श्रद्धालु की निजी नियति में गुरुजी का हस्तक्षेप - जहाँ पर वह भक्त को उन विपदाओं से बचाते हैं, जिनका उसे ज्ञान नहीं हो, और यह करने के लिए उसके कर्मों का निवारण - समझना सरल नहीं है। साथ ही उसके बुरे कर्मों को समाप्त करने में सर्वशक्तिशाली के कृत्य, जीवन और मृत्यु पर उनका अधिकार सिद्ध करते हैं।
दुष्ट आत्मा बनाम गुरु ऊर्जा
नरेन्द्र ढ़ंड, अब अहमदाबाद स्थित जनरल इलेक्ट्रिक में कार्यरत, के परिवार को एक विचित्र समस्या थी। उनकी पत्नी के शरीर में एक शक्तिशाली, दुष्ट आत्मा ने प्रवेश कर लिया था। उनकी माँ पटियाला में नव वर्ष के अवसर पर गुरुजी से मिलीं और उनका एक चित्र लेकर घर आयीं।
परिवार ने पंचकूला में गुरुजी से भेंट करनी चाही किन्तु यह संभव नहीं हो सका। वह मनसा देवी चले गए। महिलाओं के सरलता से हर बात पर विश्वास करने के लिए नरेन्द्र ने उन पर व्यंग्य कसा कि हर ईंट के पीछे दो गुरु मिल जायेंगे। अंततः, परिवार को चंडीगढ़ में, शिवरात्रि के अवसर पर गुरु दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ। नरेन्द्र ने अनेक सत्संग सुने और गुरुजी को यह भी कहते हुए सुना कि जो भी श्रद्धा से आया है वह उसके घर अवश्य जायेंगे। अगले दिन प्रातः 4:30 बजे यह शब्द सत्य सिद्ध हुए जब उनके शयन कक्ष का द्वार खुला और नरेन्द्र ने गुरुजी की छाया देखी। गुरुजी ने घर पर अपने आने के प्रमाण भी छोड़े। घर की सफाई करते समय दंपत्ति को कुछ स्वर्ण के अति महीन तार मिले। उनको यह पता नहीं था कि यह क्या है परन्तु अगले बीस दिन तक घर में वह उन्हें उठाते रहे। यह वही तार थे जो गुरुजी के वस्त्रों में सज्जित बेल-बूटों में लगते हैं।
नरेन्द्र ने गुरुजी से मिलने का निश्चय किया और एक शनिवार को उनसे मिलने चंडीगढ़ गये। उन्होंने गुरुजी से अपनी पत्नी की समस्या का उल्लेख किया तो गुरुजी ने कहा कि उन्हें आशीर्वाद मिल गया है। नरेन्द्र निराश हो गये। वह सोच रहे थे कि गुरुजी ने उनसे उनकी समस्या के बारे में क्यों नहीं पूछा या उनसे और अधिक बात क्यों नहीं की। उस समय तक वह गुरुजी द्वारा उच्चारित शब्दों की पूरी शक्ति से अनभिज्ञ थेः उनके कथन सत्य वचन हैं, भले ही कितने भी अनौपचारिक रूप से किसी की समस्या का निवारण करने के लिए कहे गये हों।
नरेन्द्र फिर गुरुजी के जन्म स्थान डुगरी ग्राम गये। वहाँ से वह, यादगार के लिए, गुरुजी के घर से एक ईंट ले आये। उस ईंट को धोकर उन्होंने अपने घर में पूजा स्थान पर रख दिया। उसी रात्रि को उन्हें एक स्वप्न आया। उन्होंने देखा कि वह नारी आत्मा, जो उनकी पत्नी के शरीर में थी, ने अब उनके शरीर में प्रवेश कर लिया। उनके मुख से वह बोली कि उसे कभी भी वश में नहीं किया जा सकता था किन्तु घर में रखी हुई वह ईंट इतनी शक्तिशाली है कि अब वह यहाँ पर और एक पल भी नहीं रह सकती है और वह इसी समय यह घर छोड़ कर जा रही है। परिवार की समस्या हल हो गयी थी - गुरुजी के घर से लायी हुई उस ईंट के कारण। वह एक ईंट, नरेन्द्र के उस परिहास, कि हर ईंट के पीछे दो गुरु मिल जाते हैं का मुँहतोड़ उत्तर भी थी।
अथाह प्रयत्न करने पर भी, अगले दिन, नरेन्द्र को वह पूरा स्वप्न याद नहीं रहा था। किन्तु गुरुजी ने उसके मन की सभी शंकाएँ यह कह कर दूर कर दीं कि उन्हें एक ईंट के माध्यम से कृपा प्राप्त हुई थी। फिर गुरुजी ने सदा की भांति, थोड़े से वाक्यों में गुरु की प्रकृति का रहस्योद्घाटन यह कह कर किया - "गुरु को कुछ भी बताने की आवश्यकता नहीं है। गुरु को इस स्तर तक मत गिराओ। गुरु को तुम्हारी समस्या का आभास है और वह उसका हल निकाल लेंगे।" बार-बार गुरुजी के यह शब्द सत्य सिद्ध हुए हैं।
नरेन्द्र की बेटी का उद्धार
जनवरी 1998 में नरेन्द्र अपने भतीजे की पहली लोहड़ी पर होने वाले समारोह के लिए कुछ उपले लाने डुगरी गये। वह गुरुजी की माँ से मिले, जिन्होंने उन्हें एक बोरी उपले ले जाने के लिए कहा किन्तु वह अपनी कार में केवल पाँच उपले ले कर वापिस आ गये।
तीन दिन के पश्चात् माताजी गुरुजी के पास दिल्ली में थीं। गुरुजी ने उनसे प्रश्न किया कि क्या कोई उपले लेने आया था। माँ को नरेन्द्र का नाम पता नहीं होने के कारण उन्होंने कहा कि चश्मा पहने हुए एक युवक आया था और वह कुछ उपले अपनी कार में रख कर ले गया था। जब गुरुजी ने पूछा कि क्या बोरी भर कर उपले दिए थे तो माँ ने नकारात्मक उत्तर दिया। फिर गुरुजी जैसे अपने आप से बात करते हुए बोलने लगे कि होगा या नहीं होगा। यह उन्होंने दो बार दोहराया। फिर वह बोले कि जब होगा वह देख लेंगे।
शीघ्र ही नरेन्द्र की पत्नी गर्भवती हो गयी। उसके आठवें मास में नरेन्द्र ने नवजात शिशु को लपेटने के लिए गुरुजी से उनके वस्त्रों के लिए अनुग्रह किया। गुरुजी ने मना कर दिया। शल्य क्रिया के द्वारा नरेन्द्र की पत्नी ने एक कन्या को जन्म दिया। जन्म के दिन ही उसके फेंफड़ों में संक्रमण (इनफ़ेक्शन) हो गया। नरेन्द्र ने जब गुरुजी को बताया तो उन्होंने कहा कि सब ठीक हो जाएगा। किन्तु तीसरे दिन उस नवजात शिशु की मृत्यु हो गयी।
नरेन्द्र की पत्नी के टांकों में पस भर गई। 21 दिन में वह पस पेट में एक थैली के रूप में एकत्रित हो गई। नरेन्द्र की पत्नी अत्यंत दुखी थी। उसने गुरुजी को उनके चित्र के सामने उनको भला बुरा कहा। विलाप करते हुए उसने कहा कि वह अपना बच्चा पहले ही खो चुकी थी और अब उसे यह समस्या हो गयी थी। उस रात्रि में उसे अपना उत्तर मिल गया। गुरुजी ने उसे स्वप्न में दर्शन देकर उसे 21 दिन तक एक आरती करने को कहा। उन्होंने एक उपाय भी बताया। फिर उन्होंने कहा कि उसके उदर में वह थैली जन्म दिवस के 42 दिन बाद लुप्त हो जायेगी। शोक संतप्त माँ ने गुरुजी के कथन का पालन किया। उसने वह आरती 21 दिन तक की। आश्चर्यजनक रूप से उस दिन के पश्चात् उसे उस आरती के शब्द याद ही नहीं रहे! शीघ्र ही उसके टाँकों के निकट ही एक छिद्र हो गया जिसमें से पूरी पस बह कर निकल गई। परन्तु नरेन्द्र का दुःख अब तक बना हुआ था। एक दिन वह अपने घर में दिया जलाते हुए रोने लगे।
उस रात्रि गुरुजी ने नरेन्द्र को स्वप्न में दर्शन दिये। वह उसे उस स्थान पर ले गये जहाँ नरेन्द्र ने अपने नवजात शिशु को दफनाया था। उन्होंने उसे वहाँ खोदने के लिए कहा। फिर उन्होंने उस शिशु को उनके हाथ में रखने के लिए कहा - जो अचानक बहुत बड़ा प्रतीत हुआ। फिर गुरुजी ने दूसरे हाथ से उसके ऊपर जल छिड़का तो वह रो पड़ी।
फिर उन्होंने नरेन्द्र से दो बार पूछा कि क्या उन्हें यह कन्या चाहिए। स्तब्ध नरेन्द्र कुछ कह नहीं सके। गुरुजी ने उन्हें बताया कि यदि उस समय वह उनकी माँ के कहे अनुसार उपलों की पूरी बोरी ले जाते तो यह घटनाएँ नहीं होतीं। इस शिशु ने जन्म ही नहीं लिया होता। गुरुजी ने समझाया कि नवजात शिशु के जीवित रहने से माता-पिता में से एक की मौत निश्चित थी। उस स्वप्न में, जो जागृत अवस्था से अधिक सत्य था, नरेन्द्र ने कन्या को अस्वीकार कर दिया। गुरुजी ने फिर उस कन्या को मोक्ष दिया। नरेन्द्र ने उस कन्या के शरीर से एक प्रकाश किरण निकल कर गुरुजी के कमल चरणों में जाती हुई देखी। गुरुजी ने कहा कि उसे वह मुक्ति प्राप्त हुई है जो तपस्वी सहस्त्र वर्षों की तपस्या के बाद भी प्राप्त नहीं कर पाते। उस शमशान घाट में, गुरु कृपा से, एक आत्मा को मुक्ति प्राप्त हुई थी।
...और पुत्र को आयु वृद्धि
अक्षय अत्यंत विलक्षण बालक था। तीन वर्ष की आयु तक उसके शरीर और मूत्र से गुरुजी की सुगन्ध आती थी। एक दिन उसके पिता, नरेन्द्र ने उसकी जन्म पत्री एक ज्योतिषी को दिखायी तो उन्होंने कहा कि उसकी आयु केवल आठ वर्ष तक ही है। दुःखी माँ ने नरेन्द्र को गुरुजी से प्रार्थना करने के लिए कहा। दिसंबर 2001 में गुरुजी जालंधर में थे। नरेन्द्र ने वहाँ जाकर गुरुजी को ज्योतिषी के कथन से अवगत कराया तो उन्होंने मात्र इतना उत्तर दिया कि ज्योतिषी लोगों को गलत मार्ग पर ले जाते हैं।
कुछ दिन पश्चात् एक भक्त ने जालंधर में ही एक समारोह का आयोजन किया था। गुरुजी ने नरेन्द्र को आने के लिए कहा तो उन्होंने चंडीगढ़ में एक अधिवेशन होने के कारण अपनी असमर्थता व्यक्त की। गुरुजी के अनुरोध पर नरेन्द्र रात्रि दस बजे चंडीगढ़ से जालंधर पहुंचे। गुरुजी उस समय प्रसाद वितरण कर रहे थे उन्होंने नरेन्द्र को भी प्रसाद दिया। फिर नरेन्द्र ने लंगर किया और उसके उपरान्त गुरुजी के सथ हॉल में बैठ गये। सतगुरु ने पुनः प्रसाद बाँटा और नरेन्द्र को देते हुए बोले कि उन्होंने उसके पुत्र की आयु वृद्धि कर दी है। नरेन्द्र को गुरुजी का कथन याद है - केवल रब ही यह कर सकता है और वह उसके सामने है।
जब अक्षय का पाठशाला जाने का समय आया तो उसके अभिभावकों ने तीन स्थान पर प्रवेश पत्र भरे थे। दो ने बहुत अधिक राशि दान के रूप में माँगी तो उनके बारे में सोच विचार ही बंद करना पड़ा। एक स्वप्न में गुरुजी ने अक्षय की जेब में उनका चित्र रखने का निर्देश दिया और कहा कि ऐसे उसका प्रवेश हो जाएगा। तीसरे स्कूल में बच्चे के साक्षात्कार के दिन, यद्यपि उसके माता-पिता गुरुजी का चित्र लेकर भेजने को उत्सुक नहीं थे, उन्होंने उसकी जेब में एक चित्र रख ही दिया। उसके पिता चिंतित थेः 5000 में से केवल 250 चुने जाने थे। परन्तु अक्षय का विश्वास अटल रहा। परिणाम आने पर वह चकित हो गये - प्रवेश सूची में उसका नाम पाँचवे स्थान पर था और उनको कोई अतिरिक्त पैसा भी नहीं देना पड़ा था।
मृत्यु पथ से बचाव
जनवरी 1998 में तीन साधु नरेन्द्र के घर आये। उनमें से एक भविष्यवाणी करने लगे और नरेन्द्र की माँ को बताया कि उनके बड़े पुत्र की अब तक मृत्यु हो जानी चाहिए थी। यह सुन कर माँ ने नरेन्द्र की पत्नी को बाहर बुलाया। संत ने कहा कि उसकी बढ़ी हुई आयु उन महापुरुष के कारण है जिन पर वह आस्था रखते हैं। फिर उस घुमक्कड़ ज्योतिषी ने कहा कि नरेन्द्र की मृत्यु 30 जनवरी को हो जायेगी। यदि उस संत को कपड़े दिये जाएँ तो वह इस विपदा को दूर कर देंगे। नरेन्द्र की पत्नी चिंतित हो गयी और उसने नरेन्द्र को गुरुजी के पास भेज दिया क्योंकि वह तिथि निकट ही थी। 30 जनवरी को नरेन्द्र गुरुजी के साथ थे।
उस रात को नरेन्द्र की पत्नी ने स्वप्न में देखा कि गुरुजी और माँ काली एक साथ हैं और गुरुजी काली को दंपति को आशीर्वाद देने को कह रहे हैं। माँ के हाथ में एक चांदी की छड़ है। उन्होंने दंपति को अपने हाथ आगे करने को कहा। नरेन्द्र के ऐसा करने पर माँ ने उनके हाथ पर छड़ से वार किया। नरेन्द्र की पत्नी ने भयभीत होकर मना कर दिया और हाथ आगे नहीं बढ़ाया। गुरुजी ने कहा कि छड़ के उस वार से नरेन्द्र के बुरे कर्म नष्ट हो गये थे।
उन्होंने नरेन्द्र की पत्नी को यह भी बताया कि वह दृश्य काल्पनिक न होकर वास्तविक है। उसी समय नरेन्द्र की पत्नी जाग गयी। उसने देखा कि उनके पूजा स्थान में रखे हुए गुरुजी के चित्र में लाल कपड़े काले हो गये थे, काली माँ के समान। पाँच मिनट के पश्चात् कपड़े पुनः लाल हो गये।
मृत्यु के चिह्न मिटाये
लुधियाना में उनके पैतृक घर के द्वार पर दो हाथ चिह्नित थे। नरेन्द्र की पत्नी को कुछ अंदेशा था और उसने अपनी सास को दर्शन के लिए नैना देवी के मंदिर भेज दिया। जब वह वहाँ पर नहीं थीं, नरेन्द्र की पत्नी घर साफ करने और उन निशानों को मिटाने में लग गयी। उसने उन चिह्नों को अपने हाथ से मिटाने का प्रयत्न किया। रात तक उस हाथ में अत्यंत वेदना और सूजन आ गयी थी। चार दिनों में बायें अंग में पक्षाघात हो गया। चिकित्सकों ने औषधियाँ आरम्भ करवा कर कुछ व्यायाम करने को कहा। नरेन्द्र जालंधर में कार्यरत थे। पत्नी के समाचार सुन कर वह घर आना चाह रहे थे।
किन्तु पत्नी ने उन्हें फोन कर चिंतामुक्त रहने के लिए कहा। सदा की भांति गुरुजी ने उसको रोग मुक्त किया था। उसने बताया कि वह अपना दुखड़ा गुरुजी के चित्र के सामने व्यक्त कर रही थी कि अचानक गुरुजी प्रकट हो गये। अपने इस प्रकार प्रकट होने के अचम्भे के शांत होने के बाद वह दम्पति के बिस्तर पर बैठ गये। उन्होंने बताया कि उन चिह्नों का अर्थ सास की निश्चित मृत्यु थी जो उन्होंने मात्र हाथों के लकवे में परिवर्तित कर दी थी।
गुरुजी ने अपने भक्त के हाथ मले और फिर उन्हें हिलाने को कहा। जब वह नहीं कर सकी तो उन्होंने प्रक्रिया दोहरायी। इस बार वह हाथ को हिला सकी। लकवा लुप्त हो गया था। गुरुजी ने सलाह दी कि वह अपनी सास से उनके चित्र पर जल डलवाये और इस जल से उन चिह्नों पर छींटे मारे जाएँ। छींटे मारते ही वह भूरे से लाल रंग के हो गये। गुरुजी बोले कि उन्हें आशीष मिला है।
नैनीताल का निमंत्रण
जून 2002 में गुरुजी की संगत के साथ नैनीताल जाने की योजना बन रही थी। नरेन्द्र की पत्नी सोच रही थीं कि गुरुजी उनको साथ चलने के लिए कहेंगे या नहीं। नरेन्द्र ने कहा कि न तो वह उनके पुराने अनुयायी हैं न ही धनवान हैं, तो गुरुजी उनको संभवतः आने के लिए न कहें। शीघ्र ही पता लगने वाला था कि उनका सोचना कितना गलत है। गुरुजी की संगत में कोई भेदभाव नहीं होता और उन जैसी तेजस्वी विभूति के सम्मुख सब दीन हैं। वह दाता हैं, और शेष सब, कोई भी लौकिक प्रतिष्ठा होते हुए, मात्र भिक्षु हैं।
दो तीन दिन में ही गुरुजी ने नरेन्द्र को दिल्ली बुलाया। दिल्ली पहुँच कर, लंगर खाने के उपरान्त, गुरुजी ने उन्हें नैनीताल आने का निमंत्रण दिया। जब नरेन्द्र घर वापस पहुँचे तो उन्होंने अपनी पत्नी से कहा कि गुरुजी ने केवल औपचारिकता के लिए उन्हें आमंत्रित किया होगा। पर जाने से तीन दिन पूर्व, गुरुजी ने उन्हें बुलाया और साथ में ऊनी वस्त्र भी लाने के लिए कहा। गुरुजी ने नरेन्द्र के समस्त भ्रम दूर कर दिये थे। नरेन्द्र कहते हैं कि उनको आपके जीवन के बारे में सब ज्ञान है; आप क्या करते हैं और क्या सोचते हैं।
नैनीताल में गुरुजी ने नरेन्द्र को डिप्लोमा अथवा डिग्री पाठ्यक्रम करने के लिए कहा। नरेन्द्र ने कहा कि एक दशक के बाद यह करना अत्यंत कठिन होगा। परन्तु गुरुजी ने उसे बलपूर्वक यह करने का आदेश दिया। नरेन्द्र ने डिप्लोमा पाठ्यक्रम करना आरम्भ किया पर उसे पूरा करने की शंका के साथ। परीक्षाओं में नरेन्द्र ने गुरुजी से सहायता माँगी। गुरुकृपा से उन्होंने यह दो वर्ष में ही पूर्ण कर लिया और गुरुजी को समाचार देने गये। गुरुजी सोच रहे थे कि नरेन्द्र उन्हें यह बताने का कष्ट क्यों कर रहा है - उन्होंने कहा कि परीक्षाएँ तो उन्होंने ही लिखी थीं और सफल रहे थे। गुरुजी की दया से नरेन्द्र ने एम बी ए कर लिया था।
सबको आशीर्वाद
गुरुजी सबको अपना आश्रय प्रदान करते हैं। उन्हें भक्त के भूतकाल से कोई अभिप्राय नहीं है। उन्हें पावन, पवित्र विचारों की भी कोई आवश्यकता नहीं है; ईमानदारी से किया हुआ स्वावलोकन अधिक लाभप्रद होगा। सतगुरु सदाचारी और दुराचारी, अच्छे और बुरे, धनवान और निर्धन में कोई भेदभाव नहीं करते। उनकी छत्रछाया में परिवार, मित्र, सम्बन्धी आदि सब आकर उनकी कृपा के पात्र बनते हैं। पर सतगुरु के साथ एकाकार होने के लिए स्वाभिमान को समाप्त कर उनको समर्पण करना अनिवार्य है। फिर गुरुजी अपने भक्त के जीवन पथ को ही सहज कर देते हैं और उसके बुरे कर्मों को, जैसा उन्हें उचित लगे, निष्फल कर देते हैं।
नरेन्द्र के भाई, सुनील शिव के परम भक्त हैं और दोनों भाई अमरनाथ यात्र एक साथ कर चुके हैं। 2005 के जून मास में सुनील फिर से अमरनाथ यात्र पर गये थे। एक स्थान पर भूस्खलन हो रहा था और ऊपर पहाड़ों से बड़े-बड़े पत्थर गिरते आ रहे थे। बस एक गहरी खाई के किनारे रुकी हुई थी। सुनील ने गुरुजी को याद किया, उनका चित्र निकाल कर उसके ऊपर जल डाला और उस जल को उस दिशा में छिड़क दिया जिधर से पत्थर गिर रहे थे। भूस्खलन बंद हो गया और सब यात्रियों को नव जीवन मिला।
उसके पश्चात् जब सुनील गुरुजी के दर्शन के लिए दिल्ली गये तो गुरुजी ने उन्हें संगत को यह नया अनुभव सुनाने को कहा - उनके जीवन की रक्षा करने के लिए गुरुजी ने अन्य अनेक यात्रियों को जीवन दान दिया था।
यह पहला अवसर नहीं था जब गुरुजी ने सुनील को जीवन दान दिया था। वर्ष 2000 में सुनील के एपेंडिक्स की शल्य क्रिया हुई थी पर उसके पश्चात् सुनील को मूत्र नहीं आ रहा था - यह गंभीर था। इससे सम्बंधित पेट दर्द उनसे सहा नहीं जा रहा था। चिकित्सकों के अनुसार उनकी इस कठिनाई का मूल उनकी मानसिकता थी और उन्होंने वेलियम गोलियाँ खाने को कहा - किन्तु स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ।
जब सुनील चंडीगढ़ में गुरुजी के पास गये तो उन्होंने 17 गिलास चाय पिलायी और दो लंगर कराये। जैसे ही सुनील जाने को तत्पर हुए, गुरुजी ने एक कप चाय और पीने को कहा। सुनील पहले ही इतना तरल लेने के पश्चात् और लेने की स्थिति में नहीं थे, अतः गुरुजी ने वह चाय अपने सामने ही पीने के लिए कहा। वह बोले कि अब सब ठीक हो जाएगा। बाहर जाते ही सुनील ने मूत्र किया - कोई दस मिनट तक। उस दिन से उन्हें वह समस्या पुनः नहीं हुई है। गुरुजी द्वारा अभिमंत्रित चाय ने वह किया जो चिकित्सकों की औषधियाँ नहीं कर पायीं थीं।
1997 में, एक सम्बन्धी की बेटी, मधु अस्वस्थ हो गयी। उसे कुछ नसों की कमजोरी सम्बंधित समस्या थी और उसको पेट का परैलिसिस हो गया था। वह गुरुजी की अनुयायी थी और चिकित्सा के लिए जाने से पूर्व उसने गुरुजी के दर्शन करने चाहे। उसे चंडीगढ़ लाया गया और बाहर एक खिड़की के पास बिठाया जहाँ से वह गुरुजी को देख सके। मधु ने रोते हुए प्रसाद के लिए प्रार्थना करी। गुरुजी ने उसकी आस्था की परीक्षा लेने के लिए उसको सबसे अंत में प्रसाद दिया। उन्होंने उसको पटियाला के राजेंद्र चिकित्सालय में प्रविष्ट कराने को कहा।
दो सप्ताह वहाँ रह कर उसके स्वास्थ्य में सुधार हुआ। चिकित्सालय से निकल कर वह पुनः गुरुजी के दर्शन के लिए आयी। उसके शरीर में एक बोतल लगी हुई थी जो गुरुजी ने निकलवा दी। चिकित्सक आश्चर्यचकित थे। उनके अन्य रोगियों को कोई लाभ नहीं हुआ था किन्तु वह तीन सप्ताह के उपचार के पश्चात् स्वस्थ हो गयी थी। सतगुरु के दर्शन ने पुनः दिव्य चिकित्सा का कार्य किया था।
गुरुजी की महिमा एक अन्य सम्बन्धी पर भी हुई। जब गुरुजी चंडीगढ़ में रहते थे, लंगर मलेरकोटला से आता था। कुछ परिवारों को लंगर बनाने का कार्य दिया गया था। नरेन्द्र की मामी, गुरुजी के पास कुछ चपातियाँ बनाकर भेजना चाहती थीं। इस मनोरथ को व्यक्त करने के अगले दिन ही एक भिखारी उनके घर आया और उसने भोजन माँगा, किन्तु उन्होंने मना कर दिया। भिखारी ने कहा कि पिछली रात को तो वह लंगर की बात कर रहीं थीं पर अब चाय भी नहीं दे सकती हैं। उनको इसका तात्पर्य फिर भी समझ नहीं आया पर वह उसके लिए चाय और दो लड्डू ले आयीं। भिखारी ने उनसे कुछ भी मांगने के लिए कहा - उसके इस कथन को भी समझ पाने में असमर्थ वह बोलीं कि उनके पास गुरुजी का दिया हुआ सब कुछ है। भिखारी ने तुरन्त "कल्याण होगा" कहा।
मामीजी भिखारी को शांति से खाने देने के लिए छोड़कर घर के अन्दर चली गयीं। थोड़ी देर बाद उन्होंने देखा कि वह भिखारी चला गया था और गिलास वहीं पर रखा हुआ था। भिखारी के अचानक अदृश्य होने से - सामान्यतः वह पैसे माँगे बिना नहीं जाते हैं - उनको आभास हुआ कि गुरुजी ही उस वेश में आये होंगे।
नास्तिक पर कृपा
जनवरी 2004 में गुरुजी के पिताजी की अवस्था बिगड़ गयी और नरेन्द्र को उनकी देखभाल करने के लिए उनके पास भेजा गया। उन्हें मलेरकोटला के सार्वजनिक चिकित्सालय में दिखाया गया। उनके चिकित्सक, डॉ गुरविंदर को गुरुजी के विषय में बताया गया पर उन्होंने इसमें कोई रुचि प्रकट नहीं की।
गुरुजी ने नरेन्द्र को डॉ गुरविंदर के साथ एक घंटे का सत्संग करने के लिए कहा पर चिकित्सक ने मना कर दिया। गुरुजी ने फिर नरेन्द्र को चिकित्सक से समय नियुक्त कर मिलने के लिए बोला। नरेन्द्र की बातें सुन कर भी चिकित्सक ने अलौकिक पर विश्वास करने से बिल्कुल मना कर दिया और कहा कि सबका उत्तर विज्ञान के द्वारा दिया जा सकता है। फिर भी गुरुजी चिकित्सक को अपने मार्ग पर लाने के लिए दृढ़ संकल्प थे। उन्होंने नरेन्द्र को चिकित्सक को दिल्ली आने का निमंत्रण देने के लिए कहा। डॉ गुरविंदर ने मना कर दिया, पर जैसे विधि की इच्छा, उन्हें दिल्ली में आयोजित एक समारोह के लिए आना पड़ा।
डॉ गुरविंदर दो दिन गुरुजी की संगत में आये। अगले दिन जब गुरुजी ने उन्हें वापस भेजा तो उन्होंने कहा कि वह मलेरकोटला पाँच घंटे में पहुँच जायेंगे यद्यपि दिल्ली से वहां तक सात-आठ घंटे का मार्ग है। गुरुजी के कथनानुसार जब यात्रा में पाँच घंटे ही लगे तो उनको बहुत अचम्भा हुआ।
दिल्ली में गुरुजी ने नरेन्द्र को चिकित्सक से संपर्क स्थापित कर उनसे उनकी बेटी की कुशल क्षेम पूछने को कहा। जब नरेन्द्र ने गुरुजी से कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि वह मानसिक रोग से पीड़ित है। नरेन्द्र ने गुरुजी की इच्छा का अनुसरण किया। चिकित्सक ने पूछा कि वह उनकी बेटी के बारे में जानने को क्यों उत्सुक हैं। नरेन्द्र ने जब गुरुजी की बात बतायी तो चिकित्सक ने माना कि दिल्ली में गुरुजी की संगत से आने के पश्चात् उसमें 85% सुधार है। यद्यपि चिकित्सक अलौकिक में विश्वास नहीं करते थे फिर भी उनकी बेटी स्वस्थ होने के मार्ग पर थी। अगले सप्ताह वह फिर गुरुजी के दर्शन के लिए दिल्ली आये। शीघ्र ही उनकी बेटी पूर्ण रूप से स्वस्थ हो गयी।
नरेन्द्र को गुरुजी से मिलने के पश्चात् कुछ अभूतपूर्व आध्यात्मिक अनुभव भी हुए हैं। उनमें उन्हें न केवल गुरुजी के अलौकिक रूप के दशर्न हुए, उनकी धार्मिक प्रवृत्तियों में भी परिवर्तन हुआ है। स्पष्ट है कि ऐसे अनुभव करवा कर सतगुरु अपने भक्त को अध्यात्म रत्न देकर उसे सही राह पर लाने की चेष्टा करते हैं।
अमरनाथः "मैं ही शिव हूँ"
नरेन्द्र बचपन से शिव के भक्त रहे हैं। वह माला जपने और अमरनाथ, जहाँ पर बर्फ का शिवलिंग है, जाना पसंद करते थे। गुरुजी से मिलने के पश्चात् वह अपने भाई, सुनील के साथ पुनः उस पवित्र स्थान पर गये।
जब वह दोनों गुफा के अन्दर जाने के लिए पंक्ति में खड़े हुए थे, नरेन्द्र को दिवास्वप्न होने लगा। गुरुजी की संगत का पूरा दृश्य उसकी आँखों के सामने होता हुआ गुजर गया। चाय प्रसाद आये हुए भक्तों में बाँटा जाता - हॉल में गूँजती हुई शबद कीर्तन की मधुर वाणी और पेट भर कर लंगर; भक्तों द्वारा सुनाये हुए सत्संग जिनमें वह अपने निजी जीवन में हुए चमत्कारों का वर्णन करते; देर शाम को पंजाबी गानों, पुराने संगीत या गजलों से वातावरण भर जाता। यह सब याद करते हुए नरेन्द्र के मन में प्रश्न उठ खड़ा हुआ कि गुरुजी कौन हैं।
उसके मन में यह प्रश्न आने की देर थी कि शिवलिंग से उसके ऊपर की दिशा में किरणें निकलीं और वह उसके ऊपर एक फुट के वृत्त में फैल गयीं। उसमें नरेन्द्र को शिव के दर्शन हुए, जिन्होंने गुरुजी की छवि बना ली और पुनः शिव की आकृति में आ गये। नरेन्द्र के कान में एक ध्वनि गूँजी , "मैं शिव हूँ : मैं सब कुछ हूँ"। पूरी गुफा में गुरुजी की गूँज फैल गयी, जिसका आनंद नरेन्द्र के छोटे भाई, सुनील ने भी उठाया। उसी दिन, उनके लुधियाना वाले घर में, उसकी पत्नी को एक स्वप्न आया। उसने गुरुजी को, हाथ में त्रिशूल लिए, नंदी पर बैठे हुए देखा। केवल तीन माह तक गुरुजी के पास जाने के पश्चात् सर्वकर्ता, गुरुजी ने भक्त को अपने वास्तविक रूप से परिचित करा दिया था - शिव।
गुरुजी ने एक अन्य अवसर पर अपना परिचय दिया। नरेन्द्र परिवार सहित समराला के निकट शिवलिंग के दर्शन करने गये थे। नरेन्द्र की पत्नी ने उन्हें सोमवार को वहाँ दूध आदि अन्य सामग्री ले जाकर वहाँ पूजा करने के लिए कहा। नरेन्द्र ने मना करते हुए कहा कि गुरुजी ही शिव और शिवलिंग हैं।
उसी रात को उसकी पत्नी ने एक स्वप्न देखा। वह एम्पाएर एस्टेट में गुरुजी के सम्मुख बैठी हैं। उसने गुरुजी को एक पत्र दिया। वह एकदम उठे और अन्दर चले गये और अपना एक चित्र लेकर आये। वह चित्र अति सुन्दर था, किन्तु उस पर से गुरुजी एकदम लुप्त हो गये और उस पर ॐ की आकृति दृष्टिगोचर हुई। फिर उसमें से एक शिवलिंग निकला। उसने गुरुजी से इस बारे में प्रश्न किया तो गुरुजी ने चित्र को पुनः देखने के लिए कहा। उसने देखा कि शिवलिंग में गुरुजी विराजमान हैं। उसे अभी भी सब अस्पष्ट था। अतः जब उसने गुरुजी से पुनः प्रश्न किया तो वह बोले कि उनके पास आने के बाद उसे कहीं जाने की आवश्यकता नहीं है। गुरुजी ने उसे बताया कि उनके समक्ष आने के पश्चात् अन्यथा कहीं नहीं जाना चाहिए क्योंकि वह ही रब हैं।
तुम्हारी हृदय गति रुक जायेगी...
एक बार गुरुजी लेट कर पाठ कर रहे थे और सब भक्त उनको घेर कर उनकी सेवा में लग्न थे। एक भक्त, जो उनके चरण कमल बहुत देर से दबा रहा था, थक गया और उसने अपना कार्य नरेन्द्र को सौंप दिया। नरेन्द्र प्रसन्न होकर गुरुजी के चरण दबाने लगे। उन्होंने गुरुजी के चरणों को हाथ ही लगाया था कि उन्हें अपना परिचय देने के लिए कहा गया। उन्होंने अपना नाम बताया तो गुरुजी ने ज़ोर लगा कर दबाने को कहा। थोड़ी देर बाद उन्होंने अपने तलवे और ज़ोर से दबाने के लिए कहा क्योंकि उनमें अत्याधिक पीड़ा हो रही थी।
दस मिनट के पश्चात्, सतगुरु ने पुनः, नरेन्द्र को अपनी पूरी शक्ति लगाकर तलवे दबाने को कहा। उन्होंने वैसा ही किया। गुरुजी के चरण के अंगूठे से अमृत प्रवाह होने लगा जैसे गाय दूध देती है। गुरुजी के चरण के आसपास एक फुट तक का क्षेत्र उससे गीला हो गया। गुरुजी ने नरेन्द्र को कहा कि अब देखो गुरु कौन है; उनका पूर्ण शरीर अमृत से भरा हुआ है। इसी प्रकार जब नरेन्द्र ने गुरुजी को उनका वास्तविक रूप दिखाने के लिए विनती करी तो उन्होंने नम्रतापूर्वक मना कर दिया। उन्होंने उसे समझाया कि वह 14000 वॉट के तार के समान हैं और उनके भक्त जीरो वॉट के बल्ब। वह बोले कि अगर उन्हें छुआ गया तो छूनेवाला नष्ट हो जाएगा। वह शिव हैं। उसके हृदय की धड़कन रुक जाएगी। समय आने पर वह उन्हें दर्शन करने की क्षमता देंगे।
माला टूट गयी
यदा कदा गुरुजी भक्त के निजी धार्मिक व्यवहार पर अपनी राय व्यक्त कर देते थे, पर ऐसे अवसर बहुत ही कम होते थे। माला फेरने से वह मना करते थे क्योंकि ऐसे मनुष्य स्वाभिमानी हो जाता है। परन्तु नरेन्द्र इस प्रथा को अपने बचपन से करते आ रहे थे।
एक दिन जब वह ऐसा अपने घर के पूजा कक्ष में कर रहे थे, वह समाधि में चले गये और बड़े मंदिर पहुँच गये। वहाँ पर वह हॉल में बैठे हुए थे और माला उनके सामने रखी हुई थी। गुरुजी अपने आसन पर आसीन थे और शिव मूर्ति के स्थान पर स्वयं शिव मानव रूप ग्रहण कर विराजमान थे।
शिव के हाथ से एक किरण निकल कर उनकी माला पर पड़ी। उसी प्रकार से एक किरण गुरुजी के हाथ से माला पर आयी। जैसे ही दोनों किरणें माला पर पड़ीं वह टूट गयी। उसी क्षण नरेन्द्र की चेतना लौटी और उन्होंने देखा कि उनकी माला वास्तव में टूट गयी थी। उस दिन से नरेन्द्र ने माला फेरना बंद कर दिया। वह अब गुरुजी के कथन पर विश्वास करते हैं कि प्रार्थना कभी भी करी जा सकती है। प्रभु को याद करने के लिए न ही कोई माला, न ही कोई उपयुक्त समय चाहिए। ईश्वर को खाते, पीते, घूमते, भोजन बनाते हुए, लेटे हुए या कोई भी कार्य करते हुए, कभी भी याद कर सकते हैं और उनको धन्यवाद दे सकते हैं।
यथार्थ में, समाधि की सफलता, भक्त और ईश्वर के सम्बन्ध का प्रत्यक्ष प्रमाण है। यदि उन दोनों का सम्बन्ध अटल और अटूट है तो वह कहीं भी कभी भी, किसी भी अवस्था या किसी भी वातावरण में तुरन्त स्थापित हो जाएगा - भले ही उस समय कानों को चुभने वाला संगीत गूँज रहा हो।
बड़ा मंदिरः जहाँ पर गंगा के दर्शन होंगे
एक अवसर पर गुरुजी ने नरेन्द्र और उनके परिवार को कुछ दिन के लिए बड़े मंदिर में रहने के लिए कहा। वहाँ रहते हुए एक दिन नरेन्द्र और एक अन्य अनुयायी हॉल में रखी हुई शिव प्रतिमा को साफ कर रहे थे। अचानक नरेन्द्र ने उस मूर्ति के चरणों से अमृत निकलता हुआ देखा। उन्होंने उसे कपड़े से साफ किया पर वह स्थान पुनः गीला हो गया। नरेन्द्र के साथ जो अनुयायी थे उन्होंने कहा कि ऐसा संभव नहीं है। उन्होंने कहा कि नरेन्द्र ने उस स्थान पर ब्रासो नहीं लगाया होगा। जब उन्होंने स्वयं उसे साफ करने का प्रयास किया तो तुरन्त ही वहाँ फिर अमृत प्रवाह हुआ। यह देख कर वह भी अचरज में पड़ गये।
नरेन्द्र पहली बार बड़े मंदिर दिसंबर 1998 में गये थे। गुरुजी ने स्वयं उन्हें और अन्य अनुयायियों को उसका भ्रमण करा के दर्शन कराये। अचानक समूह ने देखा कि आधा लिंग गीला है और वह सोच रहे थे कि यह कैसे संभव है। उनके ऐसा सोचते ही गुरुजी तुरन्त बोले कि उस पर अमृत वृष्टि हो रही है।
उन्होंने भविष्यवाणी की कि एक दिन गंगा नदी स्वयं आकर इस लिंग को दुग्ध स्नान करायेगी। यह लिंग भारत के 12 ज्योतिर्लिंगों से भी प्रमुख होगा और जिनकी अभिलाषाएँ कहीं और पूर्ण नहीं हो सकेंगी, यहाँ होंगी। गुरुजी के इस कथन के एक सप्ताह पश्चात्, एक अन्य अनुयायी, श्री सिंगला ने स्वप्न देखा कि गंगा इस लिंग को अपने जल से स्नान करा रही है।
राधा-कृष्ण के दर्शन
2006 में नरेन्द्र का परिवार मथुरा, कृष्ण भक्तों के पावन स्थल पर तीर्थ यात्रा के लिए जाना चाह रहा था। किन्तु अथक प्रयास करने पर भी उनकी योजनाएं संपन्न होने से रह जाती थीं। अप्रैल 2006 तक ऐसा ही चलता रहा। इसी समय परिवार बैसाखी के अवसर पर बड़े मंदिर आया। गुरुजी ने नरेन्द्र की पत्नी को स्वप्न में दर्शन दिये और उसको अपने चरण कमल दबाने के लिए कहा।
उनके चरण दबाते हुए, सतगुरु के चरणों में से एक कृष्ण की मूर्ति प्रकट हुई। उन्होंने उसे वह उनके पेट पर रखने के लिए कहा। जब उसने ऐसा किया तो वह पेट के अन्दर जाकर अंतर्ध्यान हो गयी।
फिर गुरुजी अपने कक्ष में गये और नरेन्द्र की पत्नी ने देखा कि वह एक मंदिर में परिवर्तित हो गया है। वहां पर राधा-कृष्ण का एक विशाल चित्र था। वह भक्त, जो वृन्दावन जाकर कृष्ण की प्रतिमा देखना चाह रही थी, ने यह देख कर गुरुजी से स्पष्टीकरण माँगा। गुरुजी ने प्रश्न में उत्तर दिया कि क्या उसे दर्शन हुए; वृन्दावन जाने की कोई आवश्यकता नहीं है - सब कुछ इधर ही है।
नरेन्द्र एक अन्य घटना का वर्णन करते हैं जिसमें गुरुजी ने अपनी वास्तविकता प्रकट की थी। एक स्वप्न में नरेन्द्र को एक हॉल में ले जाया जाता है। गुरुजी उसे बुलाकर तीन बार उसके कान खींचते हैं और फिर मस्तक के मध्य के स्थान को तीन बार छू कर कहते हैं, "कल्याण हो गया।"
कुछ दिन के पश्चात् नरेन्द्र ने देखा कि गुरुजी के लॉकेट पर, जिसे वह सदा पहने रहते हैं, ॐ और शेषनाग की छवि अंकित है। यह अभी भी नरेन्द्र के लॉकेट पर देखी जा सकती है। नरेन्द्र ने इसका उल्लेख गुरुजी से किया तो वह बोले कि केवल भगवान यह कर सकते हैं। कोई और अपने को ईश्वर कह सकता है? वह ही परमात्मा हैं।
और यथार्थ में विधाता वही हैं। उनका रूप रहस्यात्मक और आश्चर्यजनक है। नरेन्द्र उनसे उनकी जूतियाँ प्राप्त करने की घटना का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि वह तीन आकार की हैं - छः, सात और आठ - और गुरुजी उन तीनों को पहना करते थे। कई अन्य अनुयायियों ने भी गुरुजी के विभिन्न रूपों को देखा है। ऐसा केवल वही कर सकता है जिसने भौतिक पर विजय प्राप्त कर ली हो, जो माया से उच्च है, प्रकृति जिसके चरणों में निवास करती हो, जो उसका स्वामी हो, जो शिव है, जिसका कोई आदि, मध्य या अंत नहीं है, जिसने काल (समय) से पूर्व जन्म लिया हो और जिसने गुरुजी के रूप में मानव जाति का कल्याण करने के लिए अवतार लिया हो। वह प्रेम सहित अपने भक्तों का संरक्षण करते हैं; उन्हें कभी भी अयोग्य होने का आभास नहीं होने देते और सदा अपने भीतर छिपी हुई दिव्यता को खोजने की प्रेरणा देते हैं।
नरेन्द्र ढंड, अहमदाबाद
जुलाई 2007