मैं यहीं हूँ

सोनू, मार्च 2010 English
गुरुजी के तरीके और माध्यम अद्भुत होते हैं। यद्यपि मेरा मेहरौली-गुड़गाँव सड़क पर नियमित रूप से आना-जाना होता था, मैं एम्पायर एस्टेट में गुरुजी के मंदिर के बारे में नहीं जानता था। 14 फरवरी 2006 को जब मैं अपने एक दोस्त की दुकान पर था तो एक व्यक्ति ने, जिसको मैं शक्ल से पहचानता था पर उसका नाम नहीं जानता था, आकर मुझसे पूछा कि क्या उस शाम को मेहरौली जाने के लिए मेरे पास समय था। क्योंकि उस शाम मुझे और कोई काम नहीं था, मेहरौली जाने के लिए मैंने हाँ कर दी। रास्ते में मुझे पता चला कि उस शाम उन भक्तों को मंदिर ले जाने के लिए कोई ड्राइवर नहीं मिला था इसलिए मुझे यह अवसर प्राप्त हुआ।

जब हम मंदिर पहुँचे तो मैंने मेन गेट के बाहर ही रहने का निश्चय किया और अंदर सत्संग में नहीं गया। भक्तों ने मुझे बताया कि रात को करीब 9:30 बजे लंगर परोसा जायेगा और मुझे गुरुजी का आशीर्वाद लेने के लिए अंदर आना चाहिये। मुझे गुरुजी के बारे में कुछ भी नहीं पता था, लंगर लेने की भी मेरी इच्छा नहीं थी क्योंकि कुछ दिन पहले ही मैं वैष्णो देवी गया था जहाँ मैंने भंडारा खाया था, जो बिलकुल सादा था, और जिसमें सफाई का बिलकुल ध्यान नहीं रखा गया था। कुछ ही देर में एक व्यक्ति ने मुझसे पूछा अगर मैं गुरुजी के भक्तों के साथ आया था। मेरे हाँ कहने पर उसने मुझे लड्डू और चाय दी। मैंने वो ले लिया, इस बात से बेखबर की कि वो गुरुजी का प्रसाद था, उनके आशीर्वाद का माध्यम।

अगले दिन भी उन भक्तों ने मुझसे पूछा कि अगर खाली था और मैंने तुरन्त हाँ कर दी। पर तब भी मैं गुरुजी के दर्शन के लिए मंदिर के अंदर नहीं गया। मंदिर के दरवाज़े पर इतने धनवान लोगों को देखकर मैंने यह गलत धारणा बना ली कि गुरुजी तो बस धनवानों और साधन-संपन्न लोगों के लिए हैं, आम लोगों के लिए नहीं। पर फिर, मुझे एक अजीब सा खिंचाव महसूस हुआ और मैं अंदर चला गया। गुरुजी अपने आसन पर विराजमान थे। मैं गुरुजी के आगे नतमस्तक हुआ और जिन भक्तों के साथ आया था, उनके साथ जाकर बैठ गया। शबद चल रहे थे, इसलिए मैं एक अक्षर भी नहीं बोल पाया। मेरे साथियों ने मुझे ॐ नमः शिवाय का जाप करने को कहा। पर कब तक? मैं बैठे-बैठे थक गया और लंगर का इंतज़ार करने लगा। एक थाली से चार लोगों का मिलकर खाना मुझे थोड़ा अजीब लग रहा था, पर लंगर स्वादिष्ट था। मेरे सारे पूर्वानुमान गलत थे: गुरुजी का दरबार अलग है!

अगले दिन मैं सीधे संगत में गया, गुरुजी के चरण कमल छूए, चाय प्रसाद लिया और बाहर जाकर लड्डू और चाय प्रसाद दोबारा लिया। फिर मैं लंगर के लिए अंदर आया। यह मेरा नित्य-कर्म बन गया था और मैं गुरुजी के दर्शन और मंदिर में गुरुजी की शरण में बैठने का आनंद उठाने लगा।

एक दिन मुझे थोड़ी देर हो गई और मैं जब पहुँचा तो लंगर शुरू होने वाला था। मैं नहीं चाहता था कि मेरे साथ जो संगत आई थी उन्हें मेरी कारण इंतज़ार करना पड़े या वे परेशान हों। तभी, एक भक्त ने आकर मुझसे पूछा कि क्या मैं लंगर करना चाहता था। वह मुझे लंगर के लिए सबसे आगे ले गया, गुरुजी के आसन के करीब! जैसे-जैसे मैं गुरुजी के पास आता रहा, मेरा उनके साथ कनेक्शन अटल होता गया और मुझे एहसास हुआ कि गुरुजी पारम्परिक उपदेशकों से अलग थे। गुरुजी के दरबार में बैठे हुए मुझे पूरा विश्वास था कि जैसे गुरुजी बाकी सब का धयान रखते हैं, वह मेरा भी धयान रखेंगे। मुझे एहसास हुआ कि मेरा यह मानना कि गुरुजी केवल धनवानों पर कृपालु होते हैं, गलत था। वह सबके लिए निर्मल और शर्त-रहित प्रेम के स्रोत हैं।

गुरुजी अपनी संगत खुद चुनते हैं

गुरुजी की ओर मेरा प्रवर्तन अनपेक्षित था। जब मेरा उनसे जुड़ने का समय हुआ तो घटनायें अपने आप मुझे उनकी ओर ले गईं। यद्यपि वो घटनायें दिखने में अजीब और संयोगात्मक लगती हैं, गुरुजी ने बहुत बारीकी से पूरे क्रम का नियोजन किया।

अपना दृष्टिकोण समझाने का मैं एक छोटा सा उदाहरण देता हूँ। मेरा दोस्त और मैं मंदिर जा रहे थे। हमारी गाड़ी के आगे स्कूटर पर एक व्यक्ति था जिसकी कारण हमें देर हो रही थी। हम मंदिर पहुँचने के लिए उत्सुक थे इसलिए मैंने उस स्कूटर वाले को चिढ़कर हमें रास्ता देने को कहा। वह शनि मंदिर का रास्ता ढूँढ़ रहा था जो बड़े मंदिर के रास्ते में पड़ता है। हमने उसे हमारे पीछे-पीछे आने को कहा। शनि मंदिर के मोड़ पर पहुँचकर हमने उसे इशारा किया पर तभी मेरे दोस्त ने उसे कहा कि अगर वह 'शिव लोक' आना चाहता हो तो हमारे पीछे-पीछे आए।

हैरानी की बात है कि वह हमारे पीछे-पीछे चल पड़ा। अगले दिन वह अपने पूरे परिवार के साथ मंदिर आया। आज वह गुरुजी का भक्त है।

इसी तरह, कानपुर में मेरा एक दोस्त है जो कुछ दिनों के लिए दिल्ली आया हुआ था। वह गुरुजी के दरबार चला और अब जब भी दिल्ली आता है तो मंदिर आवश्य जाता है। वहीं, मेरे दिल्ली में बहुत दोस्त हैं जिन्होंने मुझसे गुरुजी के बारे में सुना हुआ है पर कभी गुरुजी के दरबार नहीं आये हैं।

यह बात स्पष्ट है कि गुरुजी स्वयं चुनते हैं कि कौन उनकी शरण में आ सकता है।

गुरुजी के पास आने के बाद मैं उनके आशीर्वाद का आनंद उठा रहा हूँ। उनकी कृपा केवल उन्हीं लोगों तक सीमित नहीं होती जो उनके सीधे सम्पर्क में होते हैं। मुझे इस बात की अनुभूति तब हुई जब एक दिन मैं बस में अपने पड़ोसी की बेटी से मिला। मैं उसे बचपन से जानता था और मैंने उससे पूछा कि वो कौनसी कक्षा में पढ़ रही थी। उसने जवाब दिया कि उसने एक पॉलिटेक्निक में दाखिले के लिए आवेदन दिया हुआ था। मैंने गुरुजी से प्रार्थना की कि वह उस लड़की पर कृपा करें और मैंने उसे कहा कि अब वो अपने दाखिले के बारे में निश्चिंत हो जाए।

मैं कुछ दिनों बाद उससे फिर मिला और वह बहुत खुश थी। उसका वेटिंग लिस्ट में पहला नाम था, जब बिना किसी स्पष्टीकरण के, एक अन्य छात्रा ने अपना नाम वापस ले लिया और वहाँ दाखिला नहीं लिया, तब गुरुजी की कृपा से मेरे पड़ोसी की बेटी को दाखिला मिल गया।

केले से आशीर्वाद

गुरुजी ने मुझे अपने दर्शन का आशीर्वाद दिया। सपने में मैंने गुरुजी को दिल्ली में केशव पुरम मार्किट में देखा। मैं हैरान हुआ और मैंने गुरुजी से वहाँ आने का कारण पूछा। गुरुजी बोले कि वह ऐसे ही आये थे, कोई विशेष कारण नहीं था। मैंने गुरुजी से पूछा कि क्या मैं उनके लिए कुछ खाने के लिए लेकर आऊँ। गुरुजी ने मना कर दिया परन्तु मेरे दबाव डालने देने पर केले खाने के लिए मान गए। मैंने पूरे मार्किट में ढूँढ़ा पर मुझे केले कहीं नहीं मिले। जब मैं वापस उस जगह पहुँचा जहाँ मुझे गुरुजी मिले थे, तो वे वहाँ पर नहीं थे। मैं अपने घर वापस गया और घंटी बजाई। जब मेरी माँ ने दरवाज़ा खोला तो मैं हैरान हो गया यह देखकर कि गुरुजी मेरी माँ के पीछे खड़े थे। मैं पुकार उठा, "गुरुजी, आप यहाँ और मैं आपको वहाँ मार्किट में ढूँढ़ रहा था।" गुरुजी बोले, "कोई गल नहीं, आजा बैजा ऐथे (कोई बात नहीं, इधर आकर बैठ।)" उसी समय मेरी नींद खुल गई और गुरुजी के दर्शन समाप्त हो गए।

अगले दिन मेरी माँ बीमार पड़ गई और उसे चक्कर भी आ रहे थे। मैं रसोईघर में गया तो देखा वहाँ एक केला रखा हुआ था। मैंने माँ को वो खाने के लिए दिया यह कहते हुए कि इससे उनके चक्कर बंद हो जाएँगे। इस केले का सम्बन्ध पिछली के रात गुरुजी के दर्शन से था, यह मैं समझ गया था। जब मैं शाम को घर वापस आया तो हैरान हुआ यह जानकर कि सुबह को केला खाते ही माँ की हालत में सुधार आ गया था! अपने भक्तों को आशीर्वाद देने के गुरुजी के तरीके अनोखे होते हैं और केवल गुरुजी ही हैं जो सब कुछ कर सकते हैं।

"कल्याण हो गया"

जब मैं मंदिर आता था तो अक्सर गुरुजी को उनके भक्तों को यह आशीर्वाद देते हुए सुनता, "कल्याण हो गया।" मुझे इंतज़ार था कि मुझे भी इन शब्दों का आशीर्वाद प्राप्त हो।

एक बार गुरुजी ने मुझे दर्शन दिए। वह अपने आसन पर बैठे हुए थे और मैं उनके पास ही लंगर कर रहा था। गुरुजी ने मुझे इशारे से अपने पास बुलाया। जब मैं उनके आगे नतमस्तक हुआ तो उन्होंने मुझे पीछे बैठने को कहा। मैं उनके कहे अनुसार कर ही रहा था कि गुरुजी ने मुझे फिर से बुलाया और बोले, "जा तेरा भी कल्याण किता (मैंने तुझे आशीर्वाद दिया।)" मैं बहुत खुश हुआ। यह कितनी आश्चर्यजनक बात है कि आपके मन में जो भी बात चल रही हो, छोटी या बड़ी, गुरुजी जानते हैं और उसका जवाब देते हैं। कभी-कभी तो हमारी माँगें इतनी साधारण होती हैं कि हम ही उन्हें भूल जाते हैं पर गुरुजी वह सब पूरी कर देते हैं।

एक बार 31 दिसम्बर के उत्सव पर मुझे गुरुजी से एक दुर्लभ अवसर प्राप्त हुआ उन्हें शुभकामना देने का। उनसे आज्ञा लेते समय मैंने उन्हें नववर्ष की शुभकामना दी तो उन्होंने भी मुझे शुभकामना दी। मुझे नहीं पता कि मुझ में इतनी हिम्मत कहाँ से आई पर मैंने गुरुजी को कह दिया कि 1 जनवरी को मेरा जन्मदिन भी होता है। गुरुजी बोले, "जा, ऐश कर फिर।" उनके यह शब्द मेरे हृदय में हमेशा के लिए बस गये हैं और मैं आजीवन उन्हें संजो के रखूँगा। यह जन्मदिन का सबसे अच्छा उपहार था जो मुझे कभी मिल सकता था !

गुरुजी बोले: 'उदास मत हो'

31 मई 2007 को गुरुजी की महासमाधि एक दिल तोड़ने वाली घटना थी। अगले दिन हमें सुबह-सुबह मंदिर पहुँचना था। मैंने सुबह 4:30 बजे के लिए घंटी लगाई थी पर घंटी बंद करके मैं दोबारा सो गया। दो घंटे बाद, गुरुजी, सफेद चोला पहने हुए आए और बड़े स्नेह से मुझे उठाते हुए बोले, "कंजर खड़ा हो। वड्डे मंदिर नहीं जाना। पहुँच मंदिर।" (उठ जा! बड़े मंदिर नहीं जाना है? चल मंदिर जा।) मैं तुरंत उठा और तैयार होकर मंदिर के लिए निकल पड़ा। यह दिल को इतना छू लेने वाली अनुभूति थी कि गुरुजी स्वयं आये और मुझे बड़े मंदिर जाने के लिए कहा।

कुछ दिनों बाद, आधी रात को मेरा एक दोस्त आया। उसके चचेरे भाई की अकस्मात् मृत्यु हो गई थी और उसने मुझे उसके साथ उसे घर चलने को कहा। उस समय मैं गुरुजी की महासमाधि के कारण परेशान था। मैं गुरुजी से पूछता रहता कि वह क्यों हमें छोड़ कर चले गए; अब मेरा क्या होगा; कौन हमारा धयान रखेगा; और मेरा जीवन कैसे चलेगा। अपने को सम्भालकर मैं उठा और अपने दोस्त के साथ चल पड़ा। कुछ घंटों बाद घर वापस आकर मैं सो गया। गुरुजी ने मुझे दर्शन दिए और बोले, "तू रोता क्यों है? मैं कहीं नहीं गया हूँ। मैं अभी भी यहीं सब के साथ हूँ। उदास मत हो। खुश रह और रोना बंद कर। उन लोगों का धयान रख जिनके पास रोने का कारण है (मेरे दोस्त की ओर इशारा करते हुए)। तुझे अब और रोना नहीं चाहिए" गुरुजी का निर्देश स्पष्ट था और मुझे इससे हिम्मत मिली। हमें हर पल गुरुजी के शब्दों की सच्चाई का अनुभव होता है: "मैं यहीं हूँ।" वह बिलकुल यहीं हैं और हमारी हर आवश्यकता का धयान रखते हैं। मेरा जीवन पूरी तरह से गुरुजी की कृपा पर निर्भर है।

सपने में दर्शन देकर डुगरी तीर्थयात्रा की भविष्यवाणी

मैंने एक और सपना देखा जिसमें दो दोस्त मेरे पास होली खेलने के लिए आए। पर मैंने उनसे कहा कि मैं होली केवल गुरुजी के साथ ही मनाऊँगा। साल 2007 में मैंने बड़े मंदिर में होली मनाई थी। साल 2008 में कोई उत्सव नहीं हुआ था पर फिर भी क्योंकि वह एक विशेष दिन था मैंने वो पूरा दिन बड़े मंदिर में गुरुजी के साथ बिताया (शारीरिक रूप में नहीं, आध्यात्मिक रूप में)। गुरुजी हम सब के साथ हैं और सारी संगत उनके आशीर्वाद और प्रेम का आनंद उठा सकती है। गुरुजी हमारे साथ ही हैं और सदैव रहेंगे।

मेरे सपने में, मैं अपने दोस्तों को छोड़कर गुरुजी को ढूँढ़ने आगे निकला। जब मैं गुरुजी से मिला और उनके आगे नतमस्तक हुआ तो प्रेम और स्नेह से रोने लगा। गुरुजी ने मुझे बैठने को कहा। ऐसा लग रहा था जैसे कि मैं किसी गाँव में था। जैसे ही मैं बैठा, मेरे दोस्त भी आ गए और गुरुजी के आगे नतमस्तक हुए। फिर उन्होंने गुरुजी को रंग लगाया और "हैप्पी होली" कहा। गुरुजी ने भी उन्हें होली की बधाई दी, मुझे बुलाकर रंग लगाया और "हैप्पी होली" बोले। मैंने भी उन्हें होली की बधाई दी और गुरुजी के चरण कमलों में रोने लगा। ऐसा लग रहा था मानो वियोग के इतने साल अन्त हो गए थे। ईश्वर के साथ होली खेलने में कितना आनंद था।

मैं गुरुजी के आसन के पास बैठ गया। सामने एक चारपाई रखी हुई थी जिसके नीचे गुरुजी की चरण-पादुका थी। वो चरण-पादुका साफ नहीं थी इसलिए मैंने गुरुजी पूछा कि क्या मैं उन्हें साफ कर दूँ। पर गुरुजी बोले कि वे अपने आप ही साफ हो जाएँगी, पानी की एक धारा आयेगी और उन्हें साफ कर देगी। (बाद में मुझे समझ आया कि हमारे बुरे कर्म वो मैल थी और केवल गुरुजी ही उसे साफ कर सकते थे।)

फिर सपने में मैंने देखा कि मैं रसोईघर में लंगर कर रहा था जब मेरी माँ ने आकर कहा कि गुरुजी जा रहे थे और मुझे जाकर उनसे आज्ञा लेनी चाहिए। मैं उनके आगे नतमस्तक हुआ और मैंने उनके चरण पकड़ लिए। गुरुजी ने मुझे जाने को कहा पर क्योंकि मैं वहाँ से हिल नहीं रहा था, गुरुजी बोले, "चल 6 तारीख नू आ जाईं (ठीक है, 6 तारीख को आ जाना।) मेरी खुशी की कोई सीमा नहीं थी। जब मैं उठा तो मैंने कैलेंडर देखा। वह 6 अप्रैल 2008 का दिन था, महीने का पहला रविवार।

तब दिल्ली में महीने के पहले रविवार को संगत नहीं हुआ करती थी पर मुझे पता चला कि डुगरी में महीने के पहले रविवार को संगत होती है। मैं सत्संग के लिए डुगरी गया। डुगरी का सत्संग एक बहुत ही अद्भुत अनुभव था। मैं सोचता ही रह गया कि कैसे सपने में गुरुजी ने मुझे ऐसी गाँव जैसी जगह के दर्शन कराये थे। और यहाँ मैं डुगरी में बैठा सत्संग का आनंद उठा रहा था!

हमारे पड़ोस में एक पंजाबी परिवार आया था। गाड़ी साफ करते समय मैंने गुरुजी के दरबार में जो शबद चलते हैं वो चलाये हुए थे। मैंने आवाज़ बढ़ा दी, इस आशा से कि उस पंजाबी परिवार का उन शबद पर ध्यान जाये और हो सकता है कि वो गुरुजी की संगत में जुड़ना चाहें। पर उनकी ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई। मैं थोड़ा निराश हुआ पर मैंने सब गुरुजी पर छोड़ दिया। फिर, जैसे ही मैंने गाड़ी के अंदर झाँका तो देखा कि गुरुजी बैठे हुए थे। मैं उनके पास जाने लगा तो वे अदृश्य हो गये। गुरुजी की महासमाधि के बाद मुझे उनके यह दर्शन हुए थे। गुरुजी पर्याप्त प्रमाण देते हैं कि वह सदैव हमारे साथ हैं। यह गुरुजी का आशीर्वाद ही है कि मैं अपने जीवन में आगे बढ़ पा रहा हूँ! जय गुरुजी!

सोनू, एक भक्त

मार्च 2010