तथास्तु

सबीना कोचर, जुलाई 2007 English
मैं सर्व विद्यमान और निराकार सृष्टिकर्ता में विश्वास करती थी। मुझे लगता था कि वह मुझे सदा देख और सुन रहे हैं। एक दिन मैंने उनको मनुष्य रूप में देखने की कामना की और वह मेरे सम्मुख उपस्थित हो गये।

मुझे कमर से नीचे अत्यंत पीड़ा रहती थी। कोई औषधि काम नहीं कर रही थी। फिर मुझे गुरुजी के बारे में पता चला जो सबके कष्ट दूर कर देते थे। मुझे संशय अवश्य था किन्तु उपचार की आशा लिए मैं उनके पास पहुँच गयी।

मेरे सात वर्षीय पुत्र के टॉन्सिल में पस भरा रहता था और प्रति पंद्रह दिन में उसे ज्वर आ जाता था। कभी कभी ज्वर 103° तक पहुँच जाता था और रात्रि में कोई चिकित्सक भी नहीं मिलता था।

मेरे पुत्र को एक एंटीबायोटिक औषधि छोड़कर कोई भी अन्य औषधि नहीं दे सकते थे क्योंकि उसके शरीर पर उनके दुष्प्रभाव हो जाते थे। एरिथ्रोमायसीन, जो ऐसे अवसरों पर राम बाण मानी जाती है, के भी दुष्परिणाम होते थे। यह हर माह घटित होता था और हमारे लिए अति भयावह अनुभव होता था।

उन दिनों, 1996 में, भक्त अपने कष्ट गुरुजी को व्यक्त कर सकते थे। मैंने उनको अपना कष्ट "मेरा बेटा..." कह कर बताना आरम्भ ही किया था कि वह मुझे पहले अपना रोग बताने के लिए बोले। साहस बटोर कर मैंने उन्हें अपने पैरों में हो रही पीड़ा के बारे में बताया और गुरुजी ने मात्र "हुन नहीं होउगा" कहा। उनके कथन के अनुसार उनमें पुनः कभी वेदना नहीं हुई है। उनके बोलते ही वह पीड़ा समाप्त हो गयी थी। फिर उन्होंने मेरे पुत्र के बारे में पूछा। मैंने उसे विस्तार में न बता कर केवल इतना कहा कि उसके गले में सूजन है। उन्होंने उसे आशीर्वाद दिया और उसके गले में ॐ का चिह्न लटकाने और परिवार में चावल नहीं खाने के लिए कहा। मेरे मन में तुरन्त विचार आया कि सात वर्ष का बच्चा गले में स्वर्ण की ज़ंजीर कैसे संभाल पायेगा। यद्यपि यह मुझे सोचना भी नहीं चाहिए था। किन्तु मेरे यह सोचते ही वह बोले कि उसके गले में पीले धागे में ॐ डाल कर पहनाया जाए।

गुरुजी भविष्य देख सकते हैं। अपनी इच्छानुसार दुर्घटनाएँ रोक सकते हैं। पहले दर्शन के समय ही, मेरे कहे बिना, उन्होंने मुझे अपना एक विद्यालय चलाने का आशीष दिया। विवाह से पूर्व मैं भारतीय प्रशासनिक सेवाओं में जाना चाहती थी किन्तु विवाह ने उस पर रोक लगा दी। जब उन्होंने मुझसे पूछा कि उन सेवाओं में जाना चाहने पर क्यों नहीं गयी तो मैंने उत्तर दिया कि प्रेम होने के पश्चात् विवाह मेरी प्राथमिकता हो गयी थी। मुझे प्रतीत हुआ कि वह जो दर्शाते हैं, उन्हें उससे कहीं अधिक पता है और वह साधारण मनुष्य नहीं हैं। यह घटनाएँ दिल्ली में हुईं। गुरुजी शीघ्र ही जालंधर चले गये। मेरे कष्ट फिर कभी लौट कर वापस नहीं आये। मेरा पुत्र भी स्वस्थ सानंद हो गया था। फिर मुझे आभास हुआ कि वह रचयिता के मानव अवतार हैं जिनको मैं ढूँढ रही थी।

मेरे पुत्र और मुझे स्वस्थ करने के लिए धन्यवाद प्रकट करने मैं जालंधर गयी। मेरी चार वर्षीया बेटी गत शीत ऋतु में अस्वस्थ रही थी और उसे श्वास का कष्ट रहा था। यह जानते हुए कि अस्थमा या श्वसन-शोथ कितना बुरा हो सकता है, मैं उसके बारे में चिंतित थी। मैं गुरुजी के साथ बरामदे में बैठी हुई थी और थोड़ी देर में वह उनके चरणों के निकट ही सो गयी। क्योंकि मैं उनसे उसके कष्ट बोलने का साहस नहीं जुटा पा रही थी, मैंने उनसे मन ही मन में विनती की। मेरे मन में यह विचार आते ही उन्होंने अपना एक पैर उसकी नन्हीं पीठ पर रख दिया। उनका उत्तर समझते हुए मेरे मन में आया कि अब कभी भी उसे तीव्र औषधियों की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। उस दिन से मेरी बेटी को कोई श्वास सम्बंधित रोग नहीं हुआ है।

प्रसाद की उत्पत्ति

पुराने अनुयायियों ने मुझे बताया था कि गुरुजी अपने हाथ में सच खंड (दिव्य प्रसाद) प्रकट करते हैं। मुझे क्या पता था कि एक दिन वह मुझे भी प्रसाद देंगे। उन्होंने मुझे अपने पास बुलाया और अपना हाथ बढ़ा कर बोले, "लै" - उनके हाथ में कप के आकार का एक अति सुन्दर मिश्री से भरा हुआ प्रसाद था जिसके मध्य में एक और प्रसाद था।

मेरे पिता हृदय रोगी थे जिन्हें, गुरुजी से मिलने से पूर्व, दो दिल के दौरे पड़ चुके थे। जब मैंने गुरुजी को उनके रोग से अवगत कराया तो वह बोले कि चिंता न करूँ। मेरा आश्चर्य बना रहा - मुझे यह नहीं पता था कि उन्हें एक और दौरा पड़ेगा। हम उन्हें निकटतम चिकित्सालय में ले गये जहाँ चिकित्सकों ने उनके बचने की आशा कम बतलायी। मैंने अपने पति को घर से गुरुजी का सच खंड प्रसाद लाने के लिए कहा। गहन चिकित्सा केंद्र में जाकर मैंने अपने पिता, जो जीवन रक्षा उपकरणों पर थे, की जिह्ना के नीचे थोड़ा सा प्रसाद, घुलने की आशा के साथ, रख दिया। उसके आधे घंटे के पश्चात् लिए गये ई सी जी के अनुसार उन्हें केवल अपच की समस्या थी। वह उनके वहाँ प्रविष्ट होने पर लिए गये परीक्षण जैसा गंभीर नहीं था। मेरे पिता के चिकित्सालय से निकलते ही हम जालंधर गये। मेरे प्रवेश करते ही गुरुजी ने मुझे अपने पास बुलाया और अपने अनुभव सुनाने के लिए कहा - यह पिता वाली घटना भी।

मेरा विश्वास है कि जब गुरुजी सत्संग सुनाने को कहते हैं तो सुनाने वाले, सुनने वाले और, अब, पढ़ने वाले, सबको उनका आशीर्वाद मिलता है। मेरे पिता को लिम्फोमा (लसिका ग्रंथियों/ गांठों का कैंसर) हो रहा था। मैं गुरुजी को बताने गयी परन्तु कह नहीं पायी। मैंने सुना था कि भक्तों के कष्टों को दूर करने के लिए वह कष्ट अपने ऊपर अंतरित कर लेते हैं और उस दिन वह कष्ट में लग रहे थे। मैं कुछ कहे बिना ही लौट आयी। एक सप्ताह के पश्चात् गुरुजी ने कहा कि उन्होंने मेरे पिता को कैंसर से मुक्त कर दिया था। यद्यपि मुझे पता था कि वह मन के विचारों को जान जाते हैं, मैं स्तब्ध थी। पुनः किये गये परीक्षण इसका प्रमाण थे और उन्होंने चिकित्सकों को उलझा दिया था।

माँ उनकी अनुयायी बनी

मेरी माँ मधुमेह से पीड़ित थीं। उनकी काया स्थूल थी और न वह अपने भोजन का, न ही अपनी औषधियों का ध्यान रखती थीं। एक दिन उनका रक्तचाप 200 तक पहुँच गया और उन्हें शय्या पर पूर्ण विश्राम करने के लिए कहा गया। जब मैंने इसका उल्लेख गुरुजी से किया तो वह बोले कि मैं चिंता न करूँ और एक दिन वह दिखा देंगे कि वह कौन हैं। वर्ष बीत गये और वह स्वस्थ सानंद रहीं - अपने नित्य के इंसुलिन लिए बिना ही। एक दिन गुरुजी ने कहा कि उन्होंने मेरी माँ की रक्षा की है। उनके कहने के कुछ समय उपरान्त ही मेरी माँ अपने हाथ में एक परीक्षण का परिणाम लेकर खड़ी थीं जिसमें लिखा था कि उन्हें छोटी आँतों का क्षयरोग (टुबर्क्यलोसिस) और मलाशय (कोलन) के कैंसर का संशय था। उनके पाँव तले मानो ज़मीन खिसक गयी और वह भागी हुई गुरुजी के आशीर्वाद के लिए आयीं। उस समय गुरुजी को अपनी व्यथा बताना निषेध था। अतः वह लंगर और प्रसाद लेकर वापस चली गयीं।

अगले दिन सब परीक्षण एक सप्ताह पहले किये हुए परीक्षणों के बिलकुल विपरीत आये। चिकित्सक विस्मित होने के साथ प्रसन्न भी थे कि रोग के कोई लक्षण नहीं हैं। उन्होंने उनकी अवस्था को 'मधुमेह - अतिसार' का नाम दिया। अगले दर्शन के समय गुरुजी ने उनको अपना मधु परीक्षण करवाने को कहा। फिर उन्होंने मेरी ओर देखकर पूछा कि यह कैसे हुआ। मैं उनके इस कथन का गूढ़ अर्थ समझ नहीं पायी।

कुछ दिन के पश्चात् मेरी माँ ने मुझे फोन पर बताया कि उनके मधु का परिणाम 160/ 130 आया था, जबकि वह कई वर्षों से 280/260 रहा करता था। फिर उन्होंने मुझसे पुछा, "यह कैसे हुआ?" तब मुझे समझ आया कि, गुरुजी, मुझे माँ की प्रतिक्रिया कैसी होगी, इस बारे में बता रहे थे।

अपने परीक्षण से मेरी माँ को संतोष नहीं हुआ और उनके विचार में अवश्य कोई गलती हुई थी। जब उन्होंने पुनः अपने मधु का परीक्षण करवाया तो परिणाम 113/ 99 आया। गुरुजी ने मेरी माँ को "एक दिन" सिद्ध कर दिया था कि वह कौन हैं।

पाँच वर्ष की अनुपस्थिति

वर्षों पूर्व मेरा हिमोग्लोबिन का स्तर निरंतर गिर रहा था। एक दिन गुरुजी ने कहा कि यदि मुझे उस रोग का ज्ञान हो गया जो उन्हें है, तो मैं अपने स्थान पर खड़ी नहीं रह पाऊँगी। मुझमें उनसे पूछने का साहस नहीं था। क्योंकि मुझे ज्ञात था कि वह हर रोग का हरण कर सकते हैं। मैंने उनसे मुझे रोग मुक्त करने की विनती की। मेरे पति और मुझे पाँच वर्ष के लिए उनसे मिलने या उनका चित्र देखने को भी मना कर दिया गया। हमें यह बात किसी को बतानी भी नहीं थी। पाँच वर्ष व्यतीत हो गये - जीवन में हम उत्तरोत्तर प्रगति करते रहे - किन्तु उनकी अनुपस्थिति का सदा अभाव बना रहा।

एक दिन मैंने उनसे उनके चित्र के लिए प्रार्थना की, जो स्वयं ही मेरे पास पहुँच जाये, क्योंकि मैं उसके लिए किसी को बोलना नहीं चाहती थी। उनका चित्र, उस अकेली पत्रिका में, जो मेरे पति मँगाते थे, आया। बाद में मुझे बताया गया कि वह संयोग नहीं था।

कुछ दिन के पश्चात् मुझे अपना दम घुटते हुए लगा - हर साँस लेने में अत्यंत कठिनाई हो रही थी। मैं अपने पति और माता-पिता को फोन कर केवल इतना कह पाई कि मुझसे साँस नहीं लिया जा रहा है। मेरा बेटा ऑक्सिजन का सिलिंडर लेने चिकित्सालय भागा और मेरी बेटी ने पड़ोसियों को बुलाया। सबको चिंता थी।

अकेले में मैंने उनके चित्र के समक्ष उनको कहा कि मुझे श्वास लेने में कठिनाई हो रही है। तुरन्त ही मुझे अपनी गर्दन के पीछे, सिर और मेरूदंड में अनूठी संवेदना हुई और साँस आने लगी। परन्तु मेरे पैरों में जान नहीं थी। गुरुजी ने एक बार मुझे बताया था कि यदि उनके चित्र के समक्ष कुछ भी कहें तो वह सुनते हैं। मुझे एक निकट के चिकित्सालय में ले जाया गया। गहन सेवा केंद्र में अकेले लेटे हुए, जब मेरे मुँह पर ऑक्सिजन लगी हुई थी और मुझे प्रतीत हुआ कि मेरा अंत निकट ही है, मेरे मन में विचार आया कि मेरे पति, सगे-सम्बन्धियों में से कोई भी मेरी सहायता नहीं कर पाया था लेकिन गुरुजी ने तुरन्त मेरी पुकार सुनी थी। कोई भी मुझे पुनः जीवन दान नहीं दे पाया था, केवल गुरुजी ही थे जिन्होंने मुझ पर कृपा की थी। निश्चित रूप से वह ईश्वर के दूत हैं और मेरे लिए उसके अवतार हैं - अविश्वसनीय किन्तु सत्य है, जब असंभव भी आपके सामने संभव हो जाये!

इससे और भी अधिक आश्चर्यचकित करने वाली घटना तब हुई जब वर्षों पश्चात् मैं उनके सम्मुख खड़ी हुई थी और उन्होंने वही शब्द, जो मेरे मन में उस समय आये थे, दोहराते हुए कहा कि उन्होंने मुझे नव जीवन प्रदान किया है और मैं सदा सुखी प्रसन्न रहूँ। क्या यह चमत्कार नहीं है कि हम पाँच वर्ष तक मिले नहीं थे किन्तु उनको ज्ञात था कि उस दिन चिकित्सालय में अकेले लेटे हुए मेरे मन में क्या विचार आ रहे थे?

एक बार उन्होंने कहा कि चिकित्सक अपना कार्य करते रहेंगे। गर्भाशयोच्छेदन (हिस्टरेक्टमी) के पश्चात् मेरा अस्थि घनत्व (बोन डेंसिटी) कम हो गया था। मेरे नितम्ब और जांघ की अस्थियाँ यदा कदा मुझे कष्ट देती थीं। मैंने कभी गुरुजी से इस विषय में चर्चा नहीं की। इस बीच में परीक्षणों से पता लगा कि मेरी अस्थियों में केल्शियम की कमी है।

अचानक एक दिन गुरुजी ने मेरे पति और मुझे, बच्चों सहित सिंगापुर यात्रा पर जाने के लिए कहा। वह मेरे से जाने का समय पूछते रहते थे। वहाँ पर पहुँच कर हमें उनकी एक अनुयायी से मिलना था और मुझे उसको अपने अनुभव सुनाने थे। यह करते ही मेरी वेदना समाप्त हो गयी। दिल्ली पहुँचने पर गुरुजी ने घोषणा की कि मेरे केल्शियम और हिमोग्लोबिन के स्तर बिलकुल सही हैं। फिर उन्होंने मुझे अपना वज़न घटाने के लिए कहा अन्यथा मुझे हृदय रोग होने की संभावना थी। उन्हीं की दया से मेरा वज़न घट पाया और अब मैं बिलकुल स्वस्थ हूँ।

मेरी बेटी को पेट दर्द रहता था और दिन-प्रतिदिन वह बढ़ता जा रहा था। उसने गुरुजी से प्रार्थना की। उन्होंने उसका नाम बदल दिया और अब उसे कोई वेदना नहीं है। जब मैंने एक अन्य भक्त से इसका उल्लेख किया तो उसने बताया कि उसका नाम भी गुरुजी ने बदल दिया था, अन्यथा यह पीड़ा जीवन भर साथ रहती। यह कोई संयोग नहीं था।

हमने कभी ऐसे गुरु नहीं देखे जो मानवता के लिए इतना करें और कभी उपदेश नहीं दें।

सबीना कोचर, दिल्ली

जुलाई 2007