सम्पूर्ण देवताओं के तेज से देवी का महालक्ष्मीरूप में अवतार और उनके द्वारा महिषासुर का वध

ऋषि कहते हैं – राजन्! रम्भ नाम से प्रसिद्ध एक असुर था, जो दैत्यवंश का शिरोमणि माना जाता था। उससे महातेजस्वी महिष नामक दानव का जन्म हुआ था। दानवराज महिष समस्त देवताओं को युद्ध में पराजित करके देवराज इन्द्र के सिंहासन पर जा बैठा और स्वर्गलोक में रहकर त्रिलोकी का राज्य करने लगा। तब पराजित हुए देवता ब्रह्माजी की शरण में गये। ब्रह्माजी भी उन सबको साथ ले उस स्थान पर गये, जहाँ भगवान् शिव और विष्णु विराजमान थे। वहाँ पहुँचकर सब देवताओं ने शिव और केशव को नमस्कार किया तथा अपना सब वृत्तान्त यथार्थरूप से ब्योरेवार कह सुनाया। वे बोले – 'भगवन् दुरात्मा महिषासुर ने हम सबको समरांगण में जीतकर स्वर्गलोक से निकाल दिया है। इसलिये हम इस मर्त्यलोक में भटक रहे हैं और कहीं भी हमें शान्ति नहीं मिल रही है। उस असुर ने इन्द्र आदि देवताओं की कौन-कौन-सी दुर्दशा नहीं की है। सूर्य, चन्द्रमा, वरुण, कुबेर, यम, इन्द्र, अग्नि, वायु, गन्धर्व, विद्याधर और चारण – इन सबके तथा अन्य लोगों के भी जो कर्तव्यकर्म हैं, उन सबको वह पापात्मा असुर स्वयं ही करता है। उसने दैत्यपक्ष को अभय-दान कर दिया है। इसलिये हम सब देवता आपकी शरण में आये हैं। आप दोनों हमारी रक्षा करें और उस असुर के वध का उपाय शीघ्र ही सोचें; क्योंकि आप दोनों ऐसा करने में समर्थ हैं।'

देवताओं की यह बात सुनकर भगवान् शिव और विष्णु ने अत्यन्त क्रोध किया। रोष के मारे उनके नेत्र घूमने लगे। तब अत्यन्त क्रोध से भरे हुए भगवान् शिव और विष्णु के मुख से तथा अन्य देवताओं के शरीर से तेज प्रकट हुआ। तेज का वह महान् पुंज अत्यन्त प्रज्जवलित हो दसों दिशाओं में प्रकाशित हो उठा। दुर्गाजी के ध्यान में लगे हुए सब देवताओं ने उस तेज को प्रत्यक्ष देखा। सम्पूर्ण देवताओं के शरीरों से निकला हुआ वह अत्यन्त भीषण तेज एकत्र हो एक नारी के रूप में परिणत हो गया। वह नारी साक्षात् महिषमर्दिनी देवी थीं। उनका प्रकाशमान मुख भगवान् शिव के तेज से प्रकट हुआ था। भुजाएँ विष्णु के तेज से उत्पन्न हुई थीं। केश यमराज के तेज से आविर्भूत हुए थे। उनके दोनों स्तन चन्द्रमा के तेज से प्रकट हुए थे। कटिभाग इन्द्र के तेज से तथा जंघा और ऊरु वरुण के तेज से पैदा हुए थे। पृथ्वी के तेज से नितम्ब का और ब्रह्माजी के तेज से दोनों चरणों का आविर्भाव हुआ था। पैरों की अँगुलियाँ सूर्य के तेज से और हाथ की अँगुलियाँ वसुओं के तेज से उत्पन्न हुई थीं। नासिका कुबेर के, दाँत प्रजापति के, तीनों नेत्र अग्नि के, दोनों भौंहें साध्यगण के, दोनों कान वायु के तथा अन्य देवताओं के तेज से प्रकट हुए थे। इस प्रकार देवताओं के तेज से प्रकट हुई कमलालया लक्ष्मी ही वह परमेश्वरी थीं। सम्पूर्ण देवताओं की तेजोराशि से प्रकट हुई उन देवी को देखकर सब देवताओं को बड़ा हर्ष प्राप्त हुआ। परंतु उनके पास कोई अस्त्र नहीं था। यह देख ब्रह्मा आदि देवेश्वरों ने शिवा देवी को अस्त्र-शस्त्र से सम्पन्न करने का विचार किया। तब महेश्वर ने महेश्वरी को शूल समर्पित किया। भगवान् विष्णु ने चक्र, वरुण ने पाश, अग्निदेव ने शक्ति, वायु देवता ने धनुष तथा बाणों से भरे दो तरकश और शचीपति इन्द्र ने वज्र एवं घण्टा प्रदान किये। यमराज ने कालदण्ड, प्रजापति ने अक्षमाला, ब्रह्मा ने कमण्डलु एवं सूर्यदेव ने समस्त रोमकूपों में अपनी किरणों अर्पित कीं। काल ने उन्हें चमकती हुई ढाल और तलवार दी, क्षीरसागर ने सुन्दर हार तथा कभी पुराने न होनेवाले दो दिव्य वस्त्र भेंट किये। साथ ही उन्होंने दिव्य चूडामणि, दो कुण्डल, बहुत-से कड़े, अर्धचन्द्र, केयूर, मनोहर नूपुर, गले की हँसुली और सब अँगुलियों में पहनने के लिये रत्नों की बनी अँगूठियां भी दीं। विश्वकर्मा ने उन्हें मनोहर फरसा भेंट किया। साथ ही अनेक प्रकार के अस्त्र और अभेद्य कवच दिये। समुद्र ने सदा सुरम्य एवं सरस रहनेवाली माला दी और एक कमल का फूल भेंट किया। हिमवान् ने सवारी के लिये सिंह तथा आभूषण के लिये नाना प्रकार के रत्न दिये। कुबेर ने उन्हें मधु से भरा पात्र अर्पित किया तथा सर्पों के नेता शेषनाग ने विचित्र रचनाकौशल से सुशोभित एक नागहार भेंट किया, जिसमें नाना प्रकार की सुन्दर मणियाँ गूँथी हुई थीं। इन सबने तथा दूसरे देवताओं ने भी आभूषण और अस्त्र-शस्त्र देकर देवी का सम्मान किया। तत्पश्चात् उन्होंने बारंबार अट्टहास करके उच्चस्वर से गर्जना की। उनके उस भयंकर नाद से सम्पूर्ण आकाश गूँज उठा। उससे बड़े जोर की प्रतिध्वनि हुई, जिससे तीनों लोकों में हलचल मच गयी। चोरों समुद्रों ने अपनी मर्यादा छोड़ दी। पृथ्वी डोलने लगी। उस समय महिषासुर से पीड़ित हुए देवताओं ने देवी की जय-जयकार की।

तदनन्तर सब देवताओं ने उन महालक्ष्मीस्वरूपा पराशक्ति जगदम्बा का भक्ति-गद्गद वाणी द्वारा स्तवन किया। सम्पूर्ण त्रिलोकी को क्षोभग्रस्त देख देववैरी दैत्य अपनी समस्त सेना को कवच आदि से सुसज्जित कर हाथों में हथियार ले सहसा उठ खड़े हुए। रोष से भरा हुआ महिषासुर भी उस शब्द की ओर लक्ष्य करके दौड़ा और आगे पहुँचकर उसने देवी को देखा, जो अपनी प्रभा से तीनों लोकों को प्रकाशित कर रही थीं। इस समय महिषासुर के द्वारा पालित करोड़ों शस्त्रधारी महावीर वहाँ आ पहुँचे। चिक्षुर, चामर, उदग्र, कराल, उद्धत, बाष्कल, ताम्र, उग्रास्य, उग्रवीर्य, बिडाल, अन्धक, दुर्धर, दुर्मुख, त्रिनेत्र और महाहनु – ये तथा अन्य बहुत-से युद्धकुशल शूरवीर समरांगण में देवी के साथ युद्ध करने लगे। वे सब-के-सब अस्त्र-शस्त्रों की विद्या में पारंगत थे। इस प्रकार देवी और दैत्यगण दोनों परस्पर जूझने लगे। उनका वह भीषण समय मार-काट में ही बीतने लगा। इस तरह भयानक युद्ध होने के बाद महिषासुर देवी के साथ मायायुद्ध करने लगा।

तब देवी ने कहा – रे मूढ़! तेरी बुद्धि मारी गयी है। तू व्यर्थ हठ क्यों करता है? तीनों लोकों में कोई भी असुर युद्ध में मेरे सामने टिक नहीं सकते।

यों कहकर सर्वकलामयी देवी कूदकर महिषासुर पर चढ़ गयीं और अपने पैर से उसे दबाकर उन्होंने भयंकर शूल से उसके कण्ठ में आघात किया। उनके पैर से दबा होने पर भी महिषासुर अपने मुख से दूसरे रूप में बाहर निकलने लगा। अभी आधे शरीर से ही वह बाहर निकलने पाया था कि देवी ने अपने प्रभाव से उसे रोक दिया। आधा निकला होने पर भी वह महा-अधम दैत्य देवी के साथ युद्ध करने लगा। तब देवी ने बहुत बड़ी तलवार से उसका सिर काटकर उस असुर को धराशायी कर दिया। फिर तो उसके सैनिक-गण 'हाय! हाय!' करके नीचे मुख किये भयभीत हो रणभूमि से भागने और त्राहि-त्राहि की पुकार करने लगे। उस समय इन्द्र आदि सब देवताओं ने देवी की स्तुति की। गन्धर्व गीत गाने लगे और अप्सराएँ नृत्य करने लगीं। राजन्! इस प्रकार मैंने तुमसे देवी के महालक्ष्मी-अवतार की कथा कही है। अब तुम सुस्थिर-चित्त से सरस्वती के प्रादर्भाव का प्रसंग सुनो।

(अध्याय ४६)