चाहे हज़ार चाँद चढ़ें, चाहे चढ़ें सूरज हज़ार, गुरु बिना घोर अंधार

सुश्री तिवाना, जुलाई 2007 English
चाहे हज़ार चाँद चढ़ें, चाहे चढ़ें सूरज हज़ार, गुरु बिना घोर अंधार

गुरुजी से मिलने से पहले, मैं एक ज़िद्दी और स्वच्छंद महिला थी जो किसी की नहीं सुनती थी। पर दुःखद घटनाओं से मेरी रूह सुन्न थी। मेरे खाने में एक मृत व्यक्ति की अस्थियों को पीसकर मिलाया गया और वह खाना मुझे खिलाया गया जिसकी वजह से मेरी पूरी ज़िन्दगी में ज़हर घुल गया। यह काला जादू बहुत शक्तिशाली था और मैं मरते-मरते बची। यह 1987 की बात है और मैं तब से बिस्तर पर पड़ी हुई थी। न मैं बैठ पाती, न चल पाती और न ही कुछ भी पचा पाती।

संत, तांत्रिक, फकीर, पंडित - मैं मदद के लिए सबके पास गयी। उन्होंने मुझसे कहा कि मेरी मृत्यु निश्चित थी; वो उसे टालने के लिए कुछ नहीं कर सकते थे क्योंकि कोई अगर मुझे बचाने की कोशिश करता तो संभावना थी कि वह भी नहीं बचता।

मैं एक दशक तक यह कष्ट भुगतती रही।

इथे आंदे रहना

कनाडा की एक निवासी जिन्हें मैं जानती थी, लूना, स्वर्गीय हरपाल तिवाना, अभिनेता और निर्देशक, की बेटी ने मुझे गुरुजी के यहाँ जाने को कहा। वह बोली कि अगर तुम्हें श्रद्धा है तो वह तुम्हारी मदद कर सकते हैं। यह 1996 में अक्टूबर की बात है और वह अपने ससुराल में थी। उसके माता-पिता उस वक्त गुरुजी के दर्शन के लिए पटियाला से पंचकुला आये हुए थे और मैं भी उनके साथ चलने के लिए मान गयी।

जब हम गुरुजी के यहाँ अपनी गाड़ियाँ लगा रहे थे, गुरुजी संगत हॉल से बाहर आये और हमने उनके चरण स्पर्श किये। लूना ने गुरुजी से मेरा परिचय कराने की कोशिश की। वह बस इतना ही बोल पाई, "ये..... ", जब गुरुजी ने मुझे मेरा नाम लेकर पुकारा। गुरुजी बोले कि मेरे साथ बहुत गलत हुआ था। मुझे उसी समय लगा कि वह सर्व-ज्ञाता हो सकते हैं।

गुरुजी ने मुझे अपने सिंहासन के दाहिनी ओर बिठाया। वह मेरे माथे की ओर देखते रहे जैसे कि मेरे कर्म पढ़ रहे हों - पिछले, आज के और आगे के। बड़े-बड़े लोग जो मेरी ओर घूर कर देख रहे थे, गुरुजी ने उन पर कोई ध्यान नहीं दिया। मैं बहुत भद्दी लग रही थी, मेरा चेहरा और शरीर सूजे हुए; मेरी आँखें छोटे से चीर जैसी नज़र आती हुईं। करीब एक घंटे तक मैं गुरुजी के साथ बैठी रही और अपने आस-पास एक दिव्य वातावरण महसूस करती रही।

फिर गुरुजी ने मुझे लंगर करने को कहा, पर उसकी महत्ता से मैं अनजान, मैंने वहाँ से चुपके से निकल जाने की कोशिश की। मैंने मन में सोचा कि मैं मुफ्त का खाना कैसे खा सकती थी। किन्तु गुरुजी को मना नहीं किया जा सकता है। उन्होंने दूसरी बार मुझे लंगर खाने को कहा तो मैंने खा लिया। फिर उन्होंने मुझे अपनी बायीं ओर बिठाया और अपना बायाँ हाथ दबाने और मालिश करने को कहा। ऐसा आधा घंटा करने के बाद, उन्होंने अपने अंगूठे से मेरा अंगूठा दबाया। मेरे करीब 60 प्रतिशत कष्ट उसी समय लुप्त हो गये। उनके कमल चरणों में बैठे रहने के बाद, एक भव्य मुस्कुराहट देते हुए वे मुझे बोले: "इथे आंदे रहना"

उस दिन उन्होंने मुझे उम्मीद दी।

परन्तु, छः महीनों तक मैं लूना के ससुराल वालों के साथ व्यस्त रही। मैंने चंडीगढ़ के पास ज़िरकपुर में उन्हें अपनी चार कनाल (आधा एकर) ज़मीन बेची। पंजीकरण के समय उन्होंने मुझे 1.5 लाख रुपये का धोखा दिया। और स्वभावतः, गुरुजी का हुक्म मैं मान नहीं पायी।

छः महीने बाद मैं पंचकुला गयी तो मुझे बताया गया कि गुरुजी चंडीगढ़ चले गये हैं। मैं उसी समय चंडीगढ़ गयी। जैसे ही गुरुजी ने मुझे देखा, वह हॉल में ज़ोर से बोल पड़े कि मेरे साथ 1.5 लाख रुपये का धोखा हुआ था।

उसके बाद, दो साल तक गुरुजी ने मुझसे बात नहीं की (काफी समय बाद मैंने शिव पुराण में एक हुक्मनामा पढ़ा कि एक गुरु को अपने अनुयायी का दो साल तक इम्तिहान लेना चाहिए)। पर मैं गुरुजी के यहाँ आती रही।

घर की दीवार पर दो जीवित आँखें

जब गुरुजी अच्छे मिज़ाज में होते थे तो अपने अनुयायियों को अपनी तस्वीरें देते, पर मुझे हमेशा नज़रअंदाज़ कर देते। मुझे बहुत बुरा लगता। पर मैंने गुरुजी का कहा माना - यद्यपि मैं ज़िद्दी थी, पाँच बहनों में सबसे छोटी और सबसे लाडली। मैं संगत के लिए रोज़ शाम को सात बजे पहुँच जाती। दो साल बाद एक दिन मुझे देर हो गयी। उस दिन मुझे संगत ने बताया कि गुरुजी बार-बार मेरे बारे में पूछ रहे थे - उन्होंने कम से कम दस बार मेरे बारे में पूछा कि मैं आई हूँ कि नहीं। मैं निस्तब्ध थी।

उस दिन गुरुजी बहुत अच्छे मिज़ाज में थे। दुनिया में आगे जाकर क्या क्या घटनाएँ घटेंगी, घंटों तक वह उसकी भविष्यवाणी करते रहे। उस दिन जो संगत ने सुना, आज वह अख़बार में पढ़ने को मिलता है।

मैंने हाथ जोड़े और कुछ पूछने के लिए उनकी आज्ञा ली और पूछा, " गुरुजी, क्या मैं इतनी बदकिस्मत हूँ कि आप मुझे अपनी तस्वीर तक नहीं देते हैं?" वह बोले, "तैनु तस्वीर दी कोई लोढ़ नहीं, मैं तेरे दिल विच बस्दा हां।" उनका ऐसा बोलना मुझे छू गया: मुझे समझ आया कि वह भगवान हैं, क्योंकि भगवान ही हमारे दिलों में बसते हैं। पर फिर भी उन्होंने मुझे अपनी एक छोटीसी तस्वीर दी, यह कहते हुए कि यह उनकी आई डी है। मैं उसे हमेशा अपने साथ रखती हूँ। मैं सोते समय हमेशा उसे अपने तकिये के नीचे या फिर अपनी पोशाक पर पिन से लगा लेती हूँ। उससे मुझे बुरी नज़र से सुरक्षा महसूस होती है।

मैंने गुरुजी की तस्वीर शयन कक्ष में रखी थी और वहाँ पूजा करती थी। कुछ समय में, उस तस्वीर से दो जीवित आँखें प्रकट हुईं। वह बड़ी और सुन्दर थीं। मुझे उनसे डर नहीं लगा। मैं उनसे पूछती रही कि क्या वह ब्रह्मा, विष्णु या शिव हैं और वह बस थोड़ा सा पलकें झपका लेतीं। फिर उनमें से रोशनी निकलने लगी। वो दिव्य नेत्र मेरे लिए जीते जागते प्रमाण थे कि गुरुजी भगवान शिव के अवतार हैं।

गुरुजी से मिलने से पहले

गुरुजी के यहाँ जाने से पहले, मैं बाबा चरण दास के पास गयी थी, जो राधा स्वामी के प्रमुख हैं। अमरीका में मेरा एक दोस्त है, फैरेल ब्रेनर, और मैं उसके द्वारा बाबा से मिली थी। ब्रेनर भी राधा स्वामी का अनुयायी था और भारत पैरासाइकोलॉजी पर अनुसंधान करने आया था। वह चाहता था कि मैं बाबा चरण दास से मिलूँ।

मैंने उस पर ज़ोर डाला कि पहले हम होशियारपुर जाएँगे जहाँ मैं भृगु संहिता (यह ऋषि भृगु द्वारा लिखी गयी है और माना जाता है कि इस किताब में पूरे विश्व के लोगों के जन्म के लेखाचित्र हैं और उस पर आधारित भविष्यवाणी की जाती है) के समक्ष सवाल रखूँगी। यह मेरा तरीका था उन्हें परखने का। संहिता, जिसमें मेरा बहुत मानना था, से एक पठन निकला कि यह हम दोनों के लिए बहुत शुभ दिन था। संहिता से पहले मुझे बताया गया था कि मैं एक देवी थी जिसका पृथ्वी पर जन्म लेने का बस एक ही उद्देश्य था - मोक्ष की प्राप्ति।

मुझे यकीन हो गया कि वहाँ मुझे नहीं स्वीकारेंगे, इसलिए मैं बाबा चरण दास से मिली। वह लोगों को नाम दिया करते थे। उस समय मेरी माँ पार्किंसंस बीमारी से पीड़ित थीं। मैंने शर्त रखी कि मैं नाम तभी लूँगी अगर मेरी माँ ठीक हो जाएगी। वह मान गये और मुझे वहाँ दीक्षा मिली। लेकिन कुछ ही समय में मेरी माँ का देहांत हो गया। मैं निराश हो गयी।

मैं बचपन से ही सूक्ष्मदर्शी रही हूँ और सपने में आने वाली घटनाएँ देख लेती हूँ। कभी कभी मुझे दिव्य वाणी, आकाशवाणी, भी सुनाई देती है। मैंने भगवान से पूछा कि क्या बाबा भगवान थे। दिव्य वाणी ने मुझे कहा कि वह उसी मार्ग पर थे। हम सभी उसी मार्ग पर हैं, मुझे याद है कि मैंने ऐसा सोचा, और फिर मैं उनकी अनुयायी नहीं रही।

एक पेड़ जो आसमान छू गया

गुरुजी से मिलने के बाद मैंने फिर से दिव्य वाणी की तरफ रुख किया। दिव्य वाणी से मैंने पूछा कि वे कौन हैं। मुझे जवाब मिला: वह स्वयं भगवान हैं। इस आकाशवाणी के बाद, बिना किसी संदेह के मैं गुरुजी को पूजने लगी।

गुरुजी मुझे चमत्कार दिखाते रहे। उनकी छोटी सी तस्वीर को देखते हुए, मैं चिंतन में चली जाती। तस्वीर की आँखें झपकने लगतीं और माथे से रोशनी निकलने लगती।

मैंने फिर अपने भीतर ही जवाब ढूँढ़े और भगवान से प्रार्थना की कि मुझे पता चले कि वह कौन हैं और मेरा इस जीवन में परम उद्देश्य क्या था। मैं संगत में आई और गुरुजी अपनी गद्दी पर विराजमान थे। मैंने उनके चरण-कमलों से रोशनी निकलते हुए देखी, फर्श पर बिछे हरे कालीन के आस-पास से होती हुई, मुझे छूकर वापस उनमें चली गयी। मुझे ऐसा लगा जैसे मुझे अपने सवाल का जवाब मिल गया। वही आदि, मध्य और अंत थे - सबके और मेरी जुस्तजू के। हम उनसे शुरू होते हैं और उन्हीं में समाप्त होते हैं। कहा जाता है कि कलयुग में अच्छी आत्माओं को पार लगाने भगवान मानव रूप में आते हैं। वह आ गये हैं।

अब मैं सोचती हूँ कि मैंने भगवान में अपनी श्रद्धा खो दी थी और उसके पुनर्नवीकरण और मेरे परम उद्देश्य की प्राप्ति के लिए मुझे गुरुजी की तरफ निर्देशित किया गया। और सत्गुरु ने मुझ पर रहमत की। मैं मरते-मरते बची थी; वह मुझे वापस लेकर आये। उन्होंने मुझे मेरे उद्देश्य का एहसास कराया जब मैं अपना रास्ता भटक गयी थी।

हमें मोक्ष पृथ्वी पर ही मिल सकता है; स्वर्ग में हमें अपने अच्छे कर्मों के फल की प्राप्ति होती है। मोक्ष गुरु के आशीर्वाद से प्राप्त होता है (संस्कृत में जैसे एक मंत्र में कहा गया है: मोक्षमुलम गुरुकृपा, यानि, गुरुकृपा ही मुक्ति का आधार है)। गुरु ग्रंथ साहिब जैसे जप साहिब में कहते हैं: जा सौ चंदा उगे, सूरज चढ़े हज़ार, एते चरण हुंदे, गुरु बिन घोर अंधार (चाहे सौ चाँद चढ़ें, सूरज चढ़ें हज़ार, गुरु के बिना घोर अँधेरा है)।

मुझे बहुत सारे जाप के बारे में पता चला, खासकर एक - अमर संजीवनी मंत्र - जो मृत में जान डाल सकता है। यह शिव का आवाह्न करते हुए कहता है: हे भगवान! हे शिव! आपका नाम कल्प वृक्ष के समान है। इस मंत्र का जाप करने के बाद मैंने यथाशब्द ऐसा देखा। सुबह 3.30 बजे अपने घर में, गुरुजी ने मुझे दर्शन दिए और एक ऊँचा पेड़ आसमान छूते हुए दिखाया; उस कल्प वृक्ष के स्तंभ पर रोशनी की किरण सर्प जैसे कुंडलित थी। हमेशा की तरह, गुरुजी ने, एक सैद्धान्तिक विचार का वास्तविक प्रमाण दिया।

उनके संरक्षण में, सब स्वच्छ हो गया

जबसे मेरे ऊपर काला जादू किया गया था, मेरी त्वचा काली पड़ गई थी। गुरुजी से जुड़ने के करीब दो साल बाद, एक दिन लूना के पिता ने मुझे अपनी ओर बुलाया और गुरुजी के सामने बिठाया। गुरुजी ने एकदम मेरी त्वचा पर टिप्पणी की। मैंने पलट कर जवाब दिया कि अगर भगवान ने ही मुझे बदसूरत बनाया है तो इसमें में क्या कर सकती थी। गुरुजी बोले कि अगर भगवान ने मुझे काला बनाया है तो वे ही मुझे गोरा बनायेंगे। फिर उन्होंने मुझे चाय प्रसाद लेने को कहा। धीरे-धीरे मैं उनके आशीर्वाद की प्रापक होती गयी, और मेरी त्वचा साफ़ होती गयी।

एक दिन उन्होंने मुझे अपने पास बिठाया। मैं हाल ही में इंग्लैंड गयी थी और त्वचा गोरी करने की बहुत सारी महँगी क्रीम लेकर आई थी। गुरुजी ने मुझे वो उनके पास लेकर आने को कहा। उस वक़्त रात के 12.30 बजे थे और मैं बोली कि मेरे पड़ोसी मुझे परेशान करेंगे। वह बोले कि वह मेरे साथ हैं और मुझे चिंता करने की आवशयकता नहीं थी। मैं उनके पास वो क्रीम लेकर आयी और उनके कहे अनुसार उनके चरण-कमलों पर वह मल दीं। जब मैं ऐसा कर रही थी, गुरुजी एक महिला अनुयायी को पुकार कर बोले, "इसका कितना बड़ा दिल है। वह अपनी सारी क्रीम ले आई है।" जब मैंने उनके चरण-कमलों की मालिश पूरी की, तो मैंने पाया कि मेरी टाँगों का दर्द जो मुझे सालों से कष्ट दे रहा था, खत्म हो गया था।

जैसा मैंने कहा, मैं अपने चंडीगढ़ वाले घर में अकेली और बेचैन महसूस करती थी। एक बार, गुरुजी के यहाँ से होकर मैं रात को करीब 1.30 बजे वापस जा रही थी। मैं घर पहुँची और दूसरे माले तक सीढ़ियाँ चढ़के जा रही थी कि मुझे गुरुजी की गुलाबों वाली सुगन्ध आई। मैंने उसी क्षण आश्वासित महसूस किया। किन्तु मैंने अभी दरवाज़ा बंद ही किया था कि मुझे कोई खाँसी करते हुए सुनाई दिया। मैं डर गयी। यह कौन हो सकता था? क्या घर में चोर घुस आये थे? मैं पूरी रात सो नहीं सकी।

अगले दिन मैं अभी गुरुजी के दरबार में प्रवेश ही कर रही थी कि गुरुजी उसी अंदाज़ में खाँसे। मैं समझ गयी कि वह गुरुजी ही थे जो रात को मेरे घर में थे।

यह जानते हुए कि गुरुजी नियमित रूप से मेरे घर आ रहे थे, खासकर अमृत वेला में, मैंने अपने घर के पर्दे बदलने का निश्चय किया। पर्दे बदलते हुए मैं गिर गई। पहले ही मेरी रीढ़ की हड्डी चोटग्रस्त थी और फिर यह - वो भी तब जब मैं गुरुजी के लिए नये पर्दे लगा रही थी। मुझे नींद आ गई। मैंने सपना देखा कि गुरुजी अपने दो अनुयायियों के साथ मेरे घर आये हैं। गुरुजी ने उन्हें ए सी बंद करने को कहा क्योंकि मुझे चोट लगी हुई थी। जब मैं उठी तो मैंने देखा कि ए सी के अतिरिक्त पंखा भी बंद था। गुरुजी इतना ध्यान रखने वाले हैं! जब वह ध्यान रखते हैं, तो वह वास्तव में बहुत ध्यान रखते हैं!

एक और दिन, मैं संगत से वापस आ रही थी और मेरी गाड़ी के पीछे की ओर एक गाय आने लगी। मैं बस चीख पड़ी, 'गुरुजी'। और मैं चमत्कारपूर्ण ढंग से बच गई। जब मैं घर पहुँची तो मुझे पता चला कि गुरुजी अपने अनुयायियों से मुझे फोन करने को कह रहे थे। मैंने उनसे फोन पर बात की और उन्होंने मुझसे मेरा हाल पूछा!

एक बार मैं साकेतरी (पंचकुला के पास) में शिव मंदिर से वापस आ रही थी और रात को काफी देर हो गयी थी। अचानक से मेरी गाड़ी का दाहिना पहिया एक गड्ढे में फँस गया। मैं एक्सेलेटर दबाती रही पर पहिया बाहर नहीं निकाल सकी। मैं करीब आधे घंटे तक वहीं फँसी रही जब मैंने देखा कि एक सार्वजनिक बस मेरी तरफ बहुत तेज़ गति से बढ़ी आ रही थी। मैं चीख पड़ी 'गुरुजी' और गाड़ी गड्ढे से ऐसे बाहर निकली मानो किसी ने धक्का देकर उसे निकाला हो। मैं सुरक्षित थी और वापस सड़क पर थी।

गुरुजी सिर्फ शारीरिक ही नहीं बल्कि भावात्मक रूप से भी मेरा ख्याल रखते हैं।

मैं चंडीगढ़ के फिज़िकल एडुकेशन महाविद्यालय में पढ़ाती थी। वहाँ के शिक्षकों को कला (आर्ट्स) विभाग के शिक्षकों से शिकायत रहती थी और उनके काफी प्रतिकूल थे। उनका निरन्तर हमें उत्पीड़न देना एक दिन मुझसे बर्दाश्त नहीं हुआ और मैं गाड़ी में बैठी रो रही थी।

उसी क्षण मुझे गुरुजी की सुगन्ध आयी। मुझे सांत्वना मिली और मैं अपने भावपूर्ण उथल-पुथल से उभर सकी।

एक भूतपूर्व ब्युरोक्रेट, सरदार मनमोहन सिंह, ने मेरी बहुत सहायता की थी। लेकिन उनकी सेवानिवृत्ति के बाद, उनके दिमाग के सेल्स नष्ट होने लगे। वह अक्सर आत्मभाषण करते पाये जाते और उन्हें घर पर बाँधकर रखना पड़ता था। क्योंकि उन्होंने मेरी सहायता की थी, मैं चाहती थी कि वह ठीक हो जाएँ और उनकी यह समस्या मैंने गुरुजी के सामने रखी। गुरुजी ने उनकी पत्नि को ताम्र का लोटा लाने को कहा और उसे अभिमंत्रित करके दिया।

में सरदार मनमोहन सिंह को भी गुरुजी के पास लेकर गयी और गुरुजी ने उन्हें बस रात में सोने के लिए कहा। आश्चर्य की बात है कि बरसों बाद वह रात को चैन की नींद सोये।

श्री गुरु ग्रंथ साहिब का संदेश

एक दिन गुरुजी ने उनकी पत्नि को चँवर खरीदने को कहा, अपने घर में बृहस्पतिवार और शुक्रवार को रखकर, सेक्टर 44 में निहंग गुरुद्वारा में दे देने को कहा। फिर उनको उस दिन का गुरु ग्रंथ साहिब का संदेश पूछना था। (पावन सिख धर्मग्रंथ खोला जाता है और उसमें से एक परिच्छेद पढ़ा जाता है। वह उस दिन का गुरु का संदेश होता है)।

उन्होंने ऐसा नहीं किया, पर मैंने किया। उस किशोरावस्था के बालक ने पावन धर्मग्रंथ खोला और मुझे पावन शब्द दिया। उसमें यह लिखा था कि गुरु भूतपूर्व काल में सम्पूर्ण था, आज सम्पूर्ण है, और भविष्य में भी सम्पूर्ण होगा। और यह कि चाँद और सूरज उनके आदेश का पालन करते हैं और वह उनको दिखाई देते हैं जो निर्मल, दयालु और अभिमान रहित होते हैं। मैंने यह संदेश लिख लिया और संगत में अपने साथ ले आयी। किन्तु मुझे वह गुरुजी को दिखाने की हिम्मत नहीं हुई, खासकर इसलिए क्योंकि मुझे ऐसा कुछ भी करने के लिए कहा नहीं गया था।

सुबह 3.30 बजे गुरुजी ने मुझे दर्शन दिए। श्री गुरु ग्रंथ साहिब का वही पन्ना और उस पर वही शब्द लिखे हुए, उनके हाथ में था। इसका क्या मतलब है? वह पावन धर्मग्रंथ के सृष्टिकर्ता हैं।

पुष्पमाला उपहार में

गुरुजी ने मुझे मेरा चंडीगढ़ वाला मकान बेचने को कहा। मैंने वैसा ही किया पर मुझे अपने रहने के लिए कोई उपयुक्त स्थान नहीं मिल रहा था। फिर गुरुजी ने मुझे खेरा दम्पति के साथ जाकर रहने को कहा जो काफी समय से गुरुजी के अनुयायी थे। श्री खेरा गुरुजी के शिक्षक रह चुके थे और गुरुजी ने उनकी त्वचा की कैंसर ठीक की थी। गुरुजी के आशीर्वाद से उन्हें पुत्र की प्राप्ति भी हुई थी। खेरा दम्पति ने मुझे एक कमरा रहने के लिए दिया।

मैं इतनी बीमार थी कि मैं यात्रा भी नहीं कर सकती थी और गुरुजी दिल्ली चले गये थे। गुरुजी मेरे लिए प्रसाद भेजते और मैं वो ग्रहण करती। वह मेरे लिए दवाई थी और और मेरे ऊपर किया गया काला जादू का प्रभाव हटा रही थी। गुरुजी जो प्रसाद भेजते उसमें इतनी शक्ति थी कि उसे खाने के बाद मुझे खून की उल्टियाँ होती थीं। मुझे जो ज़हर दिया गया था - राख - वह उल्टियों में बाहर निकलता।

पर गुरुजी से दूर रहना बहुत मुश्किल था। जब भी खेरा दम्पति दिल्ली जाते मैं कमरे में गुरुजी की तस्वीर के आगे रोती। एक दिन मैं रोयी और बहुत कटु शब्दों में उनसे बोली, "जब कलियाँ माँगी, काँटों का हार मिला" (यह शब्द एक पुराने हिन्दी गाने के हैं)।

जब अगली सुबह खेर दम्पति वापस आये, वह एक उपहार लेकर आये थे: एक पुष्पमाला जो गुरुजी ने मेरे लिए भेजी थी!

गुरुजी हमारी अन्तरात्मा पर दस्तक देते रहते हैं। वह हमारा प्रेम स्वीकारते हैं। वह हमारी अंदरूनी भावनाओं से अवगत होते हैं।

मुझे घर मिला

बाद में मैंने निश्चय किया कि मैं राज्य महाविद्यालय आवास में चली जाऊँगी क्योंकि मुझे अपने निजी स्थान की आवश्यकता महसूस हो रही थी। मेरे पड़ोसी नव ग्रह की पूजा करवा रहे थे। मैंने भी एक पंडित से कहकर यह पूजा करवाने का निश्चय किया। इस पूजा में हवन भी होना था परन्तु, पूजा के आरम्भ में मैंने गुरुजी की पूजा की। पंडित के जाने के बाद मैं थकावट के मारे बस गिरने ही वाली थी। अचानक मुझे लाल पोशाक में एक आकृति नज़र आयी, उनकी आँखें एकदम मेरे सामने थीं। वह गुरुजी की तस्वीर जैसी लग रही थीं। इससे पहले कि मैं और कुछ अनुमान लगा पाती, मुझे अन्तर्यामी सतगुरु का फोन आया और वह बोले: "क्या तुम मेरी पूजा कर रही थी?"

मेरा अपना कोई घर नहीं था और मैं पंचकुला में रह रही थी। पर यह वो घर नहीं था जिसमें मैं आखिरकार मैं रहने गयी। गुरुजी ने मुझे यह घर पहले दिखाया था। 1998 में, सपने में मैंने एक गुलाबी दीवारों वाला कोने का घर देखा था। पर मेरी लाख कोशिशों के बाद भी मुझे वह नहीं मिला। इसके कारण में तर्क था: ऐसे घर 2001 तक बने ही नहीं थे। वास्तव में, हूडा ने इन घरों का आवंटन (अलॉटमेंट) 2003 में की। इसमें दो रहे नहीं कि गुरुजी को इस घर का पता इसके बनने से भी पहले था!

तीन लोकों के स्वामी

एक बार मैंने एक सपना देखा जिसमें मैंने अपने आपको एक दिव्य तालाब के किनारे बैठा देखा। उसके रंग इतने मोहित कर देने वाले थे कि उसका वर्णन नहीं किया जा सकता है। किन्तु उनके दिव्य निवास-स्थान में भी मैंने अपना पर्स पकड़ा हुआ था। जब मैं जागी तो मैं बहुत लज्जित महसूस कर रही थी। क्या मैं इतनी लालची थी?

मैंने तुरंत ही बैंक से अपना सारा पैसा निकाला और गुरुजी के सामने रख दिया, यह सोचते हुए कि मैं अपनी सारी दौलत उनके चरण-कमलों में समर्पण कर दूँगी। गुरुजी ने मुझे वह वापस ले जाने को कहा, यह बोलकर कि उनको इन कागज़ से क्या काम। रात को फिर देर हो गयी थी और मैं चिंतित हो गयी पर गुरुजी ने मुझे आश्वासन दिया और बोले कि वह मेरे साथ हैं। मैं एक अनुयायी के यहाँ चाय पीने के लिए रुकी, लेकिन गुरुजी ने मुझे इसकी अनुमति नहीं दी। मैंने देखा कि मेरी गाड़ी के आस-पास कुछ लोग थे और मैं दौड़ी आयी।

एक रात फिर मैं उनकी तस्वीर के आगे रो रही थी। अचानक, उसमें से उनका हाथ बाहर निकला। उनके दिव्य हाथ पर मैंने देखा - लोग - छोटे, चींटी समान और इधर-उधर चलते हुए। वास्तव में गुरुजी ने अक्सर कहा है कि संगत उन्हें कीड़े-मकोड़े के समान दिखती है। अब मैं समझी कि यह बिल्कुल सच था। इससे भी ज़्यादा महत्वपूर्ण बात यह थी कि भगवान के अलावा और कौन इस ग्रह के प्राणियों को अपने हाथ पर सम्भाल सकता था। निस्संदेह, गुरुजी पृथ्वि लोक के महाराज हैं।

फिर मैंने देखा कि गुरुजी कहीं भी ब्रह्मा, विष्णु और महेश के दर्शन प्रदान कर सकते थे। मैंने सपने में खुद को सात साल का देखा और मेरे दाहिने कान के पीछे बालों में थोड़ी सी झाग थी। वह झाग चार सुनहरी पेंचों में बदल गई। वह खुल गए और उसमें से भगवान शिव की मूर्ति दो और के साथ निकली। एक दिव्य वाणी ने इन्हें त्रिदेव बताया। और मैं समझ गई कि मेरे गुरु इन सब भगवान के अधिपति थे। वह सबसे ऊपर थे।

एक बार जब मैं गुरुजी के साथ चंडीगढ़ में थी और रात को बहुत देर हो गई थी, उन्होंने अपने एक अनुयायी, नवराज, को डाँटा क्योंकि वह सो रहा था। नवराज को वाकई अपनी आँखें खुली रखने में बहुत कठिनाई हो रही थी। इसलिए गुरुजी ने उसे कई बार डाँटा और सोने नहीं दिया।

जब मैं घर वापस गयी मैंने एक स्पष्ट सपना देखा। गुरुजी अपने सिंहासन पर बैठे हुए थे और उनके आगे सफेद पोशाक में वे संगत के लोग थे जो अब इस दुनिया में नहीं थे। उनमें से एक मेरी माँ भी थी। यह उस दुनिया में गुरुजी की संगत थी। मैंने देखा कि नवराज ने संगत के लिए दूध की बाल्टियाँ उठाई हुई हैं। मैंने इस सपने से यही समझा कि अगर नवराज उस रात सो जाता तो उसकी मृत्यु निश्चित थी।

गुरुजी की डाँट का उद्देश्य छुपा हुआ होता है। एक बार जब मैं अपनी पूरी हिम्मत जुटाकर शिवरात्रि के लिए दिल्ली आई, उन्होंने मुझे डाँट लगा दी। बहुत गुस्से से और ऊँचे स्वर में उन्होंने मुझे चले जाने को कहा। मैंने ना लंगर लिया और ना ही प्रसाद और मैं उसी समय वापस चली गयी। मैं गुरुजी की तस्वीर के आगे जी भर के रोयी। मैं उनको बोली कि इतनी कठोर तो मैं युनिवर्सिटी के छात्रों पर भी नहीं होती थी। किन्तु, गुरुजी उसपर चिल्लाये थे जिसने मुझे अपने अधीन कर लिया था। और वह मेरा अह्म मिटाना चाहते थे।

गुरुजी पर कुछ पंक्तियाँ

मैं एक कवयित्री हूँ और एक बार मैंने गुरुजी पर 20 छंद लिखे। मैंने उनको वो दिए तो उन्होंने वो अपनी जेब में रख लिए, यह कहते हुए कि मैं और लिखूँगी। मैंने पाया कि बड़े ही सहज रूप से मैंने उनपर सौ छंद लिख डाले, एक नयी और अनूठी अलंकृत भाषा में।

फिर मैंने एक उपन्यास लिखा, जब प्रेम कियो, और उन्हें समर्पित किया। इसका शीर्षक गुरबानी की एक पंक्ति से आता है: जब प्रेम कियो, जे प्रभ पायो (प्रेम में मुझे भगवान की प्राप्ति हुई)। गुरुजी के आशीर्वाद से, तुरंत ही यह उपन्यास पंजाबी छात्रों के एम. फिल पाठ्यक्रम में शामिल किया गया।

सुश्री तिवाना, 1990 में कवित्व में साहित्य एकडेमी अवॉर्ड से पुरस्कृत

जुलाई 2007