जलदान, जलाशय-निर्माण, वृक्षारोपण, सत्यभाषण और तप की महिमा

सनत्कुमारजी कहते हैं – व्यासजी! जलदान सबसे श्रेष्ठ है। वह सब दानों में सदा उत्तम है; क्योंकि जल सभी जीवसमुदाय को तृप्त करनेवाला जीवन कहा गया है। इसलिये बड़े स्नेह के साथ अनिवार्य रूप से प्रपादान (पौंसला चलाकर दूसरों को पानी पिलाने का प्रबन्ध) करना चाहिये। जलाशय का निर्माण इस लोक और परलोक में भी महान् आनन्द की प्राप्ति करानेवाला होता है – यह सत्य है, सत्य है। इसमें संशय नहीं है। इसलिये मनुष्य को चाहिये कि वह कुआँ, बावड़ी और तालाब बनवाये। कुएँ में जब पानी निकल आता है, तब वह पापी पुरुष के पापकर्म का आधा भाग हर लेता है तथा सत्कर्म में लगे हुए मनुष्य के सदा समस्त पापों को हर लेता है। जिसके खुदवाये हुए जलाशय में गौ, ब्राह्मण तथा साधु पुरुष सदा पानी पीते हैं वह अपने सारे वंश का उद्धार कर देता है। जिसके जलाशय में गरमी के मौसम में भी अनिवार्य रूप से पानी टिका रहता है, वह कभी दुर्गम एवं विषम संकट को नहीं प्राप्त होता। जिसके पोखरे में केवल वर्षा-ऋतु में जल ठहरता है, उसे प्रतिदिन अग्निहोत्र करने का फल मिलता है – ऐसा ब्रह्माजी का कथन है। जिसके तड़ाग में शरत्काल तक जल ठहरता है, उसे सहस्त्र गोदान का फल मिलता है – इसमें संशय नहीं है। जिसके तालाब में हेमन्त और शिशिर-ऋतु तक पानी मौजूद रहता है, वह बहुत-सी सुवर्ण-मुद्राओं की दक्षिणा से युक्त यज्ञ का फल पाता है। जिसके सरोवर में वसन्त और ग्रीष्मकाल तक पानी बना रहता है, उसे अतिरात्र और अश्वमेध यज्ञों का फल मिलता है – ऐसा मनीषी महात्माओं का कथन है।

मुनिवर व्यास! जीवों को तृप्ति प्रदान करनेवाले जलाशय के उत्तम फल का वर्णन किया गया। अब वृक्ष लगाने में जो गुण हैं, उनका वर्णन सुनो। जो वीरान एवं दुर्गम स्थानों में वृक्ष लगाता है, वह अपनी बीती तथा आनेवाली सम्पूर्ण पीढ़ियों को तार देता है। इसलिये वृक्ष अवश्य लगाना चाहिये। ये वृक्ष लगानेवाले के पुत्र होते हैं, इसमें संशय नहीं है। वृक्ष लगानेवाला पुरुष परलोक में जाने पर अक्षय लोकों को पाता है। पोखरा खुदानेवाला, वृक्ष लगानेवाला और यज्ञ करानेवाला जो द्विज है, वह तथा दूसरे-दूसरे सत्यवादी पुरुष – ये स्वर्ग से कभी नीचे नहीं गिरते।

सत्य ही परब्रह्म है, सत्य ही परम तप है, सत्य ही श्रेष्ठ यज्ञ है और सत्य ही उत्कृष्ट शास्त्रज्ञान है। सोये हुए पुरुषों में सत्य ही जागता है, सत्य ही परमपद है, सत्य से ही पृथ्वी टिकी हुई है और सत्य में ही सब कुछ प्रतिष्ठित है। तप, यज्ञ, पुण्य, देवता, ऋषि और पितरों का पूजन, जल और विद्या – ये सब सत्य पर ही अवलम्बित हैं। सबका आधार सत्य ही है। सत्य ही यज्ञ, तप, दान, मन्त्र, सरस्वती देवी तथा ब्रह्मचर्य है। ओंकार भी सत्य रूप ही है। सत्य से ही वायु चलती है, सत्य से ही सूर्य तपता है, सत्य से ही आग जलाती है और सत्य से ही स्वर्ग टिका हुआ है। लोक में सम्पूर्ण वेदों का पालन तथा सम्पूर्ण तीर्थों का स्नान केवल सत्य से सुलभ हो जाता है। सत्य से सब कुछ प्राप्त होता है, इसमें संशय नहीं है। एक सहस्त्र अश्वमेध और लाखों यज्ञ एक ओर तराजू पर रखे जायँ और दूसरी ओर सत्य हो तो सत्य का ही पलड़ा भारी होगा। देवता, पितर, मनुष्य, नाग, राक्षस तथा चराचर प्राणियों सहित समस्त लोक सत्य से ही प्रसन्न होते हैं। सत्य को परम धर्म कहा गया है। सत्य को ही परमपद बताया गया है और सत्य को ही परब्रह्म परमात्मा कहते हैं। इसलिये सदा सत्य बोलना चाहिये। सत्यपरायण मुनि अत्यन्त दुष्कर तप करके स्वर्ग को प्राप्त हुए हैं तथा सत्यधर्म में अनुरक्त रहनेवाले सिद्ध पुरुष भी सत्य से ही स्वर्ग के निवासी हुए हैं। अतः सदा सत्य बोलना चाहिये। सत्य से बढ़कर दूसरा कोई धर्म नहीं है। सत्यरूपी तीर्थ अगाध, विशाल, सिद्ध एवं पवित्र जलाशय है। उसमें योगयुक्त होकर मन के द्वारा स्नान करना चाहिये। सत्य को परमपद कहा गया है। जो मनुष्य अपने लिये, दूसरे के लिये अथवा अपने बेटे के लिये भी झूठ नहीं बोलते वे ही स्वर्गगामी होते हैं। वेद, यज्ञ तथा मन्त्र – ये ब्राह्मणों में सदा निवास करते हैं; परंतु असत्यवादी ब्राह्मणों में इनकी प्रतीति नहीं होती। अतः सदा सत्य बोलना चाहिये।

तदनन्तर तप को बड़ी भारी महिमा बताते हुए सनत्कुमारजी ने कहा – मुने! संसार में ऐसा कोई सुख नहीं है जो तपस्या के बिना सुलभ होता हो। तप से ही सारा सुख मिलता है, इस बात को वेदवेत्ता पुरुष जानते हैं। ज्ञान, विज्ञान, आरोग्य, सुन्दर रूप, सौभाग्य तथा शाश्वत सुख तप से ही प्राप्त होते हैं। तपस्या से ही ब्रह्मा बिना परिश्रम के ही सम्पूर्ण विश्व की सृष्टि करते हैं। तपस्या से ही विष्णु इसका पालन करते हैं। तपस्या के बल से ही रुद्रदेव संहार करते हैं तथा तप के प्रभाव से ही शेष अशेष भूमण्डल को धारण करते हैं।

(अध्याय १२)