काल को जीतने का उपाय, नवधा शब्दब्रह्म एवं तुंकार के अनुसंधान और उससे प्राप्त होने वाली सिद्धियों का वर्णन
देवी पार्वती ने कहा – प्रभो! काल से आकाश का भी नाश होता है। वह भयंकर काल बड़ा विकराल है। वह स्वर्ग का भी एकमात्र स्वामी है। आपने उसे दग्ध कर दिया था, परंतु अनेक प्रकार के स्तोत्रों द्वारा जब उसने आपकी स्तुति की, तब आप फिर संतुष्ट हो गये और वह काल पुनः अपनी प्रकृति को प्राप्त हुआ – पूर्णतः स्वस्थ हो गया। आपने उससे बातचीत में कहा – 'काल! तुम सर्वत्र विचरोगे, किन्तु लोग तुम्हें देख नहीं सकेंगे।' आप प्रभु की कृपादृष्टि होने और वर मिलने से वह काल जी उठा तथा उसका प्रभाव बहुत बढ़ गया। अतः महेश्वर! क्या यहाँ ऐसा कोई साधन है, जिससे उस काल को नष्ट किया जा सके? यदि हो तो मुझे बताइये; क्योंकि आप योगियों में शिरोमणि और स्वतन्त्र प्रभु हैं। आप परोपकार के लिये ही शरीर धारण करते हैं।
शिव बोले – देवि! श्रेष्ठ देवता, दैत्य, यक्ष, राक्षस, नाग और मनुष्य – किसी के द्वारा भी काल का नाश नहीं किया जा सकता; परंतु जो ध्यानपरायण योगी हैं, वे शरीरधारी होने पर भी सुखपूर्वक काल को नष्ट कर देते हैं। वरारोहे! यह पाँच-भौतिक शरीर सदा उन भूतों के गुणों से युक्त ही उत्पन्न होता है और उन्हीं में इसका लय होता है। मिट्टी की देह मिट्टी में ही मिल जाती है। आकाश से वायु उत्पन्न होती है, वायु से तेजस्तत्त्व प्रकट होता है, तेज से जल का प्राकट्य बताया गया है और जल से पृथ्वी का आविर्भाव होता है। पृथ्वी आदि भूत क्रमशः अपने कारण में लीन होते हैं। पृथ्वी के पाँच, जल के चार, तेज के तीन और वायु के दो गुण होते हैं। आकाश का एकमात्र शब्द ही गुण है। पृथ्वी आदि में जो गुण बताये गये हैं, उनके नाम इस प्रकार हैं – शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध। जब भूत अपने गुण को त्याग देता है, तब नष्ट हो जाता है और जब गुण को ग्रहण करता है, तब उसका प्रादुर्भाव हुआ बताया जाता है। देवेश्वरि! इस प्रकार तुम पाँचों भूतों के यथार्थ स्वरूप को समझो। देवि! इस कारण काल को जीतने की इच्छावाले योगी को चाहिये कि वह प्रतिदिन प्रयत्नपूर्वक अपने-अपने काल में उसके अंशभूत गुणों का चिन्तन करे।
योगवेत्ता पुरुष को चाहिये कि सुखद आसन पर बैठकर विशुद्ध श्वास (प्राणायाम) द्वारा योगाभ्यास करे। रात में जब सब लोग सो जायँ, उस समय दीपक बुझाकर अन्धकार में योग धारण करे। तर्जनी अँगुली से दोनों कानों को बंद करके दो घड़ी तक दबाये रखे। उस अवस्था में अग्निप्रेरित शब्द सुनायी देता है। इससे संध्या के बाद का खाया हुआ अन्न क्षणभर में पच जाता है और सम्पूर्ण रोगों तथा ज्वर आदि बहुत-से उपद्रवों का शीघ्र नाश कर देता है। जो साधक प्रतिदिन इसी प्रकार दो घड़ी तक शब्दब्रह्म का साक्षात्कार करता है, वह मृत्यु तथा काम को जीतकर इस जगत् में स्वच्छन्द विचरता है और सर्वज्ञ एवं समदर्शी होकर सम्पूर्ण सिद्धियों को प्राप्त कर लेता है। जैसे आकाश में वर्षा से युक्त बादल गरजता है, उसी प्रकार उस शब्द को सुनकर योगी तत्काल संसार-बन्धन से मुक्त हो जाता है। तदनन्तर योगियों द्वारा प्रतिदिन चिन्तन किया जाता हुआ वह शब्द क्रमशः सूक्ष्म से सूक्ष्मतर हो जाता है। देवि! इस प्रकार मैंने तुम्हें शब्दब्रह्म के चिन्तन का क्रम बताया है। जैसे धान चाहनेवाला पुरुष पुआल को छोड़ देता है, उसी तरह मोक्ष की इच्छावाला योगी सारे बन्धनों को त्याग देता है।
इस शब्दब्रह्म को पाकर भी जो दूसरी वस्तु की अभिलाषा करते हैं, वे मुक्के से आकाश को मारते और भूख-प्यास की कामना करते हैं। यह शब्दब्रह्म ही सुखद, मोक्ष का कारण, बाहर-भीतर के भेद से रहित, अविनाशी और समस्त उपाधियों से रहित परब्रह्म है। इसे जानकर मनुष्य मुक्त हो जाते हैं। जो लोग कालपाश से मोहित हो शब्दब्रह्म को नहीं जानते, वे पापी और कुबद्धि मनुष्य मौत के फंदे में फँसे रहते हैं। मनुष्य तभी तक संसार में जन्म लेते हैं, जब तक सबके आश्रयभूत परमतत्त्व (परब्रह्म परमात्मा) की प्राप्ति नहीं होती। परमतत्त्व का ज्ञान हो जाने पर मनुष्य जन्म-मृत्यु के बन्धन से मुक्त हो जाता है। निद्रा और आलस्य साधना का बहुत बड़ा विघ्न है। इस शत्रु को यत्नपूर्वक जीतकर सुखद आसन पर आसीन हो प्रतिदिन शब्दब्रह्म का अभ्यास करना चाहिये। सौ वर्ष की अवस्थावाला वृद्ध पुरुष आजीवन इसका अभ्यास करे तो उसका शरीररूपी स्तम्भ मृत्यु को जीतनेवाला हो जाता है और उसे प्राणवायु की शक्ति को बढ़ानेवाला आरोग्य प्राप्त होता है। वृद्ध पुरुष में भी ब्रह्म के अभ्यास से होनेवाले लाभ का विश्वास देखा जाता है, फिर तरुण मनुष्य को इस साधना से पूर्ण लाभ हो इसके लिये तो कहना ही क्या है। यह शब्दब्रह्म न ओंकार है, न मन्त्र है, न बीज है, न अक्षर है। यह अनाहत नाद (बिना आघात के अथवा बिना बजाये ही प्रकट होने वाला शब्द) है। इसका उच्चारण किये बिना ही चिन्तन होता है। यह शब्दब्रह्म परम कल्याणमय है। प्रिये! शुद्ध बुद्धिवाले पुरुष यत्नपूर्वक निरन्तर इसका अनुसंधान करते हैं। अतः नौ प्रकार के शब्द बताये गये हैं, जिन्हें प्राणवेत्ता पुरुषों ने लक्षित किया है। मैं उन्हें प्रयत्न करके बता रहा हूँ। उन शब्दों को नादसिद्धि भी कहते हैं। वे शब्द क्रमशः इस प्रकार हैं –
घोष, कांस्य (झाँझ आदि), श्रृंग (सिंगा आदि), घण्टा, वीणा आदि, बाँसुरी, दुन्दुभि, शंख और नवाँ मेघगर्जन – इन नौ प्रकार के शब्दों को त्यागकर तुंकार का अभ्यास करे। इस प्रकार सदा ही ध्यान करनेवाला योगी पुण्य और पापों से लिप्त नहीं होता है। देवि! योगाभ्यास के द्वारा सुनने का प्रयत्न करने पर भी जब योगी उन शब्दों को नहीं सुनता और अभ्यास करते-करते मरणासन्न हो जाता है, तब भी वह दिन-रात उस अभ्यास में ही लगा रहे। ऐसा करने से सात दिनों में वह शब्द प्रकट होता है, जो मृत्यु को जीतनेवाला है। देवि! वह शब्द नौ प्रकार का है। उसका मैं यथार्थरूप से वर्णन करता हूँ। पहले तो घोषात्मक नाद प्रकट होता है, जो आत्मशुद्धि का उत्कृष्ट साधन है। वह उत्तम नाद सब रोगों को हर लेनेवाला तथा मन को वशीभूत करके अपनी ओर खींचनेवाला है। दूसरा कांस्य-नाद है, जो प्राणियों की गति को स्तम्भित कर देता है। वह विष, भूत और ग्रह आदि सबको बाँधता है – इसमें संशय नहीं है। तीसरा श्रृंग-नाद है, जो अभिचार से सम्बन्ध रखनेवाला है। उसका शत्रु के उच्चाटन और मारण में नियोग एवं प्रयोग करे। चौथा घण्टा-नाद है; जिसका साक्षात् परमेश्वर शिव उच्चारण करते हैं। वह नाद सम्पूर्ण देवताओं को आकृष्ट कर लेता है, फिर भूतल के मनुष्यों की तो बात ही क्या है। यक्षों और गन्धर्वों की कन्याएँ उस नाद से आकृष्ट हो योगी को उसकी इच्छा के अनुसार महासिद्धि प्रदान करती हैं तथा उसकी अन्य कामनाएँ भी पूर्ण करती हैं। पाँचवाँ नाद वीणा है, जिसे योगी पुरुष ही सदा सुनते हैं। देवि! उस वीणा-नाद से दूर-दर्शन की शक्ति प्राप्त होती है। वंशीनाद का ध्यान करनेवाले योगी को सम्पूर्ण तत्त्व प्राप्त हो जाता है। दुन्दुभि का चिन्तन करनेवाला साधक जरा और मृत्यु के कष्ट से छूट जाता है। देवेश्वरि! शंखनाद का अनुसंधान होने पर इच्छानुसार रूप धारण करने की शक्ति प्राप्त हो जाती है। मेघनाद के चिन्तन से योगी को कभी विपत्ति का सामना नहीं करना पड़ता। वरानने! जो प्रतिदिन एकाग्रचित्त से ब्रह्मरूपी तुंकार का ध्यान करता है, उसके लिये कुछ भी असाध्य नहीं होता। उसे मनोवांछित सिद्धि प्राप्त हो जाती है। वह सर्वज्ञ, सर्वदर्शी और इच्छानुसार रूपधारी होकर सर्वत्र विचरण करता है, कभी विकारों के वशीभूत नहीं होता। वह साक्षात् शिव ही है, इसमें संशय नहीं है। परमेश्वरि! इस प्रकार मैंने तुम्हारे समक्ष शब्दब्रह्म के नवधा स्वरूप का पूर्णतया वर्णन किया है।
(अध्याय २६)