देवी के क्रियायोग का वर्णन – देवी की मूर्ति एवं मन्दिर के निर्माण, स्थापन और पूजन का महत्त्व, परा अम्बा की श्रेष्ठता, विभिन्न मासों और तिथियों में देवी के व्रत, उत्सव और पूजन आदि के फल तथा इस संहिता के श्रवण एवं पाठ की महिमा

व्यासजी बोले – महामते, ब्रह्मपुत्र, सर्वज्ञ सनत्कुमार! मैं उमा के परम अद्भुत क्रियायोग का वर्णन सुनना चाहता हूं। उस क्रियायोग का लक्षण क्या है? उसका अनुष्ठान करने पर किस फल की प्राप्ति होती है तथा जो परा अम्बा उमा को अधिक प्रिय है, वह क्रियायोग क्या है? ये सब बातें मुझे बताइये।

सनत्कुमारजी ने कहा – महाबुद्धिमान् द्वैपायन! तुम जिस रहस्य की बात पूछ रहे हो, वह सब मैं बताता हूँ; ध्यान देकर सुनो। ज्ञानयोग, क्रियायोग, भक्तियोग – ये श्रीमाता की उपासना के तीन मार्ग कहे गये हैं, जो भोग और मोक्ष देने वाले हैं। चित्त का जो आत्मा के साथ संयोग होता है, उसका नाम 'ज्ञानयोग' है; उसका बाह्य वस्तुओं के साथ जो संयोग होता है, उसे 'क्रियायोग' कहते हैं। देवी के साथ आत्मा की एकता की भावना को भक्तियोग माना गया है। तीनों योगों में जो क्रियायोग है, उसका प्रतिपादन किया जाता है। कर्म से भक्ति उत्पन्न होती है, भक्ति से ज्ञान होता है और ज्ञान से मुक्ति होती है – ऐसा शास्त्रों में निश्चय किया गया है। मुनिश्रेष्ठ! मोक्ष का प्रधान कारण योग है, परंतु योग के ध्येय का उत्तम साधन क्रियायोग है। प्रकृति को माया जाने और सनातन ब्रह्म को मायावी अथवा माया का स्वामी समझे। उन दोनों के स्वरूप को एक-दूसरे से अभिन्न जानकर मनुष्य संसार-बन्धन से मुक्त हो जाता है।

कालीनन्दन! जो मनुष्य देवी के लिये पत्थर, लकड़ी अथवा मिट्ठी का मन्दिर बनाता है, उसके पुण्यफल का वर्णन सुनो। प्रतिदिन योग के द्वारा आराधना करनेवाले को जिस महान् फल की प्राप्ति होती है, वह सारा फल उस पुरुष को मिल जाता है, जो देवी के लिये मन्दिर बनवाता है। श्रीमाता का मन्दिर बनवानेवाला धर्मात्मा पुरुष अपनी पहले बीती हुई तथा आगे आनेवाली हजार-हजार पीढ़ियों का उद्धार कर देता है। करोड़ों जन्मों में किये हुए थोड़े या बहुत जो पाप शेष रहते हैं, वे श्रीमाता के मन्दिर का निर्माण आरम्भ करते ही क्षणभर में नष्ट हो जाते हैं। जैसे नदियों में गंगा, सम्पूर्ण नदों में शोणभद्र, क्षमा में पृथ्वी, गहराई में समुद्र और समस्त ग्रहों में सूर्यदेव का विशिष्ट स्थान है, उसी प्रकार समस्त देवताओं में श्रीपरा अम्बा श्रेष्ठ मानी गयी हैं। वे समस्त देवताओं में मुख्य हैं। जो उनके लिये मन्दिर बनवाता है, वह जन्म-जन्म में प्रतिष्ठा पाता है। काशी, कुरुक्षेत्र, प्रयाग, पुष्कर, गंगासागर-तट, नैमिषारण्य, अमरकण्टक-पर्वत, परम पुण्यमय श्रीपर्वत, ज्ञानपर्वत, गोकर्ण, मथुरा, अयोध्या और द्वारका इत्यादि पुण्य प्रदेशों में अथवा जिस किसी भी स्थान में माता का मन्दिर बनवानेवाला मनुष्य संसार-बन्धन से मुक्त हो जाता है। मन्दिर में ईंटों का जोड़ जब तक या जितने वर्ष रहता है, उतने हजार वर्षों तक वह पुरुष मणिद्वीप में प्रतिष्ठित होता है। जो समस्त शुभ लक्षणों से सम्पन्न उमा की प्रतिमा बनवाता है, वह निर्भय होकर अवश्य उनके परम धाम में जाता है। शुभ ऋतु, शुभ ग्रह और शुभ नक्षत्र में देवी की मूर्ति की स्थापना करके योगमाया के प्रसाद से मनुष्य कृतकृत्य हो जाता है। कल्प के आरम्भ से लेकर अन्त तक कुल में जितनी पीढ़ियाँ बीत गयी हैं और जितनी आनेवाली हैं, उन सबको मनुष्य सुन्दर देवीमूर्ति की स्थापना करके तार देता है।

जो केवल जगद्योनि परा अम्बा की शरण लेते हैं, उन्हें मनुष्य नहीं मानना चाहिये। वे साक्षात् देवी के गण हैं। जो चलते-फिरते, सोते-जागते अथवा खड़े होते समय 'उमा' इस दो अक्षर के नाम का उच्चारण करते हैं, वे शिवा के ही गण हैं। जो नित्य-नैमित्तिक कर्म में पुष्प, धूप और दीपों द्वारा देवी परा शिवा का पूजन करते हैं, वे शिवा के धाम में जाते हैं। जो प्रतिदिन गोबर या मिट्टी से देवी के मन्दिर को लीपते हैं अथवा उसमें झाड़ू देते हैं, वे भी उमा के धाम में जाते हैं। जिन्होंने देवी के परम उत्तम एवं रमणीय मन्दिर का निर्माण कराया है, उनके कुल के लोगों को माता उमा सदा आशीर्वाद देती हैं। वे कहती हैं, 'ये लोग मेरे हैं। अतः मुझमें प्रेम के भागी बने रहकर सौ वर्षों तक जीयें और इन पर कभी कोई आपत्ति न आये।' इस प्रकार श्रीमाता रात-दिन आशीर्वाद देती हैं। जिसने महादेवी उमा की शुभ मूर्ति का निर्माण कराया है, उसके कुल के दस हजार पीढ़ियों तक के लोग मणिद्वीप में सम्मानपूर्वक रहते हैं। महामाया की मूर्ति को स्थापित करके उसकी भलीभाँति पूजा करने के पश्चात् साधक जिस-जिस मनोरथ के लिये प्रार्थना करता है, उस-उसको अवश्य प्राप्त कर लेता है।

जो श्रीमाता की स्थापित की हुई उत्तम मूर्ति को मधुमिश्रित घी से नहलाता है, उसके पुण्यफल की गणना कौन कर सकता है? चन्दन, अगुरु, कपूर, जटामांसी तथा नागरमोथा आदि से युक्त जल तथा एक रंग की गौओं के दूध से परमेश्वरी को नहलाये। तत्पश्चात् अष्टादशांग धूप के द्वारा अग्नि में उत्तम आहुति दे तथा घृत और कर्पूर सहित बत्तियों द्वारा देवी की आरती उतारे। कृष्णपक्ष की अष्टमी, नवमी, अमावास्या में अथवा शुक्लपक्ष की पंचमी और दशमी तिथियों में गन्ध, पुष्प आदि उपचारों द्वारा जगदम्बा की विशेष पूजा करनी चाहिये। रात्रिसूक्त, श्रीसूक्त अथवा देवीसूक्त को पढ़ते या मूलमन्त्र का जप करते हुए देवी की आराधना करनी चाहिये। विष्णुकान्ता और तुलसी को छोड़कर शेष सभी पुष्प देवी के लिये प्रीतिकारक जानने चाहिये। कमल का पुष्प उनके लिये विशेष प्रीतिकारक होता है। जो देवी को सोने-चाँदी के फूल चढ़ाता है, वह करोड़ों सिद्धों से युक्त उनके परम धाम में जाता है। देवी के उपासकों को पूजन के अन्त में सदा अपने अपराधों के लिये क्षमा- प्रार्थना करनी चाहिये। 'जगत् को आनन्द प्रदान करने वाली परमेश्वरि! प्रसन्नन होओ।' वाचिक और शारीरिक पापों का नाश करके इत्यादि वाक्यों द्वारा स्तुति एवं मन्त्रपाठ करता हुआ देवी के भजन में लगा रहनेवाला उपासक उनका इस प्रकार ध्यान करे। देवी सिंह पर सवार हैं। उनके हाथों में अभय एवं वर की मुद्राएँ हैं तथा वे भक्तों को अभीष्ट फल प्रदान करने वाली हैं। इस प्रकार महेश्वरी का ध्यान करके उन्हें नैवेद्य के रूप में नाना प्रकार के पके हुए फल अर्पित करे। जो परात्मा शम्भुशक्ति का नेवेद्य भक्षण करता है; वह मनुष्य अपने सारे पापपंक को धोकर निर्मल हो जाता है। जो चैत्र शुक्ला तृतीया को भवानी की प्रसन्नता के लिये व्रत करता है, वह जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त हो परमपद को प्राप्त होता है। विद्वान् पुरुष इसी तृतीया को दोलोत्सव करे। उसमें शंकर सहित जगदम्बा उमा की पूजा करे। फूल, कुंकुम, वस्त्र, कपूर, अगुरु, चन्दन, धूप, दीप, नैवेद्य, पुष्पहार तथा अन्य गन्ध-द्रव्यों द्वारा शिव सहित सर्वकल्याणकारिणी महामाया महेश्वरी श्रीगौरीदेवी का पूजन करके उन्हें झूले में झुलाये। जो प्रतिवर्ष नियमपूर्वक उक्त तिथि को देवी का व्रत और दोलोत्सव करता है, उसे शिवादेवी सम्पूर्ण अभीष्ट पदार्थ देती हैं।

वैशाखमास के शुक्लपक्ष में जो अक्षय तृतीया तिथि आती है, उसमें आलस्यरहित हो जो जगदम्बा का व्रत करता है तथा बेला, मालती, चम्पा, जपा (अढ़उल), बन्धूक (दुपहरिया) और कमल के फूलों से शंकर सहित गौरीदेवी की पूजा करता है, वह करोड़ों जन्मों में किये गये मानसिक, वाचिक और शारीरिक पापों का नाश करके धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष – इन चारों पुरुषार्थो को अक्षय रूप में प्राप्त करता है।

ज्येष्ठ शुक्ला तृतीया को व्रत करके जो अत्यन्त प्रसन्नता के साथ महेश्वरी का पूजन करता है, उसके लिये कुछ भी असाध्य नहीं होता। आषाढ़ के शुक्लपक्ष की तृतीया को अपने वैभव के अनुसार रथोत्सव करे। यह उत्सव देवी को अत्यन्त प्रिय है। पृथ्वी को रथ समझे, चन्द्रमा और सूर्य को उसके पहिये जाने, वेदों को घोड़े और ब्रह्माजी को सारथि माने। इस भावना से मणिजटित रथ की कल्पना करके उसे पुष्पमालाओं से सुशोभित करे। फिर उसके भीतर शिवा देवी को विराजमान करे। तत्पश्चात् बुद्धिमान् पुरुष यह भावना करे कि परा अम्बा उमादेवी सम्पूर्ण जगत् की रक्षा के लिये उसकी देखभाल करने के निमित्त रथ के भीतर बैठी हैं। जब रथ धीरे-धीरे चले, तब जय-जयकार करते हुए प्रार्थना करे – 'देवि! दीनवत्सले! हम आपकी शरण में आये हैं। आप हमारी रक्षा कीजिये। (पाहि देवि जनानस्मान् प्रपन्नान् दीनवत्सले।') इन वाक्यों द्वारा देवी को संतुष्ट करे और यात्रा के समय नाना प्रकार के बाजे बजवाये। ग्राम या नगर की सीमा के अन्त तक रथ को ले जाकर वहाँ उस रथ पर देवी की पूजा करे और नाना प्रकार के स्तोत्रों से उनकी स्तुति करके फिर उन्हें वहाँ से अपने घर ले आये। तदनन्तर सैकड़ों बार प्रणाम करके जगदम्बा से प्रार्थना करे। जो विद्वान् इस प्रकार देवी का पूजन, व्रत एवं रथोत्सव करता है, वह इस लोक में सम्पूर्ण भोगों का उपभोग करके अन्त में देवी के धाम को जाता है।

श्रावण और भाद्रपदमास की शुक्ला तृतीया को जो विधिपूर्वक अम्बा का व्रत और पूजन करता है, वह इस लोक में पुत्र, पौत्र एवं धन आदि से सम्पन्न होकर सुख भोगता है तथा अन्त में सब लोकों से ऊपर विराजमान उमालोक में जाता है।

आश्विनमास के शुक्लपक्ष में नवरात्र-व्रत करना चाहिये। उसके करने पर सम्पूर्ण कामनाएँ सिद्ध हो ही जाती हैं, इसमें संशय नहीं है। इस नवरात्र-व्रत के प्रभाव का वर्णन करने में चतुरानन ब्रह्मा, पंचानन महादेव तथा षडानन कार्तिकेय भी समर्थ नहीं हैं; फिर दूसरा कौन समर्थ हो सकता है। मुनिश्रेष्ठ! नवरात्र-व्रत का अनुष्ठान करके विरथ के पुत्र राजा सुरथ ने अपने खोये हुए राज्य को प्राप्त कर लिया। अयोध्या के बुद्द्रिमान् नरेश ध्रुवसंधिकुमार सुदर्शन ने इस नवरात्र के प्रभाव से ही राज्य प्राप्त किया, जो पहले उनके हाथ से छिन गया था। इस व्रतराज का अनुष्ठान और महेश्वरी की आराधना करके समाधि वैश्य संसार-बन्धन से मुक्त हो मोक्षे के भागी हुए थे। जो मनुष्य आश्विनमास के शुक्लपक्ष में विधिपूर्वक व्रत करके तृतीया, पंचमी, सप्तमी, अष्टमी, नवमी एवं चतुर्दशी तिथियों को देवी का पूजन करता है, देवी शिवा निरन्तर उसके सम्पूर्ण अभीष्ट मनोरथ की पूर्ति करती रहती हैं। जो कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष, माघ और फाल्गुनमास के शुक्लपक्ष में तृतीया को व्रत करता तथा लाल कनेर आदि के फूलों एवं सगन्धित धूपों से मंगलमयी देवी की पूजा करता है, वह सम्पूर्ण मंगल को प्राप्त कर लेता है। स्त्रियों को अपने सौभाग्य की प्राप्ति एवं रक्षा के लिये सदा इस महान् व्रत का आचरण करना चाहिये तथा पुरुषों को भी विद्या, धन एवं पुत्र की प्राप्ति के लिये इसका अनुष्ठान करना चाहिये। इनके सिवा अन्य भी जो देवी को प्रिय लगनेवाले उमा-महेश्वर आदि के व्रत हैं, मुमुक्षु पुरुषों को उनका भक्तिभाव से आचरण करना चाहिये।

यह उमासंहिता परम पुण्यमयी तथा शिवभक्ति को बढ़ानेवाली है। इसमें नाना प्रकार के उपाख्यान हैं। यह कल्याणमयी संहिता भोग तथा मोक्ष प्रदान करने वाली है। जो इसे भक्तिभाव से सुनता या एकाग्रचित्त होकर सुनाता अथवा पढ़ता या पढ़ाता है, वह परमगति को प्राप्त होता है। जिसके घर में सुन्दर अक्षरों में लिखी गयी यह संहिता विधिवत् पूजित होती है, वह सम्पूर्ण अभीष्टों को प्राप्त कर लेता है। उसे भूत, प्रेत और पिशाचादि दुष्टों से कभी भय नहीं होता। वह पुत्र-पौत्र आदि सम्पत्ति को अवश्य पाता है, इसमें संशय नहीं है। अतः शिवा की भक्ति चाहनेवाले पुरुषों को सदा इस परम पुण्यमयी रमणीय उमासंहिता का श्रवण एवं पाठ करना चाहिये।

(अध्याय ५१)