सितम्बर 2008 में मुझे कम्पनी की तरफ से प्रस्ताव मिला कि मैं अपने वर्तमान आवास को जोकि मालवीय नगर दिल्ली में था, उसे कम्पनी लीज़ पर मिलने वाले घर में परिवर्तित कर लूँ। मुझे पहला विकल्प द्वारका का दिया गया। हम एक बहुत ही अच्छी जगह देखने गए और हमने वहाँ पर रहने का मन बना लिया। लीज़ दस्तावेज पर हस्ताक्षर हो गये और हमारा 1 अक्टूबर 2008 तक द्वारका जाना निश्चित हो गया। अब मेरे विभागध्यक्ष को कम्पनी की तरफ से लीज़ के दस्तावेज पर हस्ताक्षर करने थे और मेरे लिए घर लेना था।
यद्यपि, जिस दिन मैंने यह सारी कागजी कार्यवाही समाप्त की, उसी दिन हमें एक और घर विकल्प स्वरूप एम्पायर एस्टेट में बताया गया। किन्तु मैं उस जगह पर जाने के लिए इच्छुक नहीं था क्योंकि हमने पहले ही निर्णय ले लिया था। किन्तु अपनी धर्मपत्नी के ज़ोर देने पर, हमने एक बार जाकर देखने का सोचा।
मालवीय नगर से एम्पायर एस्टेट तक पूरे रास्ते बहुत तेज़ बारिश हो रही थी, और मैं लगातार इस बात पर बहस कर रहा था कि हम अपनी कोशिश और वक्त दोनों व्यर्थ कर रहे हैं। किन्तु जैसे ही हमनें एम्पायर एस्टेट में स्थित घर देखा, तुरन्त उसके लिए स्वीकृति दे दी। यह एक बहुत ही सुविधाजनक स्थान पर था और द्वारका से हर मायने में बेहतर था। मैंने मौजूदा अनुबंध को रद्द कर दिया। हम अब तक उसी कालोनी में गुरुजी की उपस्थिती से अनभिज्ञ उस घर में 3 अक्टूबर 2008 को रविवार के दिन स्थानांतरित हुए, और घर को संभालने में, बेहद थकान होने की वजह से शाम को एक बार भी घर के बाहर घूमने तक नहीं निकले।
"आओ गुआंडी"
उसके बाद मैंने अपना नामांकन भारतीय विदेश व्यापार संस्थान (इंडियन इन्सटीट्यट ऑफ़ फॉरेन ट्रेड) में एम बी ए (MBA) के लिए करा लिया। मेरी कक्षा सोमवार से शनिवार शाम 6:30 से रात्रि 10 बजे तक होती थी। एक दिन बृहस्पतिवार शाम को कक्षा से लौटते समय मैंने एक विशाल जनसमूह को अपने पास वाले घर के बाहर देखा। ऐसा लग रहा था जैसे कोई शोकसभा हो रही है। लेकिन, मैं आश्चर्यचकित था क्योंकि वह अगले तीन दिन तक भी दिखती रही। मैंने रविवार को सुरक्षा गार्ड से इस बारे में पूछा तब उसने बताया कि गुरुजी एम्पायर एस्टेट में रहते हैं और सप्ताह में चार दिन गुरूवार से रविवार संगत करते हैं। अगले सप्ताह गुरूवार को मेरी कक्षा नहीं थी और हमनें गुरुजी के पास जाने का निश्चय किया।
हम गुरुजी के दरबार में शाम 7 बजे पहुँचे और गुरुजी के दर्शन किये। वह साइड बोर्ड पर बैठे हुए थे और 25-30 लोग उनके आस-पास हॉल में बैठे हुए थे। नवागंतुक होने के कारण हम उनके पाँव छुए बगैर ही सीधा उनके करीब बैठने के लिए चले गए। हमने वहाँ पर गुरुजी के छायाचित्र देखे, जिनमें उन्होंने बहुत महंगे और सुन्दर वस्त्र पहने हुए थे। हमें महसूस हुआ कि हम गलत जगह पर आ गए हैं। यह निश्चित रूप से कोई ढोंगी गुरू हैं जिनके अनुयायी समाज के ऊँचे व ताकतवर लोग हैं। कुछ समय बाद ही, हम बिना गुरुजी की आज्ञा लिए वहाँ से सीधे बाहर निकल आए। हमने सोचा कि यह गुरुजी सिर्फ पेज 3 के लोगों के लिए ही हैं।
यद्यपि मुझे उस जगह के महत्व पर ज्यादा यकीन नहीं हुआ, किन्तु फिर भी अपने जूते वापस पहनते समय, मुझे वहाँ से इस तरह उठकर आने पर बुरा लग रहा था। मेरी उस जगह के बारे में उत्सुकता बनी रही किन्तु मैंने वहाँ दुबारा न जाने का निश्चय किया। एक सोमवार, शाम के समय गौरव, कर्नल (रिटायर्ड) जोशी और कुछ लोग हमारी गली में क्रिकेट खेल रहे थे। मैं इस बात से अन्जान कि वे गुरुजी से सबंधित हैं, उनके साथ खेलने लगा, और गुरुजी के बारे में पूछने लगा। मुझे यह बताया गया कि हमें गुरुजी के पास आना होता है और वह हमारी सभी मुसीबतों का ध्यान स्वयं रखते हैं। हम दुबारा उसी रात को मंदिर गए। हमने संगत का आनंद लिया, लंगर खाया और उसके बाद गुरुजी से आज्ञा लेने गए। जैसे ही हम उनके पास पहुँचे, "गुरुजी ने कहा, "आओ गुआंडी" (आओ मेरे पड़ोसी)। उसके बाद गुरुजी ने कर्नल जोशी से पूछा, कि क्या वो मैं ही था जो उनके साथ क्रिकेट खेल रहा था? उसके बाद उन्होंने हमें जाने की आज्ञा दे दी।
अपमानित और आश्चर्यचकित सा मैं वहाँ से बाहर निकल आया। अपमानित इसलिए, क्योंकि मुझे पंजाबी का एक भी शब्द समझ में नहीं आता था, और मैंने 'गुआंडी' को अपशब्द सोच लिया था। तब मेरी पत्नी ने मुझे समझाया कि इसका मतलब पड़ोसी होता है। इस बात का मुझे अभिमान है कि गुरुजी के पड़ोसी बनने का सौभाग्य मुझे मिला। गुरुजी से क्रिकेट की बात सुनकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ और बाद में मैंने कर्नल जोशी से पूछा कि क्या उन्होंने गुरुजी को इस बारे में बताया। कर्नल जोशी ने मुझे स्पष्ट किया कि गुरुजी भगवान हैं उन्हें कुछ भी बताने की जरूरत नहीं, वह अन्तर्यामी हैं।
यह मेरे जीवन में एक नए चरण का आरंभ था। मुझे अब समझ में आने लगा था कि मेरा इतनी अप्रत्याशित परिस्थितियों में एम्पायर एस्टेट आना कैसे संभव हुआ। वास्तव में यह गुरुजी का मुझे अपने पड़ोसी के रूप में आशिर्वाद देने योजना के अनुरूप था। आज भी मुझ पर उनकी कृपा प्रत्याक्षित है। साधारणतः लीज़ की अधिकतम अवधि दो वर्ष होती है, किन्तु यहाँ पर मेरे निवास की अवधि चार वर्ष तक बढ़ा दी गयी थी।
मूत्राशय से कर्कट रोग का गायब होना
दूसरी बार दर्शन के बाद हमने सप्ताह में चारों दिन संगत में जाना आरंभ कर दिया। गुरुजी के दर्शन और संगत का अनुभव एक सम्मोहन के समान था। कुछ दिनों बाद ही मेरे साढू भाई ने हमें एक बुरी खबर दी कि उनके मूत्राशय में कर्कट रोग का पता चला है। उन्होंने एम्स (नई दिल्ली), वेल्लोर और टाटा मेमोरियल अस्पताल (मुम्बई) में बायोप्सी करवाई थी। परिणाम सभी जगह समान थे और कैंसर के होने की पुष्टि कर रहे थे। वह अपने उपचार के लिए एम्स लौटे। दिल्ली में उनके निवास के दौरान मैं उनसे मिला और उनसे गुरुजी के दर्शन के लिए आने को कहा। वह गुरुजी के दर्शन के लिए आए और उनका आशिर्वाद लिया।
गुरुजी ने मेरे साढू भाई को प्रसाद स्वरूप ताँबे का लोटा दिया और उस में रात में जल भरकर सुबह पीने और बचे हुए जल को नहाने के पानी में मिलाने को कहा। मेरे साढू भाई एम्स में भर्ती थे। चिकित्सक उनके मूत्राशय को निकाल कर उसकी बायोप्सी कर यह पता करना चाह रहे थे कि कैंसर कितना फैल गया है, और उससे कितना नुकसान हुआ है। किन्तु बायोप्सी के परिणामों ने सबको आश्चर्यचकित कर दिया। वहाँ कर्कट रोग के कोई चिन्ह मौजूद नहीं थे, और यह सब गुरुजी के उन्हें आशिर्वाद देने के सात-आठ दिन बाद ही हुआ। इस नई स्थिती को ध्यान में रखते हुए चिकित्सकों ने यह निर्णय लिया, क्योंकि पहले ही समुचित उपचार दिये जा चुके हैं, और अब यही ठीक होगा कि मूत्राशय को निकाल दिया जाय। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि इसमें कोई भी मुश्किल व समस्या नहीं है, क्योंकि कोई कैंसरयुक्त वृद्धि नहीं है।
हमें यह रिपोर्ट मंगलवार को मिली और अगली ही संगत जोकि गुरूवार को थी, हम गुरुजी के मंदिर पहुँच गये। इससे पहले कि हम गुरुजी को परिणामों से अवगत कराते, उसके पूर्व ही गुरुजी ने हमें बता दिया कि मूत्राशय को निकालना है, हो जाएगा। साथ ही यह कहा, अन्य सब ठीक है।
उन बदली हुई रिपोर्ट के साथ मेरे साढू भाई टाटा मेमोरियल अस्पताल जोकि मुम्बई में है, दुबारा राय लेने के लिए गए। परिणाम वही थे, मानो चिक्तिसीय परमर्श भी गुरुजी के आदेशानुसार चल रहे थे। वहाँ उनका आपरेशन हुआ और उनके खराब मूत्राशय को एक कृत्रिम मूत्राशय में बदल दिया गया। मेरे साढू भाई जोकि अपनी बिमारी के सबसे खराब वक्त में थे उन्हें तरल पेय कम करने को कहा गया क्योंकि उनका मूत्राशय उसे नियंत्रित नहीं कर पा रहा था। आज वह पूर्णतः स्वस्थ व तंदुरस्त जीवन व्यतीत कर रहे हैं। यह सब गुरुजी के आर्शिवाद के बिना असंभव था।
एम्पायर एस्टेट में लीज़ का बढ़ना
मई 2005 में महिंद्रा रेनॉल्ट के प्रोजैक्ट में मुझे नासिक पद स्थापित कर दिया गया। मैं गुरुजी के पास गया और यह सोच रहा था कि जब उन्होंने मुझे अपना पड़ोसी चुना है तो मुझे दूर क्यों भेजा जा रहा है। मैं भी इस स्थानांतरण से संतुष्ट नहीं था क्योंकि मेरी पत्नी दिल्ली में कार्यरत थी और बच्चे भी यहाँ पर स्थिर थे।
लेकिन, जब मैंने गुरुजी को मेरी नासिक नियुक्ति का उल्लेख किया, उन्होंने कहा, "जा ऐश कर नासिक में" और मेरी पत्नी को एम्पायर एस्टेट में रहने के निर्देश दिए ('मेरे कोल रह')। गुरुजी के आदेश को देखते हुए, मैं अगले ही दिन सुबह वापस अपने कार्यालय चला गया। अपने वरिष्ठ को एक मेल लिखकर अनुरोध किया कि मेरे परिवार को एम्पायर एस्टेट में रहने दिया जाय और मैंने नासिक में एक घर किराये पर ले लिया। मुझे किसी सकारात्मक प्रतिक्रिया की उम्मीद नहीं थी, फिर भी मैं उत्तर के लिए इंतजार कर रहा था। मेरे लिए यह अत्यन्त आश्चर्य की बात थी, कि हमारे संगठन के इतिहास में पहली बार, इस तरह के अनुरोध को अनुमति दी गई थी। यह सब घटनाओं और निर्णयों का संभव होना बिना गुरुजी के मार्गदर्शन के असंभव हो गया होता।
सितंबर 2005 में नासिक के लिए जाते वक्त मैंने गुरुजी से कहा कि आप कब मुझे वापस बुलाएगें। उन्होंने मुझे कहा कि यह 2007 की बैसाखी तक ( बैसाखी १3 अप्रैल को है)। उनके यह शब्द एक आदेश थे: मार्च 2007 में, मुझे नासिक में अपने काम को बंद करने के लिए कहा गया था और अगले महीने के पहले सप्ताह में मुझे वापस भेज दिया गया। इससे मैं गुरुजी की शरण में बड़े मंदिर में बैसाखी समारोह का आनंद ले पाया। नासिक जाते वक्त मैं थोड़ा सा आशंकित था कि, मेरी पत्नी और बच्चों को मेरी अनुपस्थिति में किन परिस्थितियों का सामना करना पड़ेगा, लेकिन यहाँ फिर से गुरुजी की कृपा ने मुझे आश्वस्त कर दिया कि वहाँ उन्हें कोई समस्या नहीं हुई और उनका समय अच्छी तरह से व्यतीत होता रहा ।
सदैव आशीर्वाद
गुरुजी की कृपा उनकी महासमाधि के बाद भी स्वतंत्र रूप से प्रवाहित हो रही है। इस तथ्य का प्रमाण दिन-प्रतिदिन के अनुभव हैं जो कि अपने भक्तों के जीवन की हर छोटी सी बात पर गुरुजी के नियंत्रण का संकेत देते हैं। इसका उदाहरण मेरे मामा हैं।
मेरे मामा, बोकारो इस्पात संयंत्र में भट्ठी के करीब, मुख्य इंजीनियर के पद पर कार्यरत थे। उनके फेफड़े पूर्णतः खराब हो गये थे। यह समस्या उनके अनवरत धूम्रपान के कारण और बढ़ गयी थी। उन्होंने अपने आप को बोकारो में भी दिखाया, जहाँ से तुरंत उन्हें एम्स भेज दिया गया। एम्स में, उन्हें फोर्टिस अस्पताल में एक विशेषज्ञ को दिखाने की सलाह दी गई क्योंकि उनकी हालत बहुत गंभीर थी। फोर्टिस में, उन्हें कृत्रिम ऑक्सीजन पर डाल कर आवश्यक उपकरण के साथ बोकारो वापस भेज दिया गया था। वहाँ उनकी हालत ज्यादा खराब हो गई और संक्रमण के बढ़ते स्तर को देखते हुए नवंबर 2007 में उन्हें वापस दिल्ली भेज दिया गया। फोर्टिस अस्पताल में उनके चिकित्सक ने उन्हें तत्काल फेफड़ों को हटाने की सलाह दी। उन्हें आपरेशन की जटिलताओं की चेतावनी दी और स्पष्ट रूप से कहा गया कि इस तरह का ऑपरेशन पहले कभी भारत में नहीं हुआ और विश्व में भी इसकी सफलता का स्तर 2%-3% ही है। उनका परिवार इस वजह से बहुत परेशान था।
ऑपरेशन के ठीक पहले मैंने अपनी मामी को गुरुजी के मंदिर आने के लिए कहा। मैंने उनसे कहा कि, केवल गुरुजी ही मामा की रक्षा कर सकते हैं। हम छोटे मंदिर में गए और गुरुजी की गद्दी के सामने बैठकर उनकी दया और कृपा के लिए प्रार्थना करने लगे। मंदिर आते समय, मेरे मामी की आँखो में आँसू थे और वह मेरे मामा की जीवन वृद्धी कराने के लिए हम से आग्रह करने लगी। मैंने उन्हें विश्वास दिलाया कि वह सही जगह पर पहुंच गई हैं और उनके पति अब कोई तकलीफ नहीं पायेंगे। साथ ही मैं गुरुजी से भी प्रार्थना कर रहा था कि वह मेरे मामा को भी आशीर्वाद दें और मेरे विश्वास को बनाए रखें।
मामा का ऑपरेशन सफल रहा। क्षतिग्रस्त फेफड़ों को निकाल दिया गया था और अन्य फेफड़ों का संक्रमण भी हट चुका था। उन्हें आई सी यू में भेज दिया गया और शीघ्र ही एक वार्ड में स्थानांतरित कर दिया गया। उनकी प्रगति असाधारण थी, और चिकित्सकों को उम्मीद थी कि वह जनवरी 2008 तक घर वापस आ जाएंगे।
गुरुजी के आशीर्वाद ने हमारे जीवन और उसके प्रति हमारे दृष्टिकोण को पूर्ण रूप से बदल दिया है। गुरुजी हमेशा हम सभी को अपनी दिव्य शरण में रखें।
जय गुरुजी!
नीतेश प्रसाद, एक भक्त
अगस्त 2008