पापियों और पुण्यात्माओं की यमलोक यात्रा
सनत्कुमारजी कहते हैं – व्यासजी! मनुष्य चार प्रकार के पापों से यमलोक में जाते हैं। यमलोक अत्यन्त भयदायक और भयंकर है। वहाँ समस्त देहधारियों को विवश होकर जाना पड़ता है। कोई ऐसे प्राणी नहीं हैं, जो यमलोक में न जाते हों। किये हुए कर्म का फल कर्ता को अवश्य भोगना पड़ता है, इसका विचार करो। जीवों में जो शुभ कर्म करनेवाले, सौम्यचित्त और दयालु हैं, वे सौम्यमार्ग से यमपुरी के पूर्व द्वार को जाते हैं। जो पापी पापकर्म परायण तथा दान से रहित हैं, वे भयानक दक्षिण मार्ग से यमलोक की यात्रा करते हैं। मर्त्यलोक से छियासी हजार योजन की दूरी लाँघकर नानारूपवाले यमलोक की स्थिति है, यह जानना चाहिये। पुण्यकर्म करनेवाले लोगों को तो वह नगर निकटवर्ती-सा जान पड़ता है; परंतु भयानक मार्ग से यात्रा करनेवाले पापियों को वह बहुत दूर स्थित दिखायी देता है। वहाँ का मार्ग कहीं तो तीखे काँटों से युक्त है; कहीं कंकड़ों से व्याप्त है; कहीं छुरे की धार के समान तीखे पत्थर उस मार्ग पर जड़े गये हैं, कहीं बड़ी भारी कीचड़ फैली हुई है। बड़े-छोटे पातकों के अनुसार वहाँ की कठिनाइयों में भी भारीपन और हलकापन है। कहीं-कहीं यमपुरी के मार्ग पर लोहे की सूई के समान तीखे डाभ फैले हुए हैं।
तदनन्तर यमपुरी के मार्ग की भीषण यातनाओं और कष्टों का वर्णन करके सनत्कुमारजी ने कहा – व्यासजी! जिन्होंने कभी दान नहीं किया है, वे लोग ही इस प्रकार दुःख उठाते और सुख की याचना करते हुए उस मार्ग पर जाते हैं। जिन्होंने पहले से ही दानरूपी पाथेय (राहखर्च) ले रखा है, वे सुखपूर्वक यमलोक की यात्रा करते हैं। इस रीति से कष्ट उठाकर पापी जीव जब प्रेतपुरी में पहुँच जाते हैं, तब उनके विषय में यमराज को सूचना दी जाती है। उनकी आज्ञा पाकर दूत उन पापियों को यमराज के आगे ले जाकर खड़े करते हैं। वहाँ जो शुभ कर्म करनेवाले लोग होते हैं, उनको यमराज स्वागतपूर्वक आसन देकर पाद्य और अर्घ्य निवेदन करके प्रिय बर्ताव के द्वारा सम्मानित करते हैं और कहते हैं – 'वेदोक्त कर्म करनेवाले महात्माओ! आप-लोग धन्य हैं, जिन्होंने दिव्य सुख की प्राप्ति के लिये पुण्यकर्म किया है। अतः आप लोग दिव्यांगनाओं के भोग से भूषित तथा सम्पूर्ण मनोवांछित पदार्थों से सम्पन्न निर्मल स्वर्गलोक में जाइये। वहाँ महान् भोगों का उपभोग करके अन्त में पुण्य के क्षीण हो जाने पर जो कुछ थोड़ा-सा अशुभ शेष रह जाय; उसे फिर यहाँ आकर भोगियेगा।' जो धर्मात्मा मनुष्य होते हैं, वे मानो यमराज के लिये मित्र के समान हैं। वे यमराज को सुखपूर्वक सौम्य धर्मराज के रूप में देखते हैं।
किंतु जो क्रूर कर्म करनेवाले हैं, वे यमराज को भयानक रूप में देखते हैं। उनको दृष्टि में यमराज का मुख दाढ़ों के कारण विकराल जान पड़ता है। नेत्र टेढ़ी भौंहों से युक्त प्रतीत होते हैं। उनके केश ऊपर को उठे होते हैं। दाढ़ी-मूँछ बड़ी-बड़ी होती है। ओठ ऊपर की ओर फड़कते रहते हैं। उनके अठारह भुजाएँ होती हैं, वे कुपित तथा काले कोयलों के ढेर-से दिखायी देते हैं। उनके हाथों में सब प्रकार के अस्त्र-शस्त्र उठे होते हैं। वे सब प्रकार के दण्ड का भय दिखाकर उन पापियों को डाँटते रहते हैं। बहुत बड़े भैंसे पर आरूढ़, लाल वस्त्र और लाल माला धारण करके बहुत ऊँचे महामेरु के समान दृष्टिगोचर होते हैं। उनके नेत्र प्रज्वलित अग्नि के समान उद्दीप्त दिखायी देते हैं। उनका शब्द प्रलयकाल के मेघ की गर्जना के समान गम्भीर होता है। वे ऐसे जान पड़ते हैं मानो महासागर को पी रहे हैं, गिरिराज को निगल रहे हैं और मुँह से आग उगल रहे हैं।
उनके समीप प्रलयकाल की अग्नि के समान प्रभावाले मृत्यु देवता खड़े रहते हैं। काजल के समान काले कालदेवता और भयानक कृतान्त देवता भी रहते हैं। इनके सिवा मारी, उग्र महामारी, भयंकर कालरात्रि, अनेक प्रकार के रोग तथा भाँति-भाँति के भयावह कुष्ठ मूर्तिमान् हो हाथों में शक्ति, शूल, अंकुश, पाश, चक्र और खड्ग लिये खड़े रहते हैं।
वज्रतुल्य मुख धारण करनेवाले रुद्रगण क्षुर, तरकश और धनुष धारण किये वहाँ उपस्थित होते हैं। सभी नाना प्रकार के आयुध धारण करनेवाले; महान् वीर एवं भयंकर हैं। इनके अतिरिक्त असंख्य महावीर यमदूत, जिनकी अंगकान्ति काले कोयले के समान काली होती है, सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्र लिये बड़े भयंकर जान पड़ते हैं। ऐसे परिवार से घिरे हुए घोर यमराज तथा भीषण चित्रगुप्त को पापिष्ठप्राणी देखते हैं। यमराज उन पापकर्मियों को बहुत डाँटते हैं और भगवान् चित्रगुप्त धर्मयुक्त वचनों द्वारा उन्हें समझाते हैं।
(अध्याय ७)