देवी के द्वारा सेना और सेनापतियों सहित निशुम्भ एवं शुम्भ का संहार

ऋषि कहते हैं – राजन्! प्रशंसनीय पराक्रमशाली महान् असुर शुम्भ ने इन श्रेष्ठ दैत्यों का मारा जाना सुनकर अपने उन दुर्जय गणों को युद्ध के लिये जाने की आज्ञा दी, जो संग्राम का नाम सुनते ही हर्ष से खिल उठते थे। उसने कहा – 'आज मेरी आज्ञा से कालक, कालकेय, मौर्य, दौर्हृद तथा अन्य असुरगण बड़ी भारी सेना के साथ संगठित हो विजय की आशा रखकर शीध्र युद्ध के लिये प्रस्थान करें।' निशुम्भ और शुम्भ दोनों भाई उन दैत्यों को पूर्वोक्त आदेश देकर रथ पर आरूढ़ हो स्वयं भी नगर से बाहर निकले। उन महाबली वीरों की आज्ञा से उनकी सेनाएँ उसी तरह युद्ध के लिये आगे बढ़ीं, मानो मरणोन्मुख पतंग आग में कूदने के लिये उठ खड़े हुए हों। उस समय असुरराज ने युद्धस्थल में मृदंग, मर्दल, भेरी, डिण्डिम, झाँझ और ढोल आदि बाजे बजवाये। उन जुझाऊ बाजों की आवाज सुनकर युद्धप्रेमी वीर हर्ष एवं उत्साह से भर गये; परंतु जिन्हें अपने प्राण ही अधिक प्यारे थे, वे उस रणभूमि से भाग चले। युद्धसम्बन्धी वस्त्रों तथा कवच आदि से आच्छादित अंगवाले वे योद्धा विजय की अभिलाषा से अस्त्र-शस्त्र धारण किये युद्धस्थल में आ पहुँचे। कितने ही सैनिक हाथियों पर सवार थे, बहुत-से दैत्य घोड़ों की पीठ पर बैठे थे और अन्य असुर रथों पर चढ़कर जा रहे थे। उस समय उन्हें अपने-पराये की पहचान नहीं होती थी। उन्होंने असुरराज के साथ समरांगण में पहुँचकर सब ओर से युद्ध आरम्भ कर दिया। बारंबार शतघ्नी (तोप) की आवाज होने लगी, जिसे सुनकर देवता काँप उठे। धूल और धुएँ से आकाश में महान् अन्धकार छा गया। सूर्य का रथ नहीं दिखायी देता था। अत्यन्त अभिमानी करोड़ों पैदल योद्धा विजय की अभिलाषा लिये युद्धस्थल में आकर डट गये थे। घुड़सवार, हाथीसवार तथा अन्य रथारूढ़ असुर भी बड़ी प्रसन्नता के साथ करोड़ों की संख्या में वहाँ आये थे। उस महासमर में काले पर्वतों के समान विशाल मदमत्त गजराज जोर-जोर से चिग्घाड़ रहे थे, छोटे-छोटे शैल-शिखरों के समान ऊँट भी अपने गले से गल्गल् ध्वनि का विस्तार करने लगे। अच्छी भूमि में उत्पन्न हुए घोड़े गले में विशाल कण्ठहार धारण किये जोर-जोर से हिनहिना रहे थे। वे अनेक प्रकार की चालें जानते थे और हाथियों के मस्तक पर पैर रखते हुए आकाशमार्ग से पक्षियों की भाँति उड़ जाते थे। शत्रु की ऐसी सेना को आक्रमण करती देख जगदम्बा ने अपने धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ायी। साथ ही शत्रुओं को हतोत्साह करनेवाले घंटे को भी बजाया। यह देख सिंह भी अपनी गर्दन और मस्तक के केशों को कँपाता हुआ जोर-जोर से गर्जना करने लगा।

उस समय हिमालय पर्वत पर खड़ी हुई रमणीय आभूषणों और अस्त्रों से सुशोभित शिवा देवी की ओर देखकर निशुम्भ विलासिनी रमणियों के मनोभाव को समझने में निपुण पुरुष की भाँति सरस वाणी में बोला – 'महेश्वरि! तुम-जैसी सुन्दरियों के रमणीय शरीर पर मालती के फूल का एक दल भी डाल दिया जाय तो वह व्यथा उत्पन्न कर देता है। ऐसे मनोहर शरीर से तुम विकराल युद्ध का विस्तार कैसे कर रही हो?' यह बात कहकर वह महान् असुर चुप हो गया। तब चण्डिका देवी ने कहा – 'मूढ़ असुर! व्यर्थ की बातें क्यों बकता है? युद्ध कर, अन्यथा पाताल को चला जा।' यह सुनकर वह महारथी वीर अत्यन्त रुष्ट हो समरभूमि में बाणों की अद्भुत वृष्टि करने लगा, मानो बादल जल की धारा बरसा रहे हों। उस समय उस रणक्षेत्र में वर्षा-ऋतु का आगमन हुआ-सा जान पड़ता था। मद से उद्धत हुआ वह असुर तीखे बाण, शूल, फरसे, भिन्दिपाल, परिघ, धनुष, भुशुण्डि, प्रास, क्षुरप्र तथा बड़ी-बड़ी तलवारों से युद्ध करने लगा। काले पर्वतों के समान बड़े-बड़े गजराज कुम्भस्थल विदीर्ण हो जाने के कारण समरांगण में चक्कर काटने लगे। उनकी पीठ पर फहराती हुई शुम्भ-निशुम्भ की पताकाएँ, जो उड़ती हुई बलाकाओं (बगुलों) की पंक्तियों के समान श्वेत दिखायी देती थीं, अपने स्थान से खण्डित होकर नीचे गिरने लगीं। क्षत-विक्षत शरीरवाले दैत्य पृथ्वी पर गिरकर मछलियों के समान तड़प रहे थे। गर्दन कट जाने के कारण घोड़ों के समूह बड़े भयंकर दिखायी देते थे। कालिका ने कितने ही दैत्यों को मौत के घाट उतार दिया तथा देवी के वाहन सिंह ने अन्य बहुत-से असुरों को अपना आहार बना लिया। उस समय दैत्यों के मारे जाने से उस रणभूमि में रक्त की धारा बहानेवाली कितनी ही नदियाँ बह चलीं। सैनिकों के केश पानी में सेवार की भाँति दिखायी देते थे और उनकी चादरें सफेद फेन का भ्रम उत्पन्न करती थीं।

इस तरह घोर युद्ध होने तथा राक्षसों का महान् संहार हो जाने के पश्चात् देवी अम्बिका ने विष में बुझे हुए तीखे बाणों द्वारा निशुम्भ को मारकर धराशायी कर दिया। अपने असीम शक्तिशाली छोटे भाई के मारे जाने पर शुम्भ रोष से भर गया और रथ पर बैठकर आठ भुजाओं से युक्त हो महेश्वरप्रिया अम्बिका के पास गया। उसने जोर-जोर से शंख बजाया और शत्रुओं का दमन करनेवाले धनुष की दुस्सह टंकारध्वनि की तथा देवी का सिंह भी अपने अयालों को हिलाता हुआ दहाड़ने लगा। इन तीन प्रकार की ध्वनियों से आकाशमण्डल गूँज उठा।

तदनन्तर जगदम्बा ने अट्टहास किया, जिससे समस्त असुर संत्रस्त हो उठे। जब देवी ने शुम्भ से कहा कि 'तुम युद्ध में स्थिरतापूर्वक खड़े रहो' तब देवता बोल उठे – 'जय हो, जय हो जगदम्बा की।' इस समय दैत्यराज शुम्भ ने बड़ी भारी शक्ति छोड़ी, जिसकी शिखा से आग की ज्वाला निकल रही थी। परंतु देवी ने एक उल्का के द्वारा उसे मार गिराया। शुम्भ के चलाये हुए बाणों के देवी ने और देवी के चलाये हुए बाणों के शुम्भ ने सहस्त्रों टुकड़े कर दिये। तत्पश्चात् चण्डिका ने त्रिशूल उठाकर उस महान् असुर पर आघात किया। त्रिशूल की चोट से मूर्च्छित हो वह इन्द्र के द्वारा पंख काट दिये जाने पर गिरनेवाले पर्वत को भाँति आकाश, पृथ्वी तथा समुद्र को कम्पित करता हुआ धरती पर गिर पड़ा। तदनन्तर शूल के आघात से होने वाली व्यथा को सहकर उस महाबली असुर ने दस हजार बाँहें धारण कर लीं और देवताओं का भी नाश करने में समर्थ चक्रों द्वारा सिंह सहित महेश्वरी शिवा पर आघात करना आरम्भ किया। उसके चलाये हुए चक्रों को खेल-खेल में ही विदीर्ण करके देवी ने त्रिशूल उठाया और उस असुर पर घातक प्रहार किया। शिवा के लोकपावन पाणिपंकज से मृत्यु को प्राप्त होकर वे दोनों असुर परम पद के भागी हुए।

उस महा पराक्रमी निशुम्भ और भयानक बलशाली शुम्भ के मारे जाने पर समस्त दैत्य पाताल में घुस गये, अन्य बहुत-से असुरों को काली और सिंह आदि ने खा लिया तथा शेष दैत्य भय से व्याकुल हो दसों दिशाओं में भाग गये। नदियों का जल स्वच्छ हो गया। वे ठीक मार्ग से बहने लगीं। मन्द-मन्द वायु बहने लगी, जिसका स्पर्श सुखद प्रतीत होता था; आकाश निर्मल हो गया। देवताओं और ब्रह्मर्षियों ने फिर यज्ञ-यागादि आरम्भ कर दिये। इन्द्र आदि सब देवता सुखी हो गये। प्रभो! दैत्यराज के वध-प्रसंग से युक्त इस परम पवित्र उमाचरित्र का जो श्रद्धापूर्वक बारंबार श्रवण या पाठ करता है, वह इस लोक में देव-दुर्लभ भोगों का उपभोग करके परलोक में महामाया के प्रसाद से उमाधाम को जाता है। राजन्! इस प्रकार शुम्भासुर का संहार करने वाली देवी सरस्वती के चरित्र का वर्णन किया गया, जो साक्षात् उमा के अंश से प्रकट हुई थीं।

(अध्याय ४८)