यह लिखते हुए मेरी आँखों में आँसू आ रहे हैं। मेरा पुत्र शांतनु जानना चाहता है कि मुझे अपने कार्यालय का कार्य समाप्त करने में कितना समय और लगेगा। उसको यह ज्ञात नहीं है कि मैं जो कार्य कर रहा हूँ वह उससे ही संबंधित है। यह लेख, 2001 में, जब वह मात्र साढ़े तीन वर्ष का था और उसे दौरे पड़ते थे और उसके पश्चात, उसके स्वस्थ होने तक का आख्यान है। चिकित्सकों ने सोचा कि उसके रोग का कारण अँधेरे से भय है और उस पर उन्होंने कुछ और विचार करना समय का दुरुपयोग समझा।
किन्तु दिसंबर 2001 और जनवरी 2002 की अवधि में उसे दो और दौरे पड़े। न्यूरोलाजिस्ट ने अनेक परीक्षण करवाये और निर्णय लिया कि उसे किसी प्रकार का मिरगी रोग है। उसकी चिकित्सा तुरन्त आरम्भ हुई। किन्तु औषधियाँ लेते हुए वह सदा खोया - खोया और भयभीत लगता था।
फिर 7 जुलाई 2001 को, गुरुजी के जन्म दिवस पर, हमें उनके दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ। हमें उनके चित्र प्राप्त हुए और अब जब भी लगता था कि उसे दौरा पड़ने वाला है, हम वह चित्र उसके पास रख देते थे - ऐसा करते ही विपदा टल जाती थी।
फिर गुरुजी पंजाब चले गये। उनकी भौतिक अनुपस्थिति से हम अत्यंत दुःखी और असहाय हो गए। जनवरी के मध्य में हमने जलन्धर में उनके दर्शन करने का निश्चय किया। दर्शन के उपरान्त उन्होंने हमें एक गुरु भाई के घर पर गृह प्रवेश के उपलक्ष्य में आयोजित समारोह में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया। उस समय, मंदिर के द्वार पर मेरी पत्नी ने गुरुजी को शांतनु के रोग से अवगत कराया। सुन कर वह केवल "क्यों?" बोले और उन्होंने कहा कि सब ठीक है। फिर उन्होंने हमें शेष संगत के साथ उस समारोह में आने का संकेत दिया। हमें लगा कि उन्होंने हमारी बात ठीक से सुनी नहीं है। समारोह के अंत में हमने पुनः गुरुजी के पास जाने का साहस किया। मेरी पत्नी ने उनसे कुछ ही शब्द कहे होंगे कि गुरुजी चेतावनी देते हुए बोले कि यदि इस समस्या के बारे में और कुछ भी कहा तो हमें वहाँ से भेज देंगे। हम भयभीत हो गये। संगत समाप्त होने पर गुरुजी ने घोषणा की कि दिल्ली की संगत वहाँ रुक कर अगले दिन भी उनके दर्शन कर सकती है। हमें प्रतीत हुआ कि उन्होंने हमें क्षमा कर दिया है।
अगले दिन प्रातः दिल्ली लौटने पर हमने शांतनु की दवाईयाँ बंद करने का निश्चय किया - उसके न्यूरोलाजिस्ट, मेरे भाई, जो मनोचिकित्सक हैं और उनकी स्त्री रोग विशेषज्ञ पत्नी - यह उन सब की राय के विरुद्ध था। हमने सब कुछ गुरुजी के ऊपर छोड़ दिया था।
शांतनु ने भी अपनी भूमिका निभायी। उस समय तक वह चार वर्ष का हो गया था। वह गुरुजी के चित्र के सामने बैठ कर गुरुजी से विनती करता था, "मुझे ठीक कर दो।" गुरुजी ने उस अबोध की निष्कपट प्रार्थना सुनी और उसे स्वस्थ कर दिया। उनकी कृपा से शांतनु को फिर कभी मिरगी के दौरे नहीं पड़े और अपनी साढ़े आठ वर्ष की आयु में उसे जितना नटखट होना चाहिए, वह है। मेरी आँखों से फिर अश्रुधारा प्रवाहित हो रही है।
नवीन शर्मा, दिल्ली
जुलाई 2007