थी कि लंगर के बाद गुरुजी हमें रुकने की अनुमति दें। उन्होंने हमें इसकी अनुमति दी और जब हमने उनका धन्यवाद किया तो वह बोले, "मैं गाड़ी विच सुन लया सी (मैंने गाड़ी में तुम्हारी बातें सुन ली थीं)।"
हम धन्य हैं की हमें उनके चरण कमलों में रहने का अवसर मिला। हम यह भी अनुभूति है कि उन्होंने हमें परेशानियों से बचा के रखा है; परेशानियाँ आने से पहले ही वह उनका समाधान कर देते हैं। उनके महासमाधि लेने के बाद भी हम उनके सुरक्षा कवच के तहत हैं। एक बार देहरादून से लौटते समय, गाज़ियाबाद के पास हमारी गाड़ी को एक ट्रक ने आकर मारा। हमने धातु उखड़ने की आवाज़ सुनी और हमारी गाड़ी में बहुत ज़ोर का झटका लगा। किन्तु हम पूरी तरह सुरक्षित थे; हमें एक खरोंच तक नहीं आयी थी। गाड़ी भी वापस चलाकर लेकर जाने की हालत में थी। परन्तु जिसने भी गाड़ी देखी, वह विस्मित रह गया कि किसी को भी चोट नहीं पहुँची थी।
हमारा ड्राइवर जो हमें एम्पायर एस्टेट लेकर जाता था, बहुत निराश हुआ कि उसे गुरुजी के दर्शन का अवसर प्राप्त नहीं हुआ। गुरुजी की महासमाधि के बाद उसने गुरुजी का स्वरुप माँगा। उसकी पत्नी को दूसरा बच्चा होने वाला था। क्योंकि उनका पहला बच्चा सीज़ेरियन से हुआ था, वे चिंतित थे, और चिकित्सकों ने इस बार भी सर्जरी होने की ज़्यादा संभावना बतायी थी।
उसकी पत्नी ने गुरुजी से नियमित रूप से प्रार्थना करनी शुरू की। एक शाम अगरबत्ती जलाते समय उसने मन में सोचा: "गुरुजी मैंने तो आपको देखा भी नहीं।" अगली सुबह गुरुजी ने उसे दर्शन दिए, आशीर्वाद दिया और उसे बोले कि उसे लड़का होगा और वो भी सामान्य प्रसव से। एक महीने के अंदर पति-पत्नी को लड़का हुआ – निस्सन्देह, सामान्य प्रसव से।
हमने हमेशा अपने आस-पास उनकी उपस्थिति और मार्गदर्शन महसूस किया है और वह हमेशा हमारा ख्याल रखते हैं।
गरीब निवाज गोसइयां मेरा माथै छतर धरै
ऐसी लाल तुझ बिन, तुझ बिन कौन करे
देविन्दर चावला, एक भक्त
अप्रैल 2008