सृष्टि के स्वामी

सुरभि सिद्वानी, मार्च 2010 English
ॐ नमः शिवाय, शिवजी सदा सहाय
ॐ नमः शिवाय, गुरूजी सदा सहाय

मेरी शादी अगस्त 2005 में हुई थी पर अभी तक हम अपना परिवार शुरू नहीं कर पाए थे। चिकित्सकों की सलाह पर मैंने बहुत सारे परीक्षण कराये -- कुछ सरल, और कुछ जटिल और कष्टजनक। मेरे सभी परिणाम ठीक आये। परिवार शुरू करने के लिए हम पर रिश्तेदारों और मित्रों का दबाव बढ़ता जा रहा था और फिर यह हकीकत भी थी कि हमारी उम्र भी बढ़ती जा रही थी। मेरी जीविका से सम्बन्धित मुझे विदेश से कई बहुत अच्छे अवसर मिले जिन्हें मैंने मना कर दिया ताकि मैं अपना ध्यान पूरी तरह से अपने परिवार पर केंद्रित कर सकूँ; हमारी शादी में भी तनाव हो रहा था।

अगस्त 2007 में, मैंने अपनी एक सहेली, जो बौद्ध धर्म को मानती है, को मुझे बौद्ध धर्म से अवगत कराने को कहा। मैं पूरे मन से बौद्ध धर्म से जुड़ गई, उनके अधिवेशनों में भाग लेती, किताबें पढ़ती और चैंटिंग करती - इस एकमात्र उद्देश्य के साथ कि मुझे संतान प्राप्त हो। हमारे परिवारों ने हमें आम उपचारों के सुझाव दिए - पवित्र जल में डुबकी लगाना, दान करना इत्यादि। हम चिकित्सकों के पास जाने के साथ-साथ यह सब भी करते रहे और चिकित्सकों के पास भी जाते रहे और परीक्षणों और चिकित्सकों की फीस पर बहुत पैसा बर्बाद किया।

अंत में वह दिन आया जब अचानक ही (ऐसा मुझे उस समय लगा) मेरे मामाजी ने सुझाव दिया कि मुझे बड़े मंदिर जाकर गुरूजी का आशीर्वाद लेना चाहिए। मैंने अपने पति सौरभ, जो नास्तिक थे, को अपने साथ चलने के लिए मनाया। मई 2008 की समाप्ति के आस-पास गुरूजी का बुलावा आया। हम बड़े मंदिर गए और वह एक खूबसूरत अनुभव था। जब मैं और मेरी ममेरी बहन चाय प्रसाद ग्रहण कर रहे थे, मामाजी ने मुझे बताया कि एक महिला भक्त गुरूजी की तस्वीरें बाँट रही थी और मुझे जाकर एक लेनी चाहिए। मैं अनिश्चित थी कि मुझे ऐसा करना चाहिए कि नहीं क्योंकि मुझे पता था कि सौरभ मुझे डाँटेंगे और गुरूजी की तस्वीर घर में रखने के लिए कभी नहीं मानेंगे। जब मैं उन भक्त के पास पहुँची तो सारी तस्वीरें तब तक बंट चुकी थीं। फिर भी, वह बोलीं कि पहले लंगर के बाद वह गुरूजी की कुछ किताबें बाँटेंगी। मैं किताब लेने के लिए उत्सुक थी। परन्तु लंगर करने के बाद जब तक मैं वहाँ पहुँची, सारी किताबें बंट चुकी थीं। मैं तस्वीर लेने के लिए इच्छुक नहीं थी पर किताब मुझे चाहिए थी। गुरूजी ने क्यों मुझे किताब नहीं दी? मैं ऐसा सोच ही रही थी कि मेरी मामी ने आकर मुझे किताब थमा दी।

मैंने एक नित्य-कर्म बना लिया कि सोने से पहले एक सत्संग पढ़ती और मुझे विश्वास था कि उसी महीने मुझे गुरूजी का आशीर्वाद प्राप्त होगा।

फिर मेरी गर्भावस्था जाँच का दिन आ गया। मुझे यकीन था कि गुरूजी चाहते थे कि मेरी जाँच बृहस्पतिवार के दिन हो। सौरभ जाँच बुधवार को कराने की आग्रह कर रहे थे क्योंकि वह बृहस्पतिवार को बैंगलोर जा रहे थे और यह नहीं चाहते थे कि नकारत्मक परिणाम का सामना मैं अकेले करूँ।

बुधवार शाम को जब मैं अपने दफ्तर से लौटी तो मुझे पेट में बहुत दर्द हुआ। मैं समझ गई कि मुझे जाँच कराने की ज़रूरत नहीं थी। मैंने यह सौरभ से कहा और गुरूजी की तस्वीर के सामने बहुत रोई, यह मानते हुए कि गुरूजी पर जो मेरा भरोसा था वह उन्होंने तोड़ दिया था। अचानक, सौरभ को कुछ याद आया: बुधवार की सुबह को उन्होंने गुरूजी को सपने में देखा था और गुरूजी ने पंजाबी में कहा था कि परिणाम नकारात्मक आएगा और सौरभ को मेरा ख्याल रखना चाहिए। (सौरभ को बहुत कम सपने आते थे; जब से हमारी शादी हुई थी यह पहला सपना था जिसके बारे में उन्होंने बात की थी।) मैं स्तंभित रह गई और दोबारा गुरूजी की तस्वीर के सामने गई। मैंने उनसे माफी माँगी और उनका धन्यवाद किया कि वह मेरे बारे में सोचते हैं।

बृहस्पतिवार को जब मैंने यह बात अपनी ममेरी बहन गोपिका को बताई तो वह बोली कि मुझे खुश होना चाहिए कि गुरूजी ने मुझे अपनी संगत के रूप में स्वीकार लिया। उस दिन से हमने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।

उसी दिन, सौरभ शहर से बाहर थे और मेरे मामाजी मुझे दिल्ली छोड़ रहे थे। मैंने उन्हें बताया कि मैं बौद्ध धर्म मानती थी और चैंटिंग करती थी जिससे मुझे अच्छी ऊर्जा मिलती थी। लेकिन मेरे मामाजी का मानना कुछ अलग था। मैंने उनके कहने को गुरूजी का संदेश माना और उसी समय बौद्ध धर्म को छोड़ दिया। मुझे गुरूजी में पूरा विश्वास था।

सौरभ को भी बड़े मंदिर जाना अच्छा लगता था और हम हर बृहस्पतिवार को वहाँ जाते।

इसी दौरान मेरी स्त्री रोग विशेषज्ञ मुझे आई. यू. आई कराने की सलाह दे रही थी। हम एक लैप्रोस्कोपी विशेषज्ञ से भी मिले जिसने हमें लैप्रोस्कोपी कराने का सुझाव दिया। सौरभ की लैप्रोस्कोपी कराने में रुचि नहीं थी क्योंकि उसमें चीरा लगता, पर उन्होंने इसका निर्णय मुझ पर छोड़ दिया।

हम बृहस्पतिवार को बड़े मंदिर गए और हॉल में बैठे हुए मुझे ऐसा लगा जैसे गुरूजी मुझे कह रहे हों कि मैं अपनी ममेरी बहन, गोपिका की डिलिवरी होने तक इंतज़ार करूँ क्योंकि गोपिका को उनकी ज़्यादा ज़रूरत थी। अपनी आखरी त्रैमासिक अवधि के अधिकतर समय में गोपिका बिस्तर में ही सीमित थी। उसकी नियत तारीख नवम्बर के आखिर में थी पर मैं हमेशा अपनी मामी को कहती कि उसकी डिलिवरी अक्टूबर के आखिर में हो जाएगी। और गुरूजी के आशीर्वाद से उसे 1 नवम्बर को बेटा हुआ! मैंने सौरभ को दिसम्बर तक इंतज़ार करने को कहा, यद्यपि मुझे मंदिर में जो महसूस हुआ था वह मैंने नहीं बताया।

मैं हमेशा सोचती थी:
1. जब गुरूजी शारीरिक रूप में विद्यमान थे तब मैं उनके पास क्यों नहीं गई?
2. जब औरों को गुरूजी की खुशबू आती है तो मुझे क्यों नहीं आती है?
3. गुरूजी मेरे सपनों में आकर मुझसे बात क्यों नहीं करते हैं?

परन्तु मुझे महसूस होता जैसे गुरूजी नहीं चाहते थे कि मैं इन सवालों के बारे में सोचूँ या इन चीज़ों के बारे में शिकायत करूँ।

अक्टूबर के आखिर में मुझे फिर से गर्भावस्था की जाँच करानी थी। हम गुरूजी के पास बृहस्पतिवार को गए। गुरबानी सुनते समय मेरी आँखें बंद हो गयीं और मैं जवाब पाने का प्रयास कर रही थी कि मैं जाँच कब कराऊँ। विश्वास कीजिए, जाँच कराने और नकारात्मक परिणाम पाने के ख्याल से हम बहुत डरे हुए थे।

मुझे नहीं पता कि उस दिन क्या हुआ। मैं गुरबानी में पूरी तरह लीन थी और गुरूजी के आगे बैठे हुए मेरे आँसू बहते ही जा रहे थे। मुझे ऐसा लगा जैसे गुरूजी कह रहे हों कि घर वापस जाते समय मैं प्रेग्नन्सी-टेस्ट स्ट्रिप खरीदूँ पर जाँच अगली सुबह ही करूँ। और मुझे ऐसा भी लगा कि गुरूजी कह रहे थे कि अगर परिणाम सकारात्मक आता है तो मुझे मंदिर अकेले नहीं आना चाहिए बल्कि बच्चे के साथ ही आना चाहिए। परन्तु सौरभ को मंदिर आते रहना चाहिए। जब मैंने आँखें खोलीं तो मैं थोड़ा संकोच महसूस कर रही थी: मेरे वार्तालाप के बारे में बाकी सब क्या सोच रहे होंगे?

मैंने गुरूजी के निर्देश अनुसार ही किया। सौरभ ज़िद्द करते रहे कि मैं रात को ही जाँच करूँ पर मैं गुरूजी के निर्देश के खिलाफ नहीं जाना चाहती थी। मैं सुबह बहुत जल्दी, 5 बजे ही उठ गई और जाँच की। मुझे गुरूजी में पूरा विश्वास था पर परिणाम देखने के लिए मैंने गौरव को कहा। गौरव बोले कि परिणाम सकारात्मक लग रहा था पर हमें पूरी तरह यकीन नहीं हुआ क्योंकि हम यह नहीं जानते थे कि टेस्ट स्ट्रिप पर सकारात्मक परिणाम कैसा दिखता है। हमने गुरूजी का शुक्रिया अदा किया पर एक दूसरे को बधाई नहीं दी। हम अभी भी बहुत बेचैन थे और पेशाब की जाँच से पुष्टिकरण मिलने तक रुकना चाहते थे। हमने अगले दिन जाँच करायी और निस्संदेह, हमें गुरूजी का आशीर्वाद प्राप्त हुआ। जय गुरूजी!

मुझे अपने सारे सवालों के जवाब मिल गए थे और मैं समझ गई कि अलग-अलग भक्तों के साथ सम्पर्क करने के गुरूजी के तरीके अलग-अलग होते हैं। हमें बस उनके तरीकों पर भरोसा रखना चाहिए।

सुरभि सिद्वानी, एक भक्त

मार्च 2010