मेरे जीवन में इस संसार का कोई अर्थ नहीं रह गया था। सब कुछ अस्पष्ट था। जीवन अति निराशाजनक और असंतुलित हो गया था। मैं अपने आत्मविश्वास के साथ-साथ रुचि और उत्साह खो चुकी थी, संशय में थी कि पुन: पहले जैसे कैसे जी पाऊँगी। जीवन के अमूल्य वर्ष ऐसे ही व्यर्थ व्यतीत हो रहे थे।
मैं एक अति कटु अनुभव से गुज़री थी। एक भयंकर कार दुर्घटना ने मुझे असहाय कर दिया था। दो मास अर्ध चेतनावस्था में रहकर, अनेक स्टेरॉयड और अन्य औषधियाँ खाते हुए, अनगिनत परीक्षण, रोज़ सुइयों और ग्लूकोज़ की बोतलों के साथ - सारांश में यह मेरा जीवन था।
दुर्घटना में मेरी गर्दन की धमनियाँ (आर्टरीज) फट गयीं थीं, रक्त की कमी थी, मैं कमज़ोर थी और मुझे परैलिसिस हो गया था। चौदह वर्ष पूर्व ऐसे रोगी को समुचित उपचार मिलने में भी समस्या थी। एक वर्ष से मैं अपने विद्यालय नहीं गयी थी। मेरी सहेलियाँ मेरी दुर्दशा देख कर रो पड़ती थीं और मैं स्वयं शीशे में भय के कारण अपना क्षतिग्रस्त चेहरा नहीं देख सकती थी।
जीवन के ऐसे कठोर समय से गुज़रते हुए अचानक ही ईश्वर स्वरूप गुरुजी ने मेरे जीवन में प्रवेश कर उद्धार किया। उनकी कृपा प्राप्त कर मैं आनंद लोक में प्रवेश कर गयी। मेरे समक्ष खड़े होकर खुली बाहों में उन्होंने मुझे संरक्षण दिया, मानो मुझे विपदाओं से बचा रहे हों।
उस समय से अब तक वह मुझे सुमार्ग पर अग्रसर करते रहे हैं। गुरुजी ने पुन: मुझे इस संसार का आभास करवाया है और थोड़े ही समय में मुझे स्वस्थ कर दिया।
अपने परिवार में मेरी माँ और मैं, गुरुजी से सबसे पहले मिले। उस एक दर्शन ने हमारा जीवन बदल दिया। जालंधर में गुरुजी के मंदिर में वह एक कदम स्वर्ग में प्रवेश करने के समान था। हमारे पहले दर्शन में गुरुजी ने आभास करा दिया कि वह स्वयं परमात्मा हैं। गुरुजी ने हमारे जीवन के भूत वर्तमान के सब पृष्ठ खोल कर हमारे सामने रख दिये, जिनका बोध केवल स्वयं को होता है। हमें आभास हुआ कि वह इस पृथ्वी पर हम सबको आशीर्वाद देने आये हैं। प्रभु के सम्मुख हम हतप्रभ थे।
जैसे-जैसे दिन व्यतीत होते गये, गुरुजी हम पर दया करते रहे। उनके आदेश पर मैंने अपनी औषधियों का पिटारा छिपा दिया, चिकित्सकों के पास जाना बंद कर दिया, कोई शल्य क्रिया नहीं करवायी और हाँ, मैं पहले जैसे ही शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ हो गयी। चिकित्सकों ने स्वस्थ होने के लिए चार-पाँच वर्ष का समय बताया था, किन्तु गुरुजी की कृपा से यह दो मास में संपन्न हो गया।
गुरुजी से मिलने के दो मास के अंतराल में ही मेरे बालों का झड़ना बंद हो गया और पुन: सामान्य हो गये, मेरी कमज़ोरी और परैलिसिस लुप्त हो गये, श्रवण शक्ति और दृष्टि भी सामान्य हो गयीं और मेरा हिमोग्लोबिन 6 से बढ़ कर 12 हो गया। चिकित्सकों के परामर्श के विरुद्ध मैंने फिर से खेलना आरम्भ कर दिया और परीक्षाओं में अति उच्च अंकों से उत्तीर्ण हुई।
इसे क्या कह सकते हैं? केवल दिव्य हस्तक्षेप और मैंने गुरुजी को पूर्ण समर्पण कर दिया।
मेरे जीवन की योजना
जीवन की इस कठिन अवस्था से निकल कर मैंने अगले चरण में प्रवेश किया। गुरुजी के मन में मेरा अध्ययन और व्यवसाय थे।
दुर्घटना की वेदना और दहशत से निकल कर मैं भी अपने जीवन का मार्ग प्रशस्त करना चाहती थी। मैं ऐसा व्यवसाय करना चाहती थी जिसमें मैं लोगों के दु:ख दर्द कम कर सकूँ और उनकी अनुभूति का अनुभव कर सकूँ। गुरुजी जैसा अपने अनुयायियों के लिए करते हैं, वैसी ही रूपरेखा मेरे लिए बनायी हुई थी। गुरुजी के आशीर्वाद और दिशा दर्शन से मुझे, बिना औपचारिक अध्ययन किये, बंगलौर के एक महाविद्यालय में फिज़ीओथेरपी के पाठ्यक्रम में प्रवेश मिल गया। मैंने अपनी पढ़ाई सरलता से पूरी की और उसे समाप्त कर, अपने प्रशीक्षण के लिए दिल्ली के सर गंगाराम चिकित्सालय में कार्यरत हुई। मेरे वरिष्ठ सलाहकार देश के सबसे अच्छे नेत्र विशेषज्ञ थे जो अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के निर्देशक भी रह चुके थे।
मेरे ऐसे सुनियोजित व्यवसायिक पथ पर गुरुजी ने सदा मेरा ध्यान रखा था। इससे पहले कि मैं कोई योजना बना पाती, गुरुजी ने मुझे फिज़ीओथेरपी में पोस्ट-ग्रेजुएशन करने को कहा। मैंने यह पाठ्यक्रम क्रीड़ा और अस्थिरोग (स्पोर्ट्स और ओर्थोपैडिक्स) में किया।
गुरुजी के पोस्ट-ग्रेजुएशन करने के आदेश के पश्चात् प्रवेश के लिए आवेदन देने के लिए केवल तीन दिन शेष थे। मैंने उनके दिशा निर्देशों का पालन किया और सही कार्यवाही करती रही। इस समय मेरे माता-पिता मेरे साथ नहीं थे और मैं घर पर अकेली थी। मेरे नितम्ब (हिप) पर एक फोड़ा हो गया, जिसने सूज कर मुझे शैय्या पर लेटने को बाध्य कर दिया। अकेले और अत्यंत पीड़ा सहते हुए मैं कुछ करने में असमर्थ थी। मुझे विश्वास था कि गुरुजी मेरे साथ हैं। गुरुजी की संगत के सदस्य उन दिनों घर आते रहे। मैं गुरुजी के सत्संग करती थी और घाव भरता गया। चिकित्सक यह देख कर आश्चर्यचकित थे - उन्होंने उसे फोड़ने का परामर्श दिया था - किन्तु जिस भांति वह सूख रहा था, उसके कारण से वह अनजान थे।
जीवन साथी की खोज
यह एक ऐसा विषय था जिसके बारे में सोचने से भी मैं कतराती थी। मुझे इतना कुछ करना शेष था, अपने आप को सिद्ध जो करना था।
किन्तु मेरे प्रभु, गुरुजी ने मेरी भलाई के लिए, मेरे जाने बिना ही, मेरे जीवन के बारे में सोचा हुआ था। तो 23 वर्ष की आयु में उन्होंने मुझे विवाह करने के लिए एक माह का समय दिया। यह अवधि, मेरे लिए, विवाह के बारे में न सोचने के कारण स्तब्ध करने वाली और अत्यंत कठिन थी।
तथापि गुरुजी की दया से सब कार्य सहजता से होते गये जैसे स्वयं ही हो रहे हों। मेरे परिवार के सदस्यों ने वर के लिए, जिसे मैं जानती थी, हाँ कर दी। गुरुजी ने उसे हमारे पास, मेरे विवाह से मात्र 20 दिन पहले भेजा था। इस छोटे से समय में विवाह की सब तैयारियाँ, जो समान्यत: दो-तीन महीनों में होती हैं, हो गयीं। गुरुकृपा से विवाह भी बहुत वैभवशाली ढंग से संपन्न हुआ और उसके हर अंग में उनका प्रभाव स्पष्ट था। सब अतिथियों ने वातावरण, भोजन और सजावट आदि की अत्याधिक प्रशंसा करी। विवाह होते हुए गुरुजी ने संगत के एक सदस्य के माध्यम से संदेश भेजा कि हम दोनों जीवन भर के लिए साथ रहेंगे। इससे बड़ी और कौन सी भेंट हो सकती है। जब गुरुजी ने जीवन के सबसे महत्त्वपूर्ण निर्णय को अपना आशीष दे दिया है, तो चिंता का कोई प्रश्न ही नहीं उठता है।
विवाह स्थल का विशेष वर्णन करना अनिवार्य है। सामान्यत: दिल्ली में विवाह स्थल बहुत पहले आरक्षित करना पड़ता है क्योंकि अच्छे स्थानों की सदा कमी रहती है। यद्यपि मेरे विवाह में समय की कमी थी, उचित स्थान मिलने में कोई अड़चन नहीं हुई। अशोक होटल के बारे में गुरुजी ने मुझे 12 वर्ष पूर्व बताया था किन्तु ग्यारह वर्ष की आयु में मैंने उस पर कोई ध्यान नहीं दिया था। गुरुजी के साधारण से कहे गये वचन भी अनुयायी के प्रति उनके मन की वास्तविकता दर्शाते हैं। मुझे यह भी ज्ञात हुआ कि उनके अनौपचारिक से कहे हुए शब्दों में भी अन्यंत गूढ़ ज्ञान छिपा रहता है और उनको कभी भी सुन कर अनसुना नहीं करना चाहिए।
मेरे जीवन का आधार गुरुजी हैं और सदा रहेंगे। मैं ऐसा परिवार चाहती थी जहाँ पर वह इसे समझ सकें और सदा मेरा साथ दें। मेरी नन्द, सास और मेरे पति - सब गुरुजी में विश्वास रखते हैं। मैं गुरुजी की आभारी हूँ कि उन्होंने यह संभव कर दिया।
गुरुजी अपनी कृपा दृष्टि हमारे परिवार पर करते रहते हैं। भले ही वह मेरे पति, उनका व्यवसाय, मेरी नन्द, अन्य ससुराल के सदस्य या पारिवारिक शांति की बात हो - वह जीवन के प्रत्येक पहलू को छूते हैं। दूतावास जाये बिना ही वीसा मिलना, संपत्ति के लेख, मेरे पति के व्यवसाय के मार्ग को सरल करना: गुरुजी सदैव हमारे साथ हैं और रहेंगे।
परिवार का ध्यान
दुर्घटना के पश्चात् मेरे माता-पिता अत्यंत विचलित हो गये थे। उनका जीवन अस्त-व्यस्त हो गया था। उन्होंने अपनी बेटी को एक अति कटु मानसिक आघात से गुजरते हुए देखा था।
मेरी माँ का जीवन मानो थम सा गया था। उनकी प्रत्येक क्रिया मेरे इर्द-गिर्द घूमती थी। अति सौभ्य और हंसमुख स्वभाव वाली मेरी माँ मानसिक रूप से अत्यंत विचलित हो गयीं थीं। किन्तु गुरुजी ने मेरे माता-पिता को आश्रय दिया, जिसकी उन्हें अत्याधिक आवश्यकता थी, उन्हें उत्साह और प्रेरणा दी, और उनके जीवन को पुन: रसमय बनाया।
मेरी माँ की वेदना जिन्हें उन्होंने अपने जीवन का हिस्सा मान लिया था, कुछ ही समय में समाप्त हो गयी। मेरे पिता, एक सेना अधिकारी होते हुए, पंजाब व कश्मीर में, अक्सर गंभीर समस्याओं में उलझे रहते थे। राष्ट्र की सेवा में लगे हुए, प्राय: वह देश के दुश्मनों का सामना करते रहते थे और उनके जीवन को सदा मृत्यु का भय रहता था। मेरी माँ को सदा चिंता रहती थी पर गुरुजी कहते थे कि चिंता की कोई आवश्यकता नहीं है। उनके दर्शन, स्वप्न अथवा सुगन्ध के माध्यम से उनके साथ होने की अनुभूति सदा रहती थी - माँ को आश्वासन देते हुए या पिता का संरक्षण करते हुए।
मेरे छोटे भाई की सेना में जाने की हार्दिक अभिलाषा थी। गुरुजी ने इस विचार का प्रेम और अभिमान से स्वागत किया। उसके लिए शारीरिक परीक्षण की सीढ़ी पार करना सरल नहीं था। वह दो बार असफल रहा था। चिकित्सकों के अनुसार वह वर्णन्ध (कलर ब्लाइंड) था जिसका कोई उपचार नहीं है। गुरुजी ने आश्वासन दिया था कि इस बार वह सफल रहेगा और तीसरी बार, वास्तव में, उसमें इस रोग के कोई चिह्न नहीं मिले।
अचम्भा, अचम्भा और अचम्भा...
हम गुरुजी के दर्शन के लिए बीकानेर से दिल्ली आये थे। हमें रात्रि नौ बजे की गाड़ी से बीकानेर लौटना था जो वहाँ प्रात: आठ बजे पहुँचती है। किन्तु गुरुजी के मंदिर से उनके आदेश के बिना जाने का प्रश्न ही नहीं उठता है। हम गुरुजी के सम्मुख बैठे हुए थे; उन्हें पता था कि हमारे लिए क्या उचित है - समय गुज़रता जा रहा था। अंत में उन्होंने हमें दस बजे जाने की आज्ञा देकर ग्यारह बजे की ट्रेन से जाने के लिए कहा, जिससे हम कुछ समय बचा सकें।
इतने प्रबन्ध के पश्चात् हमारी गाड़ी बीकानेर स्टेशन पर प्रात: आठ बजे ही पहुँच गयी। इतने समय की बचत के कारण हम अति प्रसन्न थे। अचम्भे की बात है कि आठ बजे वाली ट्रेन हमारे पहुँचने के बाद नौ बजे वहाँ पहुंची। उसे धुंध के कारण देरी हो गयी थी। तब हमें पता लगा कि गुरुजी ने हमें क्यों रोका हुआ था।
गुरुजी ने मेरे पिता की वृत्ति का भी ध्यान रखा और सदा करते रहेंगे। जब भी मेरे पिता को आवश्यकता होती है, गुरुजी उनके साथ होते हैं। कार्यरत रहते हुए उतार चढ़ाव आते रहते हैं और इसमें अक्सर योग्य अधिकारी का नुक्सान होता है। मेरे पिता के सेना में रहने के कारण स्थानान्तरण और परिवार को स्थायी रखने की समस्याएँ सदा रहती थीं।
दुर्घटना के पश्चात्, मेरे पिता के पहले दर्शन पर, गुरुजी ने मेरे पिता के मन में दुर्घटना के अवसर पर गुज़रती हुई प्रत्येक बात बता दी। उन्होंने बताया कि मेरे पिता ने उस समय दुर्घटना को रोकने का कितना अथक प्रयास किया था। यह केवल मेरे पिता को पता था। गुरुजी, हमारे प्रभु, को इसका ज्ञान होना ही था, यद्यपि वह उस समय वहाँ नहीं थे और हम उन्हें जानते तक नहीं थे।
मेरे पिता कई वर्षों से पीठ दर्द से पीड़ित थे - उन्हें बैठने या उठने में कठिनाई होती थी। क्योंकि हम गुरुजी के पास और गंभीर समस्या लेकर गये थे, यह छोटी-मोटी बातें हमने उनसे नहीं कहीं थीं। किन्तु ईश्वर को सबका ज्ञान होता है; अत: एक दिन उन्होंने मेरे पिता को बुलाया और कहा कि चलिए, आपके स्पोंदियोलोसिस का उपचार करते हैं। रसोई से एक चम्मच को उन्होंने मेरे पिता के रीढ़ की हड्डी के दोनों ओर ऊपर से नीचे तक ले गये और उनकी पीठ थपथपा कर बोले कि उपचार हो गया। उस दिन से, मेरे पिता को वह समस्या फिर कभी नहीं हुई।
जब मेरे पिता 1994-95 में कर्नल थे, पूरे प्रेम सहित, गुरुजी ने उनको कहा कि उन्होंने उन्हें मेजर जनरल बना दिया है। सेना में पदोन्नति के लिए हायर कमांड या लॉन्ग डिफेन्स मेनेजमेंट में से एक पाठ्यक्रम (कोर्स) करना आवश्यक है। अत्युत्तम अधिकारी होते हुए भी मेरे पिता का इन दोनों में से किसी में भी नामांकन नहीं हुआ। उस समय वह लेह में एक ब्रिगेड के उप-कमांडर थे। उनकी ब्रिगेड को आतंकवादी समस्या से जूझने के लिए कश्मीर भेजा गया। गुरुजी की दया से वहाँ पर उनकी सेवा इतनी प्रशंसनीय रही कि मेजर जनरल तक की पदोन्नति के लिए उनका मार्ग प्रशस्त हो गया। वहाँ से उनको राष्ट्रीय रक्षा कॉलेज के लिए नामांकित किया गया (हायर कमांड या लॉन्ग डिफेन्स मेनेजमेंट कोर्स किये बिना वह अकेले ऐसे ब्रिगेडियर थे)। उनकी पदोन्नति भी चमत्कारिक है क्योंकि आर्टिलरी में केवल तीन ब्रिगेडियर ही मेजर जनरल पद के लिए चुने गये।
मेरे पिता जालंधर में थे और उनकी रेजिमेंट को नसीराबाद जाने के आदेश आये। गुरुजी बोले कि परिवार को अगले छह मास तक कहीं जाने की आवश्यकता नहीं है। मनुष्य होने के कारण हमने उनकी अवहेलना की और वहाँ जाकर स्कूलों में प्रवेश ले लिया - पता लगा कि उन विद्यालयों का वातावरण अत्यंत निराशाजनक था। हमें बिना कुछ प्राप्त किये खाली हाथ ही वापस आना पड़ा। उसके तुरन्त बाद पंजाब में अत्याधिक वर्षा हुई, जितनी संभवत: पहले कभी नहीं हुई थी। मेरे पिता की रेजिमेंट को वहीं पर छ: मास और रुकना पड़ा। इसे क्या कहेंगे? अचम्भा ही अचम्भा।
एक रात हम अपनी नयी इंडिका गाड़ी में वापस घर आ रहे थे कि अचानक कार के गियर में समस्या आ गयी और वह तीसरे पर अटक गया। हम में से किसी को भी इस कार के बारे में कुछ नहीं पता था अत: मेरे पिता ने उसी गियर में गाड़ी चलायी - चलते रहने के लिए 40 किलोमीटर की गति रखना अनिवार्य था। गुरुजी का नाम लेकर हम चलते रहे। उस 13 किलोमीटर के मार्ग पर, अनेकों लाल बत्तियों के होते हुए भी हमें कोई रुकावट नहीं हुई। अंत में घर के पास गायों का एक झुण्ड बैठा हुआ था। मेरे पिता को लगा कि अब तो गाड़ी रुक जायेगी। अचानक वह सब गायें उठ कर एक किनारे हो गयीं और कार निकलने के पश्चात् वहीं सड़क पर आकर बैठ गयीं।
जहाँ सूर्य सदा प्रकाशमान रहता है
जिस दिन मेरी माँ ने गुरुजी के दर्शन किये वह उनके लिए सबसे बड़ा दिन रहा है और वह उसे कभी भी भूल नहीं सकतीं। कार दुर्घटना के पश्चात् हमारे हितैषी, गुरुजी के पास जाने के लिए कहते थे। मेरी माँ में धार्मिक प्रवृत्ति का अभाव था, अत: वह नहीं जाती थीं। एक दिन, उनकी एक सहेली, जो गुरुजी की भक्त भी थीं, प्रात:काल उनके पास जा रहीं थीं। मेरी माँ के मन में अनेक विचार उत्पन्न हुए, "क्या इसे कुछ और करने को नहीं है? घर के सब काम छोड़ कर यह ऐसे कैसे जा सकती है? इस युग में भी यह बाबा और संतों के चक्कर काट रही है?"
मेरी माँ की वह सहेली मेरी माँ को बार-बार चलने का आग्रह करती रहीं थीं। अत: माँ ने सोचा कि आज उनके साथ जाकर यह काम भी निपटा लिया जाये। मेरी माँ उनके साथ दो बातों को मन में बिठा कर गयीं जो वह बार-बार कहती थीं - पहली, कि आस्था आवश्यक है और दूसरी, कि वह सर्वज्ञाता हैं।
जब वह गुरुजी के पास पहुँची तो अपने आसन पर बैठे हुए अद्वितीय स्नेह और प्रेम की उस जीवित मूर्ति के दर्शन किये जो नश्वर की श्रेणी में कदापि नहीं थे। कई मास की व्यथा के पश्चात् मेरी माँ ने शांति से साँस ली। उनके प्रथम दर्शन के लिए वही दिन निश्चित रहा होगा। उनके सम्मुख वह अपनी सब समस्याओं से मुक्त हो रहीं थीं। उस शुभ दिन के उपरान्त बीते दिनों को भूलने का सिलसिला शुरू हो गया।
भूत ट्रेन में यात्रा
हम गुरुजी के दर्शन हेतु जालंधर जाते थे और रविवार की रात्रि को चलकर सोमवार को सुबह कार्यालय में पहुँच जाते थे। क्योंकि उन दिनों पंजाब में रात को बसें नहीं चलती थीं हम रात को 2:30 बजे वाली ट्रेन पकड़ते थे।
एक दिन, जब हम गुरुजी के दर्शन कर रहे थे, मेरे पिता को प्रात: 8:30 बजे अपने कार्यालय पहुँचना था। परन्तु गुरुजी ने हमें अपने पास बिठाये रखा - ट्रेन का समय निकल चुका था। तीन बजे उन्होंने हमें जाने की आज्ञा दी, यह कह कर कि हम ट्रेन जालंधर छावनी स्टेशन से पकड़ें। अगली ट्रेन 4:15 बजे थी जो मेरे पिता के कार्यालय के पहुँचने के समय के बाद ही पहुँचाती। 3:15 बजे हम छावनी स्टेशन पहुँचे और मेरे पिता, टहलते हुए पूछताछ कार्यालय पहुँचे जो उस समय बंद होना चाहिए था, किन्तु वह खुला हुआ था। उन्होंने जब 4:15 से पहले अम्बाला की ओर जाने वाली किसी और ट्रेन के बारे में जानना चाहा तो खिड़की पर बैठे हुए लिपिक ने उत्तर दिया कि एक विशेष ट्रेन सिग्नल होने की प्रतीक्षा कर रही है और वह अम्बाला जायेगी। मेरे पिता ने हम सबको जल्दी से अन्दर बुलाया और उसी समय उस ट्रेन ने भी प्लेटफार्म पर प्रवेश किया। हम शीघ्रता से ट्रेन में सवार हुए तो देखा कि डिब्बा बिलकुल खाली था, और संभवत: पूरी ट्रेन भी खाली ही थी। सुरक्षा के लिए हमने डिब्बे को बंद कर लिया। जब ट्रेन चली तो उसमें कुछ भी सामान्य नहीं था।
जालंधर से अम्बाला तक की यात्रा उसने इतनी तीव्र गति से पूर्ण की मानो वह पटरी पर नहीं अपितु हवा में उड़ रही है। जब कुछ ही घंटों में हम अम्बाला पहुँचे और मेरे पिता ने स्टेशन मास्टर से पूछा कि वह कहाँ जा रही है तो उसे उसके बारे में कुछ भी ज्ञात नहीं था। कल्पना कीजिये कि एक स्टेशन मास्टर को अपने स्टेशन पर आयी हुई ट्रेन के गंतव्य के बारे में कुछ पता नहीं हो।
स्टेशन से बाहर निकलते ही हमें चंडीगढ़ की बस मिल गयी और उस से हम 40 मिनट में ही वहाँ पहुँच गये। वहाँ पहुँच कर उसके चालक ने बस अड्डे न जाकर यात्रियों को एक गोल चक्कर पर उतार दिया पर किसी भी यात्री ने विरोध नहीं किया। बस के इस बदले हुए मार्ग से हमें पिता के कार्यालय के निकट ही उतरने का अवसर मिल गया। मेरे पिता ने चालक से विनती करी तो उसने 15 मिनट के बाद हमें चंडीमंदिर के द्वार पर उतारा। जब मेरे पिता ने मुख्यालय के वाहन विभाग में फोन किया तो वह सोच रहे थे कि वह अति शीघ्र उनके चालक को ढूंढ कर उसे भेज देंगे जिस से उनके समय की बचत हो जायेगी। किन्तु दूसरी ओर से फोन उनके चालक ने ही उठाया।
जैसे-जैसे सब परिस्थितियाँ स्वत: ही ठीक होती गयीं और मेरे पिता अपने कार्यालय ठीक समय से पहुँच गये, हमने गुरुजी को धन्यवाद दिया। अगले सप्ताह जब हम जालंधर पहुँचे तो गुरुजी ने मेरे पिता से पूछा कि उन्हें वह भूत ट्रेन कैसी लगी थी। तब हमें पता लगा कि यात्रा का समय इतना कम कैसे हुआ था - दिव्य हस्तक्षेप। गुरुजी महान हैं।
संक्षेप में यह मेरे और मेरे परिवार के संस्मरण हैं। हमारी ओर से क्या आवश्यक था? केवल आस्था और समर्पण। क्या उसकी आशा करना बहुत अधिक है? गुरुजी हमारे सम्मुख हैं। वही परमात्मा हैं। समय रहते हम इस तथ्य से अवगत हो जायें तो अच्छा रहेगा।
हर मिनट, हर सेकण्ड चमत्कार से परिपूर्ण है। कहने को अभी भी बहुत कुछ शेष है। सबको आकर इस आनंदमय संसार और प्रभु प्रेम को प्राप्त करना चाहिए। वह हम सबको बुला रहे हैं। हम किसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं?
निक्की मल्होत्रा, दिल्ली
जुलाई 2007