काल या मृत्यु को जीतकर अमरत्व प्राप्त करने की चार यौगिक साधनाएँ – प्राणायाम, भ्रूमध्य में अग्नि का ध्यान, मुख से वायुपान तथा मुड़ी हुई जिह्वा द्वारा गले की घाँटी का स्पर्श
पार्वती बोलीं – प्रभो! यदि आप प्रसन्न हैं तो योगी योगाकाशजनित वायुपद को जिस प्रकार प्राप्त होता है, वह सब मुझे बताइये।
भगवान् शिव ने कहा – सुन्दरि! पहले मैंने योगियों के हित की कामना से सब कुछ विजय प्राप्त की थी। योगी जिस प्रकार वायु का स्वरूप धारण करता है, उसके विषय में भी कहा गया है। इसलिये योगशक्ति के द्वारा मृत्यु-दिवस को जानकर प्राणायाम में तत्पर हो जाय। ऐसा करने पर आधे मास में ही वह आये हुए काल को जीत लेता है। हृदय में स्थित हुई प्राणवायु सदा अग्नि को उद्दीप्त करने वाली है। उसे अग्नि का सहायक बताया गया है। यह वायु बाहर और भीतर सर्वत्र व्याप्त और महान् है। ज्ञान, विज्ञान और उत्साह – सबकी प्रवृति वायु से होती है। जिसने यहाँ वायु को जीत लिया, उसने इस सम्पूर्ण जगत् पर विजय पा ली।
साधक को चाहिये कि वह जरा और मृत्यु को जीतने की इच्छा से सदा धारणा में स्थित रहे; क्योंकि योगपरायण योगी को भलीभाँति धारणा और ध्यान में तत्यर रहना चाहिये। जैसे लुहार मुख से धौंकनी को फूँक-फूँककर उस वायु के द्वारा अपने सब कार्य को सिद्ध करता है, उसी प्रकार योगी को प्राणायाम का अभ्यास करना चाहिये। प्राणायाम के समय जिनका ध्यान किया जाता है, वे आराश्यदेव परमेश्वर सहस्तरों मस्तक, नेत्र, पैर और हाथों से युक्त हैं तथा समस्त ग्रन्थियों को आवृत करके उनसे भी दस अंगुल आगे स्थित हैं। आदिय में व्याहृति और अन्त में शिरोमन्त्र सहित गायत्री का तीन बार जप करे और प्राणवायु को रोके रहे। प्राणों के इस आयाम का नाम प्राणायाम है। चन्द्रमा और सूर्य आदि ग्रह जा-जाकर लौट आते हैं। परंतु प्राणायामपूर्वक ध्यान परायण योगी जाने पर आज तक नहीं लौटे हैं (अर्थात् मुक्त हो गये हैं)। देवि! जो द्विज सौ वर्षों तक तपस्या करके कुशों के अग्रभाग से एक बूँद जल पीता है वह जिस फल को पाता है, वही ब्राह्मणों को एकमात्र धारणा अथवा प्राणायाम के द्वारा मिल जाता है। जो द्विज सबेरे उठकर एक प्राणायाम करता है, वह अपने सम्पूर्ण पाप को शीघ्र ही नष्ट कर देता और ब्रह्मलोक को जाता है। जो आलस्यरहित हो सदा एकान्त में प्राणायाम करता है, वह जरा और मृत्यु को जीतकर वायु के समान गतिशील हो आकाश में विचरता है। वह सिद्धों के स्वरूप, कान्ति, मेधा, पराक्रम और शौर्य को प्राप्त कर लेता है। उसकी गति वायु के समान हो जाती है तथा उसे स्पृहणीय सौख्य एवं परम सुख को प्राप्ति होती है।
देवेश्वरि! योगी जिस प्रकार वायु से सिद्धि प्राप्त करता है, वह सब विधान मैंने बता दिया। अब तेज से जिस तरह वह सिद्धि-लाभ करता है, उसे भी बता रहा हूँ। जहाँ दूसरे लोगों की बातचीत का कोलाहल न पहुँचता हो, ऐसे शान्त – एकान्त स्थान में अपने सुखद आसन पर बैठकर चन्द्रमा और सूर्य (वाम और दक्षिण नेत्र) की कान्ति से प्रकाशित मध्यवर्ती देश भ्रूमध्य भाग में जो अग्नि का तेज अव्यक्त रूप से प्रकाशित होता है, उसे आलस्यरहित योगी दीपकरहित अन्धकारपूर्ण स्थान में चिन्तन करने पर निश्चय ही देख सकता है – इसमें संशय नहीं है। योगी हाथ की अँगुलियों से यत्नपूर्वक दोनों नेत्रों को कुछ-कुछ दबाये रखे और उनके तारों को देखता हुआ एकाग्रचित्त से आधे मुहूर्त तक उन्हीं का चिन्तन करे। तदनन्तर अन्धकार में भी ध्यान करने पर वह उस ईश्वरीय ज्योति को देख सकता है। वह ज्योति सफेद, लाल, पीली, काली तथा इन्द्रधनुष के समान रंगवाली होती है। भौंहों के बीच में ललाटवर्ती बालसूर्य के समान तेजवाले उन अग्निदेव का साक्षात्कार करके योगी इच्छानुसार रूप धारण करनेवाला हो जाता है तथा मनोवांछित शरीर धारण करके क्रीड़ा करता है। वह योगी कारण-तत्त्व को शान्त करके उसमें आविष्ट होना, दूसरे के शरीर में प्रवेश करना, अणिमा आदि गुणों को पा लेना, मन से ही सब कुछ देखना, दूर की बातों को सुनना और जानना, अदृश्य हो जाना, बहुत-से रूप धारण कर लेना तथा आकाश में विचरना इत्यादि सिद्धियों को निरन्तर अभ्यास के प्रभाव से प्राप्त कर लेता है। जो अन्धकार से परे और सूर्य के समान तेजस्वी है, उसी इस महान् ज्योतिर्मय पुरुष (परमात्मा) को मैं जानता हूँ। उन्हीं को जानकर मनुष्य काल या मृत्यु को लाँघ जाता है। मोक्ष के लिये इसके सिवा दूसरा कोई मार्ग नहीं है। देवि! इस प्रकार मैंने तुमसे तेजस्तत्त्व के चिन्तन की उत्तम विधि का वर्णन किया है, जिससे योगी काल पर विजय पाकर अमरत्व को प्राप्त कर लेता है।
देवि! अब पुनः दूसरा श्रेष्ठ उपाय बताता हूँ, जिससे मनुष्य की मृत्यु नहीं होती।
देवि! ध्यान करनेवाले योगियों की चौथी गति (साधना) बतायी जाती है। योगी अपने चित्त को वश में करके यथायोग्य स्थान में सुखद आसन पर बैठे। वह शरीर को ऊँचा करके अंजलि बाँधकर चोंच की-सी आकृतिवाले मुख के द्वारा धीरे-धीरे वायु का पान करे। ऐसा करने से क्षणभर में तालु के भीतर स्थित जीवनदायी जल की बूँदें टपकने लगती हैं। उन बूँदों को वायु के द्वारा लेकर सूँघे। वह शीतल जल अमृतस्वरूप है। जो योगी उसे प्रतिदिन पीता है, वह कभी मृत्यु के अधीन नहीं होता। उसे भूख-प्यास नहीं लगती। उसका शरीर दिव्य और तेज महान् हो जाता है। वह बल में हाथी और बेग में घोड़ की समानता करता है। उसकी दृष्टि गरुड़ के समान तेज हो जाती है और उसे दूर की भी बातें सुनायी देने लगती हैं। उसके केश काले-काले और घुँघराले हो जाते हैं तथा अंगकान्ति गन्धर्व एवं विद्याधरों की समानता करती है। वह मनुष्य देवताओं के वर्ष से सौ वर्षों तक जीवित रहता है तथा अपनी उत्तम बुद्धि के द्वारा बहस्पति के तुल्य हो जाता है। उसमें इच्छानुसार विचरने की शक्ति आ जाती है और वह सदा ही सुखी रहकर आकाश में विचरण की शक्ति प्राप्त कर लेता है।
वरानने! अब मृत्यु पर विजय पाने की पुनः दूसरी विधि बता रहा हूँ, जिसे देवताओं ने भी प्रयतपूर्वक छिपा रखा है; तुम उसे सुनो। योगी पुरुष अपनी जिह्वा को मोड़कर तालु में लगाने का प्रयत्न करे। कुछ काल तक ऐसा करने से वह क्रमशः लम्बी होकर गले की घाँटी तक पहुँच जाती है। तदनन्तर जब जिह्वा से गले की घाँटी सटती है, तब शीतल सुधा का स्त्राव करती है। उस सुधा को जो योगी सदा पीता है, वह अमरत्व को प्राप्त होता है।
(अध्याय २७)