मुझपर गुरुजी का दिव्य सम्मोहन

गगनदीप कौर, मई 2010 English
मैं गुरुजी और बड़े मंदिर से नयी-नयी जुड़ी थी, पर यकीन कीजिए कि मुझे ऐसा महसूस होता था जैसे कि मैं कभी इस जगह से दूर नहीं थी और मैंने हमेशा से गुरुजी को जाना है।

बड़े मंदिर में गुरुजी के पास आने से पहले मैं एक सामान्य व्यक्ति थी जिसकी ख्वाइशें रोटी, कपड़ा और मकान तक सीमित थीं। मैं दुनियावी दौड़ में लगी हुई थी, साधारण इच्छाओं को पूर्ण करने की कोशिश में, भले ही वे इच्छाएँ आत्मकेन्द्रित नहीं थीं। ना मैं सोनी, ना गुन पल्ले। भगवान में कभी भी मेरा निष्ठावान विश्वास नहीं था। मैं बस ज़िन्दगी की प्रवाह में बहती चली जा रही थी, उन बातों को मानते हुए जो मेरे मेरे माता - पिता, शिक्षकों और मेरे अनुभवों ने मुझे सिखाई थीं।

मेरे पति ने मुझे गुरुजी के यहाँ जाने के लिए प्रोत्साहित किया और मुझे उनके यहाँ लेकर गए। मेरे पति के एक मित्र थे जो गुरुजी के भक्त थे। मेरे पति गुरुजी के यहाँ पूरी श्रद्धा के साथ गए, मैं नहीं। हम फरवरी 2009 में गए थे। बड़े मंदिर में हर जगह गुरुजी की खुशबू अनुभव करते हुए हमें खुशी और आश्चर्य भी हुआ और हम बहुत भावुक हो गए। हमें उनकी शक्तिशाली और स्वागत करती हुई उपस्थिति महसूस हुई जिससे हम बार-बार मंदिर आने के लिए प्रेरित हुए, और सितम्बर 2009 से हम हफ़्ते में एक बार वहाँ नियमित रूप से जा रहे हैं।

दिव्य मुस्कुराहटें

नये साल की पूर्वसंध्या पर मैं सोच में थी कि मुझे बड़े मंदिर जाना चाहिए या नहीं। हालाँकि मैं पूरे मन से वहाँ समारोह में जाना चाहती थी, फिर भी मैं दुविधा में थी। इसी कश्मकश में, नये साल की पूर्वसंध्या पर शाम को करीब छः बजे मैंने अपने दफ़्तर का काम ख़त्म किया। मेरे एक बड़े अफ्सर, हमारी कम्पनी के वाइस प्रेसिडेन्ट, मेरे बॉस से उनके कमरे में मिलने आए। मेरे बॉस इस अफ्सर के सीनियर हैं और मैं उन्हें सीधे रिपोर्ट करती हूँ। मैंने वाइस प्रेसिडेन्ट से पूछा कि क्या वो बड़े मंदिर जा रहे थे जिस पर वह बोले कि शायद वो थोड़े समय के लिए जाएँगे। उन्होंने यह भी कहा कि जब से बड़े मंदिर में कुटिया के पास उन्हें गुरुजी के दर्शन हुए थे वह उनमें मानने लगे थे। उन्होंने मुझे गुरुजी की तस्वीर वाला पेन और लॉकेट दिखाया और यह भी बोले कि उन्हें यह सब बिना माँगे ही मिला था।

पता नहीं क्यों पर मैं और उदास हो गई। अपने दिल की गहराईओं से मैंने मन में गुरुजी से शिकायत की, गुरुजी भी बस वड्डे लोकां दे हैं। दर्शन सिर्फ विशेषाधिकृत दर्जे के लोगों को ही प्राप्त होते हैं।

मैं दफ़्तर से निकली पर 31 दिसम्बर होने की वजह से बहुत ट्रैफिक थी। मैं 7.30 बजे घर पहुँची, अपने रोज़ के समय से एक घंटा देर से। मेरे परिवार ने मुझे गुरुजी के समारोह में जाने के लिए राज़ी किया और मेरे पति ने कहा कि मुझे श्रद्धा रखनी चाहिए और व्यर्थ ही कुछ सोचना नहीं चाहिए। हम बड़े मंदिर के लिए निकले, रात को करीब 9.30 बजे हमने दर्शन किए और करीब 10 बजे हम हॉल के अंदर थे। फिर हम बाहर समारोह देखने गए।

मैं संगत हॉल में दायीं ओर आँखें बंद करके बैठी हुई थी। उस रात मुझे ऐसा लग रहा था जैसे कि मैं किसी और ही दुनिया में पहुँच गई थी, एक बिलकुल मंत्रमुग्ध और सम्मोहित कर देने वाला एहसास था। मैं अपने आप को भूल गई, मुझे अपने आस - पास किसी भी चीज़ का एहसास नहीं रहा, मैंने साँस लेना बंद कर दिया और मैं बस देख पा रही थी। जब मैंने गुरुजी की यथार्थ आकार की तस्वीर की ओर देखा तो मुझे ऐसा लगा जैसे वो मुझे देखकर मुस्कुरा रहे थे। धीरे-धीरे उनकी मुस्कान मुझ में भरने लगी, होंठ साथ-साथ होने लगे, उनका चेहरा प्रेम, कृपा और आशीर्वाद से भरा हुआ था; उनका चेहरा हर क्षण रूप बदल रहा था; आँखें सजीव थीं और जगमगा रही थीं; कान उग्र थे; दाँत - सफेद, यथार्थ और हिलते हुए थे। मैं उन्हें सुन नहीं पा रही थी पर पूरी कोशिश कर रही थी कि उनके होंठ पढ़ सकूँ। गुरुजी बिलकुल स्पष्ट नज़र आ रहे थे, अपना वास्तविक रूप दर्शाते हुए, जीवित, मुझे अपने दिव्य दर्शन देते हुए - मेरा छोटा सा दिमाग बस यही समझ पा रहा था। मेरी आँखें गुरुजी महाराज, दिव्य मालिक पर टिकी हुई थीं, मैंने आस-पास संगत पर नज़र डाली तो सब कुछ सामान्य ही लग रहा था। मैंने वापस गुरुजी पर नज़र डाली तो सब कुछ दिव्य लग रहा था। मैंने आँखें मलीं, अपने बैठने की जगह और मुद्रा बदली और हॉल में पीछे और फिर आगे जाकर बैठी। पर गुरुजी ने उस दिन मुझे चुना था और वह बस मेरे लिए थे। मैंने अपने परिवार की ओर देखा तो वह बाहर चलने के लिए मुझसे निवेदन करने लगे। मैंने उनको बाहर जाने के लिए कहा क्योंकि मैं गुरुजी से जुदा नहीं होना चाहती थी, कहीं ऐसा ना हो कि गुरुजी के समुद्रगामी अस्तित्व और चेहरे से प्रकट होता हुआ अमिश्रित प्रेम और दिव्य सम्मोहन टूट जाए। उस रोज़, रात को एक बजे तक, जब तक मंदिर खुला था और मैं वहाँ थी, मुझे गुरुजी के दर्शन होते रहे।

मैं यह बताने या लिखने में हिचकिचा रही थी। पर मैं यह इसलिए लिख रही हूँ क्योंकि मैंने यह गुरुजी से समझा कि उनकी सारी संगत उनके लिए समान है। मैंने मन में उनसे जो शिकायत की, वो उन्होंने सुन ली। उन्होंने मेरे मूर्खतापूर्ण और व्यर्थ ख्याल दूर किए। उन्होंने मेरी सोच बदली और और अपने वास्तविक रूप से मेरा परिचय करवाया। मैंने शुरू से गुरुजी से उनके दर्शन ही माँगे थे और नये साल के तोहफे के रूप में मुझे उनके दर्शन प्राप्त हुए। तब से मेरे मन की अभिलाषा और मौन निवेदन यही है कि गुरुजी सदैव मुझे अपने दिव्य दर्शन प्रदान करते रहें।

गुरुजी मेरा ह्रदय छूते हैं

अभी हाल ही में, 6 मार्च 2010 को हमारे साथ एक और अद्भुत अनुभव हुआ।

जब हम उस शनिवार, बड़े मंदिर गए तो हम गुरुजी के लिए दो सुन्दर गुलाब के फूल लेकर गए। मुझे नहीं पता उन्होंने दो फूल ही क्यों लिए, क्योंकि खरीदने से पहले मैंने सोचा था कि टोकरी भर के फूल लेकर जाऊँगी और उनकी गद्दी के पास रखूँगी। पर वो दो गुलाब के फूल हमने उनकी समाधि के पास रखने का निश्चय किया। वह हमने ज्योत के करीब रख दिए क्योंकि हम उन्हें ज़मीन पर नहीं रखना चाहते थे। जब हमने वो फूल रखे तो एक भक्त ने हमें थोड़ी कठोरता से कहा कि वो गलत जगह थी और हमें फूल ज़मीन पर रखने चाहिए। मैंने उसी समय वो फूल उठाकर, समाधि से थोड़ा दूर ज़मीन पर रख दिए। उन भक्त ने फिर थोड़ी कठोरता से हमें वो फूल समाधि के आस-पास ऊँचे स्थल पर रखने को कहा। ऐसा करते हुए अनजाने में मैं स्तंभ के नीचे की चौंकी को पार कर गई। इस पर वो भक्त नाराज़ हो गए और बोले कि समाधि एक पवित्र स्थान है और उसे हाथ लगाने की अनुमति नहीं थी। मैंने माफी माँगी और माथा टेक कर वहाँ से हम निकल गए।

मैं और मेरी बेटी बहुत समय तक परेशान रहे और काफ़ी समय तक मैं इस घटना के बारे में सोचती रही। मैं यह सोच रही थी कि हमें इस बात से अवगत कराकर और निर्देश देकर वो भक्त तो अपना कर्तव्य कर रहे थे। पर अपने मन के किसी कोने में मैं इस बात का विरोध और शिकायत कर रही थी।

आगामी बुधवार, यानि 10 फरवरी को मुझे गुरुजी की स्पष्ट परिकल्पना नज़र आई। मुझे बड़े मंदिर में गुरु नानक देव जी, साईं बाबा, शिवजी और शेरां वाली माता ऐसे नज़र आए जैसे कोई स्लाइड शो चल रहा हो। और फिर वो सब हमारे गुरुजी महाराज में समा गए, जो रेत में से प्रभावशाली और शानदार ढंग से उठे। यह परिकल्पना मुश्किल से क्षण भर के लिए रही। इसके एकदम बाद मैंने मंदिर के आस-पास एक खुला मैदान देखा। वहाँ गाड़ियाँ आ रही थीं; मैंने रेशम की लाल रंग की साड़ी पहनी हुई थी, और बड़े मंदिर के मुख्य द्वार पर हाथ जोड़े खड़ी थी। फिर यह परिकल्पना समाप्त हो गई।

मैं उठकर अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गई पर इस परिकल्पना के बारे में सोच रही थी। मुझे समझ आया कि जो खाली मैदान मैंने देखा था वो बड़े मंदिर की पार्किंग थी और मेरे लिए गुरुजी का संदेश एकदम स्पष्ट था। मुझे वहाँ वो लाल साड़ी जो मेरे पास थी, पहनकर जानी थी (वो साड़ी मैंने एक महीने से इस्त्री करके तैयार रखी हुई थी पर उसे दफ़्तर पहनकर जाने का किसी न किसी कारणवश समय नहीं मिल रहा था)। मुझे यकीन नहीं था कि इतने कम समय में मैं उस दिन बड़े मंदिर जा पाऊँगी या नहीं, पर गुरुजी की इच्छा मेरे लिए हुक्म था। फिर मैं सोच में पड़ गई कि क्या मुझे उसी समय सुबह को जाना चाहिए या शाम को? मुझे दफ़्तर में अपने बचे हुए काम याद आए और मैंने पहले अपने दफ़्तर जाने का निश्चय किया और वही लाल साड़ी पहनकर मैं पहले दफ़्तर गई। 12:30 बजे तक मेरा काम बस खत्म ही था, मेरे बॉस दफ़्तर में नहीं थे और मैं नॉएडा से बड़े मंदिर के लिए निकल पड़ी।

बड़े मंदिर पहुँचते ही मैंने देखा कि समाधि के स्थान पर हलचल थी। समाधि की अच्छे से सफाई हो रही थी और उसकी छत को पानी से धोया जा रहा था। मुझे पता चला कि बुधवार का दिन समाधि की सफाई करने का दिन होता है। कहने की ज़रूरत नहीं है कि मैंने भी समाधि सेवा में हिस्सा लिया और ऐसा करने में गुरुजी महाराज की समाधि को जी भरके छूआ।

मुझे एहसास हुआ कि मेरे दिव्य गुरुजी, तीनों लोकों के सर्वज्ञानी मालिक, सबको नज़राना देने वाले सबसे बड़े दाता, ने मुझे उनकी समाधि छूने का सबसे पावन नज़राना दिया। मुझे उनके मंदिर के खुले और बिना किसी रोक-टोक के दर्शन मिले, मेन हॉल में उनकी तस्वीर के, शिव मूर्ति के, उनके कमरे के, उनकी कुटिया के और बाकी सब स्थानों के भी जो भी मैं अपनी आँखों से देखकर अपने हृदय में सदा के लिए समा सकी। दो घंटों तक मैं सब कुछ छूती रही, उसका आनन्द उठाती रही और परमानन्द में मगन होकर अपने दफ़्तर और फिर घर वापस गई। बाद में मुझे पता चला कि महाशिवरात्रि के समारोह के उपलक्ष में उस दिन यह खास सेवा थी।

अगर गुरुजी महाराज मेरा मार्ग दर्शन नहीं करते तो मुझे कभी पता नहीं चलता कि बुधवार के दिन समाधि सेवा होती है, मैं कभी वहाँ नहीं जाती और मुझे ऐसे बहुमूल्य अनुभव प्राप्त नहीं होते। इससे मुझे यह भी पता चला कि गुरुजी सब जानते हैं - बड़ी चिंताएँ हों या छोटी, हमारी भोली-भाली शिकायतें, सब कुछ उन तक अछूती पहुँचती हैं। गुरुजी हमारा हृदय और अन्तरात्मा छू लेते हैं। हृदय से निकला हुआ एक निर्मल और भोला-भाला ख्याल ही काफ़ी होता है उन्हें छू लेने के लिए। वे हमें अन्दरूनी तौर पर तृप्त कर देते हैं और हमें ठीक कर देते हैं, और हमारी अन्तरात्मा उनकी ही प्रतिबिम्ब बन जाती है।

गुरुजी ने मेरे जेठ को बचाया

पाँच ही महीनों में मैं गुरुजी की पूरी तरह से दीवानी हो गई हूँ। पर मेरे साथ जब यह घटना घटी तब तक मैंने अपने ससुराल वालों को गुरुजी के बारे में नहीं बताया था। हालाँकि मेरे ससुराल वाले हमारे घर के पास ही रहते हैं, दफ़्तर में व्यस्त रहने की वजह से मैं उनसे अक्सर नहीं मिल पाती हूँ। महीने में एक बार मैं उनके यहाँ जाती हूँ और बाकी समय हमारी फोन पर बात होती है।

मेरे ससुराल में परिवार में चार सदस्य हैं, मेरे जेठ, देवर, भाभी और सास। मेरा मायका और ससुराल "संशोधित" पर बहुत श्रद्धालु सिख हैं। हमने उनसे अभी तक गुरुजी के बारे में बात नहीं की थी और हमें सही समय का इंतज़ार था।

मेरे जेठ ने शादी नहीं की है और अमेरिका से आने के बाद वो एक निवृत्त और निष्क्रिय जीवन व्यतीत कर रहे हैं। उन्हें कई बीमारियाँ हैं। वो डायबिटीज़ के मरीज़ हैं, उनकी आँखों की दृष्टि सीमित है क्योंकि चार बार उनकी आँखों का लेज़र ऑपरेशन हो चुका है; दायीं टाँग बुरी हालत में होने की वजह से वह ठीक से चल नहीं पाते हैं।

मेरे जेठ का कमरा, घर की सीढ़ियों के बगल में है, और वेस्टर्न-स्टाइल बाथरूम के पास है। अक्सर वो रात को शौचालय का इस्तेमाल करने के लिए उठते हैं।

यह सब मैं पृष्ठभूमि के तौर पर, हालात का वर्णन करने के लिए बता रही हूँ।

29 मार्च 2010 को मुझे गुरुजी की परिकल्पना दिखी। गुरुजी ने एक अत्यन्त शानदार पीले रंग का चोला पहना हुआ था और अपने अनोखे अंदाज़ में मेरे ससुराल के घर की सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर जा रहे थे। हमारे अलावा घर में और कोई नहीं था। ऐसी अनपेक्षित जगह पर गुरुजी को अचानक आए देखकर मैं खुश और हैरान भी हुई। चढ़ने के लिए अभी गुरुजी को चार सीढ़ियाँ बाकी थीं कि गुरुजी अन्तर्ध्यान हो गए। मैं उन्हें ढूँढ़ने के लिए दौड़ी पर जितने अचानक गुरुजी आए थे वैसे ही अन्तर्ध्यान भी हो गए। मैंने उन्हें बहुत ढूँढ़ा पर वह नहीं दिखे। मैंने सीढ़ियों से नीचे देखा तो सीढ़ियों के तले पर मुझे एक कमरा नज़र आया जिस पर भारी पर्दा लगा हुआ था। मैं चकित थी। फिर सारा दृश्य बदल गया। अब मेरा घर था। गुरुजी काले चोले में मेरे सामने थे और मुस्कुरा रहे थे। मुझे उनके ऐसे तीन 'स्नैपशॉट' दर्शन हुए और फिर उनकी परिकल्पना गायब होती गई।

मैंने अपने परिवार को यह सब बताया पर किसी को भी इस सपने का मतलब समझ नहीं आया।

छः दिन बाद मैं सुबह तीन बजे उठ गई और मुझे दोबारा नींद नहीं आ रही थी। आदत अनुसार मैं 4 बजे बिस्तर से उठी, मैंने स्नान किया और अपनी दिनचर्या के लिए तैयार हो गई। मैंने गुरुजी महाराज और गुरु नानक देव जी के आगे दिया जलाया और पूजा की। उस दिन मेरा मिज़ाज बहुत अजीब था। अपने गुरुओं के आगे मैं बहुत माँगें रख रही थी। मैंने प्रार्थना की, "गुरुजी, आप तो सर्वगुण सम्पन्न, सर्वशक्तिमान हैं। मन की सब बातें जानते हैं। मैं भी इंसान हूँ और आपकी हर रोज़ पूजा करती हूँ। जब आप मेरे मन में बैठे हैं तो सब जानते होंगे। आप में शक्ति है तो मेरे मन की हर इच्छा आज पूरी कर दीजिए।" इससे पहले मैंने कभी प्रार्थना में कोई माँग नहीं की थी। मैं अशान्त थी। मैंने क्यों उनसे यह माँगा था और क्यों मैंने इन शब्दों का प्रयोग किया था? मैं अपने आप को ही नहीं समझ पा रही थी। पर अब जो भी हो, ये शब्द तो मेरे मुँह से निकल चुके थे। माथा टेक कर अभी मैंने एक कदम ही पीछे लिया था कि मेरा मोबाइल बजा।

बिना कुछ सोचे मैंने फोन उठाया। मेरी बड़ी भाभी फोन पर थीं और बोलीं कि मेरे जेठ 14 तीव्र ढलान वाली सीढ़ियों से गिर गए थे। सीढ़ियों पर लगी हुई लोहे की ग्रिल को वह पकड़ नहीं पाये थे। सीढ़ियों के तले पर वह उन्हें सदमे की हालत में मिले थे। उनके घुटने से खून बह रहा था और सीढ़ियों के तले के पास वाले कमरे में उन्हें ले जाया गया था। मेरे देवर घर पर अकेले थे और उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करें। भाभी ने मुझे मेरे पति को वहाँ भेजने को कहा और मेरे पति फौरन निकल पड़े।

वो सीढ़ियाँ जिससे मेरे जेठ गिरे थे और जिस कमरे में उन्हें ले जाया गया - वह मैं गुरुजी की परिकल्पना में पहले ही देख चुकी थी।

स्वभावतः घर में सब परेशान थे। वे मेरे जेठ को तुरन्त डॉक्टर के पास ले जाना चाहते थे पर मेरे जेठ ने मना कर दिया। मैंने उन्हें सुबह 5:30 बजे फोन करके मेरे जेठ को गर्म पानी का सेक देने को कहा क्योंकि उनका कंधा सूज गया था और मैंने अपने परिवार वालों को उन्हें डॉक्टर के पास जाने के लिए मनाने के लिए कहा। उन्हें सिर पर कान के पीछे तीन-चार घाव हो गए थे और घुटने पर भी चोट आई थी। वह दर्द में थे पर आराम से सो रहे थे।

अगले दिन, छः तारीख को शाम को वह डॉक्टर के पास गए। एक्स-रे से पता चला कि उन्हें कंधे और दायीं पसली पर हेयरलाइन क्रैक था। डॉक्टर ने कहा कि प्लास्टर की कोई ज़रूरत नहीं थी। और उससे भी ज़रूरी बात, सिर पर चोट नहीं लगी थी। और उसके अगले दिन जब डॉक्टर ने उनकी जाँच की, तो सिर के पीछे की चोटें ठीक हो चुकी थीं। उन्हें दर्दनाशक गोलियाँ और कैल्शियम लेने के लिए कहा गया।

ऐसा कैसे सम्भव था कि एक बूढ़ा और बीमार व्यक्ति, थोड़े भारी वज़न का, 14 सीढ़ियों से नीचे गिरा, उसका सिर सीढ़ियों पर कई बार लगा, पर उसे कोई बड़ी चोट नहीं पहुँची? यह सब गुरुजी के हस्तक्षेप से हुआ था और मेरे सपने का यही मतलब था।

सबसे दयालु और सदैव दानी गुरुजी महाराज उन्हीं सीढ़ियों पर चढ़े थे। अपने दिव्य चरण कमलों के महज़ एक छूअन से उन्होंने एक जानलेवा घटना रोक दी। उन्होंने उन चार लोगों को (जिन्हें मैंने सपने में देखा था) जीतने नहीं दिया। वह चार लोग मेरे जेठ को अपने कन्धों पर उनकी अन्तिम यात्रा पर ले जाने वाले थे।

ऐसा सिर्फ भगवान ही कर सकते हैं, उनके लिए भी जो गुरुजी के बारे में जानते तक नहीं हैं।

गुरुजी की दयालुता अद्भुत और मर्मस्पर्शी है। सीढ़ियों पर और घर में कहीं और नहीं दर्शन देकर उन्होंने पहले ही मुझे उनके बारे में आगाह कर दिया था। उन्होंने मुझे सीढ़ियों के पास वो कमरा दिखाया जिस में गिरने के बाद मेरे जेठ को लिटाया गया। उन्होंने नींद से मुझे उस समय जगाया जिस समय मेरे जेठ गिरे, ठीक तीन बजे सुबह को। और मैंने गुरुजी से वही प्रार्थना की जो गुरुजी चाहते थे कि मैं करूँ क्योंकि उस दिन मेरे मुँह से निकले हुए शब्द निश्चित रूप से मेरे नहीं थे। मैंने वो शब्द खुद सोच कर नहीं कहे थे।

यह सत्संग टाइप करते समय भी मैं अपने शरीर में हमारे गुरुजी महाराज, स्वामी की शक्तिशाली और स्नेहमयी कम्पन महसूस कर रही हूँ, जो मुझे झिंझोड़ रही है और आश्वासन दे रही है कि मैं कभी भी उनकी सहज योग्यता में अपना विश्वास ना टूटने दूँ, किसी भी प्रकार के हल के लिए उनके पास ही जाऊँ, और अपने हृदय, चित्त और शरीर से उनसे सीधा सम्बन्ध जोड़ूँ। अपनी आँखें खोलिये और देखिये हम सबके लिए बिना किसी शर्त के उनकी अथाह शक्ति, सर्वोच्च क्षमता और अनन्त प्रेम को सदा, सदा के लिए।

जय गुरुजी

गगनदीप कौर, एक भक्त

मई 2010