आस्था का अमृत

गौरी सिंगला, जुलाई 2007 English
गुरुकृपा का वर्णन करने के लिए यदि मुझे एक लाख जिह्वाएँ भी दी जाएँ तो वह अपर्याप्त होंगी। उनकी अनुकम्पा, प्रेम और संरक्षण के सन्दर्भ, सब की गणना करना असंभव है। प्रथम दर्शन के अवसर से अब तक मैं उनके बारे में उनसे सीख रही हूँ। आज भी, किसी पर गुरुकृपा का सन्दर्भ सुन कर यही प्रतीत होता है कि उनके समक्ष हम सब बालक हैं, सीख रहे हैं।

नवोदय

यह घटना अगस्त 1998 की है। एक दिन मेरे पति अपने कार्यालय से पहले वापस आ गये और बोले कि वह अपने मित्र विंग कमांडर चोपड़ा के साथ गुरुजी के पास जा रहे हैं। उस समय वह किसी संत, सन्यासी या महात्मा पर विश्वास नहीं करते थे, अतः उनका यह निर्णय सुन कर विस्मय हुआ। संध्या को छह बजे जाकर वह अर्ध रात्रि के पश्चात् वापस आये। उनके लौटने पर मैं पूरा विवरण सुनने को उत्सुक थी। अतः घर आने के बाद जब वह बैठ गये, मैंने उन पर प्रश्नों की बौछार कर दी। क्या गुरुजी उपदेश देते हैं, भविष्य बताते हैं अथवा जीवन की दुविधाओं को दूर करने के लिए रत्न या मन्त्र देते हैं? मेरे पति का उत्तर मेरी आशा के प्रतिकूल था। थोड़े से शब्दों में उत्तर देते हुए उन्होंने कहा कि गुरुजी ऐसा कुछ नहीं करते हैं, उनके यहाँ पर गुरबानी के शबद बजते हैं।

उसके बाद हम सोने लगे और मैंने अपने पति का यह अनुभव एक बीती हुई घटना समझा। मेरा विचार था कि अगले दिन उन्हें पिछली संध्या की बात याद भी नहीं रहेगी। मेरे अचम्भे की कल्पना कीजिये जब मेरे पति ने मुझे अपने कार्यालय से फोन पर कहा कि वह गुरुजी के यहाँ जा रहे हैं और उन्हें आने में देर हो जायेगी। जब वह पिछली रात्रि की भांति देर से आये तो मैंने उनसे एक प्रश्न किया कि ऐसी कौन सी शक्ति है जो आपको वहाँ ले गयी। उनका उत्तर सरल था, "वहां पर जो मुझे मिला उसे शब्दों में वर्णन करना कठिन है, उसको केवल अनुभव कर सकते हैं।" उत्सुकतावश अगले दिन मैंने सपरिवार वहाँ जाने का निर्णय ले लिया।

गुरुजी के द्वार पर

मेरे पति के तीसरे दर्शन के अवसर पर पूरा परिवार उनके साथ गया। गुरुजी के स्थान से 20 - 30 मीटर दूर से ही तीव्र सुगन्ध आने लगी। जब हमने उस कक्ष में प्रवेश किया, जहाँ गुरुजी बैठे थे, वह सुगन्ध चारों ओर थी। पहली बात जो मेरे मन में आयी कि इन सज्जन ने इतना तेज और अधिक इत्र लगाया हुआ है कि वह सुगन्ध पूरे कमरे में फैल रही है, निश्चित रूप से यह कोई बने ठने, दिखावटी गुरु हैं। मेरे पति के वर्णन करने पर भी, गुरुजी के प्रथम दर्शन मेरे मानसिक चित्रण से बिलकुल भिन्न था।

किन्तु अभी अकल्पनीय होना शेष था। जैसे ही गुरुजी के चरण स्पर्श कर के मैं उठ रही थी, गुरुजी बोले कि गुड़गाँव के संत की भक्त अंततः आ ही गयी। इस कथन के साथ ही उन्होंने मुझे बता दिया कि उनका मेरे बारे में कितना ज्ञान है। हमारे परिवार के सदस्यों के अतिरिक्त किसी और को गुड़गाँव वाले संत का पता नहीं था।

श्रद्धा की चुसकीः चाय प्रसाद

गुरुजी के यहाँ चाय पहला और कभी अंतिम पेय होता है। बचपन से मुझे चाय से घृणा रही है। यदि मैं चाय किसी भी रूप में लेती थी तो मेरे मुख में घाव हो जाते थे। मेरे बैठते ही एक सज्जन चाय बाँटते हुए आये। मैं दुविधा में थी कि प्रसाद को मना कैसे करूँ? अचानक मैंने देखा कि वह आगे निकल गये। मुझे संतोष हुआ कि न तो मुझे प्रसाद को मना करना पड़ा, न ही चाय पीनी पड़ी। इस विचार के मन में आते ही विपरीत विचार भी उठा कि इस चाय रूपी प्रसाद को ग्रहण न कर मैं गुरु कृपा से वंचित हो रही हूँ। यह सब मेरे मन में हो रहा था पर बाहर ऐसा हो रहा था जैसे मैं बोल रही हूँ। एकदम वह सज्जन पीछे मुड़े और मुझे चाय प्रस्तुत करी। मैं चकित थी - यह ऐसा था जैसे वह मेरे मन में उठ रहे द्वन्द का उत्तर दे रहे हों। मैंने चाय का ग्लास उठाया और परिवार के सदस्यों के विरोध के प्रतिकूल उस ग्लास से चाय पी ली - बचपन से चाय न पीने वाले के लिए एक महत्त्वपूर्ण कर्म। उस दिन अगले कुछ घंटों में, जब तक गुरुजी के यहाँ रहे, मैंने चाय के दो या तीन ग्लास और पिये।

हम गुरुजी के यहाँ रात्रि एक बजे तक रहे। अगले दिन सुबह उठने पर मेरा मुख घाव से भरा होना चाहिए था और उसमें अति वेदना होनी चाहिए थी। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ - मेरा मुख स्वच्छ था और किसी घाव के निशान नहीं थे। सब चकित थे।

आज भी चाय या तो मैं केवल गुरुजी के यहाँ पी सकती हूँ या तब, जब वह मेरे आस पास विद्यमान हों। परन्तु यदि मैं चाय घर पर या कहीं भी और पीऊँ तो मेरे मुँह में घाव हो जाते हैं। इससे गुरुजी की ऊर्जा का आभास होता है, एक जन साधारण पेय को प्रसाद के रूप में देना, जिसमें रोग और कठिनाईयों को बाहर फेंकने की शक्ति हो। उनके यहाँ मिली हुई कोई भी वस्तु कभी हानि नहीं कर सकती।

चाय पीना आरम्भ करने के उपरान्त हमारे परिवार में और चमत्कार होने वाले थे। सुगन्ध, जिसे मैं गुरुजी का इत्र समझ रही थी, हमारे मुख्य कक्ष में फैलने लगा। हम उसे घर में पाकर मुग्ध हो गये। कुछ समझ नहीं पाने के कारण जब तक वह रही हम अति आनंदित रहे। बाद में पता लगा कि यह तो गुरुजी की स्वाभाविक सुगन्ध है और, जहाँ भी हो उनकी उपस्थिति का आभास देती है। गुरुजी की शरण में आने वाले दिन चमत्कारी रहे।

सर्वशक्तिमान गुरुजी

जीवन में सुख और दुःख एक दूसरे के पर्याय हैं। सुख के समय आप सगे सम्बन्धियों से घिरे रहते हैं पर दुःख के समय केवल गुरुजी आपकी सहायता कर सकते हैं। अन्य व्यक्ति चाह कर भी सहारा नहीं दे पाते क्योंकि अक्सर परिस्थितियों को संभालने में वह उतने ही असमर्थ रहते हैं जितने स्वयं आप। केवल गुरुजी का निस्वार्थ समर्थन आपके साथ रहता है। अपने किये कर्मों के अच्छे और बुरे फल तो भुगतने ही पड़ते हैं। परन्तु गुरुजी के समक्ष प्रकृति भी निसहाय हो जाती है। गुरुजी के किसी भी अनुयायी के प्रतिकूल फल को या तो वे नष्ट कर देते हैं या उसकी मात्रा कम कर देते हैं। इसको साकार करने के लिए गुरुजी अपने भक्तों के कष्ट अपने पर अंतरित कर लेते हैं।

मैंने अनुभव किया है कि कष्ट और पीड़ा दूर करने के लिए गुरुजी विभिन्न पद्धतियों का प्रयोग करते हैं।

एक बार संगत में बैठे हुए मुझे सिर में तीव्र वेदना हो रही थी। यह इतनी अधिक थी कि मैं कुछ भी खाने, पीने या सोचने में असमर्थ थी। अचानक गुरुजी ने मुझे बुलाया और कहा कि उनके सिर में बहुत दर्द है और मुझे कुछ देर के लिए अपना माथा दबाने को कहा। यह करने के बाद मैं अपने स्थान पर वापस आकर बैठ गयी और अचानक मुझे लगा कि मेरा सिर दर्द लुप्त हो गया है। अपना सिर दबाने को कह कर उन्होंने मेरी पीड़ा समाप्त कर दी थी।

एक बार मुझे ज्वर ने घेर लिया था और वह कई दिन तक रहा। परीक्षणों और औषधियों के उपरान्त भी वह नहीं उतरा। फिर दो सप्ताह तक तीव्र औषधियों के सेवन से वह कम तो हुआ पर पुनः वापस आ गया। मेरे ज्वर का रूप अनोखा हो गया। दिन के समय तापमान सामान्य रह कर शाम को बढ़ जाता था। चार सप्ताह तक ऐसा ही होता रहा। चिकित्सक कुछ नहीं कर पा रहे थे क्योंकि परीक्षणों के परिणाम अनिर्णायक थे।

फिर एक दिन गुरुजी ने मेरे पति से इतने दिन संगत में मेरी अनुपस्थिति का कारण पूछा। गुरुजी को उत्तर देने पर उन्होंने पांच मिर्चों के प्रयोग की एक विधि बतायी और उसके सेवन मात्र से मेरा एक माह से अधिक अवधि से चला आ रहा ज्वर समाप्त हो गया। शनैः शनैः मैं पुनः स्वस्थ हो गयी।

मैं गुरुजी को एक बार और ज्वर से निकालने के लिए आभारी हूँ। यद्यपि मुझे हल्का ज्वर था, मैंने परिवार के साथ बड़े मंदिर जाने की योजना बनायी। परन्तु बड़े मंदिर पहुँचते - पहुँचते मेरा ज्वर अत्याधिक बढ़ गया और मेरे लिए उठ पाना संभव नहीं था। उस दिन अचानक गुरुजी वहाँ आ गये और मेरे पति और संगत के एक अन्य सदस्य को ताजा नींबू का घोल बना कर पिलाने को कहा। ज्वर ऐसे लुप्त हुआ जैसे कभी था ही नहीं। किसी के बताये बिना गुरुजी को मेरी अवस्था का ज्ञान था और उन्होंने तुरन्त उपचार किया। ऐसा निस्वार्थ आलंबन और देखभाल और कोई नहीं दे सकता है।

शब्द मात्र से

गुरुजी द्वारा प्रयोग करने वाली वस्तुएँ केवल सांत्वना के लिए होती हैं। ऐसा अक्सर देखा गया है कि वास्तव में गुरुजी को अलौकिक क्रियाओं के लिए इनकी आवश्यकता ही नहीं है। गुरुजी की शक्ति मात्र ही भक्त की समस्त समस्याओं का हल है। भौतिक वस्तुओं के प्रयोग से भक्त को केवल यह आभास होता है कि उसकी ओर गुरुजी का सम्पूर्ण ध्यान है।

मेरे पैर के अंगूठे पर किसी कीड़े ने काट लिया था। फलस्वरूप वह सूज गया था और उसमें बहुत दर्द था। जब चिकित्सक द्वारा दी गयी एक मलहम से कोई लाभ नहीं हुआ तो उसने एक साधारण शल्य क्रिया करने का सुझाव दिया। अचानक उसी दिन, मेरे पति के बताये बिना, गुरुजी ने मेरे पैर का हाल पूछा और वह पर्याप्त था। पैर की वेदना कम हो गयी और उसमें बहुत लाभ हुआ। कुछ ही समय में उसके सब चिह्न मिट गये। ऐसी है गुरुजी की क्षमता।

इससे भी अधिक अचम्भा हमें तब हुआ जब गुरुजी ने मुझे मधुमेह से मुक्त कर दिया। 1999 - 2000 में पता लगा कि मुझे यह रोग है। मधुमेह के बारे में सर्वविदित है कि इसकी कोई चिकित्सा नहीं है, इसको केवल सीमाबंधित किया जा सकता है। किन्तु गुरुजी ने मुझे इस रोग से ही मुक्त कर दिया। कुछ ही मास में, बिना औषधियों के, केवल गुरुजी की कृपा से मुझे इस रोग से मुक्ति मिल गयी।

गुरुजी के सादे ढंग से कहे गये शब्दों का अर्थ भी अति गूढ़ होता है। वास्तव में वह ब्रह्म के लिए आदेश होते हैं और यदि उनके शब्दों का पालन नहीं किया जाए तो फल अप्रिय हो सकता है।

जब हमने गुरुजी के पास आना आरम्भ किया तो गुरुजी ने मेरे पति को सप्ताह में तीन बार, सोम, बुध और शुक्र को आने को कहा। हमने उनके निर्देशों का पालन अवश्य किया किन्तु कम दिनों की पूर्ति करने के लिए घर से शीघ्र निकलना आरम्भ किया। एक दिन जब हम छः बजे ही पहुँच गये तो गुरुजी ने सत्संग के निर्धारित समय आठ बजे आने को कहा। आश्चर्यजनक रूप से उसके पश्चात् ऐसा होने लगा कि हम वहाँ आठ बजे ही पहुँच पाते थे। एक बार हम घर से साँय साढे़ छः बजे ही निकल पड़े परन्तु उस दिन वह 25 किलोमीटर का मार्ग इतना व्यस्त मिला कि हम आठ बजे ही पहुँच पाये। अचम्भे की बात है कि घर से साढ़े सात बजे निकलने पर भी हम आठ बजे पहुँच जाते थे।

लंगर से कृपा

हमारी मनोवृत्ति अनेक बार हमें ऐसे अनुभव करा देती है जो बाद में मूर्खतापूर्ण कर्म लगते हैं। एक बार मैंने ऐसा उपवास रखा हुआ था जिसमें अन्न निषेध था। उस दिन मैं मात्र फलाहार ले सकती थी। जब हम गुरुजी की संगत में पहुँचे तो मैंने निश्चय किया कि मैं लंगर नहीं करूँगी क्योंकि उसमें रोटी होती है; मुझे आशा थी कि कोई इस पर ध्यान नहीं देगा। उस दिन 200 से अधिक श्रद्धालु थे और लंगर के छः चक्र हुए थे। परन्तु गुरुजी को इसका ज्ञान हो गया था और उन्होंने मुझे अंतिम चक्र में लंगर खाने को कहा। व्रत के नियम की अवहेलना नहीं करने की इच्छा से मैं प्रथम तल पर जाकर बैठ गई । उन दिनों एम्पाएर एस्टेट में संगत नीचे होती थी और लंगर प्रथम तल पर दिया जाता था। मैंने निश्चय किया था कि एक कोने में बैठी रहूँगी और लंगर की समाप्ति पर नीचे आ जाऊँगी। इस प्रकार मैंने दो अपराध किये थे- प्रथम, गुरुजी के निर्देश की अवहेलना करने का और दूसरा, उनको धोखा देने का प्रयास।

नीचे आने पर गुरुजी ने मुझे घूर कर देखा और किसी को संगत में बाँटने के लिए मिठाई लाने का आदेश दिया। उन्होंने प्रसाद बाँटना आरम्भ किया और मेरी बारी आने पर मुझे दूसरों की अपेक्षा दुगनी मात्र दी, जैसे लंगर न खाने के कारण वह मुझे उतना ही फल देना चाहते हैं। घर पहुँच कर जब मैंने पूरे घटनाक्रम का पुनरावलोकन किया तो मुझे अपनी भूल का आभास हुआ। गुरुजी का सन्देश स्पष्ट था - लंगर करना आवश्यक है। लंगर की अवमानना करने से गुरुजी की कृपा अधूरी है। बाद में मैंने यह जाना कि प्रसाद गुरुजी के आशीर्वाद का माध्यम है - उसके भातिक स्वरूप का कोई अर्थ नहीं है, किन्तु जब भी वह मिले उसे दोनों हाथों से श्रद्धापूर्वक तुरन्त ग्रहण करना चाहिए, जिससे यह अवसर निकल नहीं जाये।

गुरुजी - ट्रक और हमारी कार के बीच में

मैं और मेरे पति नोएडा से अपनी कार में संगत के लिए आ रहे थे। एक चौराहे पर आवागमन इतना अधिक था कि तीसरी बार लाल बत्ती हो गयी। हम उस समय सबसे आगे थे तो जैसे ही वह हरी हुई मेरे पति ने कार तेजी से आगे बढ़ा दी। हमारे सामने एक उच्च आकार का ट्रक आगे बढ़ा किन्तु तुरन्त ही एक साईकल सवार के गिर जाने के कारण रुक गया। मेरे पति के पास इतना अवसर नहीं था कि वह रुक सकें और दुर्घटना निश्चित थी। अचानक मैंने कार के सामने गुरुजी को देखा और मैं चिल्लाई "गुरुजी"।

हमें होश में आने में कुछ समय लगा। थोड़ी देर पश्चात् जब हमने कार रोक कर उसका निरीक्षण किया तो देखा कि कार ट्रक के नीचे थी और उसको कोई भी क्षति नहीं हुई थी। कार का पिछला हिस्सा ट्रक के विशाल पहिये से कुछ ही इंच दूर था। हमें आभास हुआ कि गुरुजी क्यों प्रकट हुए थेः यदि वह नहीं आते तो दुर्घटना निश्चित थी।

इससे भी अधिक आश्चर्य उस समय हुआ जब मेरे पति यह संस्मरण संगत की एक सदस्या को सुना रहे थे। उन्होंने गुरुजी के प्रकट होने की बात कही होगी जब उसने उनसे प्रश्न किया कि क्या कार नीले रंग की मारूती 800 थी। मेरे पति के मानने पर उसने बताया कि उसने यह पूरा घटनाक्रम स्वप्न में देखा था - गुरुजी के ट्रक और कार के बीच में आने की घटना भी। उसकी स्वप्न की घटना सुन कर हम अचंभित रह गये।

सर्वविदित

एक बार गुरुजी ने मुझे एक सज्जन को बुलाने को कहा। क्योंकि मैं उनको जानती नहीं थी उन्होंने उनका विवरण देते हुए कहा कि वह मोटे हैं और एक स्तम्भ के पीछे बैठे हैं - वह गुरुजी के स्थान से दृष्टिगोचर नहीं था। जाते हुए मैं सोच रही थी कि मात्र इन दो सूत्रें से उनका पता कैसे लगेगा। वहाँ पहुँचने पर मुझे एक ही मोटे सज्जन मिले जिनको मैंने गुरुजी का सन्देश दे दिया। इससे स्पष्ट होता है कि गुरुजी की दृष्टि कहाँ तक जा सकती है।

यदि गुरुजी चाहें तो वह आपका भूत बता सकते हैं वर्तमान में, इस समय पृथ्वी पर कहाँ क्या हो रहा है और भविष्य में क्या होगा - इन सबका वृत्तांत दे सकते हैं ।

जब मेरे बच्चे, एक पुत्र एवं एक पुत्री स्कूल में ही थे, गुरुजी ने एक दिन बातों बातों में कह दिया था कि वह सीमेंस में कार्यरत्त होंगे। उस समय इस कथन पर विश्वास करना कठिन था परन्तु छः वर्ष पश्चात् ऐसा ही हुआ। इसी प्रकार गुरुजी ने 2000 में मुझे बताया कि मेरी बेटी का विवाह 2005 में होगा और उसका विवाह वास्तव में 30 अप्रैल 2005 को हुआ।

शिव लोक के अनुभव

गुरुजी द्वारा निर्मित बड़ा मंदिर विशेष स्थल है। राजधानी के एक छोर पर, यहाँ के पवित्र पावन वातावरण में विश्व की सब समस्याएँ भूल जाते हैं। यहाँ पर मैं गुरुजी की अनुपस्थिति में भी, चाहे कितनी चाय पी सकती हूँ। यह मंदिर में उपस्थित अदृष्ट शक्ति का एक अति सूक्ष्म सूचक है। भले ही किसी को यहाँ पर अपने अनुभव पर विश्वास नहीं हो, मुझे यहाँ पर सदा एक अलौकिक शक्ति की उपस्थिति का आभास होता है।

एक बार मैं अपने परिवार सहित बड़े मंदिर गई। सामान्यतः वहाँ पहुँच कर हमारे परिवार का प्रत्येक सदस्य स्वेच्छा से मंदिर मे घूमता है। उस दिन, दोपहर से थोड़ा पहले वहाँ पहुँच कर मैं गुरुजी के कक्ष की स्वच्छता देखने गई। उस कक्ष में शिव की एक अति सुन्दर प्रतिमा है जिसमें वह आशीर्वाद देने की मुद्रा में आसीन हैं। हम उस प्रतिमा को सदा देखते आये थे। उस दिन जब मैंने वह प्रतिमा देखी तो मेरे अन्दर सिरहन दौड़ गयी। प्रतिमा का मुख 60 डिग्री दाहिने को मुड़ा हुआ था। मैंने मंदिर में सब उपस्थित लोगों को यह दिखलाया और यह देख कर सब मेरी तरह ही अचंभित हुए। आश्चर्यजनक रूप से जैसे जैसे दिन बीतता गया मुख अपनी सामान्य आकृति में आता गया और शाम होते होते उसने पुनः सामने की मुद्रा ले ली थी।

2006 की होली भी सदा स्मरण रहेगी। उस दिन प्रातः जब हम मंदिर में पहुँचे तो प्रत्येक ने कोई सेवा करनी आरम्भ कर दी। मैं अपनी पड़ोसन संगीता के साथ हॉल में स्थित शिव प्रतिमा को चमकाने में लग गई। प्रतिमा को साफ करने के लिए ब्रासो रगड़ने के पश्चात्, संगीता को उसे एक अन्य कपड़े से चमकाना था। मैं ऊपरी भाग साफ कर चुकी थी और उस पर अंतिम सफाई करनी शेष थी। संगीता ने सफाई आरम्भ ही की थी जब उसने मुझे दिखाया कि शिव के गले में लिपटे हुए नाग के बीच में रंग लगा हुआ है। क्योंकि मैं उस भाग को साफ कर चुकी थी मैंने उसे पुनः ध्यान से देखा - वहाँ पर रंग वास्तव में था। मैंने मंदिर में सब उपस्थित लोगों को इस चमत्कार का दर्शन करने के लिए बुलाया। उस दिन मंदिर में दर्शन करने वाले प्रत्येक भक्त ने समय समय पर रंग का बदलता रूप देखा।

यह सब प्रसंग गुरुजी की अभूतपूर्व प्रतिभा के संकेत मात्र हैं। किन्तु वास्तव में वह इन सबसे सीमित नहीं हैं। उनकी अपार क्षमता हम साधारण मानव के लिए समझ पाना सहज नहीं है। हाथ जोड़, नत मस्तक होकर मैं आभार प्रकट करती हूँ और उनसे विनम्र निवेदन करती हूँ कि पूरी संगत पर सदा अपनी कृपा बनाए रखें।

गौरी सिंगला, गुडगाँव

जुलाई 2007