देवी उमा के शरीर से सरस्वती का आविर्भाव, उनके रूप की प्रशंसा सुनकर शुम्भ का उनके पास दूत भेजना, दूत के निराश लौटने पर शुम्भ का क्रमशः धूम्रलोचन, चण्ड, मुण्ड तथा रक्तबीज को भेजना और देवी के द्वारा उन सबका मारा जाना

ऋषि कहते हैं – पूर्वकाल में शुम्भ और निशुम्भ नाम के दो प्रतापी दैत्य थे, जो आपस में भाई-भाई थे। उन दोनों ने चराचर प्राणियों सहित समस्त त्रिलोकी के राज्य पर बलपूर्वक आक्रमण किया। उनसे पीड़ित हुए देवताओं ने हिमालय पर्वत की शरण ली और सम्पूर्ण अभीष्टों को देने वाली सर्वभूतजननी देवी उमा का स्तवन किया।

देवता बोले – महेश्वारि दुर्गे! आपकी जय हो। अपने भक्तजनों का प्रिय करने वाली देवि! आपकी जय हो। आप तीनों लोकों की रक्षा करने वाली शिवा हैं। आपको बारंबार नमस्कार है। आप ही मोक्ष प्रदान करने वाली परा अम्बा हैं। आपको बारंबार नमस्कार है। आप समस्त संसार की उत्पत्ति, स्थिति और संहार करने वाली हैं। आपको नमस्कार है। कालिका और तारा रूप धारण करने वाली देवि! आपको नमस्कार है। छिननमस्ता आपका ही स्वरूप है। आप ही श्रीविद्या हैं। आपको नमस्कार है। भुवनेश्वरि! आपको नमस्कार है। भैरवरूपिणि! आपको नमस्कार है। आप ही बगलामुखी और धूमावती हैं। आपको बारंबार नमस्कार है। आप ही त्रिपुरसुन्दरी और मातंगी हैं। आपको बारंबार नमस्कार है। अजिता, विजया, जया, मंगला और विलासिनी – ये सभी आपके ही विभिन्न रूपों की संज्ञाएँ हैं। इन सभी रूपो में आपको नमस्कार है। दोग्ध्री (माता अथवा कामधेनु) रूप में आपको नमस्कार है। घोर आकार धारण करने वाली आपको नमस्कार है। अपराजिता रूप में आपको प्रणाम है। नित्या महाविद्या के रूप में आपको बारंबार नमस्कार है। आप ही शरणागतों का पालन करने वाली रुद्राणी हैं। आपको बारंबार नमस्कार है। वेदान्त के द्वारा आपके ही स्वरूप का बोध होता है। आपको नमस्कार है। आप परमात्मा हैं। आपको मेरा प्रणाम है। अनन्त कोटि ब्रह्माण्डों का संचालन करने वाली आप जगदम्बा को बारंबार नमस्कार है।

देवताओं के इस प्रकार स्तुति करने पर वरदायिनी एवं कल्याणरूपिणी गौरी देवी बहुत प्रसन्न हुईं। उन्होंने समस्त देवताओं से पूछा – 'आप लोग यहाँ किसकी स्तुति करते हैं?' तब उन्हीं गौरी के शरीर से एक कुमारी प्रकट हुई। वह सब देवताओं के देखते-देखते शिवशक्ति से आदरपूर्वक बोली – 'माँ! ये समस्त स्वर्गवासी देवता निशुम्भ और शुम्भ नामक प्रबल दैत्यों से अत्यन्त पीड़ित हो अपनी रक्षा के लिये मेरी स्तुति करते हैं।' पार्वती के शरीर कोश से वह कुमारी निकली थी, इसलिये कौशिकी नाम से प्रसिद्ध हुई। कौशिकी ही साक्षात् शुम्भासुर का नाश करने वाली सरस्वती हैं। उन्हीं को उग्रतारा और महोग्रतारा भी कहा गया है। माता के शरीर से स्वतः प्रकट होने के कारण वे इस भूतल पर मातंगी भी कहलाती हैं। उन्होंने समस्त देवताओं से कहा – 'तुम लोग निर्भय रहो। मैं स्वतन्त्र हूँ। अतः किसी का सहारा लिये बिना ही तुम्हारा कार्य सिद्ध कर दूँगी।' ऐसा कहकर वे देवी तत्काल वहाँ अदृश्य हो गयीं।

एक दिन शुम्भ और निशुम्भ के सेवक चण्ड और मण्ड ने देवी को देखा। उनका मनोहर रूप नेत्रों को सुख प्रदान करनेवाला था। उसे देखते ही वे मोहित हो सुध-बुध खोकर पृथ्वी पर गिर पड़े, फिर होश में आने पर वे अपने राजा के पास गये और आरम्भ से ही सारा वृत्तान्त बताकर बोले – 'महाराज! हम दोनों ने एक अपूर्व सुन्दरी नारी देखी है, जो हिमालय के रमणीय शिखर पर रहती है और सिंह पर सवारी करती है।' चण्ड-मुण्ड की यह बात सुनकर महान् असुर शुम्भ ने देवी के पास सुग्रीव नामक अपना दूत भेजा और कहा – 'दूत! हिमालय पर कोई अपूर्व सुन्दरी रहती है। तुम वहाँ जाओ और उससे मेरा संदेश कहकर उसे प्रयत्नपूर्वक यहाँ ले आओ।' यह आज्ञा पाकर दानवशिरोमणि सुग्रीव हिमालय पर गया और जगदम्बा महेश्वरी से इस प्रकार बोला।

दूत ने कहा – देवि! दैत्य शुम्भासुर अपने महान् बल और विक्रम के लिये तीनों लोकों में विख्यात है। उसका छोटा भाई निशुम्भ भी वैसा ही है। शुम्भ ने मुझे तुम्हारे पास दूत बनाकर भेजा है। इसलिये मैं यहाँ आया हूँ। सुरेश्वरि! उसने जो संदेश दिया है, उसे इस समय सुनो! 'मैंने समरांगण में इन्द्र आदि देवताओं को जीतकर उनके समस्त रत्नों का अपहरण कर लिया है। यज्ञ में देवता आदि के दिये हुए देवभाग का मैं स्वयं ही उपभोग करता हूँ। मैं मानता हूँ कि तुम स्त्रियों में रत्न हो, सब रत्नों के ऊपर स्थित हो। इसलिये तुम कामजनित रस के साथ मुझको अथवा मेरे भाई को अंगीकार करो।'

दूत के मुँह से शुम्भ का यह संदेश सुनकर भूतनाथ भगवान् शिव को प्राणवल्लभा महामाया ने इस प्रकार कहा।

देवी बोलीं – दूत! तुम सच कहते हो। तुम्होरे कथन में थोड़ा-सा भी असत्य नहीं है। परंतु मैंने पहले से एक प्रतिज्ञा कर ली है; उसे सुनो। जो मेरा घमंड चूर कर दे, जो मुझे युद्ध में जीत ले, उसी को मैं पति बना सकती हूँ, दूसरे को नहीं। यह मेरी अटल प्रतिज्ञा है। इसलिये तुम शुम्भ और निशुम्भ को मेरी यह प्रतिज्ञा बता दो। फिर इस विषय में जैसा उचित हो, वैसा वे करें।

देवी की यह बात सुनकर दानव सुग्रीव लौट गया। वहाँ जाकर उसने विस्तारपूर्वक राजा को सब बातें बतायीं। दूत की बात सुनकर उग्र शासन करनेवाला शुम्भ कुपित हो उठा और बलवानों में श्रेष्ठ सनापति धूम्राक्ष से बोला – धूम्राक्ष! हिमालय पर कोई सुन्दरी रहती है। तुम शीघ्र वहाँ जाकर जैसे भी वह यहाँ आये, उसी तरह उसे ले आओ। असुरप्रवर! उसे लाने में तुम्हें भय नहीं मानना चाहिये। यदि वह युद्ध करना चाहे तो तुम्हें प्रयत्नपूर्वक उसके साथ युद्ध भी करना चाहिये।'

शुम्भ की ऐसी आज्ञा पाकर दैत्य धूम्रलोचन हिमालय पर गया और उमा के अंश से प्रकट हुई भगवती भुवनेश्वरी से कहा – 'नितम्बिनि! मेरे स्वामी के पास चलो, नहीं तो तुम्हें मरवा डालूँगा। मेरे साथ साठ हजार असुरों की सेना है।'

देवी बोलीं – वीर! तुम्हें दैत्यराज ने भेजा है। यदि मुझे मार ही डालोगे तो क्या करूँगी। परंतु युद्ध के बिना मेरा वहाँ जाना असम्भव है। मेरी ऐसी ही मान्यता है।

देवी के ऐसा कहने पर दानव धूम्रलोचन उन्हें पकड़ने के लिये दौड़ा। परंतु महेश्वरी ने 'हूं' के उच्चारण मात्र से उसको भस्म कर दिया। तभी से वे देवी इस भूतल पर धूमावती कहलाने लगीं। उनकी आराधना करने पर वे अपने भक्तों के शत्रुओं का संहार कर डालती हैं। धूम्राक्ष के मारे जाने पर अत्यन्त कुपित हुए देवी के वाहन सिंह ने उसके साथ आये हुए समस्त असुरगणों को चबा डाला। जो मरने से बचे, वे भाग खड़े हुए। इस प्रकार देवी ने दैत्य धूम्रलोचन को मार डाला। इस समाचार को सुनकर प्रतापी शुम्भ ने बड़ा क्रोध किया। वह अपने दोनों ओठों को दाँतों से दबाकर रह गया। उसने क्रमशः चण्ड, मुण्ड तथा रक्तबीज नामक असुरों को भेजा। आज्ञा पाकर वे दैत्य उस स्थान पर गये, जहाँ देवी विराजमान थीं। अणिमा आदि सिद्धियों से सेवित तथा अपनी प्रभा से सम्पूर्ण दिशाओं को प्रकाशित करती हुई भगवती सिंहवाहिनी को देखकर वे श्रेष्ठ दानव वीर बोले – 'देवि! तुम शीघ्र ही शुम्भ और निशुम्भ के पास चलो, अन्यथा तुम्हें गण और वाहन सहित मरवा डालेंगे। वामे! शुम्भ को अपना पति बना लो। लोकपाल आदि भी उनकी स्तुति करते हैं। शुम्भ को पति बना लेने पर तुम्हें उस महान् आनन्द की प्राप्ति होगी, जो देवताओं के लिये भी दुर्लभ है।'

उनकी ऐसी बात सुनकर परमेश्वरी अम्बा मुसकराकर सरस मधुर वाणी में बोलीं।

देवी ने कहा – अद्वितीय महेश्वर परब्रह्म परमात्मा सर्वत्र विराजमान हैं, जो सदाशिव कहलाते हैं। वेद भी उनके तत्त्व को नहीं जानते, फिर विष्णु आदि की तो बात ही क्या है। उन्हीं सदाशिव की मैं सूक्ष्म प्रकृति हूँ। फिर दूसरे को पति कैसे बना सकती हूँ। सिंहिनी कितनी ही कामातुर क्यों न हो जाय, वह गीदड़ को कभी अपना पति नहीं बनायेगी। हथिनी गदहे को और बाघिन खरगोश को नहीं वरेगी। दैत्यो! तुम सब लोग झूठ बोलते हो; क्योंकि कालरूपी सर्प के फंदे में फँसे हुए हो। तुम या तो पाताल को लौट जाओ या शक्ति हो तो युद्ध करो।

देवी का यह क्रोध पैदा करनेवाला वचन सुनकर वे दैत्य बोले – 'हम लोग अपने मन में तुम्हें अबला समझकर मार नहीं रहे थे। परंतु यदि तुम्हारे मन में युद्ध की ही इच्छा है तो सिंह पर सुस्थिर होकर बैठ जाओ और युद्ध के लिये आगे बढ़ो।' इस तरह वाद-विवाद करते हुए उनमें कलह बढ़ गया और समरांगण में दोनों दलों पर तीखे बाणों की वर्षा होने लगी। इस तरह उनके साथ लीलापूर्वक युद्ध करके परमेश्वरी ने चण्ड-मुण्ड सहित महान् असुर रक्तबीज को मार डाला। वे देववैरी असुर द्वेष बुद्धि करके आये थे, तो भी अन्त में उन्हें उस उत्तम लोक की प्राप्ति हुई, जिसमें देवी के भक्त जाते हैं।

(अध्याय ४७)