भगवान् श्रीकृष्ण के तप से संतुष्ट हुए शिव और पार्वती का उन्हें अभीष्ट वर देना तथा शिव की महिमा
यो धत्ते भुवनानि सप्त गुणवान् स्रष्टा रजःसंश्रयः
संहर्त्ता तमसान्वितो गुणवतीं मायामतीत्य स्थितः।
सत्यानन्दमनन्तबोधममलं ब्रह्मादिसंज्ञास्पदं
नित्यं सत्त्वसमन्वयादधिगतं पूर्णं शिवं धीमहि ॥
'जो रजोगुण का आश्रय ले संसार की सृष्टि करते हैं, सत्त्वगुण से सम्पन्न हो सातों भुवनों का धारण-पोषण करते हैं, तमोगुण से युक्त हो सबका संहार करते हैं तथा त्रिगुणमयी माया को लाँघकर अपने शुद्ध स्वरूप में स्थित रहते हैं, उन सत्यानन्दस्वरूप, अनन्त बोधमय, निर्मल एवं पूर्ण ब्रह्म शिव का हम ध्यान करते हैं। वे ही सृष्टिकाल में ब्रह्मा, पालन के समय विष्णु और संहारकाल में रुद्र नाम धारण करते हैं तथा सदैव सात्त्विकभाव को अपनाने से ही प्राप्त होते हैं।
ऋषि बोले – महाज्ञानी व्यासशिष्य सूतजी! आपको नमस्कार है। आपने कोटिरुद्र नामक चौथी संहिता हमें सुना दी। अब उमासंहिता के अन्तर्गत नाना प्रकार के उपाख्यानों से युक्त जो परमात्मा साम्ब सदाशिव का चरित्र है, उसका वर्णन कीजिये।
सूतजी ने कहा – शौनक आदि महर्षियो! भगवान् शंकर का मंगलमय चरित्र परम दिव्य एवं भोग और मोक्ष को देनेवाला है। तुम लोग प्रेम से इसका श्रवण करो। पूर्वकाल में मुनिवर व्यास ने सनत्कुमार के सामने ऐसे ही पवित्र प्रश्न को उपस्थित किया था और इसके उत्तर में उन्होंने भगवान् शिव के उत्तम चरित्र का गान किया था।
उस समय पुत्र की प्राप्ति के निमित्त श्रीकृष्ण के हिमवान् पर्वत पर जाकर महर्षि उपमन्यु से मिलने, उनको बतायी हुई पद्धति के अनुसार भगवान् शिव की प्रसन्नता के लिये तप करने, उनके तप से प्रसन्न होकर पार्वती, कार्तिकेय तथा गणेश सहित शिव के प्रकट होने तथा श्रीकृष्ण के द्वारा उनकी स्तुतिपूर्वक वरदान माँगने की कथा सुनाकर सनत्कुमारजी ने कहा – श्रीकृष्ण का वचन सुनकर भगवान् भव उनसे बोले – 'वासुदेव! तुमने जो कुछ मनोरथ किया है, वह सब पूर्ण होगा।' इतना कहकर त्रिशूलधारी भगवान् शिव फिर बोले – 'यादवेन्द्र! तुम्हें साम्ब नाम से प्रसिद्ध एक महा पराक्रमी बलवान पुत्र प्राप्त होगा। एक समय मुनियों ने भयानक संवर्तक (प्रलयंकर) सूर्य को शाप दिया था कि 'तुम मनुष्य योनि में उत्पन्न होओगे' अतः वे संवर्तक सूर्य ही तुम्हारे पुत्र होंगे। इसके सिवा जो-जो वस्तु तुम्हें अभीष्ट है, वह सब तुम प्राप्त करो।'
सनत्कुमारजी कहते हैं – इस प्रकार परमेश्वर शिव से सम्पूर्ण वरों को प्राप्त करके श्रीकृष्ण ने विविध प्रकार की बहुत-सी स्तुतियों द्वारा उन्हें पूर्णतया संतुष्ट किया। तदनन्तर भक्तवत्सला गिरिराजकुमारी शिवा ने प्रसन्न हो उन तपस्वी शिवभक्त महात्मा वासुदेव से कहा।
पार्वती बोलीं- परम बुद्धिमान् वसुदेव – नन्दन श्रीकृष्ण! मैं तुमसे बहुत संतुष्ट हूँ। अनघ! तुम मुझसे भी उन मनोवांछित वरों को ग्रहण करो, जो भूतल पर दुर्लभ हैं।
श्रीकृष्ण ने कहा – देवि! यदि आप मेरे इस सत्य तप से संतुष्ट हैं और मुझे वर दे रही हैं तो मैं यह चाहता हूँ कि ब्राह्मणों के प्रति कभी मेरे मन में द्वेष न हो, मैं सदा द्विजों का पूजन करता रहूँ। मेरे माता-पिता सदा मुझसे संतुष्ट रहें। मैं जहाँ कहीं भी जाऊँ, समस्त प्राणियों के प्रति मेरे हृदय में अनुकूल भाव रहे। आपके दर्शन के प्रभाव से मेरी संतति उत्तम हो। मैं सैकड़ों यज्ञ करके इन्द्र आदि देवताओं को तृप्त करूँ। सहस्त्रों साधु संन्यासियों और अतिथियों को सदा अपने घर पर श्रद्धा से पवित्र अन्न का भोजन कराऊँ। भाई-बन्धुओं के साथ नित्य मेरा प्रेम बना रहे तथा मैं सदा संतुष्ट रहूँ।
सनत्कुमारजी कहते हैं – श्रीकृष्ण का वह वचन सुनकर सम्पूर्ण अभीष्टों को देने वाली सनातनी देवी पार्वती विस्मित हो उनसे बोलीं – 'वासुदेव! ऐसा ही होगा। तुम्हारा कल्याण हो।' इस प्रकार श्रीकृष्ण पर उत्तम कृपा करके उन्हें उन वरों को देकर पार्वतीदेवी तथा परमेश्वर शिव दोनों वहीं अन्तर्धान हो गये। तदनन्तर केशिहन्ता श्रीकृष्ण ने मुनिवर उपमन्यु को प्रणाम करके उनसे वर-प्राप्ति का सारा समाचार बताया। तब उन मुनि ने कहा – 'जनार्दन! संसार में भगवान् शिव के सिवा दूसरा कौन महादानी ईश्वर है तथा क्रोध के समय दूसरा कौन अत्यन्त दुस्सह हो उठता है। महायशस्वी गोविन्द! दान, तप, शौर्य तथा स्थिरता में शिव से बढ़कर कौन है। अतः तुम शम्भु के दिव्य ऐश्वर्य का सदा श्रवण करते रहो।
तदनन्तर उपमन्यु के द्वारा शिव की महिमा सुनने के बाद उन मुनीश्वर को नमस्कार करके वसुदेवनन्दन केशव मन-ही-मन शम्भु का स्मरण करते हुए द्वारकापुरी को चले गये।
(अध्याय १ - ३)