मैं सोचती हूँ, यदि बूँद को सागर का वर्णन करने को कहा जाये, तो वह क्या कह सकती है - भक्त वह बूँद है, और गुरुजी अपार सागर। फिर भी मेरा प्रयास रहेगा कि मैं गुरुजी की सेवा में कुछ अर्पण कर सकूँ।
गुरु मिलन से परमात्मा को मिलने की राह सहज हो जाती है। आत्मा की परम मिलन की यात्रा में गुरु भक्त के ऊपर वात्सल्य और प्रेम की दृष्टि करते हैं - इनका अनुभव केवल निष्ठावान शिष्यों को ही हुआ है। गुरु वह साकार ब्रह्म हैं जिनमें सभी संबंधों का प्रेम समाया हुआ है। माँ की ममता, पिता का मार्ग दर्शन और माता का संरक्षण - यह सब सतगुरु में पूर्ण अवलोकित होते हैं।
गुरुजी साक्षात् परमात्मा हैं और वह अपने तक पहुँचने का मार्ग, ज्ञान की ज्योति से प्रज्ज्वलित कर रहे हैं। अपने अनुयायियों का मार्गदर्शन करते हुए कभी-कभी उनको कठोर व्यवहार करना पड़ता है। वह उस कुम्हार की भांति हैं, जो अपने बर्तन बनाते हुए उसे स्थिरता प्रदान करने के लिए, उसे बाहर दृढ़ता से संभाले रहता है और अन्दर से उसे अत्यंत कोमल हाथ से आधार देता है। सतगुरु अपने शिष्य से उच्च से भी उच्चतम व्यवहार की भावना रखते हैं। फिर भी उनका मन अपने शिष्यों के लिए करुणा, दया और कृपा से परिपूर्ण रहता है।
हृदय में स्थित परमेशवर की प्राप्ति के लिए, उसके उस संगीत को, जिसे अनहद भी कहते हैं, श्रवण करने के लिए और अपने अन्दर छिपी हुई ज्वाला को ज्वलित करने के लिए ऐसे महापुरुषों का सान्निध्य प्राप्त करना चाहिए जो परम प्रीति से तृप्त हो चुके हैं। केवल वही शिष्य, जो ऐसे महापुरुषों की वाणी और दिव्य गुणों से प्रभावित होकर उनके सदगुणों में स्वयं को आत्मसात कर लेता है, वही इस भवसागर में गोते लगाकर जन्म एवं मृत्यु के चक्र से मुक्त हो पाता है। यही सतगुरु और शिष्य के पावन पुनीत सम्बन्ध हैं।
गुरुजी साक्षात् परमेश्वर हैं। उनके प्रेम की कोई सीमा नहीं है। जितना आप उनसे प्रेम करेंगे उतना ही आनंदमय आपका जीवन होगा। समय-समय पर वह हमें सचेत कर कहते हैं कि उठ कर अपनी दिव्यता का अनुभव करो, संसार की माया में डूबकर गहरी नींद में समय नष्ट न करो।
स्वप्न में समर्पण
मैंने गुरुजी के प्रथम दर्शन कोई दस वर्ष पूर्व किये थे और फिर उनसे कभी अलग नहीं हो पाई। गुरुजी के दर्शन करने से पूर्व मैं शिर्डी के साईं बाबा की भक्त थी। मेरी उनमें बहुत श्रद्धा थी। मैंने स्वप्न में देखा कि साईं बाबा की प्रतिमा जो मेरे अतिथि कक्ष में रखी हुई थी, अचानक लोप हो गई और उस स्थान पर गुरुजी बैठे हुए थे। मैं इतनी प्रसन्न हुई कि मैंने उन्हें आलिंगन में भर लिया।
अगले दिन जब मैं गुरुजी के पास गई, तो उन्होंने कहा कि पिछली रात मैंने उन्हें जोर से अंगीकार किया था। में अचम्भे में थी - उन्हें मेरे स्वप्न के बारे में कैसे पता चला? किन्तु अगले ही क्षण मुझे आभास हो गया कि गुरुजी तो परमात्मा हैं। उनसे कुछ भी छिपा हुआ नहीं है - वह तो हमारे भूत, वर्तमान और भविष्य के बारे में सब जानते हैं, परन्तु वह किसी को यह बताते नहीं है। एक बार मैं जब उनके चरण दबा रही थी, उन्होंने कहा कि तीन वर्ष के बाद मुझे उनके पास आने के कारण का ज्ञान होगा। मैं व्याकुल हो गई थी और उस कारण को ढूँढती रही। धीरे-धीरे मेरे मन से यह बात उतर गई।
फिर तीन वर्ष के उपरान्त मेरे पति को हृदय और गुर्दे की समस्याएँ हो गयीं। हम उन्हें बंबई ले गये जहाँ पर वह 15 दिन तक गहन चिकित्सा केंद्र में रहे। उन दिनों मैं अपने हाथ में गुरुजी का चित्र लिए हुए उनसे विनती करती रहती थी। चिंता बहुत हो रही थी। मैंने दिल्ली में अपने बेटी को गुरुजी के पास जा कर मेरी समस्याओं के बारे में बताने के लिए कहा। परन्तु गुरुजी ने उसको टोक दिया और बोले कि आंटी (मैं) उनके साथ जुड़ी हुई हैं। मुझे एक बार पुनः यह आभास हुआ कि उन्हें सब का ज्ञान है और उनको कुछ भी बताने की आवश्यकता नहीं है।
गुरुजी की दया से मेरे पति के स्वास्थ्य में प्रगति हुई और हम दिल्ली वापस आ गये। मैं तुरन्त गुरुजी के पास गई और उनको बार-बार धन्यवाद दिया तो वह बोले कि मेरे पति को नव जीवन दान देने के लिए ही उन्होंने अपने पास बुलाया था।
हम जानते हैं कि जन्म और मृत्यु तो सृष्टिकर्ता के हाथ में हैं, यदि वह ऐसा करें तो स्पष्ट है कि वह स्वयं वही हैं।
पान के पत्तों से दर्द निवारण
एक बार मैं गिर पड़ी थी जिससे मेरी टाँग की शल्य क्रिया हुई थी। उसके उपरान्त मेरे पैर में निरन्तर वेदना बनी रहती थी। औषधियाँ लाभ नहीं कर रहीं थी।
जब मैंने यह समस्या गुरुजी के सम्मुख रखी तो उन्होंने मुझे पान के पत्ते अभिमंत्रित कर के दिये। मुझे उन्हें पीस कर दर्द वाले स्थान पर लगाना था। किन्तु ऐसा करने से मेरा दर्द बहुत बढ़ गया। मैं रोते-रोते गुरुजी के पास गई तो उन्होंने कहा कि इस प्रकार मेरा सारा दर्द निकल रहा है। कुछ ही दिनों में पूरी वेदना समाप्त हो गयी और फिर तीन वर्ष तक कुछ नहीं हुआ। अचानक एक दिन वह पीड़ा फिर होने लगी। गुरुजी उस समय जालंधर में थे और मैं दुविधा में थी कि क्या करूँ। मेरी बहन ने एक चिकित्सक से समय ले लिया। मैंने गुरुजी से निवेदन किया कि यदि वह होते तो मुझे इसकी आवश्यकता नहीं होती। मैंने उनसे चिकित्सक से नियुक्त समय पर साथ रहने के लिए विनती की।
घबराते हुए मैं चिकित्सक के पास गई। मैंने उनको पूरा हाल बताया और यह भी कहा कि तीन वर्ष से मैं कोई औषधि नहीं ले रही हूँ। उन्होंने जब पूछा कि मैं किसका उपचार कर रही हूँ तो मैंने उन्हें गुरुजी के बारे में बताया। यह सुन कर उन्होंने अपने ब्रीफकेस में से गुरुजी का चित्र निकाला और पूछा कि क्या वह यही हैं। मेरे सामने, मेरी समस्या के उत्तर में गुरुजी थे। मैं भावविभोर हो गई और मेरी आँखों से अश्रु बहने लगे। चिकित्सक ने मुझे आश्वासन दिया और कहा कि गुरुजी के होते हुए मुझे कोई चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। उनके रहते हुए वह स्वयं और कुछ नहीं कर सकते। मैं घर लौट आयी और शनैः शनैः मेरी पीड़ा समाप्त हो गई। कोई सोचेगा कि यह कैसे संभव है? यह तो गुरुकृपा का एक छोटा सा विवरण है। उनकी सभा में हमारा सीमित विज्ञान हार जाता है। गुरुजी तो वेदना स्वप्न में भी समाप्त कर देते हैं।
मेरे एक घुटने में दर्द हो रहा था। मैं अपने पारिवारिक चिकित्सक के पास गयी तो उन्होंने एक्स-रे और कुछ दर्द नाशक औषधियाँ लेने के लिए कहा। उसी रात गुरुजी मेरे स्वप्न में आये और उन्होंने मेरा हाल पूछा। मैंने उन्हें अपने घुटने की पीड़ा के बारे में बताया तो उन्होंने वहाँ पर अपना हाथ रखा। प्रातः उठने पर वहाँ पर कोई दर्द नहीं था।
गुरुजी अपने अनुयायियों से इतना घनिष्ठ सम्बन्ध रखते हैं कि वह उनके मन की बातें भी पढ़ लेते हैं। एक संगत में गुरुजी अपने चित्र बाँट रहे थे। पहले उन्होंने मुझे एक चित्र दिया। उसे लेकर जब मैं जा रही थी, तो उन्होंने मुझे बुलाकर मेरी बहनों के लिए छः चित्र और दिए। मेरे मन में विचार आया कि मेरी एक बहन की तो मृत्यु हो चुकी है। मेरे यह सोचते ही उन्होंने मुझे वापस बुलाया और एक चित्र मेरे से वापस लेकर साथ में बैठी एक अन्य संगत को दे दिया।
आस्था की बेल
गुरुजी को पूर्ण समर्पण के लिए, उनसे दृढ़ सम्बन्ध स्थापित करने के लिए, पहले श्रद्धा का बीज बोना पड़ेगा। बीज के पनपने पर विश्वास का अंकुर फूटेगा - फिर उस बेल के सहारे गरुजी के चरणों में समर्पण करें। उसके बाद दिव्यता का वास्तविक आभास होगा और सतगुरु की कृपा से असंभव भी संभव हो जाएगा।
गणेश आरती में एक दोहा है: "अन्धन को आँख देत, कोढ़िन को काया। बाँझन को पुत्र देत, निर्धन को माया।।" गुरुजी की सभा में यह चारों बाते यथार्थ होती हुई देख जा सकती हैं। कैंसर का निवारण हुआ है और जनन शक्ति-हीन को पुत्रोत्पत्ति हुई है, उनके पास से कोई भी खाली हाथ नहीं गया है। भक्त को केवल अपना विश्वास बनाये रखना है।
गुरुजी शिवावतार हैं। वह इसे लोक में केवल हमें आशीर्वाद देने आये हैं। परन्तु गुरुजी ने चेतावनी दी है, कि उन्होंने कोई दूकान नहीं खोली हुई है जिसमें कोई भी आकर उनके चरण स्पर्श कर कुछ भी ले जा सकता है। उनकी कृपा के लिए उसका अधिकारी होना नितांत आवश्यक है।
कभी-कभी गुरुजी अपने दुःख भी व्यक्त करते हैं। वह कहते हैं कि जो भी आता है वह भौतिक वस्तुओं के लिए निवेदन करता है, वास्तविक आशीष कोई नहीं माँगता - गुरु प्रेम, श्रद्धा, गुरु में दृढ़ निष्ठा, उनमें पूर्ण समर्पण और विश्वास। मैं आपसे नम्र निवेदन करती हूँ कि यदि आपको गुरुजी से कुछ आकांक्षा है तो उनकी चरण धूलि माँगिए, उनके दर्शन के लिए विनती कीजिए और प्रत्येक साँस में उनको स्मरण कीजिए।
प्रेम पुष्प
कभी-कभी प्रेम से वह मुझे मीरा कह कर संबोधित करते हैं। मेरा विश्वास है कि उनको देख कर प्रत्येक व्यक्ति पहली भेंट में ही उनका प्रशंसक हो जाता है। उनके दर्शन कर प्रायः मेरे चक्षुओं से अश्रुधारा प्रवाहित होने लगती है। यह देख कर एक बार मेरी बेटी ने मुझे डाँटा और कहा कि लोग सोचेंगे कि आप पर न जाने कितनी आपदाओं का बोझ है। मैंने उसको समझाने का प्रयास किया कि मैं रोती नहीं हूँ, मेरा मन उनको देख कर प्रेम विह्नल हो जाता है और आँसू अपने आप ही बहते हैं। मेरी बेटी को कोई भी तर्क स्वीकार नहीं था और उसने मुझे अपने आप पर संयम रखने के लिए कहा।
थोड़ी देर में जब मैंने अपनी बेटी को रोते हुए देखा तो मैंने उससे कारण पूछा। उसने उत्तर दिया कि उसे पता नहीं था कि वह क्यों रो रही है। मैंने उसे बताया कि गुरुजी ने उसको अपनी प्रीति भाव का अनुभव कराया है।
वैलेंटाइन दिवस पर मैंने पूजा स्थल पर दिया जलाया। मैंने गुरुजी से कहा कि उनसे मिलने के बाद मैंने किसी से इतना प्रेम नहीं किया है। मैंने उनको बताया कि वह ही मेरे वैलेंटाइन हैं और इस दिन उपहारों का आदान प्रदान होता है। मैंने कहा कि मेरे पास अपना तो कुछ भी नहीं है जो उनको समर्पित कर सकूँ, सब कुछ तो उन्हीं का दिया हुआ है। क्या वह मेरे प्रेम के अश्रु स्वीकार करेंगे? किन्तु बदले में मैं उनसे कोई उपहार की आशा करूँगी। उस रात को गुरुजी मेरे स्वप्न में आये। उन्होंने अपने गले से एक गुलाब के फूलों की माला निकाल कर मेरे गले में डाल दी। वह सबसे उचित उपहार था। वास्तव में उनकी लीलाओं का कोई अंत नहीं है।
गुरुजी के साथ
कुछ दिन पहले गुरुजी मेरठ गये थे और हमें उनके साथ जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। गुरुजी को उसी रात्रि को लौटना था। जब वह कुछ भक्तों के साथ कार में बैठे तो मेरे मन में विचार आया कि क्या मुझे भी कभी ऐसा संयोग प्राप्त होगा। उनके साथ बैठने वाले वास्तव में अत्यंत भाग्यशाली थे।
समय के साथ यह विचार मेरे मन से निकल गया। एक बार दिल्ली में एक विवाह के उपलक्ष्य में मेरी दोनो बेटियाँ मेरे साथ थीं। गुरुजी आये और उन्होंने मुझे बुलाकर पूछा कि क्या मैं उनके साथ लंगर करूँगी? मेरे द्वारा स्थान पूछने का साहस करने पर उन्होंने एम्पायर एस्टेट का नाम लिया। मैं अति प्रसन्न हुई और उनको कहा कि मैं अपने बच्चों के साथ वहाँ पहुँच जाऊँगी। इस पर गुरुजी ने कहा कि मैं उनके साथ कार में यात्रा करूँगी। मैं कह नहीं सकती कि मैं यह सुनकर कितनी भावविभोर हो गयी।
गुरुजी की कृपा और दया की कोई सीमा नहीं है। वह सदा अपना प्रेम बरसाते रहते हैं। यह सब प्रसंग उनके अस्तित्व की एक बूँद के समान है। मैं उनसे यही विनती करती हूँ कि वह अपने चरणों में मुझे स्थान देते रहें और अंतिम क्षण तक उनको स्मरण करती रहूँ।
गुरुजी में सम्पूर्ण विश्वास रखिए और उसमें ही हमारी भलाई है। उनमें आस्था के पश्चात् हमारे मस्तिष्क में कोई चिंता नहीं आ सकती। उन्हें हमारे बारे में पूरा ज्ञान है। वह दयावान और कृपावान हैं, फिर हम क्यों चिंता करें? केवल वही चितिंत रहते हैं जिनमें आस्था का अभाव होता है और जिनका मन इधर-उधर विचरण करता रहता है।
मैंने गुरुजी की संगत में अमृत टपकता हुआ देखा है। उनकी सुगन्ध मदहोश कर देती है। इन्हीं कुछ शब्दों और प्रणाम के साथ मैं अपनी लेखनी को विश्राम देती हूँ।
मीरा मल्ही, दिल्ली
जुलाई 2007