कैंसर से मुक्ति

सुमीत एवं छवि जेथरा, जुलाई 2007 English
मैं पूर्ण रूप से निराश हो गया था। जीवन निरर्थक व्यतीत हो रहा था। प्रभु पर मेरी आस्था नहीं रही थी। मुझे लगता था कि ईश्वर नहीं है। मैंने मंदिरों में जाना और प्रार्थना करना बंद कर दिया था। जीवन बोझ लगता था, कई बार मैं सोचता था कि भगवान ने मुझे क्यों पैदा किया हैः मुझे कष्ट में देखकर प्रसन्न होने के लिये? यदि कहीं ईश्वर थे भी, तो केवल पीड़ा पहुँचाने के लिये थे।

मेरी ऐसी अशुभ सोच होते हुए भी, गुरुजी ने मुझे अपनी शरण प्रदान की। उन्होंने दर्शन देकर मुझे कृतार्थ किया, बच्चे की तरह मुझे पाला। मुझे इतना दिया कि मैं उनका धन्यवाद भी नहीं कर सकता। संभवतः मुझे कभी पता भी नहीं चलेगा कि उन्होंने मेरे लिये कितना किया है। उनके विदित आशीर्वाद तो सागर में बहते हुए हिमशिला के समान हैं - उनका एक भाग समुद्र तल के ऊपर और नौ भाग नीचे जल में छिपे रहते हैं। और यह सब तब किया, जब मैं उसके योग्य भी नहीं था - कभी भी मेरे कहे बिना, कभी भी मुझे यह आभास न देते हुए कि वह इतना कुछ कर रहें हैं।

कैंसर के प्रकोप से मुक्ति

गुरुजी के प्रथम दर्शन का सौभाग्य मुझे मार्च 1998 में प्राप्त हुआ। मैं 24 वर्ष का था और मेरी न्यूरोब्लास्टोमा (एक प्रकार का कैंसर) की शल्य क्रिया हो चुकी थी। मेरा जीवन प्रायः समाप्त था। मेरी माँ की एक सहकर्मी, व्यवसाय से दोनों चिकित्सक, ने गुरुजी के चमत्कारिक उपचार के बारे में बताया था। स्वभाविक था कि बिना किसी पूर्व अनुभव के मैं संशय में था। उनके निर्देश के अनुसार गुरुजी को मेरी स्थिति से अवगत कराया गया। गुरुजी का उत्तर मात्र, ‘कल्याण कित्ता’ था। उस समय हमें इन शक्तिशाली शब्दों के अर्थ का ज्ञान नहीं था। गुरुजी का कहा शाश्वत् सत्य होता है। यह जानने के लिए कि मुझे दिव्य वरदान मिला था, समय लगा। मुझे लंगर और प्रसाद मिल रहे थे; यह गुरुजी के उपचार के यंत्र थे। परिणाम सबके देखने योग्य थे। अविश्वसनीय रूप से स्वास्थ्य लाभ हो रहा था। कुछ माह के पश्चात् दिव्य उपचार सर्वविदित हो गया। शल्य क्रिया के छः माह पश्चात् रोग की स्थिति के परीक्षण के लिये मैं सी टी स्कैन के लिये गया था। स्कैन में पता लगा कि शल्य क्रिया के तुरन्त बाद किये गये स्कैन में देखे गये तीनों संदिग्ध चिह्नों के गुर्दे, यकृत और उदर पर, कोई भी आसार शेष नहीं थे। चमत्कार हो चुका था। मेरा शरीर कर्कट रोग के प्रकोप से मुक्त हो गया था। कालांतर में मैं बिल्कुल रोग मुक्त हो गया था। आज उसे हुए एक दशक बीत चुका है। न केवल वह रोग समाप्त हो गया, गुरुजी की दया से मेरा स्वास्थ्य भी ठीक है। मेरी औषधियाँ केवल लंगर और चाय प्रसाद हैं। वही चिकित्सक जो मेरे कैंसर समाप्त होने के बारे में सदेंह का भाव रखते थे, कहने लगे कि कभी कैंसर था, भूल जाऊँ। उनको यह कहने की आवश्यकता नहीं है। मुझे पता है कि गुरुजी ने मुझे नवजीवन प्रदान किया है।

फगवाड़ा से दिल्ली तक खुली आँखों से सोते हुए

फरवरी 2002 में गुरुजी ने हमें फगवाड़ा में एक विवाह में जाने का निमंत्रण दिया। फगवाड़ा दिल्ली से कई सौ किलोमीटर दूर है। मैं अपने माता-पिता के साथ विवाह में गया था। विवाह के दिन हम प्रातः दिल्ली से चले और संध्या तक वहाँ पहुँचे। गुरुजी भी वहाँ पर नव दम्पति और संगत को आशीर्वाद देने आये थे। समारोह के पश्चात् गुरुजी ने जनरल मल्होत्रा, एक अन्य संगत परिवार जो दिल्ली से आया था, और हमें रात भर वहाँ रुकने को मना किया और तुरन्त वापस दिल्ली जाने के लिए कहा। हमने उनके आदेश का पालन किया।

हम रात्रि को 12:30 बजे दिल्ली के लिए निकले । हम जनरल मल्होत्रा की जिप्सी गाड़ी के पीछे थे और मैं कार चला रहा था। चलने के तुरन्त बाद मेरे माता-पिता सो गये। पंद्रह मिनट के पश्चात् मुझे भी नींद के झोंके आने लगे। रात का समय था और राजमार्ग पर बहुत कम अन्य गाड़ियाँ थीं। हम 100 किलोमीटर से ऊपर की गति से जा रहे थे। जैसे-जैसे समय व्यतीत होता गया मुझे और ज़ोर से नींद आने लगी। मैं अपने पिता को नहीं जगा सकता था क्योंकि वह दिन भर गाड़ी चला कर थके हुए थे और हमें गुरुजी के निर्देशों का पालन करना था। अतः यात्रा तो करनी ही थी।

तीन बार मेरी नींद झटके से टूटी जब हमारी गाड़ी पक्की सड़क से कच्चे पर जाने लगी थी। हर बार मैं आराम से वापस मुख्य मार्ग पर आ गया। एक बार कार रोक कर मैंने मुँह भी धोया पर उससे अधिक सहायता नहीं मिली। मैं पूरी रात गाड़ी चलाता रहा। बड़ी कठिनाई से मैं अपना सिर सीधा रख पा रहा था। स्टीयरिंग पर दोनों हाथ रखे हुए मेरी आँखें आगे जा रही जिप्सी के पीछे की बत्तियों पर टिकी हुई थीं। यद्यपि मैं उससे दूरी बनाये हुए था, मुझे पता था यदि उस गाड़ी ने ब्रेक लगायी तो संभवतः मैं समय से पहले रोक नहीं पाऊँगा। मुझे यह भी आभास है कि उस रात हमने कोई शहर पार नहीं किया, न ही सामने से किसी गाड़ी को आते हुए देखा। प्रातः दिल्ली पहुँच कर मैंने अपने पिता को कार चलाने के लिए कहा क्योंकि यह अब मेरे लिये संभव नहीं था।

उस रात क्या मैं गाड़ी चला रहा था? या कोई अदृश्य शक्ति ने इतने सौ किलोमीटर तक गाड़ी को सही मार्ग पर रखा था? आज भी जब मैं यह प्रसंग अन्य लोगों को सुनाता हूँ तो वह सोच में पड़ जाते हैं। उस रात कुछ भी हो सकता था पर मुझे पता था कि गुरुजी सदा हमारी रक्षा कर रहे हैं, चाहे हम जग, सो या वाहन चला रहे हो। किन्तु-परन्तु सोचे बिना हमें उनके कथन का पालन करना है। उनकी कृपा होते हुए हमें सफलता अवश्य मिलेगी। यद्यपि यह प्रतीत होता है कि हम कुछ कार्य कर रहे है, वास्तव में कार्य गुरुजी कर रहे होते हैं। मैं केवल कह सकता हूँ - धन्यवाद गुरुजी।

विवाह की योजना

मेरे कैंसर के उपचार के पश्चात् गुरुजी अक्सर मेरे माता-पिता से कहते थे, "मुंडे दा ब्याह करा दो।" खोज की गयी पर निष्फल रही। कहीं भी बात नहीं बन रही थी। उन्होंने गुरुजी को बताया तो वह बोले "तैनू पंजाबी कुड़ी दिलाऊँगा।" क्योंकि हम किसी पंजाबी परिवार को नहीं जानते थे, हमने गुरुजी से पूछा कि क्या विज्ञापन दे दें? मना करते हुए वह बोले, "चिंता न कर, हो जाऊगा।" हमें गुरुजी का तात्पर्य समझ नहीं आया। क्योंकि मैं किसी सामाजिक समारोह में नहीं जाता था और कार्यालय में मेरे अधिकतर मित्र अन्यत्र चले गये थे, हम सोचते रहते थे कि यह कैसे संभव होगा।

मैं कार्यालय के भोजन कक्ष में बहुत कम जाता था। एक दिन जब मैं अपने कुछ सहकर्मियों के साथ वहाँ गया था, एक लड़की ने आकर मुझसे, मेरे एक मित्र, दीपक का पता पूछा। मैंने उसे बताया कि दीपक कुछ समय पहले नौकरी छोड़ चुका था। उस लड़की, छवि, ने अपना एम सी ए का प्रशिक्षण दीपक के निर्देशन में पूरा किया था। अब एक वर्ष पश्चात् उसे यहीं पर स्थायी पद मिल गया था। शीघ्र ही हम दोनों एक दिशा में चल पड़े। गुरुजी से इस संबंध के बारे में पूछने पर उन्होंने अपना आशीर्वाद दे दिया। क्या यह कहने की आवश्यकता है कि छवि, जैसे गुरुजी ने तीन वर्ष पूर्व कहा था, एक पंजाबी परिवार से है?

कार्य रोग से मुक्ति

एक बार अपने कार्य में मुझे अनेक समस्याएँ आ रही थीं, फलस्वरूप पूरी रात जागते कटती थी। मुझे अत्याधिक अम्लता और अनिद्रा रोग हो गये। उस समय मैं छुट्टी भी नहीं ले सकता था। यह पूरे एक सप्ताह तक चलता रहा। अगले सप्ताह जब मैं सोमवार को प्रातः जगा तो मेरे दायें पैर में एक विचित्र समस्या उत्पन्न हो गई थी। मैं उसे 100° से अधिक की मुद्रा में नहीं संभाल पा रहा था। जब भी मैं उसे उठाता था वह बेजान सा गिर जाता था और उसकी नसें खींच नहीं पा रहे थे। पहले तो प्रतीत हुआ कि यह अस्थायी शिथिलता है पर जब पूरे दिन ऐसा ही रहा तो कोई बड़ी समस्या होने के आसार लगने लगे। मुझे अपने कार्यालय से छुट्टी लेनी पड़ी क्योंकि मैं ठीक से चल भी नहीं पा रहा था। चलने के लिये मुझे उस टाँग को खींचना पड़ रहा था। मैंने छुट्टी के लिये निवेदन किया तो वह तुरन्त स्वीकृत हो गयी। पिछले सप्ताह की व्यस्तता को देखते हुए यह असंभव लग रहा था।

अगले कुछ दिनों में मैंने चिकित्सालयों के चक्कर काटे, जहाँ अनेक स्नायु विशेषज्ञों (न्यूरोलॉजिस्ट) के अनेक परीक्षण हुए। यद्यपि सब परिणाम सामान्य आये, समस्या फिर भी शेष थी। आश्चर्यजनक रूप से ऐसे समय मैं स्कूटर और कार चला सकता था। अपनी पत्नी को कुछ किलोमीटर दूर उसके कार्यालय तक छोड़ने के लिये यह मैंने किया भी। क्योंकि जब मेरे पैर का कोण 100° से कम होता था मैं अपने रुग्ण पैर से काम ले सकता था - वह ब्रेक और गति नियंत्रित करने के लिये काम में लाया जाता है।

समस्या की गंभीरता और चिकित्सालयों में परीक्षण आदि करवाने के कारण मेरा मन कार्य संबंधी तनाव से हट गया। तीन सप्ताह के उपरान्त मैंने फिर से कार्यालय जाना आरम्भ किया। अब मैं मानसिक व शारीरिक रूप से स्वस्थ था। वह समस्या कैसे आई और कहाँ चली गयी, इसका कुछ पता नहीं चला। समस्या का कभी निदान नहीं हो पाया और उसका कोई उपचार भी नहीं हुआ था। इस शारीरिक समस्या से वास्तविक समस्या का अंत हो गया। गुरुजी को ही ज्ञात है कि हमारी समस्याओं को कब और कैसे अंत करना है। उनके कार्य करते हुए, पहेली के सब अंश सही स्थानों पर बैठ जाते हैं।

ईश्वर की गोद में

एक दिन मैं अपनी पत्नी को लेने उसके कार्यालय जा रहा था। देर होने के कारण मैं तेज गति से वाहन चला रहा था। अकस्मात् एक व्यस्त चौराहे पर मेरे स्कूटर के पहिये के नीचे न जाने क्या आया और मैं स्कूटर से उछल कर सिर के बल भूमि पर आ गिरा। तीव्र गति के कारण मेरे कंधे और सिर पर पूरा वज़न आया और मैं स्कूटर सहित काफी दूर तक घिसटता चला गया।

उठने की स्थिति में आने पर मैं टैक्सी लेकर घर वापस आ गया। केवल मेरे पैर पर कुछ खरोंचे आईं थीं और मेरे कंधे की हड्डी टूट गई थी; सिवाय इसके मैं ठीक था। इन चोटों को ठीक होने में मात्र एक सप्ताह का समय लगा।

गुरुजी की कृपा और सुरक्षा स्पष्टतः दृष्टिगोचर थी। यद्यपि दुर्घटना कार्यालय से लोगों के लौटने के समय एक अति व्यस्त चौराहे पर हुई थी, उस समय वहाँ पर कोई अन्य गाड़ी नहीं थी। जिस प्रकार से मै गिरा था उससे मेरी गर्दन टूटनी चाहिए थी जो कि जानलेवा हो सकता था। किन्तु मेरे चेहरे पर एक खरोंच तक नहीं थी। जितनी दूर तक स्कूटर मेरे साथ घिसटता गया, उस बीच में तेज़ी से आती हुई कोई अन्य गाड़ी टकराती या फिर सड़क पर बने हुए मार्ग विभाजक से मेरा सिर या शरीर टकराता, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। अंत में कंधे की टूटी हड्डी का एक सप्ताह में ठीक हो जाना चमत्कारिक ही कहेंगे।

इस घटना के एक सप्ताह के पश्चात् ही हमें अपना घर बदलना पड़ा था। जब मेरे माता-पिता बाहर थे, मेरी पत्नी और मैंने, घर का पूरा भारी सामान हिलाया और मेरे कंधे ने उसका बोझ सरलता से उठा लिया। गुरुजी की सुरक्षा सब को अचंभित कर देती है। इससे पहले कि हमें विपत्ति का आभास हो, गुरुजी उससे सूरक्षा का प्रबन्ध कर देते हैं या तो समस्या की गंभीरता कम हो जाती है अथवा उस समस्या का हमें कभी आभास ही नहीं होता।

असीमित सुरक्षा - पुनः बचाव

एक दिन मेरी पत्नी और मैं घर से कार्यालय के लिये निकले। हर बार की भांति मैं जल्दी में था और खुली और खली सड़क होने के कारण तेज़ी से गाड़ी चला रहा था। मार्ग सीधा होते हुए उस पर यातायात न के बराबर था। अचानक मेरे आगे स्कूटर सवार ने किसी से बात करने के लिये बीच सड़क में अपना स्कूटर रोक लिया। उसको पता नहीं था कि उसके पीछे गाड़ी आ रही है। यद्यपि मैंने ब्रेक लगाया, कार फिसली और स्कूटर में जा लगी। वह व्यक्ति स्कूटर से उछलकर हमारी कार के सामने वाले शीशे पर आ गिरा। किनारे पर लाकर उसे घास पर लिटाया गया। उसे कमर में चोट आयी थी और वह ठीक से बैठ भी नहीं पा रहा था। बाह्य रूप से केवल उसके सिर पर एक छोटा घाव लगा था।

हम उसे निकट के एक चिकित्सालय में ले गये जहाँ उसके एक्स-रे व अन्य परीक्षण किये गये। मैं गुरुजी से उसको स्वस्थ रखने की विनती कर रहा था, क्योंकि उसे गंभीर चोट आने पर जटिल परिणाम हो सकते थे। मेरी प्रार्थना का उत्तर परिणामों के साथ आया। चिकित्सकों ने कहा कि उसे कोई भी गंभीर चोट नहीं आयी थी परन्तु इस दुघर्टना के सदमे से बाहर निकलने के लिये उसे कुछ विश्राम की आवश्यकता थी। उसी दिन उसे चिकित्सालय से छोड़ दिया गया। एक बार पुनः मुझे बचाने के लिये गुरुजी को हार्दिक धन्यवाद देते हुए मैं भी वहाँ से निकल गया।

अब मेरी पत्नी, छवि, के नौकरी बदलने के अनुभव और हमारे बच्चों, अर्जुन और गौरी के जन्म के संस्मरण, उसी के शब्दों में:

48 घंटों में मुझे नौकरी मिली

मार्च 2005: मैं अपनी नौकरी से प्रसन्न नहीं थी। पिछले दो वर्षों से मैं अन्य नौकरी ढूँढती रही थी। बिना कारण देर तक कार्य, बुरा वातावरण और प्रशंसा का अभाव वहाँ की परम्परा बन गये थे। एक बृहस्पतिवार को तंग आ कर मैंने छुट्टी कर ली। मैंने गुरुजी से नयी नौकरी के लिये विनती की। अचानक शाम को मैंने इंटरनेट पर नौकरियाँ ढूँढ़ने का मन बनाया और हम सुमीत के कार्यालय चले गये। उसी समय मुझे गुरुजी के समीप होने का आभास हुआ। कार्यालय जाते हुए मार्ग में मेरी एक सहेली का फोन आया कि नोएडा में उसके कार्यालय में कुछ रिक्त स्थान हैं। मैंने कार में लगे हुए गुरुजी के चित्र की ओर देखा तो ऐसा लगा मानो वह मुस्कुरा रहे हैं। सुमीत के कार्यालय पहुँच कर मैंने अपना विवरण उसको भेज दिया। अगले दिन ही वहाँ से शनिवार को होने वाली लिखित परीक्षा और साक्षात्कार के लिए बुलावा आ गया।

क्योंकि वहाँ जाने के लिये केवल आधा दिन शेष था और पढ़ने के लिए बहुत कुछ था मैंने सुमीत को मेरी परीक्षा लेने के लिये कहा। सुमीत ने एक घंटे से कम समय में मेरी परीक्षा ली और कुछ 10-15 प्रश्न पूछे। उसके बाद जब मैंने उससे पूछा कि क्या मैं उत्तीर्ण हो गयी थी, उसने हाँ में उत्तर दिया। मुझे लगा जैसे यह उसकी वाणी न होकर गुरुजी की हो जिन्होंने हाँ कहा।

वहाँ पर लिखित परीक्षा में उत्तीर्ण परीक्षार्थी ही साक्षात्कार के लिये बुलाये जाने थे। लिखित परीक्षा के समय मेरे कम्यूटर के स्क्रीन पर शिवजी का चित्र था। मैंने उसे गुरुजी का आशीर्वाद माना और सरलता से उसमें सफलता प्राप्त कर ली। साक्षात्कार में मेरे विषय से संबंधित प्रश्न पूछे जाने थे। आश्चर्य की बात थी कि मेरे से उन्हीं 10-15 में से 4-5 प्रश्न पूछे गये जो सुमीत ने पिछली रात पूछे थे। जबकि अन्य अभ्यार्थियों का साक्षात्कार एक-एक घंटे तक चला, मुझे 15 मिनट में नौकरी मिल गयी। न केवल यह, मेरा वेतन भी दुगना कर दिया गया। यहाँ का वातावरण भी अधिक आरामदायक था।

इस अवधि में सुमीत बाहर मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे। मेरे आते ही उन्होंने पूछा, 'तुम्हें नियुक्ति पत्र अभी मिल गया है या सोमवार को देंगे?' मुझे अचम्भा हुआ और मैंने सुमीत को पूरी बात बतायी।

नास्तिक के लिये यह भले ही संयोग की घटना हो, किन्तु मुझे पता है कि गुरुजी की मेहर के कारण ही मुझे 48 घंटों में नयी नौकरी मिल गयी। न केवल मैं पिछली नौकरी की घुटन से निकल पायी, मुझे ऐसी नौकरी मिली जो हर दृष्टि से पिछली नौकरी से कहीं अधिक अच्छी थी।

जीवन में जुड़वें आशीर्वाद

विवाह के दो वर्ष बीतने पर हमने परिवार को बढ़ाने की बात सोची। जब हमें सफलता नहीं मिली तो हमने चिकित्सकों की सहायता ली। पहला बुरा समाचार था कि कुछ समस्या अवश्य है। कई चिकित्सकों के दर्शन और उपचार, आयुर्वेद औषधि सेवन और अनेक परीक्षणों के पश्चात् दुखद परिणाम सामने आये। मेरी समस्या के कारण मेरे गर्भधारण करने की संभावना 25 प्रतिशत थी। मेरे पति के परिणाम और भी प्रतिकूल थे - परीक्षणों के अनुसार उनके वीर्य में बहुत कम थे। हमें बताया गया कि न केवल सामान्य अथवा किसी भी कृत्रिम ढंग, भले ही सबसे अच्छी क्यों न हो, हमें संतान नहीं हो सकती थी।

परन्तु सब कुछ अभी समाप्त नहीं हुआ था। 2006 में नव वर्ष की पूर्व संध्या को गुरुजी से आज्ञा लेते समय, गुरुजी ने प्रसाद देते हुए मुझे कहा, ‘जा तेनू दवाई दित्ती’। 13 फरवरी, मेरे जन्म दिवस के अवसर पर, परीक्षण के परिणाम के रूप में शुभ समाचार आया।

26 फरवरी 2006 शिवरात्रि के दिन मुझे रक्तस्त्राव हो गया। सुमीत ने गुरुजी का चित्र मेरे किनारे रखा। जिससे मुझे कुछ शांति मिली और मैं एक घंटे के लिये सो गयी। शाम को मेरे देवर, हितेष, ने बड़े मंदिर से फोन पर कहा कि मेरा नाम आरती में है और हमारा वहाँ पर समय पर पहुँचना आवश्यक है। यह सुनकर मेरी आँखों में आँसू आ गये। गुरुजी अपनी संगत के प्रत्येक भक्त का कितना ध्यान रखते हैं। यद्यपि मेरी चिकित्सिका ने पूर्ण विश्राम करने के लिये कहा था, यहाँ तक कि शौचालय तक जाने की भी मनाही थी, और मैं पूरे दिन वेदना में रही थी, इस एक फोन से मेरे शरीर में अभूतपूर्व स्फूर्ति आ गयी और हम तैयार होकर ठीक आरती शुरू होने से पूर्व बड़े मंदिर पहुँच गये। चिकित्सिका ने पूर्ण विश्राम की अवधि में अपने पास आने के लिये भी मना किया था। क्योंकि यह हानिकारक हो सकता था, हम दो दिन के पश्चात् उसके पास गये। मेरा परीक्षण करने के बाद चिकित्सिका का रंग उड़ गया। उसने कहा कि रक्तस्त्राव अत्यंत भयंकर हुआ था, गर्भनाल अलग हो गई थी किन्तु दोनों शिशु सही थे। यह गुरुजी का एक चमत्कार था। हमने उसे यह नहीं बताया कि उस दिन बड़े मंदिर जाने और आने के लिये मैंने 80 किलोमीटर की यात्रा भी की थी। इस घटना के पश्चात् मुझे अति तीव्र औषधियाँ दी गयीं जिन्हें खा कर मेरा जी मितलाता था। मैं ऐसी औषधि नहीं ले पाती थी और हर बार उसे खाते हुए गुरुजी से विनती करती थी। शीघ्र ही अधिक औषधियों के कारण मुझे पीलिया रोग हो गया। चिकित्सिका को अब औषधियाँ बंद करनी पड़ीं। गुरुजी, एक बार फिर आपका हार्दिक धन्यवाद।

इतना ही नहीं, एक दिन गुरुजी के ही प्रभाव से हम मंदिर में देर तक रुके। लंगर के बाद हमें देसी घी युक्त कड़ाह प्रसाद मिला। यद्यपि में अभी (पीलिया रोग से) ठीक नहीं हुई थी, मैंने पूरी श्रद्धा के साथ वह ग्रहण किया और गुरुजी की कृपा से मुझे कोई परेशानी नहीं हुई।

चिकित्सकों ने गणना कर 22 अक्टूबर की जन्म तिथि बतायी थी। किन्तु गुरुजी के कहे अनुसार उनके वह सुनहरे उपहार, जुड़वाँ, 21 सितम्बर को ही पैदा हो गये। चिकित्सालय से निकल कर हम उन्हें गुरुजी के आशीर्वाद के लिये एम्पायर एस्टेट ले गये। उन्होंने प्रेम से मुस्कुरा कर संगत से कहा, "कदी वेख्या है कैंसर वाले नू बच्चा होते हुए, ऐथे दो दो दित्ते। ए शिव दे बच्चे हैं।" उनको अर्जुन और गौरी नाम देकर गौरवान्वित भी किया।

गुरुजी हमें पता है कि जो कुछ आपने हमारे लिये किया है उसके लिये हम कभी पूर्ण रूप से आपका धन्यवाद भी नहीं कर सकते हैं। आपके आशीर्वाद के इतने अवसर हुए हैं कि उन सबको लिखना संभव नहीं है। यहाँ पर केवल कुछ विशेष संस्मरण लिखे हैं। गुरुजी के हम हार्दिक आभारी हैं कि वह अपना आशीर्वाद, सुरक्षा और मार्ग दर्शन देने के लिये सदा हमारे साथ हैं।

सुमीत एवं छवि जेथरा, दिल्ली

जुलाई 2007