मई 2002 की उस ऊष्ण संध्या को पूरे वातावरण में काफी उत्साह था। हम सब गुरुजी के साथ पर्वतों में स्थित, नैनीताल से 21 किलोमीटर दूर, रामगढ़ जा रहे थे, जहाँ पर एक भक्त का विश्राम भवन था। सब तैयार थे, सामान लद गया था, दो बसें और कुछ कारें एम्पायर एस्टेट के बाहर खड़ी प्रस्थान करने को तैयार थीं। गुरुजी के संकेत पर, संगत ने बसों में प्रवेश किया। गुरुजी स्वयं एक बस में चढ़ गये। थोड़ी सी हलचल हुई क्योंकि सब गुरुजी वाली बस में चढ़ने के लिए उतावले थे। फिर बसें चल पड़ी।
अगले दिन दोपहर दो बजे हम रामगढ़ पहुँच गये। स्नान और भोजन से निवृत होकर हम उद्यान में प्रतीक्षा कर रहे थे। हमारे साथ आसपास के निवासी भी थे, जिनको गुरुजी के आने की सूचना मिल गयी थी।
नैनीताल में दम्पति को संतानाशीष
नैनताल से आये हुए एक भक्त जब गुरुजी को प्रणाम करने वाले थे तो गुरुजी ने कहा कि उनकी तीन पत्नियाँ है और वह संतान सुख चाहते हैं। भक्त नासर अचम्भित हो गये कि गुरुजी को उनके निजी जीवन के बारे में पहले से ही ज्ञान है। विवाह के 15 वर्ष बीत जाने पर भी उनको किसी भी पत्नी से संतान प्राप्ति नहीं हुई थी। नासर अपनी पत्नी के साथ रोज़ गुरुजी के दर्शन के लिए आते थे। एक दिन गुरुजी द्वारा उनसे अकेले आने का कारण पूछने पर उन्होंने उत्तर दिया कि उनकी पत्नी सिर और पेट दर्द के कारण नहीं आ पायी। गुरुजी ने व्यर्थ का बहाना बताया और कहा कि उनकी पत्नी गर्भवती हो गयी है।
उनके वचनों की सत्यता दो मास बाद सिद्ध हुई जब परीक्षण में उनकी पत्नी के गर्भवती होने के परिणाम आये। वह समाचार नासर ने गुरुजी के जन्म दिवस (7 जुलाई) के आसपास भेजा। पंद्रह वर्ष तक गर्भ नहीं होने के सब कारण महापुरुष ने प्रथम दर्शन में ही समाप्त कर दिये थे। फरवरी 2003 में नासर के यहाँ पुत्र उत्पन्न हुआ। शिवरात्रि के दिन वह गुरुजी का आशीष और अपने पुत्र के लिए एक नाम लेने गुरुजी के पास आये। गुरुजी ने संतान का नाम मुराद रखा जिसका अर्थ कामना की पूर्ति है।
रेल यात्रा से रोग निदान
मैं राष्ट्रीय सुरक्षा अंगरक्षकों (छैळ) की एक विशिष्ट इकाई को कमान कर रहा था। दिसम्बर 1995 में गुरुजी चंडीगढ़ में थे और मुझे 2/3 दिन के लिए वहाँ आने का संदेश प्राप्त हुआ। आकस्मिक अवकाश लेकर मैं चला गया। उन दिनों मुझे शरीर के दाहिने भाग में स्पोंडोलियोसिस की वेदना रहती थी। इससे अक्सर मेरी दायीं बाँह में दर्द रहता था और उस हाथ का अंगूठा सुन्न हो जाता था।
चंडीगढ़ पहुँच कर मैंने दो दिन गुरुजी के साथ बिताये। मेरी योजना थी कि गुरुजी की अनुमति लेकर रविवार को शाम को मैं बस से वापस आ जाऊँगा। गुरुजी से पूछने पर उन्होंने आज्ञा अवश्य दी पर मुझे रेल से यात्र करने को कहा। रेल से यात्रा करने से मैं कतराता था - बिना आरक्षण के दिसंबर की शीत ऋतु में मेरा कष्ट बढ़ सकता था।
एक अधिकारी ने मुझे चंडीगढ़ स्टेशन पर छोड़ दिया। संयोग से मुझे स्लीपर क्लास में एक मध्य की बर्थ भी मिल गई। रात 2:30 बजे ट्रेन के चलते ही मुझे नींद आ गयी और प्रातः 7:30 बजे दिल्ली पहुँचने पर टूटी। मैं सोच रहा था कि मुझे बहुत दर्द होगा पर उसका तो नामोनिशान भी नहीं था। उस दिन से आज तक, दस वर्ष से अधिक बीतने पर भी, मुझे पुनः वह वेदना कभी नहीं हुई है।
उल्लेखनीय है कि मैंने कभी गुरुजी से इसकी चर्चा नहीं की थी न ही उन्होंने कभी मुझसे पूछा था। मैंने मात्र उनकी आज्ञा मानी थी - यही देव की इच्छा थी और समस्या स्वतः समाप्त हो गयी।
सतगुरु की कामना, सदा आधुनिक युग के वैज्ञानिक एवं चिकित्सा क्षेत्रों की उन्नतियों को मात दे देती है। 1995 में मुझे मधुमेह का रोगी घोषित किया गया। मधु और रक्तचाप के परिणाम उच्च स्तर पर थे। यह मेरे लिए चिंता का विषय था। सेना में उच्च श्रेणी की शारीरिक योग्यता की आवश्यकता होती है।
मैंने गुरुजी से इस विषय में चर्चा की तो उन्होंने मुझे प्रतिदिन प्रातः ताम्र लोटे का जल पीने का निर्देश दिया। एक सप्ताह के बाद परीक्षण करवाने के लिए भी कहा। इस अंतराल में मैंने बहुत मिठाईयाँ खाईं - मधुमेह रोगियों के लिए निषेध। तथापि, एक सप्ताह के बाद मेरे रक्त परीक्षण के सब परिणाम सीमा में थे और मेरा रक्तचाप एक युवा सा था। इस प्रकार ढेरों मीठा प्रसाद खाने के पश्चात् भी मेरा रक्त मधु सामान्य रहा।
इसका कारण है। गुरुजी के यहाँ मिलने वाला प्रसाद और लंगर अमृत युक्त होता है, जिसमें हर रोग का निदान करने की क्षमता होती है। भक्त को वह केवल श्रद्धा भाव से स्वीकार करने की आवश्यकता है। अनुयायी द्वारा अपने आप को पूर्ण समर्पण करने से ही उसे उनकी दिव्य कृपा की अनुभूति होती है। गुरुजी अपने आशीष अनेक प्रकार से देते है। अक्सर, गुरुजी के निर्देश अनोखे लगते हैं पर उनसे लाभान्वित होने के लिए उनको मान कर उनका पालन करने में ही उनका रहस्य है। यही समर्पण है।
मेरी सैन्य यूनिट पर दया वृष्टि
1995 - 1998 की अवधि में, जब मैं राष्ट्रीय सुरक्षा अंगरक्षक में एक ग्रुप का कमांडर था, मेरी यूनिट के निरीक्षण के लिए समूह के उच्चतम वरिष्ठ निर्देशक आने वाले थे। जवानों ने इस निरीक्षण के लिए अत्याधिक परिश्रम किया था। यूनिट के मार्ग साफ कर दिये गये थे और वृक्षों की सब सूखी, पीली पत्तियाँ भी हटायी गयीं थीं। मार्ग के दोनों ओर ईंटों और वृक्षों के निचले भाग पर सफेद और गेरु रंग लगाया गया था। पूरी यूनिट निरीक्षण के लिए तैयार थी और वरिष्ट निर्देशक से 'शाबाश' की आशा कर रही थी।
निर्दिष्ट दिन को प्रातः मैं दिल्ली से मानेसर जा रहा था। अचानक वर्षा होने लगी और थोड़ी ही देर में वह मूसलाधार हो गयी। मानेसर के पास पहुँचने पर मेरा मन उदास हो गया। यूनिट के जवानों का परिश्रम पानी में बहता हुआ दिख रहा था। मैंने गुरुजी से प्रार्थना की कि ऐसा न हो। यूनिट के मुख्य द्वार में प्रवेश करते ही मैं अचंभित रह गया। यूनिट में वर्षा नहीं हो रही थी। मेरे कर्मचारियों ने बताया कि चारों ओर वर्षा हो रही है पर यूनिट बची हुई है। निरीक्षण अप्रत्याशित रहा - वरिष्ट निर्देशक ने कहा कि यह यूनिट अन्य यूनिटों के लिए आदर्श है। परन्तु उनके जाते ही मेरी यूनिट पर भी भारी वर्षा होने लगी। दिव्यात्मा का सहयोग स्पष्ट था।
एक भक्त की हार्दिक प्रार्थना गुरुकृपा के लिए पर्याप्त थी। मुझे आभास हुआ कि निरीक्षण की अवधि में, यद्यपि चारों ओर मूसलाधार वर्षा हो रही है, यूनिट के ऊपर दिव्य छत्रछाया बनी हुई है। उसी संध्या को जब मैं एम्पायर एस्टेट गया तो गुरुजी ने संकेत दिया कि उनके कारण ही कार्यक्रम विधिवत संपन्न हो पाया था।
गुरुजी मेरी और मेरे परिवार की हर प्रकार से सहायता करते रहे हैं जैसे अगले संदर्भ से दृष्टिगोचर है। मेरे पास इन सर्वोच्च दाता को धन्यवाद देने के लिए शब्द नहीं हैं।
आस्था से वज़न में वृद्धि
मेरी पत्नी बहुत दुबली थी और अधिक खाने से भी उस पर कोई प्रभाव नहीं होता था। गर्भवती होने पर भी उसके वजन में कोई अंतर नहीं आया था। तथापि, गुरुजी कहा करते थे कि उन्होंने उसका वज़न 5-10 किलो बढ़ा दिया है। शुरु में परिवार को कोई अंतर प्रतीत नहीं हुआ पर कुछ समय बाद उसके शरीर में परिवर्तन दिखायी देने लगा और मेरा छोटा पुत्र उसे मोटी कह कर संबोधित करने लगा।
इस सारांश से स्पष्ट है कि गुरुजी अपने श्रदालु पर कृपा करने के लिए विधि और काल का निर्णय अपने माप दण्डों के अनुसार करते हैं। मानव की दृष्टि सुदूर तक देखने में असमर्थ है। हम निकट भविष्य को देखते और व्यर्थ की चिंताओं में डूबे रहते हैं। गुरुजी हमारे भूत की छाया, संकीर्ण वर्तमान और अकल्पनीय भविष्य देखने में समर्थ हैं। जब वह कुछ देते हैं तो उसकी सीमाएँ भौतिक न होकर वृहत् ब्रह्माण्ड की परिधि में होतीं हैं। इसीलिए अति आवश्यक है कि अनुयायी निस्वार्थ, निर्विवाद समर्पण करे। वह उन्हें अपने पिता, माता, मित्र और सर्वश्रेष्ठ की श्रेणी में रखे और असीमित पवित्र पावन प्रेम की भावना से उनके चरणों में अपना स्थान ग्रहण करे।
यह भी अति आवश्यक है कि भक्त गुरुजी के समस्त निर्देशों का पालन करे किन्तु उसके फल की अपेक्षा न कर गुरुजी पर आस्था बनाये रखे। सतगुरु को ही ज्ञान है कि उसके शिष्य के लिए क्या श्रेष्ठ है। उनकी करुणा की कोई सीमा नहीं है - वह तो उसके निकट और दूर सब संबंधियों पर होती है - गुरुजी नीलकंठ शिव समान हैं जिन्होंने सुरों और असुरों, दोनों को बचाने के लिए समुद्र मंथन से निकले हुए विष का पान कर लिया था। गुरुजी अपने भक्तों के विष को समाप्त कर देते हैं।
आपके अति प्रिय संबंधी चाह कर भी, आपकी वेदना समाप्त करने के लिए, आपके समस्त कष्टों को समाप्त करने में असमर्थ हैं। किन्तु सतगुरु आपको जीवन देकर आपके रक्षक बनते हैं। रामचरित्र मानस का एक दोहा उल्लेखनीय है।
"मोरे प्रभु तुम गुरु, पिता, माता।
जाऊँ कहा तजि पद जल जाता।।"
मेरी भांजी का उपचार
जयपुर में मेरी भांजी, भावना, अति शोचनीय अवस्था में थी। वह एक स्थानीय चिकित्सालय में प्रविष्ट थी और चिकित्सकों के अनुसार उसकी अवस्था अति नाज़ुक थी। एम्पायर एस्टेट जाते हुए मेरी बहन ने मुझे फोन किया था। वह रो रही थी परन्तु वहाँ पर पहुँच कर मुझे गुरुजी को कुछ कहने का अवसर ही नहीं मिला।
सब भक्तों के जाने के पश्चात् गुरुजी हॉल में बैठे थे और उन्होंने कहा कि उनकी तबीयत ठीक नहीं है। अत: मैंने उसका उल्लेख करना अनुचित समझा। पर जब गुरुजी ने भावना के लक्षणों का विवरण आरम्भ किया तो मैं अचंभे में पड़ गया। उन्होंने मुझे अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान से एक औषधि लाने को कहा। एक घंटे के बाद रात्रि एक बजे जब मैं वह औषधि लेकर पहुँचा तो उन्होंने उसे कूड़ेदान में फेंकने और मुझे पत्नी सहित जयपुर जाने को कहा।
प्रातः जब मैंने अपनी बहन को फोन किया तो पता लगा कि भावना के स्वास्थ्य में सुधार है और शाम तक घर वापस आ जायेगी। उसके लक्षण तो समाप्त हो गये थे पर वह उदास थी। अगले दिन मेरी पत्नी जयपुर चली गयी। मामी से मिलते ही भावना की उदासी समाप्त हो गयी। वह प्रसन्नचित हो गयी। सबने उसमें बहुत परिवर्तन देखा। तत्पश्चात् मेरे परिवार के सब घनिष्ठ संबंधियों पर गुरुजी की अनुकम्पा हुई।
गुरुजी अलौकिक महापुरुष हैं। जब भी मैं गुरुजी के साथ चला हूँ, उनके दिव्य शरीर और चरणों से गुलाबों की सुगन्ध आती है। अगर आप उनकी संगत में बैठकर अपने आपको, उनको समर्पित कर दें तो आपके शरीर से भी वही सुगन्ध आयेगी। उनकी आभा का ऐसा प्रभाव है: हम नश्वर और उन अमर के मध्य इतना अंतर है। जैसे प्रसंगों से स्पष्ट है सतगुरु सर्वज्ञाता हैं। वह एक ही समय पर अनेक स्थानों पर अपनी उपस्थिति का आभास दे सकते हैं। मीलों दूर पति-पत्नी के वार्तालाप को अक्षरशः बता सकते हैं। इस देश के सब धार्मिक ग्रंथ उनके सागर जैसे विशाल अस्तित्व की थोड़ी सी व्याख्या मात्र हैं। रामचरित्र मानस का एक दोहा है:
"बिनु पग चलहिं, सुनी बिनु काना,
कर बिनु करम करे विधि नाना।"
वह (ब्रह्म) बिना ही पैर के चलता है, बिना ही कान के सुनता है,
बिना ही हाथ के नाना प्रकार के काम करता है
कर्नल (सेवानिवृत) सुवर्ण कुमार जोशी, गुडगाँव
जुलाई 2007