"असित गिरी समं स्यात, कज्जलं सिन्धु पात्रे,
सुरतरुवर शाखा, लेखनी पत्र मूर्वी।
लिखति यदि गृहीत्वा, शारदा सर्व कालं,
तदपि तव गुणानामीश! पारं ना याति।"
हे शिव! यदि जीवन भर कल्प वृक्ष की कलम से, मेरु पर्वत की दवात में सागर रुपी स्याही भर कर, और सम्पूर्ण पृथ्वी को कागज की भांति प्रयोग कर आपके गुण लिखें, तो भी सरस्वती माँ असफल ही रहेंगी।
वास्तव में गुरु-गुणों का वर्णन करना असंभव है - गुरुजी स्वयं शिव हैं। तथापि जिसने भी गुरुजी के दर्शन किए हैं, थोड़े से समय के लिए ही सही, उसने वह आवरण देखा है जिसके पीछे गुरुजी की सरलता से प्रसन्न होने वाली छवि छिपी हुई है। मुझे अपने गुरु के बारे में अपने सम्बन्धी, कर्नल (सेवानिवृत) जोशी से ज्ञात हुआ और उनके दर्शन कर उनका आशीर्वाद प्राप्त करने की अभिलाषा जागृत हुई। चूँकि उस समय मैं पारिवारिक समस्याओं के समाधान में लगा हुआ था और दिल्ली नहीं आ सकता था, मैंने कर्नल जोशी को गुरुजी को बताने के लिए यह लिखा:
"इब्ने आदम दुआ करे कोई
मेरे गम की दवा करे कोई"
मेरा सन्देश शब्द गुरुजी तक पहुंचा ही होगा कि मुझे उनके दर्शन और उनके आशीष का सुअवसर प्राप्त हो गया। उनके चरण कमल स्पर्श करते हुए ऐसा लगा जैसे वह कह रहे हों:
"मम दरसन फल परम अनूपा
जीव पाव निज सहज सरुपा"
यह महापुरुषों की कसौटी है: उनके सान्निध्य में साधारण मानव का मन भी उस आनंद सिन्धु में गोते लगाने लगता है, जिसकी प्राप्ति के लिए बड़े बड़े तपस्वी अनेक जन्मों तक प्रयास करते रहते हैं। गुरुजी अन्तर्यामी हैं और, मेरा मानना है कि वह बिना कुछ व्यक्त किये ही मन की चाहत पूरी कर देते हैं। एक चेतावनी है: हमारी इच्छापूर्ति तभी संभव है जब वह हमारे लिए हितकारी हो। ऋषियों ने भगवत नाम को कल्पवृक्ष समान कहा है, पर गुरुजी और कल्पवृक्ष में अंतर है - कल्पवृक्ष से सब आकांक्षाएं पूर्ण होती हैं, परन्तु गुरुजी केवल लाभान्वित करने वाली आशाएं पूर्ण करते हैं। श्रीमद् भगवद्-गीता व अन्य ग्रंथों में महापुरुष के जिन लक्षणों का वर्णन किया गया है, गुरुजी के व्यवहार एवं वाणी में वह शत प्रतिशत पाये जाते हैं।
यह भी महत्वपूर्ण है कि गुरुजी का जन्म पंजाब में हुआ। प्राचीन काल में पंजाब को सारस्वत प्रदेश कहा जाता था। न केवल महर्षि व्यास - जिन्होंने वेदों की व्याख्या करी, पुराणों को संकलित किया, महाभारत और ब्रह्म सूत्रों की रचना करी - अपितु उनके जैसे ही अन्य महान ऋषियों ने इस धरती को सदा धन्य किया है। ईश्वर की इस महान और प्राचीन परंपरा की पावन धरती पर ही, कलयुग में गुरु नानक देव और श्रीचंद जैसे महानुभावों ने जन्म लेकर न केवल नव जन चेतना जागृत करी अपितु उत्पीड़ित मानवता का मार्ग दर्शन और कल्याण किया। अब गुरुजी भी वही कर रहे हैं - यह मेरा विश्वास है।
इस संसार में अनेक आदरणीय उपदेशक और प्रचारक हैं। किन्तु मात्र विद्या को प्रसारित करने के लिए प्रभावशाली शब्दों से दिये गये उपदेशों से मानवता का लाभ नहीं होता है। केवल प्रकाश का वर्णन करने से अँधेरा दूर नहीं होता है - इस बात का कोई महत्व नहीं है कि इसके लिए सूर्य या लालटेन का वर्णन किया जा रहा है। आवश्यकता इस बात की है कि जिसमें इस ज्ञान का दीपक प्रज्ज्वलित हो चुका है, वह संवेदना सहित अध्यात्म की ज्योत जला कर, मानव के अन्दर की छिपी हुई ज्योत को उजागर करने का प्रयास करे। गुरुजी का व्यक्तित्त्व ऐसा ही है। अपनी प्रतिभाओं से वह न केवल अपने अनुयायियों के मार्ग में आने वाले संकट से सावधान कर देते हैं, वरन उसकी यात्रा भी निष्कंटक कर देते हैं। महात्मा तुलसीदास कहते हैं कि गुरुजी जैसे महापुरुष ईश्वर से भी उच्च हैं। वह लिखते हैं:
"मेरे मन प्रभु अस विस्वासा, राम ते अधिक राम कर दासा"
क्योंकि,
"राम सिन्धु घन सज्जन धीरा, चन्दन तरु हरि संत समीरा"
जैसे हमारी प्यास बुझाने के लिए मेघ वर्षा करते हैं और वायु चन्दन वृक्ष की शीतलता फैलाती है, उसी प्रकार से महापुरुषों के माध्यम से हम ईश्वर को प्राप्त कर सकते हैं। राम भी संत नारद को बताते हैं कि श्रुति से भी महापुरुषों के गुणों की व्याख्या असंभव है।
श्रद्धेय गुरुजी सच खंड वासी हैं। यह सच खंड क्या है और कहाँ है? इसका ज्ञान केवल उसको होता है जिसे गुरुजी की कृपा प्राप्त हुई हो।
"अतिसय कृपा जाहि पर होई; पाँव देई एही मारग सोई।
संत विसुद्ध मिलहिं प्रभु ताही, चितवंहि राम कृपा करि जाही।।"
कहते हैं कि निराकार ईश्वर सच खंड में निवास करते हैं। दयावान परमात्मा समय समय पर, अपने महापुरुषों को, जीवों को उनके दैहिक, दैविक और भौतिक कष्टों से मुक्त कर उनका पथ प्रदर्शन कराने के लिए भेजते हैं। महापुरुष जीव को क्रम से, धर्म खंड, ज्ञान खंड, सरम खंड और करम (कृपा) खंड से ले जाते हुए सच खंड में ईश्वर के निवास पर ले जाते हैं। अंत में यात्रा यहीं पर समाप्त होती है। जीव अपने कष्टों से सदा के लिए मुक्त होकर परमानन्द को प्राप्त करता है।
पूजनीय गुरुजी पहले अपने भक्त की समस्याओं की इति कर उसे कर्म योग के मार्ग पर ले जाते हैं। यह यात्रा का पहला भाग है - धर्म खंड। भक्त, तन और मन से स्वस्थ हो कर, लौकिक और पारलौकिक विषयों पर चिंतन कर पाता है। वह इस संसार की सच्चाई और स्वयं अपने जीवन की क्षणिकता को पहचान लेता है। यह ज्ञान खंड है।
अपनी अल्पज्ञता और स्वाभिमान का उसे भान होता है। वह लज्जित होता है। अविराम विचार से वह प्रभु की महानता और अपने अस्तित्व को पहचान लेता है। वह सोचता है कि यह जीवन, जो प्रभु ने सर्वानन्द प्राप्ति के लिए प्रदान किया था, व्यर्थ व्यतीत हो रहा है। जब परमात्मा से मिलने की उत्कंठा अत्यधिक हो जाती है, वह सरम खंड में पहुँच जाता है। इस यात्रा का शिखर तब आता है जब उसे प्रभु की कृपा प्राप्ति का आभास होता है; उसके सारे संशय समाप्त हो जाते हैं और मन आनंद सागर में गोते लगाने लगता है। यह करम खंड का क्षेत्र है।
दीप्तिमान परम कृपा के आनंद में डूबे हुए जीव के लिए सच खंड के द्वार खुल जाते हैं। कोई इस यात्रा पर अकेले नहीं चल सकता। शिव समान व्यक्ति के लिए भी जीवन सागर को पार करना कठिन है। ज्ञान के भण्डार ब्रह्मा को भी, परमानन्द की प्राप्ति के लिए, गुरु या महापुरुष के पास जाना पड़ता है और गुरु की कृपा दृष्टि तुरन्त उन्हें वहां पहुंचा देती है। गुरुजी इस युग के ऐसे ही महापुरुष हैं और मैं उनके कमल चरणों की वंदना करता हूँ।
आपके चरण कमलों को समर्पित
हे भगवन! हे शिव! गुणगान करता हूँ आपके कमल चरणों का,
आश्रय हैं आप हमारे,
आपके कमल चरण बांधते हैं हमें आपसे
लौकिक माया को भेद कर
भक्तों को भेंट करें उनकी आशाएं
कल्प वृक्ष की भांति
हे भगवन! हे शिव! गुणगान करता हूँ आपके चरण कमलों का
शिव, ब्रह्मा और स्वर्ग के समस्त देव
नतमस्तक होते हैं आपके कमल चरणों में
हे सबसे प्यारे गुरु, ढूंढता है जो आसरा
मिलता है उसे सहारा
आपके कमल चरण, सबसे प्यारे प्रभु
कुचल दें सब बाधाएं
और भव सागर से पार करें
हे भगवन! हे शिव! गुणगान करता हूँ आपके कमल चरणों का
जगदीश चंद्र पाण्डेय, नैनीताल
जुलाई 2007