सब गुरुजी की कृपा है

जे बी सिंगल, जून 2010 English
यद्यपि एक भक्त के द्वारा गुरुजी ने हमें उनके यहाँ आने के लिए संदेश भेजा था, हम उनकी शरण में 7 जुलाई 2007 को पहुँचे, उनके संदेश के एक साल बाद। जब गुरुजी ने एक साल पहले हमें उनके यहाँ बुलाया तो हम इतने भाग्यशाली नहीं थे कि उनके दरबार पहुँच पाते। पर साल 2007 में हम पर गुरुजी की कृपा हुई। 1 जुलाई को नरेश अंकल ने हमें गुरुजी की कृपा और अपने अनुभवों के बारे में बताया। ना तो मुझे विश्वास हुआ और ना ही मैं समझ पाया कि कैसे कोई महापुरुष इतनी सरलता से अपने भक्तों की जीवन बदल सकते थे। हमने करीब दो घंटे सत्संग किया और मुझे पता भी नहीं चला कि इतना समय कैसे निकल गया।

गुरुजी के जन्मदिन के अवसर पर, 7 जुलाई को, हमारे मोहल्ले से बसें जा रही थीं और मैंने उसमें दो सीटें सुरक्षित कर लीं। मेरे पास एक सेकंड-हैंड गाड़ी थी और क्योंकि रास्ता लम्बा था, मैं उसमें नहीं जाना चाहता था। 7 जुलाई को मंदिर जाने से पहले मैं दुकान पर बहुत व्यस्त रहा जो मेरे व्यापार के लिए अच्छा था। मैंने खुशी-खुशी अपना काम 5 बजे तक निपटाया और उसके कुछ देर बाद ही मैं गुरुजी की शरण में बैठा हुआ था।

मंदिर में हमारा अनुभव इतना सुहावना रहा कि हमने नियमित रूप से सप्ताह में एक बार जाना आरम्भ कर दिया। हम एक बड़ी गाड़ी में साथ जाया करते थे। एक संगत ने, जिसके साथ हम जाते थे, मेरी पत्नी संतोष से कहा कि क्योंकि गाड़ी बहुत भरी हुई होती थी, हमें बच्चों को साथ नहीं ले जाना चाहिए। संतोष ने गुरुजी से प्रार्थना की कि हम बच्चों को भी मंदिर ले जा सकें और उसने गुरुजी से निवेदन किया कि वह हमें गाड़ी का आशीर्वाद दें ताकि हम अपने आप मंदिर जा सकें। गुरुजी की कृपा से एक सप्ताह के अंदर ही, ना जाने कहाँ से, भूमि के टुकड़े, नयी गाड़ी और एक नयी मोटरसाइकिल के लिए रुपयों का प्रबन्ध हो गया!

घर में गुरुजी का सत्संग

एक सुबह मैं संतोष से बात कर रहा था कि कैसे इतने कम समय में गुरुजी ने हम पर इतनी कृपा की थी। हम दोनों गुरुजी का धन्यवाद करने के लिए घर में गुरुजी का सत्संग रखना चाहते थे। हम करीब आधा घंटा इस पर विचार-विमर्श करते रहे और फिर इस नतीजे पर पहुँचे कि पैसों की तंगी के कारण हमें सत्संग के बारे में अभी नहीं सोचना चाहिए। तभी हमारा एक पड़ोसी आया और अपने घर में इन्वर्टर और बैटरी लगवाने के लिए हमें दस हज़ार रुपये दिए। हमारी समस्या का तत्कालीन समाधान करने के लिए हमने गुरुजी का धन्यवाद किया और सत्संग के प्रबन्ध में जुट गए।

सत्संग वाले दिन गुरुजी की कृपा हुई। उस दिन मौसम कुछ ठीक नहीं था; बादल छाये हुए थे और बारिश होने की आशंका थी। यद्यपि हमारे घर से दो किलोमीटर की दूरी पर बारिश हो रही थी, गुरुजी की कृपा से सत्संग के स्थान पर बारिश नहीं हो रही थी। कुछ भक्तों ने फोन करके हमें कहा कि बारिश के कारण वो नहीं आ पायेंगे। पर यहाँ सत्संग और लंगर समाप्त होने के बाद ही दो घंटे बहुत अधिक बारिश हुई।

हमें लंगर भेंट करने का एक और अवसर प्राप्त हुआ। मेरे पिता 6 जनवरी 2009 को चल बसे। 13 दिन बाद हमने कुछ पंडितों को लंगर कराया। लंगर समाप्त होने ही वाला था जब तीन सरदार, सब छः फुट कद के, अंदर आए और बोले, "जय गुरुजी, हम यहाँ लंगर करने आए हैं।" हमने उन्हें बिठाया और लंगर परोसा। वह खुश होकर वापस गए। मैं सोच में पड़ गई: हम जहाँ रहते थे वहाँ कभी भी हमने किसी सरदार को ऐसे घूमते हुए नहीं देखा था। मुझे वास्तव में लग रहा था कि गुरुजी ने हम पर विशेष कृपा की थी। मुझे लगा कि वे ब्रह्मा, विष्णु और महेश थे जो हमारे घर हमें आशीर्वाद देने के लिए आये थे।

गुरुजी ने मुझे और मेरी पत्नी को बचाया

मैंने मंदिर से गुरुजी का चाबी-का-छल्ला लिया था, पर उसमें चाबियाँ नहीं डाली थीं। मुझे उसमें चाबियाँ डालना उचित नहीं लग रहा था क्योंकि कभी हमारे हाथ गंदे भी हो सकते थे। इसलिए मैंने उसे अपनी मोटरसाइकिल के आगे लगाने का निश्चय किया। पर समय की तंगी की कारण मैं ऐसा नहीं कर पाया और गुरुजी वह मेरी जेब में ही रह गया।

एक दिन मुझे फोन आया कि घर पर एक व्यक्ति मेरा प्रतीक्षा कर रहा था। मैं अभी थोड़ी ही दूर गया था जब उच्च गति से आती हुई एक गाड़ी ने मोड़ पर मुझे टक्कर मारी। गाड़ी बहुत बुरी तरह क्षतिग्रस्त हुई और उसके आगे का हिस्सा बिलकुल नष्ट हो गया। पर गुरुजी की कृपा से मुझे कोई बड़ी चोट नहीं आई।

गुरुजी की शरण में आने से पहले हम पंडितों के यहाँ जाया करते थे। सब पंडितों का कहना था कि संतोष की आयु अधिक नहीं थी। गुरुजी के यहाँ जाने के बाद हमने पंडितों और ज्योतिष्यों के पास जाना बंद कर दिया। एक बार संतोष को खराब खाना खाने से भारी बीमारी हो गई। कुछ ही घंटों में वो बहुत बेचैन हो गई और ताज़ी हवा के लिए घर से बाहर निकली। घर पहुँचकर जब मैंने उसे इस हाल में देखा तो कमरे में आराम करने को कहा। वह बोली कि अंदर उसका दम घुट रहा था और उसने दो आदमियों को काले कपड़ों में देखा था, जिन्होंने उसे अपने साथ चलने को कहा। हमें उसके आस-पास कोई नहीं नज़र आ रहा था। पर तभी उसने उन दोनों आदमियों के पीछे गुरुजी को खड़ा देखा। गुरुजी ने उन दोनों आदमियों को संतोष को छोड़ कर चले जाने को कहा। उन्होंने गुरुजी का आदेश माना और चले गए।

बाद में जब हमने संतोष से उन आदमियों के बारे में पूछा तो उसने हमें बताया कि वे दोनों काले और मोटे थे, उनकी घनी मूछें थीं और उनके हाथों में तलवारें थीं। उसने उस दिन यमदूत देखे थे और अगर गुरुजी उसे बचाने नहीं आते तो उस दिन वह नहीं बचती। धन्यवाद गुरुजी, संतोष को एक नव जीवन का आशीर्वाद देने के लिए।

संतोष को पीठ में दर्द भी रहता था। गुरुजी ने उसे सपने में दर्शन दिए। उन्होंने झाड़ू से संतोष को छूआ और पूछा कि क्या अब उसे दर्द था। संतोष ने जवाब दिया कि अब दर्द बहुत कम था। गुरुजी ने दोबारा उसकी पीठ को झाड़ू से छूआ और दर्द पूरी तरह से चला गया। जब वह सोकर उठी तो उसने पाया कि अब उसे दर्द नहीं था। वह दर्द उसे फिर कभी नहीं हुआ।

खोया हुआ मोबाइल फोन मिला

6 जून 2009 को मैंने नया फोन खरीदा। संतोष ने मुझे सुझाव दिया कि मुझे फोन गुरुजी के जन्मदिन के दिन, 7 जुलाई को खरीदना चाहिए था। पर मैंने ठान लिया था और गुरुजी के जन्मदिन से एक महीना पहले ही खरीद लिया। खरीदने के तीन दिन बाद ही वो खो गया। यद्यपि मैं निराश हुआ, मैंने इस नुकसान को अपनी भाग्य समझकर स्वीकार लिया और स्वयं को तस्सली दी कि फोन उसके पास गया होगा जिसे इसकी अधिक आवश्यकता हो।

मेरा एक दोस्त एक छानबीन सम्बन्धी संस्था में काम करता है और मैंने उसे अपने गुम हुए फोन का आइ एम ई आइ नम्बर दिया। 7 जुलाई को जब हम बड़े मंदिर गए तो मुझे अपना फोन याद आया क्योंकि उसमें कैमरा था और मैं उससे तस्वीरें खींच पाता। दो दिन बाद मेरे दोस्त ने मुझे फोन करके उस जगह का पता दिया जहाँ वह सक्रिय था। मैं वहाँ गया और अपना हैंडसेट वापस लेकर आया! गुरुजी की कृपा से मुझे मेरा फोन वापस मिल गया। फोन खरीदने की बेकार की जल्दी ने मुझे एक सबक सिखाया।

लड्डू प्रसाद

एक शनिवार मैं बहुत ही व्यस्त रहा और दोपहर को खाना नहीं खा पाया। मैं शाम को करीब 6 बजे घर पहुँचा और हम उसी समय बड़े मंदिर के लिए निकल पड़े। लंगर करके जब हम मंदिर से निकले तो मुझे तब भी भूख थी। मैंने रास्ते में कहीं रुक कर कुछ खाने का सोचा। तभी एक संगत मंदिर से बाहर आई और मुझे प्रसाद के चार लड्डू दिए! मैं खुश हुआ और मुस्कुराये बिना रह ना सका। संतोष ने मेरे मुस्कुराने का कारण पूछा। मैंने उसे कहा कि मैं प्रसाद खाने के बाद बताऊँगा। यद्यपि मुझे बहुत भूख लगी हुई थी, मैं 3.5 लडूओं में तृप्त हो गया और बचा हुआ 1/2 लड्डू मैंने संतोष को खाने के लिए दे दिया। फिर मैंने उसे सारी बात बतायी और मुझे एक बार फिर अनुभूति हुई कि कैसे गुरुजी छोटी से छोटी बात का भी धयान रखते हैं!

गुरुजी के यहाँ आने से पहले मैंने बहुत धन बनाया और गँवाया था। हर तीन महीने मुझे बड़ा नुकसान होता और मेरा सारा धन समाप्त हो जाता था। गुरुजी के यहाँ आने के बाद मुझ पर आर्थिक स्थिरता की कृपा हुई और आज मैं एक सुखद जीवन व्यतीत कर रहा हूँ–सब गुरुजी की कृपा से।

जे बी सिंगल, एक भक्त

जून 2010