यदि आप उनकी भौतिक काया के आर पार उनको देख सकते हैं तो आपको उनका पूर्ण संरक्षण प्राप्त होगा। गुरुजी के साथ रहते हुए मेरे लिए यही सबसे मुख्य रहा है।
महत्त्वाकांक्षाओं के मोह माया जाल में फंसे रहने के कारण उनका वास्तविक रूप पहचानना कठिन हो जाता है। गुरुजी के साथ आपकी आशाएँ पूर्ण होती हैं, यद्यपि आप जो चाहें वह सदा नहीं मिलता, क्योंकि वह आपके लिए उचित नहीं रहा होगा। परन्तु इनके पीछे, हम सबको अज्ञात, उनकी सच्चाई है। इस मोह माया की अजय दीवार पर चढ़कर ही आप उनकी उस सम्पदा का सौंदर्य देख सकते हैं। किन्तु यह इतना सहज नहीं है जितना आप सोच रहे होंगे, निश्चित रूप से वह आपको परखेंगे। यदि मैं उनके शब्दों का भावार्थ करूँ तो वह आपको "नींबू की भांति निचोड़ देंगे और वृक्ष की भांति ज़ोर-ज़ोर से हिला देंगे।"
मेरे पूर्व कर्मों और संस्कारों के कारण दिव्यात्मा ने मुझे अपने पास आने दिया। मेरे लिए गुरुजी का वर्णन करना अत्यंत कठिन है: मन भावविभोर हो जाता है। जब गणेश उनका वर्णन नहीं कर पाये तो मैं कौन होता हूँ? हम गुरुजी के पास बिना किसी आशा या कष्ट के गये, और उनकी आकर्षण शक्ति हमें उनके पास बार-बार खीँच कर ले गयी।
तनावों से मुक्ति
मैं सेवकों के लिए नाश्ता लेकर मंदिर जाता था। गुरुजी उस समय प्रायः पाठ कर रहे होते थे। मेरे माता-पिता शुक्रवार का व्रत रखते थे। इसका अर्थ था कि खट्टा खाना तो दूर की बात थी, हमारे लिए उसको छूना भी निषेध था। उस दिन शुक्रवार था और मेरी माँ ने ऐसा कुछ भी करने से मना किया था।
उस दिन, मेरे वहाँ पहुँचने से पूर्व, गुरुजी पाठ कर शीघ्र ही बाहर आ गये थे। जैसे ही मैं वहाँ पहुँचा गुरुजी ने अपने एक सेवक, सुदामा, को शीतल पेय लाने के लिए कहा। मैं गुरुजी का दिया हुआ वह पेय प्रसाद समझकर पीकर अति प्रसन्न हुआ और घर लौट आया। परन्तु मुझे घर पर डाँट पड़ी। मैं निराश अवश्य हुआ पर मैंने उससे सम्बंधित भावनायें मन से निकाल दीं।
शाम को हम मंदिर गये। गुरुजी प्रसन्न चित्त थे और सत्संग के लिए बैठ गये। हम बहुत ध्यान से सुन रहे थे। अपने स्वभाव के अनुरूप उन्होंने स्पष्ट तो नहीं कहा किन्तु व्रतों के बारे में कहा कि इस व्यर्थ प्रथा का कोई तात्पर्य नहीं है। साथ ही उन्होंने कहा कि आप भगवान के घर में हैं, जैसा वह कहते हैं, करिए और अन्य अर्थहीन माध्यमों के द्वारा उनके पास पहुँचने की चेष्टा मत करें।
दो क्रिकेट बॉल के आकार का लड्डू
कभी-कभी गुरुजी भक्तों को सच खंड देकर उन पर कृपा करते हैं। सच खंड उनका वह प्रसाद है जो चमत्कारिक रूप से उनके हाथ से प्रकट होता है। कई अवसरों पर मैंने उनके हाथ में चमत्कार होते देखे हैं - डॉलर नोट, स्वर्ण कर्णफूल, गर्म हलवा, मिश्री में लिपटी हुई बर्फी, चॉक्लेट और वनीला की बर्फी, मोतीचूर और बेसन के लड्डू, हिमाचल प्रदेश की विशिष्ट टोपी आदि।
एक दिन गुरुजी एक भक्त के यहाँ भोजन के लिये गये थे। लंगर परोसा गया और प्रथा के अनुसार संगत ने गुरुजी से पहले खाया। उनके पास कुछ अधिक देर तक बैठने की कामना से, मैंने शीघ्रता से लंगर समाप्त किया और उनके निकट आकर बैठ गया। वह सीधे बैठे हुए थे, उनकी कलाई उनके घुटने पर टिकी हुई थी। मुझे प्रतीत हुआ कि गुरुजी प्रसाद देंगे। दिव्य आकांक्षा के अनुकूल ही सब संभव है; मुझे संभवतः इसी बात का आभास दिलाना चाह रहे थे। मेरा ध्यान उन्हीं पर केंद्रित था।
लंगर के पश्चात जैसे संगत एकत्रित हुई, वार्तालाप आरम्भ हो गया। मैं गुरुजी की मुट्ठी देख रहा था। जैसे ही उन्होंने उसे खोला उसमें से एक लड्डू प्रकट हुआ - जैसे कोई रब्बड़ का गोला हो जो उनके हाथ खुलने के साथ बड़ा होता गया। पहले तो कुछ भी असामान्य नहीं लगा - फिर सब कुछ समझ में आया - जैसे-जैसे मुट्ठी खुल रही थी उसका आकार भी बढ़ रहा था।
भूत, वर्तमान और भविष्य
मेरे पिता सेना में सेवारत थे और जलन्धर से उनका स्थानान्तरण हो गया था। हम सामान बंद कर रहे थे - लकड़ी के बक्से, लोहे के बक्से, बोरियाँ आदि- उन पर नंबर लगाने का कार्य शेष था और वह चारों ओर बिखरे हुए थे। शाम को गुरुजी घर आये। उनके प्रवेश करते ही बिजली जाने से अंधेरा हो गया। वह बोले, "इमरजेंसी लाइट 13 नंबर बक्से में है।" गुरुजी स्वभावतः ऐसे बोलते हैं कि लगता नहीं कि उसमें कुछ विशेष है, जब तक आप उस पर विचार नहीं करें। सामान पर नंबर भी नहीं लगे थे। कोई एक सप्ताह में जब पूरा सामान बंध गया और सहायक उन पर नंबर लगा रहा था तो मुझे गुरुजी वाली घटना याद आई। ताज़े लगे 13 नंबर वाले बक्से को मैंने खोला और उसमें सामने ही इमरजेंसी लाइट रखी हुई दिखाई दे रही थी। गुरुजी को हमारे भूत, वर्तमान और भविष्य, सबका ज्ञान है। उनसे कुछ भी छुपाने का प्रयत्न न करें।
परम पिता परमात्मा
मेरी माँ को ज्वर था। पूरे दिन मेरे पिता और मैं उनके मस्तक पर बर्फ लगाते रहे थे किन्तु लाभ नहीं हो रहा था। औषधियाँ भी असफल रहीं थीं और तापमान नीचे नहीं आ रहा था। अचानक गुरुजी का फ़ोन आया कि शीघ्र ही वह संगत के साथ पहुँच रहे हैं। वह कुछ लोगों के साथ आये और सीधे माँ के कमरे में जाकर बोले, "चल आँटी, कुछ नहीं होया" और उनका हाथ पकड़ कर अतिथि कक्ष में ले आये। मैं उनके चरणों में बैठकर उनके पैर दबाने लगा। पाँच मिनट के पश्चात माँ का तापमान सामान्य हो गया पर उनका बढ़ गया। स्पष्ट है कि वह हमारे कष्ट अपने पर अंतरित कर लेते हैं। क्या इस संसार में और कोई ऐसा कर सकता है? हमारे प्रारब्ध कर्म इस जीवन में हमारे सुख दुःख का निर्णय करते हैं, किन्तु कोई हमारे दुःख अपने ऊपर अंतरित कर ले, वह ईश्वर ही हो सकता है।
नितिन जोशी, गुडगाँव
जुलाई 2007