गुरु कृपा से जीवन दान

हितेश लाला, अगस्त 2008 English
जय गुरुजी! गुरुजी और उनकी कृपा के अद्भुत तरीकों का वर्णन कोई भी शब्दों में नहीं कर सकता। हर पल कुछ ऐसा घटित होता है, जिससे हमें यह एहसास होता है कि हम गुरुजी की शरण में सुरक्षित हैं।

9 जुलाई 2006 को, मैं और मेरी बहन बड़े मंदिर गुरु पूर्णिमा समारोह के लिए तैयारी में सेवा के लिए जा रहे थे। हम अपने स्कूटर पर थे और स्कूटर की रफ्तार अधिकतम 50 किलोमीटर प्रति घंटा रही होगी। तेज बारिश भी हो रही थी। मंदिर से कुछ सात किलोमीटर की दूरी पर, स्कूटर नियंत्रण से बाहर चला गया और अस्थिर हो गया। मैंने इस समस्या को देखने के लिए स्कूटर रोक दिया।

हम यह देखकर हैरान थे कि पिछले पहिये पर केवल एक ही नट बचा था शेष चार गिर चुके थे। लेकिन, जहाँ पर हमने स्कूटर बंद किया वहीं पर हमें एक मेकैनिक मदद के लिए मिल गया, जैसे वह हमारा ही इंतजार कर रहा था। वह भी इस बात से हैरान था कि हम लगभग 25 किलोमीटर एक नट के साथ कैसे चल गए। हम काफी तेज रफ्तार से जा रहे थे और सड़क पर बहुत भीड़ व यातायात होने से गंभीर दुर्घटना हो सकती थी। लेकिन जब यह सब हुआ वहाँ आसपास कोई वाहन नहीं था। गुरुजी ने ही हमारे जीवन की सुरक्षा की।

7 जुलाई 2006 अर्थात् गुरुजी के जन्मदिन पर जब हम उनसे आज्ञा लेने के लिए गये, तब गुरुजी ने कुछ कहा जिसे मैं समझ नहीं पाया। 11 जुलाई 2006 को गुरु पूर्णिमा दिन, एक संगत सदस्य ने मुझे बताया कि उस रात गुरुजी ने क्या कहा था - उन्होंने मेरे काम को आशीर्वाद दिया था। मैं यह सुनकर बहुत खुश हुआ क्योंकि कुछ महीनों से मेरे कार्यालय में परिस्थिति कुछ ठीक नहीं थी। वास्तव में मैं नौकरी छोड़ने के लिए योजना बना रहा था।

गुरुजी के जन्मदिन पर उनका आशीर्वाद प्राप्त करने के बाद, जब मैं अपने कार्यालय पहुँचा, तब मुझे बताया गया कि मैं एक नए कार्य के लिए स्थानान्तरित कर दिया गया था, और फिर कुछ ऐसा हुआ जिसका मैं सपना भी नहीं देख सकता। मुझे वेतन के साथ पाँच महीनों का अवकाश दे दिया गया; वास्तव में, मुझे पाँच महीनों तक कार्यालय जाना आवश्यक नहीं था। यद्यपि, प्रत्येक महीने मुझे अपना पूरा वेतन मिला रहा था। मेरे साथियों के लिए भी यह बात अविश्वसनीय थी। लेकिन मैं जानता था कि यह चमत्कार भी गुरुजी द्वारा ही किया गया था।

31 मई, 2007 को जब गुरुजी ने महासमाधि ली, सब चीजें अप्रीतिकर हो गई थी। लेकिन लंबे समय के लिए नहीं क्योंकि गुरुजी का संरक्षण और प्यार निरंतर जारी है।

2 जून, 2007 की रात हम हरिद्वार से लौट रहे थे, जहाँ हम गुरुजी को अंतिम विदा देने के लिए गये थे। हमारी गाड़ी मार्ग में दुर्घटनाग्रस्त हो गई। गाड़ी में हम चार लोग थे, और गाड़ी हमारे नियंत्रण से बाहर होकर एक बिजली के खंभे से टकरा गई। इसका प्रभाव यह हुआ कि इंजन विस्फोट के साथ खुल गया और उससे सीटें भी बाहर आ गई। यह एक ऐसा झटका था कि मैंने अनुभव किया कि मेरी चेतना शरीर से पृथक् हो गई है। मैं अपने शरीर से बाहर आ चुका हूँ और गाड़ी के शीर्ष पर हूँ जबकि मेरा शरीर अभी भी सीट बेल्ट में बँधा गाड़ी में ही पड़ा था।

तभी एक तेज नारंगी प्रकाश निकला जिसने मुझे मेरे शरीर में वापस धकेल दिया। गाड़ी में सवार अन्य लोगों ने मुझे खींचकर बाहर निकाला। सभी व्यक्तियों को चोट लगी थी और जल्द ही हमें अस्पताल में भर्ती कराया गया। मैं बहुत दर्द में था। मैं ठीक से साँस भी नहीं ले पा रहा था और न ही नीचे झुकने में सक्षम था। मुझे भय था कि मेरी पसलियाँ और पीठ टूट चुकी थी। लेकिन जब परीक्षण तथा जाँच की गयी और रिपोर्ट आई, उसमें सब कुछ ठीक था।

इस हानिकारक दुर्घटना का प्रभाव गुरुजी की कृपा से बहुत कम हुआ। इसके अतिरिक्त, अगर गाड़ी खम्भे से नहीं टकराई होती, तो हम 15-20 मीटर की दूरी पर स्थित लगभग 30 फीट गहरी खाई में गिर गये होते। स्पष्टत: हम बच गए। जिसके लिए हम गुरुजी के आभारी हैं।

बाद में, यह पता चला कि मैं जिस दर्द से पीड़ित था वह आंतरिक चोट और गर्दन की हड्डी के अव्यवस्थित होने की वजह से था। कुछ दिनों बाद, 10 जून को, मैं गुरुजी के भोग समारोह में भाग लेने के लिए डुगरी गया, यद्यपि पिछले कुछ दिनों से मैं पैर में हल्का सा दर्द महसूस कर रहा था। मैंने डुगरी से वापस आकर फिर से पैर का एक्स-रे कराया जिससे पता लगा कि मेरे बायें पैर की हड्डी टूटी हुई थी।

कैसे मैं इतनी गंभीर घटना के बाद, गर्दन की अव्यवस्थित हड्डी, टूटे हुए पैर और ढेरों आंतरिक चोटों के साथ एक हफ्ते के भीतर 500 किलोमीटर से भी अधिक यात्रा कर पाया? इतना ही नहीं, मैंने अपनी यात्रा बिना किसी तकलीफ के बढ़े हुए की।

गुरुजी ने हमेशा कहा है," यहाँ सब कुछ वास्तविक है", (यानि, गुरुजी के शरण में आने के बाद)। मैं उनके वचनों का एक जीवित प्रमाण हूँ। मैं केवल उनकी कृपा की वजह से ही जीवित हूँ।

मैं गुरुजी के चरण कमलों में इस विनम्र अनुरोध के साथ अपना सत्संग समाप्त करता हूँ कि वह सदैव हमें अपनी शरण में रखें।

हितेश लाला, एक भक्त

अगस्त 2008