भगवती उमा के कालिका-अवतार की कथा – समाधि और सुरथ के समक्ष मेधा का देवी की कृपा से मधुकैटभ के वध का प्रसंग सुनाना

इसके अनन्तर छाया पुरुष, सर्ग, कश्यपवंश, मन्वन्तर, मनुवंश, सत्यक्रतादिवंश, पितृकल्प तथा व्यासोत्पत्ति आदि का वर्णन सुनने के पश्चात् मुनियों ने सूतजी से कहा – ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ सूतजी! हमने आपके मुख से भगवान् शिव की अनेक इतिहासों से युक्त रमणीय कथा सुनी, जो उनके नानावतारों से सम्बन्ध रखती है तथा मनुष्यों को भोग और मोक्ष प्रदान करने वाली है। अब हम आपसे जगज्जननी भगवती उमा का मनोहर चरित्र सुनना चाहते हैं। परब्रह्म परमात्मा महेश्वर की जो आद्या सनातनी शक्ति हैं, वे उमा नाम से विख्यात हैं। वे ही त्रिलोकी को उत्पन्न करने वाली पराशक्ति हैं। महामते! दक्षकन्या सती और हिमवान् की पुत्री पार्वती – ये उमा के दो अवतार हमने सुने। सूतजी! अब उनके दूसरे अवतारों का वर्णन कीजिये। लक्ष्मीजननी जगदम्बा उमा के गुणों को सुनने से कौन बुद्धिमान् पुरुष विरत हो सकता है। ज्ञानी पुरुष भी कभी उनके कथा-श्रवण के शुभ अवसर को नहीं छोड़ते।

सूतजी ने कहा – महात्माओ! तुम लोग धन्य हो और सर्वदा कृतकृत्य हो; क्योंकि परा अम्बा उमा के महान् चरित्र के विषय में पूछ रहे हो। जो इस कथा को सुनते, पूछते और बाँचते हैं, उनके चरणकमलों की धूलि को ही ऋषियों ने तीर्थ माना है। जिनका चित्त परम संवित्-स्वरूपा श्रीउमादेवी के चिन्तन में लीन है, वे पुरुष धन्य हैं, कृतकृत्य हैं, उनकी माता और कुल भी धन्य हैं। जो समस्त कारणों की भी कारणरूपा देवेश्वरी उमा की स्तुति नहीं करते, वे माया के गुणों से मोहित तथा भाग्यहीन हैं – इसमें संशय नहीं है। जो करुणारस की सिन्धुस्वरूपा महादेवी का भजन नहीं करते, वे संसाररूपी घोर अन्धकूप में पड़ते हैं। जो देवी उमा को छोड़कर दूसरे देवी-देवताओं की शरण लेता है, वह मानो गंगाजी को छोड़कर प्यास बुझाने के लिये मरुस्थल के जलाशय के पास जाता है। जिनके स्मरण मात्र से धर्म आदि चारों पुरुषार्थों की अनायास प्राप्ति होती है, उन देवी उमा की आराधना कौन श्रेष्ठ पुरुष छोड़ सकता है।

पूर्वकाल में महामना सुरथने महर्षि मेधा से यही बात पूछी थी। उस समय मेधा ने जो उत्तर दिया, मैं वही बता रहा हूँ; तुम लोग सुनो। पहले स्वारोचिष मन्वन्तर में विरथ नाम से प्रसिद्ध एक राजा हो गये हैं। उनके पुत्र सुरथ हुए, जो महान् बल और पराक्रम से सम्पन्न थे। वे दाननिपुण, सत्यवादी, स्वधर्मकुशल, दिद्वान्, देवीभक्त, दयासागर तथा प्रजाजनों का भलीभाँति पालन करनेवाले थे। इन्द्र के समान तेजस्वी राजा सुरथ के पृथ्वी पर शासन करते समय नौ ऐसे राजा हुए, जो उनके हाथ से भूमण्डल का राज्य छीन लेने के प्रयत्न में लगे थे। उन्होंने भूपाल सुरथ की राजधानी कोलापुरी को चारों ओर से घेर लिया। उनके साथ राजा का बड़ा भयानक युद्ध हुआ। उनके शत्रुगण बड़े प्रबल थे। अतः युद्ध में भूपाल सुरथ की पराजय हुई। शत्रुओं ने सारा राज्य अपने अधिकार में करके सुरथ को कोलापुरी से निकाल दिया। राजा अपनी दूसरी पुरी में आये और वहाँ मन्त्रियों के साथ रहकर राज्य करने लगे। परंतु प्रबल विपक्षियों ने वहाँ भी आक्रमण करके उन्हें पराजित कर दिया। दैवयोग से राजा के मन्त्री आदि गण भी उनके शत्रु बन बेठे और खजाने में जो धन संचित था, वह सब उन विरोधी मन्त्री आदि ने अपने हाथ में कर लिया।

तब राजा सुरथ शिकार के बहाने अकेले ही घोड़े पर सवार हो नगर से बाहर निकले और गहन वन में चले गये। वहाँ इधर-उधर घूमते हुए राजा ने एक श्रेष्ठ मुनि का आश्रम देखा, जो चारों ओर फूलों के बगीचे लगे होने से बड़ी शोभा पा रहा था। वहाँ वेदमन्त्रों की ध्वनि गूँज रही थी। सब जीव-जन्तु शान्तभाव से रहते थे। मुनि के शिष्यों, प्रशिष्यों तथा उनके भी शिष्यों ने उस आश्रम को सब ओर से घेर रखा था। महामते! विप्रवर मेधा के प्रभाव से उस आश्रम में महाबली व्याघ्र आदि अल्प शक्तिवाले गौ आदि पशुओं को पीड़ा नहीं देते थे। वहाँ जाने पर मुनीश्वर मेधा ने मीठे वचन, भोजन और आसन द्वारा उन परम दयालु विद्वान् नरेश का आदरसत्कार किया।

एक दिन राजा सुरथ बहुत ही चिन्तित तथा मोह के वशीभूत होकर अनेक प्रकार से विचार कर रहे थे। इतने में ही वहाँ एक वैश्य आ पहुँचा। राजा ने उससे पूछा – 'भैया! तुम कौन हो और किसलिये यहाँ आये हो? क्या कारण है कि दुःखी दिखायी दे रहे हो? यह मुझे बताओ।' राजा के मुख से यह मधुर वचन सुनकर वैश्यप्रवर समाधि ने दोनों नेत्रों से आँसू बहाते हुए प्रेम और नम्रतापूर्ण वाणी में इस प्रकार उत्तर दिया।

वैश्य बोला – राजन्! मैं वैश्य हूँ। मेरा नाम समाधि है। मैं धनी के कुल में उत्पन्न हुआ हूँ। परंतु मेरे पुत्रों और स्त्री आदि ने धन के लोभ से मुझे घर से निकाल दिया है। अतः अपने प्रारब्धकर्म से दुःखी हो मैं वन में चला आया हूँ। करुणासागर प्रभो! यहाँ आकर मैं पुत्रों, पौत्रों, पत्नी, भाई-भतीजे तथा अन्य सुहृदों का कुशल-समाचार नहीं जान पाता।

राजा बोले – जिन दुराचारी तथा धन के लोभी पुत्र आदि ने तुम्हें निकाल दिया है, उन्हीं के प्रति मूर्ख जीव की भौंति तुम प्रेम क्यों करते हो?

वैश्य ने कहा – राजन्! आपने उत्तम बात कही है। आपकी वाणी सारगर्भित है, तथापि स्नेहपाश से बँधा हुआ मेरा मन अत्यन्त मोह को प्राप्त हो रहा है।

इस तरह मोह से व्याकुल हुए वैश्य और राजा दोनों मुनिवर मेधा के पास गये। वैश्य सहित राजा ने हाथ जोड़कर मुनि को प्रणाम किया और इस प्रकार कहा – 'भगवन्! आप हम दोनों के मोहपाश को काट दीजिये। मुझे राज्यलक्ष्मी ने छोड़ दिया और मैंने गहन वन की शरण ली; तथापि राज्य छिन जाने के कारण मुझे संतोष नहीं है। और यह वैश्य है, जिसे स्त्री आदि स्वजनों ने घर से निकाल दिया है; तथापि उनकी ओर से इसकी ममता दूर नहीं हो रही है। इसका क्या कारण है? बताइये। समझदार होने पर भी हम दोनों का मन मोह से व्याकुल हो गया, यह तो बड़ी भारी मूर्खता है।

ऋषि बोले – राजन्! सनातन शक्तिस्वरूपा जगदम्बा महामाया कही गयी हैं। वे ही सबके मन को खींचकर मोह में डाल देती हैं। प्रभो! उनकी माया से मोहित होने के कारण ब्रह्मा आदि समस्त देवता भी परम तत्त्व को नहीं जान पाते, फिर मनुष्यों की तो बात ही क्या है? वे परमेश्वरी ही रज, सत्त्व और तम – इन तीनों गुणों का आश्रय ले समयानुसार सम्पूर्ण विश्व की सृष्टि, पालन और संहार करती हैं। नृपश्रेष्ठ। जिसके ऊपर वे इच्छानुसार रूप धारण करने वाली वरदायिनी जगदम्बा प्रसन्न होती हैं, वही मोह के घेरे को लाँध पाता है।

राजा ने पूछा – मुने! जो सबको मोहित करती हैं, वे देवी महामाया कौन हैं? और किस प्रकार उनका प्रादुर्भाव हुआ है? यह कृपा करके मुझे बताइये।

ऋषि बोले – जब सारा जगत् एकार्णव के जल में निमग्न था और योगेश्वर भगवान् केशव शेष की शय्या बिछाकर योगनिद्रा का आश्रय ले शयन कर रहे थे, उन्हीं दिनों भगवान् विष्णु के कानों के मल से दो असुर उत्पन्न हुए, जो भूतल पर मधु और कैटभ के नाम से विख्यात हैं। वे दोनों विशालकाय घोर असुर प्रलयकाल के सूर्य की भाँति तेजस्वी थे। उनके जबड़े बहुत बड़े थे। उनके मुख दाढ़ों के कारण ऐसे विकराल दिखायी देते थे, मानो वे सम्पूर्ण जगत् को खा जाने के लिये उद्यत हों। उन दोनों ने भगवान् विष्णु की नाभि से प्रकट हुए कमल के ऊपर विराजमान ब्रह्मा को देखकर पूछा – 'अरे, तू कौन है?' ऐसा कहते हुए वे उन्हें मार डालने के लिये उद्यत हो गये। ब्रह्माजी ने देखा – ये दोनों दैत्य आक्रमण करना चाहते हैं और भगवान् जनार्दन समुद्र के जल में सो रहे हैं, तब उन्होंने परमेश्वरी का स्तवन किया और उनसे प्रार्थाना की – अम्बिके! तुम इन दोनों दुर्जय असुरों को मोहित करो और अजन्मा भगवान् नारायण को जगा दो।'

ऋषि कहते हैं – इस प्रकार मधु और कैटभ के नाश के लिये ब्रह्माजी के प्रार्थना करने पर सम्पूर्ण विद्याओं की अधिदेवी जगज्जननी महाविद्या फाल्गुन शुक्ला द्वादशी को त्रैलोक्य-मोहिनी शक्ति के रूप में प्रकट हो महाकाली के नाम से विख्यात हुईं। तदनन्तर आकाशवाणी हुई – 'कमलासन! डरो मत। आज युद्ध में मधु-कैटभ को मारकर मैं तुम्हारे कण्टक का नाश करूँगी।' यों कहकर वे महामाया श्रीहरि के नेत्र और मुख आदि से निकलकर अव्यक्तजन्मा ब्रह्मा के दृष्टिपथ में आ खड़ी हो गयीं। फिर तो देवाधिदेव हषीकेश जनार्दन जाग उठे। उन्होंने अपने सामने दोनों दैत्य मधु और कैटभ को देखा। उन दैत्यों के साथ अतुल तेजस्वी विष्णु का पाँच हजार वर्षों तक बाहुयुद्ध हुआ। तब महामाया के प्रभाव से मोहित हुए उन श्रेष्ठ दानवों ने लक्ष्मीपति से कहा – 'तुम हम से मनोवांछित वर ग्रहण करो।'

नारायण बोले – यदि तुम लोग प्रसन्न हो तो मेरे हाथ से मारे जाओ। यही मेरा वर है। इसे दो। मैं तुम दोनों से दूसरा वर नहीं माँगता।

ऋषि कहते हैं – उन असुरों ने देखा, सारी पृथ्वी एकार्णव के जल में डूबी हुई है; तब वे केशव से बोले – 'हम दोनों को ऐसी जगह मारो, जहाँ जल से भीगी हुई धरती न हो। 'बहुत अच्छा' कहकर भगवान् विष्णु ने अपना परम तेजस्वी चक्र उठाया और अपनी जाँघ पर उनके मस्तक रखकर काट डाला। राजन्! यह कालिका की उत्पत्ति का प्रसंग कहा गया है। महामते! अब महालक्ष्मी के प्रादर्भाव की कथा सुनो। देवी उमा निर्विकार और निराकार होकर भी देवताओं का दुःख दूर करने के लिये युग-युग में साकार रूप धारण करके प्रकट होती हैं। उनका शरीरग्रहण उनकी इच्छा का वैभव कहा गया है। वे लीला से इसलिये प्रकट होती हैं कि भक्तजन उनके गुणों का गान करते रहें।

(अध्याय २८ - ४५)