नरक में गिरानेवाले पापों का संक्षिप्त परिचय

सनत्कुमारजी कहते हैं – व्यासजी! जो पाप परायण जीव महानरक के अधिकारी हैं, उनका संक्षेप से परिचय दिया जाता है; सावधान होकर सुनो। परस्त्री को प्राप्त करने का संकल्प, पराये धन को अपहरण करने की इच्छा, चित्त के द्वारा अनिष्ट चिन्तन तथा न करने योग्य कर्म में प्रवृत्त होने का दुराग्रह – ये चार प्रकार के मानसिक पापकर्म हैं। असंगत प्रलाप (बेसिर-पैर की बातें), असत्य-भाषण, अप्रिय बोलना और पीठ-पीछे चुगली खाना – ये चार वाचिक (वाणी द्वारा होनेवाले) पापकर्म हैं। अभक्ष्य-भक्षण, प्राणियों की हिंसा, व्यर्थ के कार्यो में लगना और दूसरों के धन को हड़प लेना – ये चार प्रकार के शारीरिक पापकर्म हैं। इस प्रकार ये बारह कर्म बताये गये, जो मन, वाणी और शरीर इन तीन साधनों से सम्पन्न होते हैं। जो संसार- सागर से पार उतारनेवाले महादेवजी से द्वेष करते हैं, वे सब-के-सब नरकों के समुद्र में गिरनेवाले हैं। उनको बड़ा भारी पातक लगता है। जो शिवज्ञान का उपदेश देने वाले तपस्वी की, गुरुजनों की और पिता-ताऊ आदि की निन्दा करते हैं, वे उन्मत्त मनुष्य नरक-समुद्र में गिरते हैं। ब्रह्महत्यारा, मदिरा पीनेवाला, सुवर्ण चुरानेवाला, गुरुपत्नीगामी तथा इन चारों से सम्पर्क रखनेवाला पाँचवीं श्रेणी का पापी – ये सब-के-सब महापातकी कहे गये हैं।

जो क्रोध से, लोभ से, भय से तथा द्वेष से ब्राह्मण के वध के लिये महान् मर्मभेदी दोष का वर्णन करता है, वह ब्रह्महत्यारा होता है। जो ब्राह्मण को बुलाकर उसे कोई वस्तु देने के पश्चात् फिर ले लेता है तथा जो निर्दोष पुरुष पर दोषारोपण करता है वह मनुष्य भी ब्रह्महत्यारा होता है। जो भरी सभा में उदासीन भाव से बैठे हुए श्रेष्ठ द्विज को अपनी विद्या के अभिमान से अपमानित करके उसे निस्तेज (हतप्रतिभ) कर देता है, उसे ब्रह्महत्यारा कहा गया है। जो दूसरों के यथार्थ गुणों का भी बलात् खण्डन करके झूठे गुणों द्वारा अपने-आपको उत्कृष्ट सिद्ध करता है, वह भी निश्चय ही ब्रह्महत्यारा होता है। जो साँड़ों द्वारा बाही जाती हुई गौओं के तथा गुरु से उपदेश ग्रहण करते हुए द्विजों के कार्य में विघ्न डालता है, उसे ब्रह्महत्यारा कहते हैं। जो देवताओं, ब्राह्मणों तथा गौओं के उपयोग के लिये दी हुई भूमि को हर लेता है, उसे ब्रह्महत्यारा कहा गया है। देवता और ब्राह्मण के धन को हर लेना तथा अन्याय से धन कमाना ब्रह्महत्या के समान ही पातक जानना चाहिये। जिस किसी व्रत, नियम तथा यज्ञ को ग्रहण करके उसे त्याग देना तथा पंचमहायज्ञों का अनुष्ठान न करना मदिरापान के समान पातक बताया गया है। पिता और माता को त्याग देना, झूठी गवाही देना, ब्राह्मण से झूठा वादा करना, शिव-भक्तों को मांस खिलाना तथा अभक्ष्य वस्तु का भक्षण करना ब्रह्महत्या के तुल्य कहा गया है। वन में निरपराध प्राणियों का वध कराना भी ब्रह्महत्या के ही तुल्य है। साधु पुरुष को चाहिये कि वह ब्राह्मण के धन को त्याग दे। उसे धर्म के कार्य में भी न लगाये, अन्यथा ब्रह्महत्या का दोष लगता है। गौओं के मार्ग में, वन में तथा गाँव में जो लोग आग लगाते हैं, वे भी ब्रह्महत्या ही करते हैं। इस तरह के जो भयानक पाप हैं, वे ब्रह्महत्या के समान माने गये हैं।

ब्राह्मण के द्रव्य का अपहरण करना, पैतृक सम्पत्ति के बँटवारे में उलट-फेर करना, अत्यन्त अभिमान और अधिक क्रोध करना, पाखण्ड फैलाना, कृतघ्नता करना, विषयों में अत्यन्त आसक्त होना, कंजूसी करना, सत्पुरुषों से द्वेघष रखना, परस्त्री-समागम करना, श्रेष्ठ कुल की कन्याओं को कलंकित करना, यज्ञ, बाग-बगीचे, सरोवर तथा स्त्री-पुरुषों का विक्रय करना, तीर्थ यात्रा, उपवास तथा व्रत एवं उपनयन आदि का सौदा करना, स्त्री के धन से जीविका चलाना, स्त्रियों के अत्यन्त वशीभूत होना, स्त्रियों की रक्षा न करना तथा छल से परायी स्त्रियों का सेवन करना, ब्रह्मचर्य आदि व्रतों को त्याग देना, दूसरों के आचार का सेवन करना असत्-शास्त्रों का अध्ययन करना, सूखे तर्क का सहारा लेना, देवता, अग्नि, गुरु, साधु तथा ब्राह्मण की निन्दा करना, पितृयज्ञ और देवयज्ञ को त्याग देना, अपने कर्मों का परित्याग करना, बुरे स्वभाव को अपनाना, नास्तिक होना, पापों में लगना और सदा झूठ बोलना – इस तरह के पापों से युक्त स्त्री-पुरुषों को उपपातकी कहा गया है।

जो मनुष्य गौओं, ब्राह्मणकन्याओं स्वामी, मित्र तथा तपस्वी महात्माओं के कार्य नष्ट कर देते हैं, वे नरकगामी माने गये हैं। जो ब्राह्मणों को दुःख देते हैं, उन्हें मारने के लिये शस्त्र उठाते हैं, जो द्विज होकर शूद्रों की सेवा करते हैं तथा जो कामवश मदिरापान करते हैं, जो पाप परायण, क्रूर तथा हिंसा के प्रेमी हैं, जो गोशाला में, अग्नि में, जल में सड़कों पर, पेड़ों की छाया में, पर्वतों पर, बगीचों में तथा देवमन्दिरों के आस-पास मल-मूत्र का त्याग करते हैं, बाँस, ईंट, पत्थर, काठ, सींग और कीलों द्वारा जो रास्ता रूँधते या रोकते हैं, दूसरों के खेत आदि की सीमा (मेड़) मिटा देते हैं, छल से शासन करते हैं, छल-कपट के ही कार्यों में लगे रहते हैं, किसी को ठगकर लाये हुए पाक, अन्न तथा वस्त्रों का छल से ही उपयोग करते हैं, जो स्त्री, पुत्र, मित्र, बाल, वद्ध, दुर्बल, आतुर, भृत्य, अतिथि तथा बन्धुजनों को भूखे छोड़कर स्वयं खा लेते हैं, जो अजितेन्द्रिय पुरुष स्वयं नियमों को ग्रहण करके फिर उन्हें त्याग देते हैं, संन्यास धारण करके भी फिर से घर बसा लेते हैं, जो शिवप्रतिमा का भेदन करनेवाले हैं, गौओं को क्रूरतापूर्वक मारते और बारंबार उनका दमन करते हैं, जो दुर्बल पशुओं का पोषण नहीं करते, सदा उन्हें छोड़े रखते हैं, अधिक भार लादकर उन्हें पीड़ा देते हैं तथा सहन न होने पर भी बलपूर्वक उन्हें हल या गाड़ी में जोतते हैं अथवा उनसे असह्य बोझ खिंचवाते हैं, जो उन पशुओं को खिलाये बिना ही भार ढोने या हल खींचने के काम में जोत देते हैं, बँधे हुए भूखे पशुओं को चरने के लिये नहीं छोड़ते तथा जो भार से घायल, रोग से पीड़ित और भूख से आतुर गाय-बैलों का यत्नपूर्वक पालन नहीं करते, वे सब-के-सब गोहत्यारे तथा नरकगामी माने गये हैं।

जो पापिष्ठ मनुष्य बैलों के अण्ड कोश कुटवाते हैं और बन्ध्या गाय को जोतते हैं, वे महानारकी हैं। जो आशा से घर पर आये हुए भूख, प्यास और परिश्रम से कष्ट पाते हुए और अन्न की इच्छा रखने वाले अतिथियों, अनाथों, स्वाधीन पुरुषों, दीनों, बाल, वृद्ध, दुर्बल एवं रोगियों पर कृपा नहीं करते, वे मूढ़ नरक के समुद्र में गिरते हैं। मनुष्य जब मरता है तब उसका कमाया हुआ धन घर में ही रह जाता है। भाई-बन्धु भी श्मशान तक जाकर लौट आते हैं, केवल उसके किये हुए पाप और पुण्य ही परलोक के पथ पर जानेवाले उस जीव के साथ जाते हैं।

जो औचित्य की सीमा को लाँघकर मनमाना कर वसूल करता है तथा दूसरों को दण्ड देने में ही रूचि रखता है, वह राजा नरक में पकाया जाता है। जिस राजा के राज्य में प्रजा घूसखोरों, अपनी रुचि के अनुसार कम दाम देकर अधिक कीमत का माल ले लेनेवाले अधिकारियों तथा चोर-डाकुओं से अधिक सतायी जाती है, वह राजा भी नरकों में पकाया जाता है। परायी स्त्रियों के साथ व्यभिचार और चोरी करनेवाले प्रचण्ड पुरुषों को जो पाप लगता है वही परस्त्रीगामी राजा को भी लगता है। जो साधु को चोर और चोर को साधु समझता है तथा बिना विचारे ही निरपराध को प्राणदण्ड दे देता है वह राजा नरक में पड़ता है। जिस-किसी पराये द्रव्य को सरसों बराबर भी चुरा लेने पर मनुष्य नरक में गिरते हैं, इसमें संशय नहीं है। इस तरह के पापों से युक्त मनुष्य मरने के पश्चात् यातना भोगने के लिये नूतन शरीर पाता है, जिसमें सम्पूर्ण आकार अभिव्यक्त रहते हैं। इसलिये किये हुए पाप का प्रायश्चित्त कर लेना चाहिये। अन्यथा सौ करोड़ कल्पों में भी बिना भोगे हुए पाप का नाश नहीं हो सकता। जो मन, वाणी और शरीर द्वारा स्वयं पाप करता, दूसरे से कराता तथा किसी के दुष्कर्म का अनुमोदन करता है, उसके लिये पापगति (नरक) ही फल है।

(अध्याय ४ - ६)