नरकों की अट्ठाईस कोटियों तथा प्रत्येक के पाँच-पाँच नायक के क्रम से एक सौ चालीस रौरवादि नरकों की नामावली

सनत्कुमारजी कहते हैं – व्यासजी! तदनन्तर यमदूत पापियों को अत्यन्त तपे हुए पत्थर पर बड़े वेग से दे मारते हैं, मानो वज्र से बड़े-बड़े वक्षों को धराशायी कर दिया गया हो। उस समय शरीर से जर्जर हुआ देहधारी जीव कान से खून बहाने लगता है और सुध-बुध खोकर निश्चेष्ट हो जाता है। तब वायु का स्पर्श कराकर वे यमदूत फिर उसे जीवित कर देते हैं और उसके पापों की शुद्धि के लिये उसे नरक-समुद्र में डाल देते हैं। पृथ्वी के नीचे नरक की सात कोटियाँ हैं, जो सातवें तल के अन्त में घोर अन्धकार के भीतर स्थित हैं। उन सबकी अट्ठाईस कोटियाँ हैं। पहली कोटि घोरा कही गयी है। दूसरी सुघोरा है, जो उसके नीचे स्थित है। तीसरी अतिघोरा, चौथी महाघोरा, पाँचवीं घोररूपा, छठी तलातला, सातवीं भयानका, आठवीं कालरात्रि, नवीं भयोत्कटा, उसके नीचे दसवीं चण्डा, उसके भी नीचे महाचण्डा, फिर चण्ड-कोलाहला तथा उससे भिन्न प्रचण्डा है, जो चण्डों की नायिका कही गयी है; उसके बाद पद्मा, पद्मावती, भीता और भीमा है, जो भीषण नरकों की नायिका मानी गयी है। अठारहवीं कराला, उन्नीसवीं विकराला और बीसवीं नरककोटि वज्रा कही गयी है। तदनन्तर त्रिकोणा, पंचकोणा, सुदीर्घा, अखिलार्तिदा, समा, भीमबला, भीमा तथा अट्ठाईसवीं दीप्तप्राया है। इस प्रकार मैंने तुमसे भयानक नरक-कोटियों के नाम बताये हैं। इनकी संख्या अट्ठाईस ही है। ये पापियों को यातना देने वाली हैं। उन कोटियों के क्रमशः पाँच-पाँच नायक जानने चाहिये।

अब उन सब कोटियों के नाम बताये जाते हैं, सुनो। उनमें प्रथम रौरव नरक है, जहाँ पहँचकर देहधारी जीव रोने लगते हैं। महारौरव की पीड़ा से तो महान् पुरुष भी रो देते हैं। इसके बाद शीत और उष्ण नामक नरक है। फिर सुघोर है। रौरव से सुघोर तक आदि के पाँच नरक नायक माने गये हैं। इसके बाद सुमहातीक्ष्ण, संजीवन, महातम, विलोम, विलोप, कण्टक, तीव्रवेग, कराल, विकराल, प्रकम्पन, महावक्र, काल, कालसूत्र, प्रगर्जन, सूचीमुख, सुनेति, खादक, सुप्रपीडन, कुम्भीपाक, सुपाक, क्रकच, अतिदारुण, अंगारराशिभवन, मेरु, असृक्प्रहित, तीक्ष्णतुण्ड, शकुनि, महासंवर्तक, क्रतु, तप्तजन्तु, पंकलेप, प्रतिमांस, त्रपूद्धव, उच्छ्वास, सुनिरुच्छ्वास, सुदीर्घ, कूटशाल्मलि, दुरिष्ट, सुमहावाद, प्रवाद, सुप्रतापन, मेघ, वृष, शाल्म, सिंहमुख, व्याप्रमुख, गजमुख, कुक्कुरमुख, सूकरमुख, अजमुख, महिषमुख, घूकमुख, कोकमुख, वृकमुख, ग्राह, कुम्भीनस, नक्र, सर्प, कूर्म, काक, गृश्न, उलूक, हलौक, शार्दूल, क्रथ, कर्कट, मण्डूक, पूतिमुख, रक्ताक्ष, पूतिमृत्तिक, कणधूप्र, अग्नि, कृमि, गन्धिवपु, अग्नीध्र, अप्रतिष्ठ, रुधिराभ, श्वभोजन, लालाभक्ष, अन्त्रभक्ष, सर्वभक्ष, सुदारुण, कण्टक, सुविशाल, विकट, कटपूतन, अम्बरीष, कटाह, कष्टदायिनी वैतरणी नदी, सुतप्त लोहशयन, एकपाद, प्रपूरण, घोर असितालवन, अस्थिभंग, सुपूरण, विलातस, असुयन्त्र, कूटपाश, प्रमर्दन, महाचूर्ण, असुचूर्ण, तप्तलोहमय, पर्वत, क्षुरधारा, यमलपर्वत, मूत्रकूप, विष्ठाकूप, अश्रुकूप, शीतल क्षारकूप, मुसलोलूखल, यन्त्र, शिला, शकट, लांगल, तालपत्रवन, असिपत्रवन, महाशकटमण्डप, सम्मोह, अस्थिभंग, तप्त, चंचल, अयोगुड (लोहे की गोली), बहुदुःख, महाक्लेश, कश्मल, शमल, मलात्, हालाहल, विरूप, स्वरूप, यमानुग, एकपाद, त्रिपाद, तीव्र, अचीवर और तम।

इस प्रकार ये अट्ठाईस नरक और क्रमशः उनके पाँच-पाँच नायक कहे गये हैं। अट्ठाईस कोटियों के क्रमशः रौरव आदि पाँच-पाँच ही नायक बताये जाते हैं। उपर्युक्त २८ कोटियों को छोड़कर लगभग सौ नरक माने जाते हैं और महानरकमण्डल एक सौ चालीस नरकों का बताया गया है। *

[* यहाँ अट्ठाईस कोटियों का पहले पृथक वर्णन आया है, फिर प्रत्येक के पाँच-पाँच नायक बताकर ठीक एक सौ चालीस नर को का नामोल्लेख किया गया है। कोटियों की संख्या मिला देने से सब एक सौ अड्सठ होते हैं।]

(अध्याय ८)