विभिन्न पापों के कारण मिलने वाली नरकयातना का वर्णन तथा कुक्कुरबलि, काकबलि एवं देवता आदि के लिये दी हुई बलि की आवश्यकता एवं महत्ता का प्रतिपादन
सनत्कुमारजी कहते हैं – व्यासजी! इन सब भयानक पीड़ादायक नरकों में पापी जीवों को अत्यन्त भीषण नरक-यातना भोगनी पड़ती है। जो मिथ्या आगम (पाखण्डियों के शास्त्र) में प्रवृत्त होता है, वह द्विजिह्वा नामक नरक में जाता है और जिह्वा के आकार में आधे कोस तक फैले हुए तीक्ष्ण हलों द्वारा वहाँ उसे विशेष पीड़ा दी जाती है। जो क्रूर मनुष्य माता-पिता और गुरु को डाँटता है, उसके मुँह में कीड़ों से युक्त विष्ठा ठूँसकर उसे खूब पीटा जाता है। जो मनुष्य शिवमन्दिर, बगीचे, बावड़ी, कूप, तड़ाग तथा ब्राह्मण के स्थान को नष्ट-भ्रष्ट कर देते और वहाँ स्वेच्छानुसार रमण करते हैं, वे नाना प्रकार के भयंकर कोल्हू आदि के द्वारा पेरे और पकाये जाते हैं तथा प्रलयकालपर्यन्त नरकाग्नियों में पकते रहते हैं। परस्त्रीगामी पुरुष उस-उस रूप से ही व्यभिचार करते हुए मारे-पीटे जाते हैं। पुरुष अपने पहले-जैसे शरीर को धारण करके लोहे की बनी और खूब तपायी हुई नारी का गाढ़ आलिंगन करके सब ओर से जलते रहते हैं। वे उस दुराचारिणी स्त्री का गाढ़ आलिंगन करते और रोते हैं। जो सत्पुरुषों की निन्दा सुनते हैं, उनके कानों में लोहे या ताँबे आदि की बनी हुई कीलें आग से खूब तपाकर भर दी जाती हैं; इनके सिवा जस्ते, शीशे और पीतल को गलाकर पानी के समान करके उनके कान में भरा जाता है। फिर बारंबार गरम दूध और खूब तपाया हुआ तेल उनके कानों में डाला जाता है। फिर उन कानों पर वज्रका-सा लेप कर दिया जाता है। इस तरह क्रमशः उनके कानों को उपर्युक्त वस्तुओं से भरकर उनको नरकों में यातनाएँ दी जाती हैं। क्रमशः सभी नरकों में सब ओर ये यातनाएँ प्राप्त होती हैं और सभी नरकों की यातनाएँ बड़ा कष्ट देने वाली होती हैं। जो माता-पिता के प्रति भौंहें टेढ़ी करते अथवा उनकी ओर उद्दण्डतापूर्वक दृष्टि डालते या हाथ उठाते हैं, उनके मुखों को अन्त तक लोहे की कीलों से दृढ़तापूर्वक भर दिया जाता है। जो मनुष्य लुभाकर स्त्रियों की ओर अपलक दृष्टि से देखते हैं, उनकी आँखों में तपाकर आग के समान लाल की हुई सुइयाँ भर दी जाती हैं।
जो देवता, अग्नि, गुरु तथा ब्राह्मणों को अग्रभाग निवेदन किये बिना ही भोजन कर लेते हैं, उनकी जिह्वा और मुख में लोहे की सैकड़ों कीलें तपाकर ठूस दी जाती हैं। जो लोग धर्म का उपदेश करनेवाले महात्मा कथावाचक की निन्दा करते हैं, देवता, अग्नि और गुरु के भक्तों की तथा सनातन धर्मशास्त्र की भी खिल्लियाँ उड़ाते हैं, उनकी छाती, कण्ठ, जिह्वा, दाँतों की संधि, तालु, ओठ, नासिका, मस्तक तथा सम्पूर्ण अंगों की संधियों में आग के समान तपायी हुई तीन शाखावाली लोहे की कीलें मुद्गरों से ठोकी जाती हैं। उस समय उन्हें बहुत कष्ट होता है। तत्पश्चात् सब ओर से उनके घावों पर तपाया हुआ नमक छिड़क दिया जाता है। फिर उस शरीर में सब ओर बड़ी भारी यातनाएं होती हैं। जो पापी शिवमन्दिर के पास अथवा देवता के बगीचों में मल-मूत्र का त्याग करते हैं, उनके लिंग और अण्डकोश को लोहे के मुद्गरों से चूर-चूर कर दिया जाता है तथा आग से तपायी हुई सुइयाँ उसमें भर दी जाती हैं, जिससे मन और इन्द्रियों को महान् दुःख होता है। जो धन रहते हुए भी तृष्णा के कारण उसका दान नहीं करते और भोजन के समय घर पर आये हुए अतिथि का अनादर करते हैं, वे पाप का फल पाकर अपवित्र नरक में गिरते हैं। जो कुत्तों और गौओं को उनका भाग अर्थात् बलि न देकर स्वयं भोजन कर लेते हैं, उनके खुले हुए मुह में दो कीलें ठोक दी जाती हैं। 'यमराज के मार्ग का अनुसरण करनेवाले जो श्याम और शबल (साँवले तथा चितकबरे) दो कुत्ते हैं, मैं उनके लिये यह अन्न का भाग देता हूँ, वे इस बलि को ग्रहण करें।' 'पश्चिम, वायव्य, दक्षिण और नैर्ऋत्य दिशा में रहनेवाले जो पुण्यकर्मा कौए हैं, वे मेरी इस दी हुई बलि को ग्रहण करें। इस अभिप्रथा के दो मन्त्रों से क्रमशः कुत्ते और कौए को बलि देनी चाहिये। जो लोग यत्नपूर्वक भगवान् शंकर की पूजा करके विधिवत् अगिनि में आहुति दे शिवसम्बन्धी मन्त्रों द्वारा बलि समर्पित करते हैं, वे यमराज को नहीं देखते और स्वर्ग में जाते हैं। इसलिये प्रतिदिन बलि देनी चाहिये।
एक चौकोर मण्डप बनाकर उसे गन्ध आदि से अधिवासित करे। फिर ईशान कोण में धन्वन्तरि के लिये और पूर्वदिशा में इन्द्र के लिये बलि दे। दक्षिणदिशा में यम के लिये, पश्चिमदिशा में सुदक्षोम के लिये और दक्षिणदिशा में पितरों के लिये बलि देकर पुनः पूर्वदिशा में अर्यमा को अन्न का भाग अर्पित करे। द्वारदेश में धाता और विधाता के लिये बलि निवेदन करे। तदनन्तर कुत्तों, कुत्तों के स्वामी और पक्षियों के लिये भूतल पर अन्न डाल दे। देवता, पितर, मनुष्य, प्रेत, भूत, गुह्मक, पक्षी, कृमि और कीट – ये सभी गृहस्थ से अपनी जीवि का चलाते हैं। स्वाहाकार, स्वधाकार, वषट्कार तथा हन्तकार – ये धर्ममयी धेनु के चार स्तन हैं। स्वाहाकार नामक स्तन का पान देवता करते हैं, स्वधा का पितर लोग, वषट्कार का दूसरे-दूसरे देवता और भूतेश्वर तथा हन्तकार नामक स्तन का सदा ही मनुष्यगण पान करते हैं। जो मानव श्रद्धापूर्वक इस धर्ममयी धेनु का सदा ठीक समय पर पालन करता है, वह अग्निहोत्री हो जाता है। जो स्वस्थ रहते हुए भी उसका त्याग कर देता है, वह अन्धकारपूर्ण नरक में डूबता है। इसलिये उन सबको बलि देने के पश्चात् द्वार पर खड़ा हो क्षणभर अतिथि की प्रतीक्षा करे। यदि कोई भूख से पीड़ित अतिथि या उसी गाँव का निवासी पुरुष मिल जाय तो उसे अपने भोजन से पहले यथाशक्ति शुभ अन्न का भोजन कराये। जिसके घर से अतिथि निराश होकर लौटता है, उसे वह अपना पाप दे बदले में उसका पुण्य लेकर चला जाता है।'
(अध्याय ९ - १०)