देवताओं का गर्व दूर करने के लिये तेजः पुंजरूपिणी उमा का प्रादुर्भाव

मुनियों ने कहा – सम्पूर्ण पदार्थों के पूर्ण ज्ञाता सूतजी! भुवनेश्वरी उमा के, जिनसे सरस्वती प्रकट हुईं थीं, अवतार का पुनः वर्णन कीजिये। वे देवी परब्रह्म, मूलप्रकृति, ईश्वरी, निराकार होती हुई भी साकार तथा नित्यानन्दमयी सती कही जाती हैं।

सूतजी ने कहा – तपस्वी मुनियो! आप लोग देवी के उत्तम एवं महान् चरित्र को प्रेमपूर्वक सुनें, जिसके जानने मात्र से मनुष्य परम गति को प्राप्त होता है। एक समय देवताओं और दानवों में परस्पर युद्ध हुआ। उसमें महामाया के प्रभाव से देवताओं की जीत हो गयी। इससे देवताओं को अपनी शूरवीरता पर बड़ा गर्व हुआ। वे आत्म-प्रशंसा करते हुए इस बात का प्रचार करने लगे कि 'हम लोग धन्य हैं, धन्यवाद के योग्य हैं। असुर हमारा क्या कर लेंगे। वे हम लोगों का अत्यन्त दुस्सह प्रभाव देखकर भयभीत हो 'भाग चलो! भाग चलो!' कहते हुए पाताललोक में घुस गये। हमारा बल अद्भुत है! हम में आश्चर्यजनक तेज है। हमारा बल और तेज दैत्यकुल का विनाश करने में समर्थ है! अहो! देवताओं का कैसा सौभाग्य है।' इस प्रकार वे जहाँ-तहाँ डींग हाँकने लगे।

तदनन्तर उसी समय उनके समक्ष तेज का एक महान् पुंज प्रकट हुआ, जो पहले कभी देखने में नहीं आया था। उसे देखकर सब देवता विस्मय से भर गये। वे रुँधे हुए गले से परस्पर पूछने लगे – 'यह क्या है? यह क्या है?' उन्हें यह पता नहीं था कि यह शयामा (भगवती उमा) का उत्कृष्ट प्रभाव है, जो देवताओं का अभिमान चूर्ण करनेवाला है।

उस समय देवराज इन्द्र ने देवताओं को आज्ञा दी – 'तुम लोग जाओ और यशथार्थ रूप से परीक्षा करो कि यह कौन है।' देवेन्द्र के भेजने से वायुदेव उस तेजःपुंज के निकट गये। तब उस तेजोराशि ने उन्हें सम्बोधित करके पूछा – 'अजी! तुम कौन हो?' उस महान् तेज के इस प्रकार पूछने पर वायुदेवता अभिमानपूर्वक बोले – 'मैं वायु हूँ, सम्पूर्ण जगत् का प्राण हूँ; मुझ सर्वाधार परमेश्वर में ही यह स्थावर-जंगमरूप सारा जगत् ओतप्रोत है। में ही समस्त विश्व का संचालन करता हूँ।' तब उस महातेज ने कहा – 'वायो! यदि तुम जगत् के संचालन में समर्थ हो तो यह तृण रखा हुआ है। इसे अपनी इच्छा के अनुसार चलाओ तो सही।' तब वायुदेवता ने सभी उपाय करके अपनी सारी शक्ति लगा दी। परंतु वह तिनका अपने स्थान से तिलभर भी न हटा। इससे वायुदेव लज्जित हो गये। वे चुप हो इन्द्र की सभा में लौट गये और अपनी पराजय के साथ वहाँ का सारा वृत्तान्त उन्होंने सुनाया। वे बोले – देवेन्द्र! हम सब लोग झूठे ही अपने में सर्वेश्वर होने का अभिमान रखते हैं; क्योंकि किसी छोटी-सी वस्तु का भी हम कुछ नहीं कर सकते।' तब इन्द्र ने बारी-बारी से समस्त देवताओं को भेजा। जब वे उसे जानने में समर्थ न हो सके, तब इन्द्र स्वयं गये। इन्द्र को आते देख वह अत्यन्त दुस्सह तेज तत्काल अदृश्य हो गया। इससे इन्द्र बड़े विस्मित हुए और मन-ही-मन बोले – जिसका ऐसा चरित्र है, उसी सर्वेश्वर की मैं शरण लेता हूँ।' सहस्त्र नेत्रधारी इन्द्र बारंबार इसी भाव का चिन्तन करने लगे। इसी समय निश्छल करुणामय शरीर धारण करने वाली सच्चिदानन्द स्वरूपिणी शिवप्रिया उमा उन देवताओं पर दया करने और उनका गर्व हरने के लिये चैत्रशुक्ला नवमी को दोपहर में वहाँ प्रकट हुईं। वे उस तेजःपुंज के बीच में विराज रही थीं, अपनी कान्ति से दसों दिशाओं को प्रकाशित कर रही थीं और समस्त देवताओं को सुस्पष्ट रूप से यह जता रही थीं कि 'मैं साक्षात् परब्रह्म परमात्मा ही हूँ।' वे चार हाथों में क्रमशः वर, पाश, अंकुश और अभय धारण किये थीं। श्रुतियाँ साकार होकर उनकी सेवा करती थीं। वे बड़ी रमणीय दीखती थीं तथा अपने नूतन यौवन पर उन्हें गर्व था। वे लाल रंग की साड़ी पहने हुए थीं। लाल फूलों की माला तथा लाल चन्दन से उनका श्रृंगार, किया गया था। वे कोटि-कोटि कन्दर्पों के समान मनोहारिणी तथा करोड़ों चन्द्रमाओं के समान चटकीली चाँदनी से सुशोभित थीं। सबकी अन्तर्यामिणी, समस्त भूतों की साक्षिणी तथा परब्रह्मस्वरूपिणी उन महामाया ने इस प्रकार कहा।

उमा बोलीं – मैं ही परब्रह्म, परम ज्योति, प्रणवरूपिणी तथा युगलरूपधारिणी हूँ। मैं ही सब कुछ हूँ। मुझसे भिन्न कोई पदार्थ नहीं है। में निराकार होकर भी साकार हूँ, सर्वतत्त्व-स्वरूपिणी हूँ। मेरे गुण अतर्क्य हैं। मैं नित्यस्वरूपा तथा कार्यकारणरूपिणी हूँ। मैं ही कभी प्राणबल्लभा का आकार धारण करती हूँ और कभी प्राणवल्लभ पुरुष का। कभी स्त्री और पुरुष दोनों रूपों में एक साथ प्रकट होती हूँ (यही मेरा अर्धनारीशवर रूप है)। मैं सर्वरूपिणी ईश्वरी हूँ, मैं ही सृष्टिकर्ता ब्रह्मा हूँ। मैं ही जगत्पालक विष्णु हूँ तथा मैं ही संहारकर्ता रुद्र हूँ। सम्पूर्ण विश्व को मोह में डालनेवाली महामाया मैं ही हूँ। काली, लक्ष्मी और सरस्वती आदि सम्पूर्ण शक्तियाँ तथा ये सकल कलाएँ मेरे अंश से ही प्रकट हुई हैं। मेरे ही प्रभाव से तुम लोगों ने सम्पूर्ण दैत्यों पर विजय पायी है। मुझ सर्वविजयिनी को न जानकर तुम लोग व्यर्थ ही अपने को सर्वेश्वर मान रहे हो। जैसे इन्द्रजाल करनेवाला सूत्रधार कठपुतली को नचाता है, उसी प्रकार मैं ईश्वरी ही समस्त प्राणियों को नचाती हूँ। मेरे भय से हवा चलती है, मेरे भय से ही अग्निदेव सबको जलाते हैं तथा मेरा भय मानकर ही लोकपालगण निरन्तर अपने-अपने कर्मों में लगे रहते हैं। मैं सर्वथा स्वतन्त्र हूँ और अपनी लीला से ही कभी देवसमुदाय को विजयी बनाती हूँ तथा कभी दैत्यों को। माया से परे जिस अविनाशी परात्पर धाम का श्रुतियाँ वर्णन करती हैं, वह मेरा ही रूप है। सगुण और निर्गुण – ये मेरे दो प्रकार के रूप माने गये हैं। इनमें से प्रथम तो मायायुक्त है और दूसरा मायारहित। देवताओं! ऐसा जानकर गर्व छोड़ो और मुझ सनातनी प्रकृति की प्रेमपूर्वक आराधना करो।

देवी का यह करुणायुक्त वचन सुन देवता भक्तिभाव से मस्तक झुकाकर उन परमेश्वरी की स्तुति करने लगे – 'जगदीशवरि! क्षमा करो। परमेश्वरि! प्रसन्न होओ। मातः! ऐसी कृपा करो, जिससे फिर कभी हमें गर्व न हो।'

तबसे सब देवता गर्व छोड़ एकाग्रचित्त हो पूर्ववत् विधिपूर्वक उमादेवी की आराधना करने लगे। ब्राह्मणो! इस प्रकार मैंने तुमसे उमा के प्रादुर्भाव का वर्णन किया है, जिसके श्रवण मात्र से परमपद की प्राप्ति होती है।

(अध्याय ४९)