चंचुला के प्रयत्न से पार्वतीजी की आज्ञा पाकर तुम्बुरु का विन्ध्य पर्वत पर शिवपुराण की कथा सुनाकर बिन्दुग का पिचाशयोनि से उद्धार करना तथा उन दोनों दम्पति का शिव धाम में सुखी होना
सूतजी बोले – शौनक! एक दिन परमानन्द में मग्न हुई चंचुला ने उमा देवी के पास जाकर प्रणाम किया और दोनों हाथ जोड़कर वह उनकी स्तुति करने लगी।
चंचुला बोली – गिरिराजनन्दनी! स्कन्दमाता उमे। मनुष्यों ने सदा आपका सेवन किया है। समस्त सुखों को देने वाली शम्भुप्रिये! आप ब्रहास्वरुपिणी हैं। विष्णु और ब्रह्मा आदी देवताओं द्वारा सेव्य हैं। आप ही सगुणा और निर्गुणा हैं तथा आप ही सुक्ष्मा सचिदानन्द स्वरुपिणी आघा प्रकृति हैं। आप ही संसार की सृष्टि, पालन और संहार करने वाली हैं। तीनों गुणों का आश्रय भी आप ही हैं। ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर – इन तीनों देवताओं का निवास स्थान तथा उनकी उत्तम प्रतिष्ठा करने वाली पराशक्ति आप ही हैं।
सूतजी कहते हैं – शौनक! जिसे सदगति प्राप्त हो चुकि थी, वह चंचुला इस प्रकार महेश्वर पत्नी उमा की स्तुति करके सिर झुकाये चुप हो गयी। उसके नेत्रों में प्रेम के आँसू उमड़ आये थे। तब करुणा से भरी शंकर प्रिया भक्तवत्सला पार्वती देवी ने चंचुला को सम्बोधित करके इस प्रकार कहा –
पार्वतीजी बोलीं – सखी चंचुले! सुन्दरी! मैं तुम्हारी की हुई इस स्तुति से बहुत प्रसन्न हूँ। बोलो क्या वर मांगती हो? तुमहारे लिये मुझे कुछ भी न देने योग्य नहीं है।
चंचुला बोली – निष्पाप गिरिराजकुमारी! मेरे पति बिन्दुग इस समय कहाँ हैं, उनकी कैसी गति हुई है – यह मैं नहीं जानती! कल्याणमयी दीनवत्सले! मैं अपने उन पतिदेव से जिस प्रकार संयुक्त हो सकुं, वैसा ही उपाय कीजिये। महेश्वरी! महादेवी! मेरे पति एक शुद्रजातिय वेश्या के प्रति आसक्त थे और पाप में ही डुबे रहते थे। उनकी मौत मुझसे पहले ही हो गयी थी, ना जाने वे किस गति को प्राप्त हुए।
गिरिजा बोली – बेटी! तुम्हारा बिन्दुग नामवाला पति बड़ा पापी था। उसका अंतःकरण बहुत ही दूषित था। वेश्या का उपभोग करने वाला वह महामूढ़ मरने के बाद नरक में पड़ा अगणित वर्षों तक नरक में नाना प्रकार के दुःख भोगकर वह पापात्मा अपने शेष पाप को भोगने के लिये विन्ध्य पर्वत पर पिशाच बन के बैठा है। इस समय वह पिशाच अवस्था में ही है और नाना प्रकार के क्लेश उठा रहा है। वह दुष्ट वहीं वायु पीकर रहता और वहीं सदा सब प्रकार के कष्ट सहता है।
सूतजी कहते हैं – शौनक! गौरीदेवी की यह बात सुनकर उत्तम व्रत का पालन करने वाली चंचुला पति के महान् दुःख से दुःखी हो गयी। फिर मन को स्थिर करके उस ब्राह्रणपत्नी ने व्यथित हृदय से महेश्वरि को प्रणाम करके पुनः पुछा।
चंचुला बोली – महेश्वरि! महादेवी! मुझ पर कृपा कीजिये और दूषित कर्म करने वाले मेरे उस दुष्ट पति का अब उद्धार कर दिजिये। देवि! कुत्सित बुद्धी वाले मेरे उस पापात्मा पति को किस उपाय से उत्तम गति प्राप्त हो सकती है, यह शीघ्र बताइये। आपको नमस्कार है।
पार्वतीजी ने कहा – तुम्हारा पति अगर शिवपुराण की पुण्यमयी उत्तम कथा सुने तो सारी दुर्गति को पार करके उत्तम गति का भागी हो सकता है।
अमृत के समान मधुर अक्षरों से युक्त गौरी देवी का वह वचन आदरपूर्वक सुनकर चंचुला ने हाथ जोड़ मस्तक झुकाकर उन्हे बारंबार प्रणाम किया और अपने पति के समस्त पापों की शुद्धि तथा उत्तम गति की प्राप्ती के लिये पार्वती देवी से यह प्रार्थना की कि, 'मेरे पति को शिवपुराण सुनाने की व्यवस्था होनी चाहिये' उस ब्राह्रणपत्नी के बारंबार प्रार्थना करने पर शिवप्रिया गौरी देवी को बड़ी दया आ गयी। उन भक्तवत्सला महेश्वरी गिरिराजकुमारी ने भगवान् शिव की उत्तम कीर्ति का गान करने वाले गन्धर्वराज तुम्बुरु को बुलाकर उनसे प्रसन्नतापुर्वक इस प्रकार कहा – 'तुम्बुरो! तुम्हारी भगवान् शिव में प्रीति है। तुम मेरे मन की बातों को जानकर मेरे अभीष्ट कार्यों को सिद्ध करने वाले हो। इसलिये मैं तुमसे एक बात कहती हूँ। तुम्हारा कल्याण हो। तुम मेरी इस सखी के साथ शीघ्र ही विन्ध्य पर्वत पर जाओ। वहाँ एक महाघोर और भयंकर पिशाच रहता है। उसका वृतान्त तुम आरम्भ से ही सुनो। मैं तुमसे प्रसन्नतापुर्वक सब कुछ बताती हूँ। पुर्व जन्म में वह पिशाच बिन्दुग नामक ब्राह्मण था। मेरी इस सखी चंचुला का पति था, परंतु वह दुष्ट वेश्यागामी हो गया। स्नान-संधया आदि नित्यकर्म छोड़कर अपवित्र रहने लगा। क्रोध के कारण उसकी बुद्धि पर मूढ़ता छा गयी थी – वह कर्तव्याकर्तव्य का विवेक नहीं कर पाता था। अभक्ष्य भक्षण, सज्जनों से द्वेष और दूषित वस्तुओं का दान लेना – यही उसका स्वभाविक कर्म बन गया था। वह अस्त्र-शस्त्र लेकर हिंसा करता, बायें हाथ से खाता, दीनों को सताता और क्रुरतापुर्वक पराये घरों में आग लगा देता था। चाण्डालों से प्रेम करता और प्रतिदिन वेश्या के सम्पर्क में रहता था। बड़ा दुष्ट था। वह पापी अपनी पत्नी का परित्याग करके दुष्टों के संग में ही आनन्द मानता था। वह मृत्युपर्यन्त दुराचार में ही फँसा रहा। फिर अंतकाल आने पर उसकी मौत हो गयी। वह पापीयों के भोगस्थान घोर यमपुर में गया और वहाँ बहुत-से नरकों का उपभोग करके वह दुष्टात्मा जीव इस समय विन्ध्य पर्वत पर पिशाच बना हुआ है। वहीं वह दुष्ट पिचाष अपने पापों का फल भोग रहा है। तुम उसके आगे यत्नपुर्वक शिवपुराण की उस दिव्य कथा का प्रवचन करो, जो परम पुण्यमयी तथा समस्त पापों का नाश करने वाली है। शिवपुराण की कथा का श्रवण सबसे उत्कृष्ट पुण्य कर्म है। उससे उसका हृदय शीघ्र ही समस्त पापों से शुद्ध हो जायेगा और वह प्रेतयोनि का परित्याग कर देगा। उस दुर्गति से मुक्त होने पर बिन्दुग नामक पिशाच को मेरी आज्ञा से विमान पर बैठा कर तुम भगवान् शिव के समीप ले आओ।'
सूतजी कहते हैं – शौनक! महेश्वरी उमा के इस प्रकार आदेश देने पर गन्धर्वराज तुम्बुरु मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए। उन्होनें अपने भाग्य की सराहना की। तत्पश्चात् उस पिशाच की सती साध्वी पत्नी चंचुला के साथ विमान पर बैठ कर नारद के प्रिय मित्र तुम्बुरु वेगपुर्वक विन्ध्याचल पर्वत पर गये, जहाँ वह पिशाच रहता था। वहाँ उन्होनें उस पिशाच को देखा। उसका शरीर विशाल था। ठोढ़ी बहुत बड़ी थी। वह कभी हँसता, कभी रोता, कभी उछलता था। उसकी आकृति बड़ी विकराल थी। भगवान् शिव की उत्तम कृति का गान करने वाले महाबली तुम्बुरु ने उस भयंकर पिशाच को पाशों में बांध लिया। तदनन्तर तुम्बुरु ने शिवपुराण की कथा बाँचने का निश्चय करके महोत्सवयुक्त स्थान और मण्डप आदि की रचना की। इतने में ही सम्पुर्ण लोकों में बड़े वेग से यह प्रचार हो गया की देवी पार्वती की आज्ञा से एक पिशाच का उद्धार करने के उद्देश्य से शिवपुराण की उत्तम कथा सुनाने के लिये तुम्बुरु विन्ध्य पर्वत पर गये हैं। फिर तो उस कथा को सुनने के लोभ से बहुत-से देवर्षि भी शीघ्र ही वहाँ जा पहुँचे। आदरपुर्वक शिवपुराण सुनने के लिये आये हुए लोगों का उस पर्वत पर बड़ा अद्भुत और कल्याणकारी समाज जुट गया। फिर तुम्बुरु ने उस पिशाच को पाशों में बांधकर आसन पर बिठाया और हाथ में वीणा लेकर गौरी-पति की कथा का आरंभ किया। पहली अर्थात् विधेश्वरसहिंता से लेकर सातवीं वायुसहिंता तक महात्मय सहित शिवपुराण की कथा का उन्होनें स्पष्ट वर्णन किया। सातों सहिंताओ सहित शिवपुराण का आदरपुर्वक श्रवण करके वे सभी श्रोता पुर्ण रूप से कृतार्थ हो गये। उस परमपुण्यमय शिवपुराण को सुनकर उस पिशाच ने अपने सारे पापों को धोकर उस पैशाचिक शरीर को त्याग दिया। फिर तो शीघ्र ही उसका रूप दिव्य हो गया। अंगकान्ती गौर वर्ण की हो गयी। शरीर पर श्वेत वस्त्र तथा सब प्रकार से पुरुषोचित आभुषण उसको अंगो को उद्धासित करने लगे। वह त्रिनेत्रधारी चन्द्रशेखर रूप हो गया। इस प्रकार दिव्य देहधारी रूप होकर श्रीमान बिन्दुग अपनी प्राणवल्लभा चंचुला के साथ स्वयं भी पार्वतीवल्लभ भगवान् शिव का गुणगान करने लगा। उसकी स्त्री को इस प्रकार से सुशोभित देख वे सभी देवर्षि बड़े विस्मित हुए। उनका चित परमानन्द से परिपुर्ण हो गया। भगवान् महेश्वर का वह अद्भुत चरित्र सुनकर वे सभी श्रोता परम कृतार्थ हो प्रेमपुर्वक श्रीशिव का यशोगान करते हुए अपने अपने धाम को चले गये। दिव्य रुपधारी श्रीमान बिन्दुग भी सुन्दर विमान पर अपनी प्रियतमा के पास बैठ कर सुखपुर्वक आकाश में स्थित हो बड़ी शोभा पाने लगा।
तदनन्तर महेश्वर के सुन्दर एवं मनोहर गुणों का गान करता हुआ वह अपनी प्रियतमा तथा तुम्बुरु के साथ शीघ्र ही शिवधाम में जा पहुँचा। वहाँ भगवान् महेश्वर तथा पार्वती देवी ने प्रसन्नतापुर्वक बिन्दुग का बड़ा सत्कार किया और उसे अपना पार्षद बना लिया। उसकी पत्नी चंचुला पार्वतीजी की सखी हो गयी। उस घनीभुत ज्योतिःस्वरुप परमानन्दमय सनातनधाम में अविचल निवास पाकर वे दोनों दम्पति परम सुखी हो गये।
(अध्याय ५)