गुरुजी से 2000 में मिलने के बाद, मैं अपने आप को अत्यंत भाग्यशाली और सम्मानित मानती आयी हूँ। उस समय से, हर प्रकार से, गुरुजी ने हमारे समस्त परिवार पर अपनी दया दृष्टि बनायी रखी है। मेरे पति दीपक अपने भाई अरुण के साथ गुरुजी को ऐसे दिन मिले जो संगत का नहीं था।
अरुण को एक ऐसी समस्या थी जिसका हल तुरन्त चाहिए था। उसके घर में किसी काम करने वाले की बेटी की गाँव में दुर्घटना हो गयी थी और चिकित्सकों ने अंग काटने की सलाह दी थी। गुरुजी घर पर ही थे और वह दोनों उनके दर्शन करने में सौभाग्यशाली रहे थे। उनकी दया से उसका पैर बच गया। जब वह वहाँ पर थे, गुरुजी ने दीपक को मुझे उनके पास लाने के लिए कहा। पहले तो मैं उनके पास जाने के लिए अनिच्छुक थी। यद्यपि मेरी धार्मिक प्रवृत्ति है, मैं "नश्वर ईश्वर" में विश्वास नहीं रखती थी। तत्पश्चात मेरे मन में आया कि उन्होंने मेरी देवरानी के कंप वात रोग (पार्किन्सनस) में सहायता करी थी, अतः आदेश न मानना असभ्यता होगी।
मुझे देखते ही गुरुजी ने कहा, "कैलाश खन्ना दी कुड़ी," और मैं आश्चर्यचकित थी क्योंकि किसी भी तरह उन्हें मेरे स्वर्गीय पिता का नाम पता नहीं होना चाहिए था। उन्होंने मुझे अपना एक चित्र देकर संगत में आते रहने के लिए कहा। वह चित्र मैंने अपने घर में पूजा स्थल पर रख दिया। अगले दिन प्रातः उठने पर मैंने देखा कि वह गिरा हुआ था और सिन्दूर की डिबिया के समीप सिन्दूर की एक ढेरी बनी हुई थी, तथापि वह डिबिया सीधी ही थी। पूजा के कमरे में कोई प्रवेश नहीं कर सकता था, मैं उलझन में थी। बाद में सोचने पर विचार आया कि गुरुजी ही घर आये होंगे।
बुनने की सिलाईयाँ निकलीं
एक अवसर पर गुरुजी ने हमें तीव्र मनोव्यथा से बचाया। हमारे छोटे बेटे विनायक का विवाह हो रहा था। महिला संगीत के दिन सुबह से ही दूर दूर से सम्बन्धी आने लगे थे। अचानक मुझे अपने पति की चीख सुनाई दी। उनकी बीमार माँ अचानक मरणासन्न हो गयीं थीं। पहले मैंने भाग कर गुरुजी के चित्र के सामने उनको स्वस्थ करने के लिए प्रार्थना करी। फिर जैसे ही मैं उनके कमरे में गयी तो माँ ने करवट ली और उठ कर बैठ गयीं। उनका स्वास्थ्य इतना अच्छा हो गया कि वह विवाह के समस्त कार्यक्रमों में भाग ले सकीं जैसे उनकी हार्दिक इच्छा रही थी।
एक अन्य अवसर पर गुरुजी ने हमारे ऊपर दया करी - और इसके लिए हम उनके अति आभारी हैं - उन्होंने हमें जुड़वां पोते दिये। मेरे बड़े पुत्र राजनाथ और उसकी पत्नी मोइरा के विवाह को पांच वर्ष हो चले थे और यद्यपि हम पोते चाहते थे, उन दोनों को कोई जल्दी नहीं थी। दोनों अमरीका में कार्यरत थे, जहाँ पर कोई पारिवारिक सहारा नहीं होता, और उनके पास अपने निजी कार्यों के कारण समय की कमी रहती थी; मुझे भय था कि वह संतान के लिए प्रयास ही न करें। एक दिन हमने गुरुजी से प्रश्न किया कि उनके संतान कब होगी। काफी देर तक उनके चित्र देखने के बाद गुरुजी ने उनको दर्शन के लिए लाने को कहा। सौभाग्य से यह अवसर शीघ्र ही आ गया जब वह विनायक के विवाह के लिए भारत आये।
विवाह के समारोहों में एक हवन का भी आयोजन था। मोइरा ने मुझे बताया कि वह अपने मासिक के कारण उसमें भाग नहीं ले पायेगी। विवाह के बाद वह अमरीका वापस चले गये और कुछ ही दिन के बाद उत्तेजित मोइरा ने वहां से मुझे फोन पर कहा कि मैं अपनी सिलाइयों से बुनना आरम्भ कर दूं क्योंकि मैं दादी बनने वाली हूँ।
मुझे सुखद अचम्भा हुआ क्योंकि कुछ ही दिनों पूर्व इसके कोई आसार नहीं थे। मैंने जब गुरुजी को हार्दिक धन्यवाद दिया तो उन्होंने कहा कि उन्होंने उसे जुड़वां दिए हैं। अल्ट्रसाउन्ड के बाद मोइरा ने इसकी भी पुष्टि कर दी।
पति पर कृपा वृष्टि
मेरे पति दीपक के पैर में एक घाव था जो बढ़ते बढ़ते सड़ने को होने लगा था और उनको चिकित्सालय में रहना पड़ रहा था। उपचार से वह ठीक होने लगा और अपने टखने में पट्टी बांधे हुए वह घर आ गये। अगले दिन प्रातः उठने पर देखा कि बिस्तरे पर बिछी हुई चादर ताज़े रक्त में सनी हुई थी। पट्टी बिलकुल साफ़ थी। चिकित्सक ने भी यह देखने के लिए कि कहीं और से रक्तस्त्राव न हुआ हो, परीक्षण किया पर सब ठीक निकला। परन्तु हमें ज्ञात हो गया कि गुरुजी ने पैर में से शेष विषैले रक्त को बाहर निकाला था।
गुरुजी ने मेरे पति को नया ह्रदय देकर जीवन दान भी दिया है। दीपक की दो आर्टरी 90% बंद थीं। गुरुजी को यह पूर्व ज्ञात हो गया था और उन्होंने मुझे एक विशेष दिन आने के लिए कहा था। उस दिन व्यस्त होने के कारण मैंने अगले दिन जाने का विचार कर लिया। परन्तु गुरुजी को मिलने से पूर्व, दीपक की छाती में बहुत पीड़ा हुई और उन्हें एस्कोर्ट में प्रविष्ट कराकर उनकी आकस्मिक शल्य क्रिया करनी पड़ी। उनकी एंजियोप्लास्टी हुई और उनके ह्रदय में तीन स्टेंट लगाये गये। चिकित्सालय में प्रतीक्षा करते हुए मेरे पुत्र, उसकी पत्नी और मुझे गुरुजी की सुगंध आयी। जैसे ही दीपक शल्य क्रिया के पश्चात् बाहर आये उनको सुगंध आयी पर मुझे नहीं आयी। संभवतः गुरुजी उस दिन मुझे न आने के लिए डांट रहे थे। यदि मैं गयी होती तो दीपक इस कटु अनुभव से बच जाते। मैंने गुरुजी को धन्यवाद दिया और वचन दिया कि पुनः ऐसी गलती नहीं होगी।
यद्यपि गुरुजी ने अनेक अवसरों पर हमारे जीवन को रसमय बनाया है, यह थोड़े से ही अनुभव हैं। मैं प्रतिदिन उनसे मार्गदर्शन और परिवार को बचाने के लिए विनती करती हूँ। मैं पूर्ण रूपेण उनकी आभारी हूँ और मुझे विश्वास है कि वह अवश्य सुनेंगे। मैंने कई बार उनसे प्रश्न किया है कि सबके लिए इतना करने के पश्चात् आपकी क्या अभिलाषा है? वह मुस्कुरा कर उत्तर देते हैं कि केवल पूरी आस्था।
ज्योत्स्ना शौरी, दिल्ली
जुलाई 2007