देवी के द्वारा दुर्गमासुर का वध तथा उनके दुर्गा, शताक्षी, शाकम्भरी और भ्रामरी आदि नाम पड़ने का कारण
मुनियों ने कहा – महाप्राज्ञ सूतजी! हम सब लोग प्रतिदिन दुर्गाजी का चरित्र सुनना चाहते हैं। अतः आप और किसी अद्धुत लीलातत्त्व का हमारे समक्ष वर्णन कीजिये। सर्वज्ञशिरोमणे सूत! आपके मुखारविन्द से नाना प्रकार की सुधासदृश मधुर कथाएँ सुनते-सुनते हमारा मन कभी तृप्त नहीं होता।
सूतजी बोले – मुनियो! दुर्गम नाम से विख्यात एक असुर था, जो रुरु का महाबलवान् पुत्र था। उसने ब्रह्माजी के वरदान से चारों वेदों को अपने हाथ में कर लिया था तथा देवताओं के लिये अजेय बल पाकर उसने भूतल पर बहुत-से ऐसे उत्पात किये, जिन्हें सुनकर देवलोक में देवता भी कम्पित हो उठे। वेदों के अदृश्य हो जाने पर सारी वैदिक क्रिया नष्ट हो चली। उस समय ब्राह्मण और देवता भी दुराचारी हो गये। न कहीं दान होता था, न अत्यन्त उग्र तप किया जाता था; न यज्ञ होता था और न होम ही किया जाता था। इसका परिणाम यह हुआ कि पृथ्वी पर सौ वर्षों तक के लिये वर्षा बंद हो गयी। तीनों लोकों में हाहाकार मच गया। सब लोग दुःखी हो गये। सबको भूख प्यास का महान् कष्ट सताने लगा। कुँआ, बावड़ी, सरोवर, सरिताएँ और समुद्र भी जल से रहित हो गये। समस्त वृक्ष और लताएँ भी सूख गयीं। इससे समस्त प्रजाओं के चित्त में बड़ी दीनता आ गयी। उनके महान् दुःख को देखकर सब देवता महेश्वरी योगमाया की शरण में गये।
देवताओं ने कहा – महामाये! अपनी सारी प्रजा की रक्षा करो, रक्षा करो। अपने क्रोध को रोको, अन्यथा सब लोग निश्चय ही नष्ट हो जायँगे। कृपासिन्धो! दीनबन्धो! जैसे शुम्भ नामक दैत्य, महाबली निशुम्भ, धूम्राक्ष, चण्ड, मुण्ड, महान् शक्तिशाली रक्तबीज, मधु, कैटभ तथा महिषासुर का तुमने वध किया था, उसी प्रकार इस दुर्गमासुर का शीघ्र ही संहार करो। बालकों से पग-पग पर अपराध बनता ही रहता है। केवल माता के सिवा संसार में दूसरा कौन है, जो उस अपराध को सहन करता हो। देवताओं और ब्राह्मणों पर जब-जब दुःख आता है, तब-तब शीघ्र ही अवतार लेकर तुम सब लोगों को सुखी बनाती हो।
देवताओं की यह व्याकुल प्रार्थना सुनकर कृपामयी देवी ने उस समय अपने अनन्त नेत्रों से युक्त रूप का दर्शन कराया। उनका मुखारविन्द प्रसन्नता से खिला हुआ था और वे अपने चारों हाथों में क्रमशः धनुष, बाण, कमल तथा नाना प्रकार के फल-मूल लिये हुए थीं। उस समय प्रजाजनों को कष्ट उठाते देख उनके सभी नेत्रों में करुणा के आँसू छलक आये। वे व्याकुल होकर लगातार नौ दिन और नौ रात रोती रहीं। उन्होंने अपने नेत्रों से अश्रु-जल की सहस्त्रों धाराएँ प्रवाहित को। उन धाराओं से सब लोग तृप्त हो गये और समस्त ओषधियाँ भी सिंच गयीं। सरिताओं और समुद्रों में अगाध जल भर गया। पृथ्वी पर साग और फल-मूल के अंकुर उत्पन्न होने लगे। देवी शुद्ध हृदयवाले महात्मा पुरुषों को अपने हाथ में रखे हुए फल बाँटने लगीं। उन्होंने गौओं के लिये सुन्दर घास और दूसरे प्राणियों के लिये यथायोग्य भोजन प्रस्तुत किये। देवता, ब्राह्मण और मनुष्यों सहित सम्पूर्ण प्राणी संतुष्ट हो गये। तब देवी ने देवताओं से पूछा – 'तुम्हारा और कौन-सा कार्य सिद्ध करूँ?' उस समय सब देवता एकत्र होकर बोले – 'देवि! आपने सब लोगों को संतुष्ट कर दिया। अब कृपा करके दुर्गमासुर के द्वारा अपहृत हुए वेद लाकर हमें दीजिये।' तब देवी ने 'तथास्तु' कहकर कहा – 'देवताओं! अपने घर को जाओ, जाओ। मैं शीघ्र ही सम्पूर्ण वेद लाकर तुम्हें अर्पित करूँगी।'
यह सुनकर सब देवता बड़े प्रसन्न हुए। वे प्रफुल्ल नीलकमल के समान नेत्रोंवाली जगद्योनि जगदम्बा को भलीभाँति प्रणाम करके अपने-अपने धाम को चले गये। ने फिर तो स्वर्ग, अन्तरिक्ष और पृथ्वी पर बड़ा भारी कोलाहल मच गया, उसे सुनकर उस भयानक दैत्य ने चारों ओर से देवपुरी को घेर लिया। तब शिवा देवताओं की रक्षा के लिये चारों ओर से तेजोमय मण्डल का निर्माण करके स्वयं उस घेरे से बाहर आ गयीं। फिर तो देवी और दैत्य दोनों में घोर युद्ध आरम्भ हो गया। समरांगण में दोनों ओर से कवच को छिन्न-भिन्न कर देने वाले तीखे बाणों की वर्षा होने लगी। इसी बीच में देवी के शरीर से सुन्दर रूपवाली काली, तारा, छिन्नमस्ता, श्रीविद्या, भुवनेश्वरी, भैरवी, बगला, धूम्रा, श्रीमती त्रिपुरसुन्दी और मातंगी – ये दस महाविद्याएँ अस्त्र-शस्त्र लिये निकलीं। तत्पश्चात् दिव्य मूर्तिवाली असंख्य मातृकाएँ प्रकट हुईं। उन सबने अपने मस्तक पर चन्द्रमा का मुकुट धारण कर रखा था और वे सब-की-सब विद्युत् के समान दीप्तिमती दिखायी देती थीं। इसके बाद उन मातृगणों के साथ दैत्यों का भयंकर युद्ध आरम्भ हुआ। उन सबने मिलकर उस रौरव अथवा दुर्गम दैत्य की सौ अक्षौहिणी सेनाएं नष्ट कर दीं। इसके बाद देवी ने त्रिशूल की धार से उस दुर्गम दैत्य को मार डाला। वह दैत्य जड़ से खोदे गये वृक्ष की भाँति पृथ्वी पर गिर पड़ा। इस प्रकार ईश्वरी ने उस समय दुर्गमासुर नामक दैत्य को मारकर चारों वेद वापस ले देवताओं को दे दिये।
तब देवता बोले – अम्बिके! आपने हम लोगों के लिये असंख्य नेत्रों से युक्त रूप धारण कर लिया था, इसलिये मुनिजन आपको 'शताक्षी' कहेंगे। अपने शरीर से उत्पन्न हुए शाकों द्वारा आपने समस्त लोकों का भरण-पोषण किया है, इसलिये 'शाकम्भरी' के नाम से आपकी ख्याति होगी। शिवे! आपने दुर्गय नामक महादैत्य का वध किया है, इसलिये लोग आप कल्याणमयी भगवती को 'दुर्गा' कहेंगे। योगनिद्रे! आपको नमस्कार है। महाबले! आपको नमस्कार है। ज्ञानदायिनि! आपको नमस्कार है। आप जगन्माता को बारंबार नमस्कार है। तत्त्वमसि आदि महावाक्यों द्वारा जिन पस्मेश्वरी का ज्ञान होता है, उन अनन्त कोटि ब्रह्माण्डों का संचालन करने वाली भगवती दुर्गा को बारंबार नमस्कार है। मातः! आप तक मन, वाणी और शरीर की पहुँच होनी कठिन है। सूर्य, चन्द्रमा और अग्नि – ये तीनों आपके नेत्र हैं। हम आपके प्रभाव को नहीं जानते, इसलिये आपकी स्तुति करने में असमर्थ हैं। सुरेश्वरी माता शताक्षी को छोड़कर दूसरा कौन है, जो हम-जैसे अमरों पर दृष्टिपात करके ऐसी दया करे। देवि! आपको सदा ऐसा ही यत्न करना चाहिये, जिससे तीनों लोक निरन्तर विघ्न-बाधाओं से तिरस्कृत न हों। आप हमारे शत्रुओं का नाश करती रहें।
देवी ने कहा – देवताओं! जैसे बछड़ों को देखकर गौएँ व्यग्र हो उतावली के साथ उनकी ओर दौड़ती हैं, उसी तरह मैं तुम सबको देखकर व्याकुल हो दौड़ी आती हूँ। तुम्हें न देखने से मेरा एक क्षण भी युग के समान बीतता है। मैं तुम्हें अपने बच्चों के समान समझती हूँ और तुम्हारे लिये अपने प्राण भी दे सकती हूँ। तुम लोग मेरे प्रति भक्तिभाव से सुशोभित हो, अतः तुम्हें कोई भी चिन्ता नहीं करनी चाहिये। मैं तुम्हारी सारी आपत्तियों का निवारण करने के लिये सदैव उद्यत हूँ। जैसे पूर्वकाल में तुम्हारी रक्षा के लिये मैंने दैत्यों को मारा है, उसी प्रकार आगे भी असरों का संहार करूँगी – इसमें तम्हें संशय नहीं करना चाहिये। यह मैं सत्य-सत्य कहती हूँ। भविष्य में जब पुनः शुम्भ और निशुम्भ नाम के दूसरे दैत्य होंगे, उस समय मैं यशोमयी देवी नन्दपत्नी यशोदा के गर्भ से योनिजरूप धारण करके गोकुल में उत्पन्न होऊँगी और यथासमय उन असुरों का वध करूँगी। नन्द की पुत्री होने के कारण उस समय मुझे लोग 'नन्दजा' कहेंगे। जब मैं भ्रमर का रूप धारण करके अरूण नामक असुर का वध करूंगी, तब संसार के मनुष्य मुझे 'भ्रामरी ' कहेंगे। फिर मैं भीम (भयंकर) रूप धारण करके राक्षसों को खाने लगूँगी, उस समय मेरा 'भीमादेवी' नाम प्रसिद्ध होगा। जब-जब पृथ्वी पर असुरों की ओर से बाधा उत्पन्न होगी, तब-तब मैं अवतार लेकर प्रजाजनों का कल्याण करूँगी – इसमें संशय नहीं है। जो देवी शताक्षी कही गयी हैं, वे ही शाकम्भरी मानी गयी हैं तथा उन्हीं को दुर्गा कहा गया है। तीनों नामों द्वारा एक ही व्यक्ति का प्रतिपादन होता है। इस पृथ्वी पर महेश्वरी शताक्षी के समान दूसरा कोई दयालु देवता नहीं है; क्योंकि वे देवी समस्त प्रजाओं को संतप्त देख नौ दिनों तक रोती रह गयी थीं।
(अध्याय ५०)