वेद और पुराणों के स्वाध्याय तथा विविध प्रकार के दान की महिमा, नरकों का वर्णन तथा उनमें गिरानेवाले पापों का दिग्दर्शन, पापों के लिये सर्वोत्तम प्रायश्चित्त शिवस्मरण तथा ज्ञान के महत्त्व का प्रतिपादन
सनत्कुमारजी कहते हैं – मुने! जो वन में जंगली फल-मूल खाकर तप करता है और जो वेद की एक ऋचा का स्वाध्याय करता है, इन दोनों का फल समान है। श्रेष्ठ द्विज वेदाध्ययन से जिस पुण्य को पाता है, उससे दूना फल वह उस वेद को पढ़ाने से पाता है। मुने! जैसे चन्द्रमा और सूर्य के बिना जगत् में अन्धकार छा जाता है, उसी प्रकार पुराण के बिना ज्ञान का आलोक नहीं रह जाता है – अज्ञान का अन्धकार छाया रहता है। इसलिये सदा पुराण का अध्ययन करना चाहिये। अज्ञान के कारण नरक में पड़कर सदा संतप्त होनेवाले लोक को जो शास्त्र का ज्ञान देकर समझाता है, वह पुराणवक्ता अपनी इसी महत्ता के कारण सदा पूजनीय है। जो साधु पुरुष पुराणवक्ता विद्वान को दान का पात्र समझकर बड़ी प्रसन्नता के साथ उसे उत्तमोत्तम वस्तुएँ देता है, वह परम गति को प्राप्त होता है। जो सुपात्र ब्राह्मण को भूमि, गौ, रथ, हाथी और सुन्दर घोड़े देता है, उसके पुण्यफल का वर्णन सुनो। वह इस जन्म में और परलोक में भी सम्पूर्ण अक्षय मनोरथों को पा लेता है तथा अश्वमेधयज्ञ के फल का भी भागी होता है।
मुनीशवर! जो पुरुष भगवान् शिव की कथा सुनता है, वह कर्मों के विशाल वन को जलाकर संसार से तर जाता है। जो दो घड़ी, एक घड़ी अथवा एक क्षण भी भक्तिभाव से भगवान् शिव की कथा सुनते हैं, उनकी कभी दुर्गति नहीं होती। मुने! सम्पूर्ण दानों अथवा सम्पूर्ण यज्ञों में जो पुण्य होता है, वही फल शिवपुराण सुनने से अविचलरूप में प्राप्त हो जाता है। व्यासजी! विशेषतः कलियुग में पुराणश्रवण के सिवा मनुष्यों के लिये दूसरा कोई श्रेष्ठ धर्म नहीं है। वही उनके लिये मोक्ष एवं ध्यानरूपी फल देनेवाला बताया गया है। शिवपुराण का श्रवण और शिव-नाम का कीर्तन मनुष्यों के लिये कल्पवृक्ष का रमणीय फल है, इसमें संशय नहीं है। यज्ञ, दान, तप और तीर्थसेवन से जो फल मिलता है, उसी को मनुष्य पुराणों के श्रवणमात्र से पा लेता है।
प्रतिदिन सुपात्र लोगों को बड़े-बड़े दान देने चाहिये, वे दान दाता के उद्धारक होते हैं। विप्रवर! सुवर्णदान, गोदान और भूमिदान – ये पवित्र दान हैं, जो दाता को तो तारते ही हैं, लेनेवालों का भी उद्धार कर देते हैं। सुवर्णदान, गोदान और पृथ्वीदान – इन श्रेष्ठ दानों को करके मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है। तुलादान की बड़ी प्रशंसा की गयी है, गौ और पृथ्वी के दान भी प्रशस्त एवं समान शक्तिवाले हैं। परंतु सरस्वती का दान इन सबसे अधिक उत्तम है। नित्य दुही जाने वाली गाय, छाता, वस्त्र, जूता तथा अन्न और जल – ये सब वस्तुएँ याचकों को देनी चाहिये। ब्राह्मणों को तथा अपीडित याचकों को जो संकल्पपूर्वक धनादि वस्तुओं का दान किया जाता है, उससे दाता मनस्वी होता है। लोक में जो-जो अत्यन्त अभीष्ट और प्रिय है, वह यदि घर में हो तो उसे अक्षय बनाने की इच्छावाले पुरुष को गुणवान् पुरुष को दान करना चाहिये। तुला-पुरुष का दान सब दानों में उत्तम है। जो अपने लिये कल्याण चाहे, उसे तराजू पर बैठना और अपने शरीर से तौली गयी वस्तु का दान करना चाहिये। दिन में, रात में, दोनों संध्याओं के समय, दोपहर में, आधी रात के समय तथा भूत, वर्तमान और भविष्य – तीनों कालों में मन, वाणी और शरीर द्वारा किये गये सारे पापों को तुला-पुरुष का दान दूर कर देता है।
इसके बाद ब्रह्माण्ड दान का माहात्म्य एवं ब्रह्माण्ड का वर्णन करके सनत्कुमारजी ने कहा – मुनिवरों में श्रेष्ठ व्यास! पाताल लोक से ऊपर जो नरक हैं, उनका वर्णन मुझसे सुनो; पापी पुरुष उन्हीं में यातनाएँ भोगते हैं। रौरव, शूकर, रोध, ताल, विवसन, या विशसन, महाज्वाल, तप्तकुम्भ, लवण, विलोहित, पीब, बहानेवाली वैतरणी, कृमि या कृमीश, कृमिभोजन, कृष्ण, असिपत्रवन, दारुण लालाभक्ष, पूयवह, पाप, वह्निज्वाल, अधःशिरा, संदंश, कालसूत्र, तमस, अवीचि, रोधन, श्वभोजन, अप्रतिष्ठ, महारौरव और शाल्मलि इत्यादि बहुत-से दुःखदायक नरक वहाँ हैं। व्यासजी! उनमें जो पापकर्मपरायण पुरुष पकाये जाते हैं, उनका क्रमशः वर्णन करता हूँ; सावधान होकर सुनो। जो मनुष्य ब्राह्मणों, देवताओं तथा गौओं के लिये हितकर कार्यों के सिवा अन्य किसी कार्य के लिये झूठी गवाही देता है अथवा सदा झूठ बोलता है, वह रौरव नरक में जाता है।
जो भ्रूण (गर्भस्थ शिशु) की हृत्या और सुवर्ण की चोरी करनेवाला, गाय को कटघरे में बंद करनेवाला, विश्वासघाती, शराबी, ब्रह्महत्यारा, दूसरों के द्रव्य का अपहरण करनेवाला तथा इन सबका संगी है, वह मरने पर तप्तकुम्भ नामक नरक में जाता है। गुरु के वध से भी इसी नरक की प्राप्ति होती है। बहिन, माता, गौ तथा पुत्री का वध करने से भी तप्तकुम्भ में ही गिरना पड़ता है। साध्वी स्त्री को बेचनेवाला, अधिक व्याज लेनेवाला त्यागनेवाला – ये सब पापी तप्तलोह नामक नरक में पकाये जाते हैं। जो नराधम गुरुजनों का अपमान करनेवाला तथा उनके प्रति दुर्वचन बोलनेवाला है और जो वेद की निन्दा करनेवाला, वेद बेचनेवाला तथा अगम्या स्त्री से सम्भोग करनेवाला है, वे सब-के-सब लवण नामक नरक में जाते हैं। चोर विलोहित नामक नरक में गिरता है। मर्यादा को दूषित करनेवाले पुरुष की भी ऐसी ही गति होती है। जो पुरुष देवता, ब्राह्मण और पितृगण से द्वेष करनेवाला है तथा जो रत्न को दूषित (उसमें मिलावट) करता है, वह कृमिभक्ष नामक नरक में पड़ता है। जो दूषित यज्ञ (दूसरों को हानि पहुँचाने के लिये आभिचारिक प्रयोग या हिंसाप्रधान तामस यज्ञ) करता है, वह कृमीश नामक नरक में पड़ता है। जो नराधम पितृगण, देवगण और अतिथियों को छोड़कर (बलिवैश्व-देव के द्वारा देवता आदि का भाग उन्हें अर्पण किये बिना ही) भोजन कर लेता है, वह उग्र लालाभक्ष नरक में गिरता है। जो शस्त्र-समूहों का निर्माण करता है, वह भी उसी में जाता है। जो द्विज अन्त्यज से सेवा लेता है, असत् दान ग्रहण करता है, यज्ञ के अनधिकारियों से यज्ञ कराता है और अभक्ष्यभक्षण करता है, ये सब-के-सब रुधिरौघ (पूयवह) नामक नरक में गिरते हैं। जो सोमरस को बेचनेवाले हैं, उनकी भी यही गति होती है। यज्ञ और ग्राम को नष्ट करनेवाला घोर वैतरणी नदी में पड़ता है।
जो नयी जवानी से मतवाले हो धर्म की मर्यादा को तोड़ते हैं, अपवित्र आचार-विचार से रहते हैं और छल-कपट से जीविका चलाते हैं, वे कृत्य नामक नरक में जाते है। जो अकारण ही वक्षों को काटता है, वह असिपत्रवन नामक नरक में जाता है। भेंड़ों को बेचकर जीविका चलानेवाले तथा पशुओं की हिंसा करनेवाले कसाई वह्निज्वाल नामक नरक में गिरते हैं। भ्रष्टाचारी ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य तथा जो कच्चे खपड़ों अथवा ईंट आदि को पकाने के लिये पजावे में आग देता है, वे सब उसी वह्निज्वाल नरक में गिरते हैं। जो व्रतों का लोप करनेवाले तथा अपने आश्रम से गिरे हुए हैं, वे दोनों ही प्रकार के पुरुष अत्यन्त दारुण संदंश नामक नरक की यातना में पड़ते हैं। जो ब्रह्मचारी होकर भी स्वप्म में वीर्यस्खलन करते हैं तथा जो पत्रों से विद्या पढ़ते हैं, वे श्वभोजन नामक नरक में गिरते हैं। इस तरह ये तथा और भी सैकड़ों, हजारों नरक हैं, जिनमें पापकर्मी प्राणी यातनाओं की आग में डालकर पकाये जाते हैं। इन उपर्युक्त पापों के समान और भी सहस्त्रों पापकर्म हैं, जिन्हें नरकों में पड़कर मनुष्य भोगा करते हैं। जो लोग मन, वाणी और क्रिया द्वारा अपने वर्ण और आश्रम के विरुद्ध कर्म करते हैं, वे नरक में गिरते हैं। नरक में सिर नीचे करके लटकाये गये प्राणी स्वर्गलोक में रहनेवाले देवताओं को देखा करते हैं और देवतालोग भी नीचे दृष्टि डालने पर उन सभी अधोमुख नारकी जीवों को देखते हैं। पापी लोग नरक भोग के अनन्तर क्रमशः उन्नति करते हुए स्थावर, कृमि, जलचर, पक्षी, पशु, मनुष्य, धर्मात्मा मानव-देवता तथा मुमुक्षु होते और अन्त में मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। जितने जीव स्वार्ग में हैं, उतने ही नरक में हैं। जो पापी पुरुष अपने पाप का प्रायश्चित्त नहीं करता वही नरक में जाता है।
कालीनन्दन! स्वायम्भुव मनु ने महान् पापों के लिये महान् और लघु पापों के लिये लघु प्रायश्चित्त बताये हैं। उन अशेष पापकर्मो के लिये जो-जो प्रायश्चित्त-सम्बन्धी कर्म बताये गये हैं, उन सब में भगवान् शंकर का स्मरण ही सर्वश्रेष्ठ प्रायश्चित्त है। जिस पुरुष के चित्त में पापकर्म करने के अनन्तर पश्चात्ताप होता है, उसके लिये तो एकमात्र भगवान् शिव का स्मरण ही सर्वोत्तम प्रायश्चित्त है। प्रातःकाल, सायंकाल, रात में तथा मध्याहन आदि में भगवान् शिव का स्मरण करने से पापरहित हुआ मनुष्य माहेश्वर धाम को प्राप्त कर लेता है। भगवान् शिव के स्मरण से समस्त पापों और क्लेशों का क्षय हो जाने से मनुष्य स्वर्ग अथवा मोक्ष प्राप्त कर लेता है। जिसका चित्त जप, होम और पूजा आदि करते समय निरन्तर भगवान् महेश्वर में ही लगा रहता हो उसके लिये इन्द्र आदि पद की प्राप्तिरूप फल तो अन्तराय (विघ्न) ही है। मुने! जो पुरुष भक्तिभाव से दिन-रात भगवान् शिव का स्मरण करता है, उसके सारे पातक नष्ट हो जाते हैं। इसलिये वह कभी नरक में नहीं पड़ता। नरक और स्वर्ग – ये पाप और पुण्य के ही दूसरे नाम हैं। इनमें से एक तो दुःख देनेवाला है और दूसरा सुख देनेवाला। जब एक ही वस्तु कभी प्रीति प्रदान करने वाली होती है और कभी दुःख देने वाली बन जाती है, तब यह निश्चय होता है कि कोई भी पदार्थ न तो दुःखमय है और न सुखमय ही है। ये सुख-दुःख तो मन के ही विकार हैं। ज्ञान ही परब्रह्म है और ज्ञान ही ताक्त्विक बोध का कारण है। यह सारा चराचर विश्व ज्ञानमय ही है। उस परम विज्ञान से भिन्न दूसरी कोई वस्तु नहीं है।
(अध्याय १३ - १६)