ऋषियों का सूतजी से तथा वामदेवजी का स्कन्द से प्रश्न – प्रणवार्थ-निरूपण के लिये अनुरोध
नमः शिवाय साम्बाय सगणाय ससूनवे।
प्रधानपुरुषेशाय सर्गस्थित्यन्तहेतवे ॥
जो प्रधान (प्रकृति) और पुरुष के नियन्ता तथा सृष्टि, पालन और संहार के कारण हैं, उन पार्वती सहित शिव को उनके पार्षदों और पुत्रों के साथ प्रणाम है।
ऋषि बोले – सूतजी! हमने अनेक आख्यानों से युक्त परम मनोहर उमासंहिता सुनी। अब आप शिवतत्त्व का ज्ञान बढ़ानेवाली कैलाससंहिता का वर्णन कीजिये।
व्यासजी ने कहा – पुत्रो! शिवतत्त्व का प्रतिपादन करने वाली दिव्य कैलाससंहिता का वर्णन करता हूँ, तुम प्रेमपूर्वक सुनो। तुम्हारे प्रति स्नेह होने के कारण ही में तुम्हें यह प्रसंग सुना रहा हूँ।
इतना कहकर व्यासजी ने काशी में मुनियों के तथा सूतजी के संवाद, व्यासमुनि-संवाद, शिव-पार्वती-संवाद, शिवजी के द्वारा पार्वती के प्रति संन्यास-पद्धति, संन्यासाचार, संन्यास-मण्डल, संन्यास-पद्धतिन्यास, वर्णपूजन, प्रणवार्थ-पद्धति आदि प्रसंगों का वर्णन करके पुनः ऋषिगण तथा सूतजी के मिलन एवं संवाद की अवतारणा करते हुए सूतजी के प्रति ऋषियों के प्रश्न का यों वर्णन किया।
ऋषि बोले – महाभाग सूतजी! आप हमारे श्रेष्ठ गुरु हैं। अतः यदि आपका हम पर अनुग्रह हो तो हम आपसे एक प्रश्न पूछते हैं। श्रद्धालु शिष्यों पर आप-जैसे गुरुजन सदा स्नेह रखते हैं, इस बात को आपने इस समय हमें प्रत्यक्ष दिखा दिया। मुने! विरजाहोम के समय पहले आपने जो वामदेव का मत सूचित किया था, उसे हमने विस्तारपूर्वक नहीं सुना। अब हम बड़े आदर और श्रद्धा के साथ उसे सुनना चाहते हैं। कृपासिन्धो! आप प्रसन्नतापूर्वक उसका वर्णन करें।
ऋषियों की यह बात सुनकर सूत के शरीर में रोमांच हो आया। उन्होंने गुरु के भी परम उत्कृष्ट गुरु महादेवजी को, त्रिभुवन-जननी महादेवी उमा को तथा गुरु व्यास को भी भक्तिपूर्वक नमस्कार करके मुनियों को आह्लादित करते हुए गम्भीर वाणी में इस प्रकार कहा।
सूतजी बोले – मुनियो! तुम्हारा कल्याण हो, तुम सब लोग सदा सुखी रहो। महाभाग महात्माओ! तुम भगवान् शिव के भक्त तथा दृढ़तापूर्वक व्रत का पालन करनेवाले हो, यह निश्चित रूप से जानकर ही मैं तुम लोगों के समक्ष इस विषय का प्रसन्नतापूर्वक वर्णन करता हूँ। ध्यान देकर सुनो। पूर्वकाल के रथन्तर कल्प में महामुनि वामदेव माता के गर्भ से बाहर निकलते ही शिवतत्त्व के ज्ञाताओं में सर्वश्रेष्ठ माने जाने लगे। वे वेदों, आगमों, पुराणों तथा अन्य सब शास्त्रों के भी तात्त्विक अर्थ को जानने वाले थे। देवता, असुर तथा मनुष्य आदि जीवों के जन्मकर्मों का उन्हें भलीभाँति ज्ञान था। उनका सम्पूर्ण अंग भस्म लगाने से उज्ज्वल दिखायी देता था। उनके मस्तक पर जटाओं का समूह शोभा देता था। वे किसी के आश्रित नहीं थे। उनके मन में किसी वस्तु की इच्छा नहीं थी। वे शीत-उष्ण आदि द्वन्द्वों से परे तथा अहंकारशून्य थे। वे दिगम्बर महाज्ञानी महात्मा दूसरे महेश्वर के समान जान पड़ते थे। उन्हींके-जैसे स्वभाववाले बड़े-बड़े मुनि शिष्य होकर उन्हें घेरे रहते थे। वे अपने चरणों के स्पर्शजनित पुण्य से इस पृथ्वी को पवित्र करते हुए सब ओर विचरते और अपने चित्त को निरन्तर परमधामस्वरूप परब्रहम परमात्मा में लगाये रहते थे। इस तरह घूमते हुए वामदेवजी ने मेरु के दक्षिण शिखर – कुमारश्रंग में प्रसन्नतापूर्वक प्रवेश किया, जहाँ मयूरवाहन शिवकुमार, ज्ञानमय शक्ति धारण करनेवाले, समस्त असुरों के नाशक और सर्वदेव-वन्दित भगवान् स्कन्द रहते थे। उनके साथ उनकी शक्तिभूता 'गजावल्ली' भी थीं। वहीं स्कन्दसर के नाम से प्रसिद्ध एक सरोवर था, जो समुद्र के समान अगाध एवं विशाल दिखायी देता था। उसका जल ठंडा और स्वादिष्ठ था। वह सरोवर स्वच्छ, अगाध एवं बहुत जलराशि से पूर्ण था। उसमें सम्पूर्ण आश्चर्यजनक गुण विद्यमान थे। वह जलाशय स्कन्दस्वामी के समीप ही था। महामुनि वामदेव ने शिष्यों के साथ उसमें स्नान करके शिखर पर बैठे हुए मुनिवृन्द-सेवित कुमार का दर्शन किया। वे उगते हुए सूर्य के समान तेजस्वी थे। मोर उनका श्रेष्ठ वाहन था। उनके चार भुजाएँ थीं। सभी अंगों से उदारता सूचित होती थी। मुकुट आदि उनकी शोभा बढ़ा रहे थे। रत्नभूत दो शक्तियाँ उनकी उपासना करती थीं। उन्होंने अपने चार हाथों में क्रमशः शक्ति, कुक्कुट, वर और अभय धारण कर रखे थे। स्कन्द का दर्शन और पूजन करके उन मुनीश्वर ने बड़ी भक्ति से उनका स्तवन आरम्भ किया।
वामदेव बोले – जो प्रणव के वाच्यार्थ, प्रणवार्थ के प्रतिपादक, प्रणवाक्षररूप बीज से युक्त तथा प्रणवरूप हैं, उन आप स्वामी कार्तिकेय को बारंबार नमस्कार है। वेदान्त के अर्थभूत ब्रह्म ही जिनका स्वरूप है, जो वेदान्त का अर्थ करते हैं, वेदान्त के अर्थ को जानते हैं और नित्य विदित हैं, उन स्कन्दस्वामी को बारंबार नमस्कार है। समस्त प्राणियों की हृदयगुफा में प्रतिष्ठित गुह को नमस्कार है। जो स्वयं गुह्य हैं, जिनका रूप गुह्य है तथा जो गुह्य शास्त्रों के ज्ञाता हैं, उन स्वामी कार्तिकेय को नमस्कार है। प्रभो! आप अणु से भी अत्यन्त अणु और महानू से भी परम महान् हैं, कारण और कार्य अथवा भूत और भविष्य के भी ज्ञाता हैं। आप परमात्मस्वरूप को नमस्कार है। आप स्कन्द (माता के गर्भ से च्युत) हैं। स्कन्दन (गर्भ से स्खलन) ही आपका रूप है। आप सूर्य और अरुण के समान तेजस्वी हैं। पारिजात की माला से सुशोभित, मुकुट आदि धारण करनेवाले आप स्कन्दस्वामी को सदा नमस्कार है। आप शिव के शिष्य और पुत्र हैं, शिव (कल्याण) देने वाले हैं, शिव को प्रिय हैं तथा शिवा और शिव के लिये आनन्द की निधि हैं। आपको नमस्कार है। आप गंगाजी के बालक, कृत्तिकाओं के कुमार, भगवती उमा के पुत्र तथा सरकंडों के वन में शयन करनेवाले हैं। आप महाबुद्धिमान् देवता को नमस्कार है। षडक्षरमन्त्र आपका शरीर है। आप छः प्रकार के अर्थ का विधान करनेवाले हैं। आपका रूप छः मार्गों से परे है। आप षडानन को बारंबार नमस्कार है। द्वादशात्मन्! आपके बारह विशाल नेत्र और बारह उठी हुई भुजाएँ हैं। उन भुजाओं में आप बारह आयुध धारण करते हैं। आपको नमस्कार है। आप चतुर्भुजरूपधारी, शान्त तथा चारों भुजाओं में क्रमशः शक्ति, कुक्कुट, वर और अभय धारण करते हैं। आप असुरविदारण देव को नमस्कार है। आपका वक्षःस्थल गजावल्ली के कुचों में लगे हुए कुंकुम से अंकित है। अपने छोटे भाई गणेशजी की आनन्दमयी महिमा सुनकर आप मन-ही-मन आनन्दित होते हैं। आपको नमस्कार है। ब्रह्मा आदि देवता, मुनि और किंनरगणों से गायी जाने वाली गाथाविशेष के द्वारा जिनके पवित्र कीर्तिधाम का चिन्तन किया जाता है, उन आप स्कन्द को नमस्कार है। देवताओं के निर्मल किरीट को विभूषित करने वाली पुष्प-मालाओं से आपके मनोहर चरणारविन्दों की पूजा की जाती है। आपको नमस्कार है। जो वामदेव द्वारा वर्णित इस दिव्य स्कन्दस्तोत्र का पाठ या श्रवण करता है, वह परमगति को प्राप्त होता है। यह स्तोत्र बुद्धि को बढ़ानेवाला, शिवभक्ति की वृद्धि करनेवाला, आयु, आरोग्य तथा धन की प्राप्ति करानेवाला और सदा सम्पूर्ण अभीष्ट को देनेवाला है।
वामदेव ने इस प्रकार देवसेनापति भगवान् स्कन्द की स्तुति करके तीन बार उनकी परिक्रमा की और पृथ्वी पर दण्ड की भाँति गिरकर नतमस्तक हो बारंबार साष्टांग प्रणाम और परिक्रमा करने के अनन्तर वे विनीतभाव से उनके पास खड़े हो गये। वामदेवजी के द्वारा किये गये इस परमार्थपूर्ण स्तोत्र को सुनकर महेश्वरपुत्र भगवान् स्कन्द बड़े प्रसन्न हुए। उस समय वे महासेन वामदेवजी से बोले – 'मुने! मैं तुम्हारी की हुई पूजा, स्तुति और भक्ति से तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ। तुम्हारा कल्याण हो। आज में तुम्हारा कौन-सा प्रिय कार्य सिद्ध करूँ? तुम योगियों में प्रधान, सर्वथा परिपूर्ण और निःस्पृह हो। इस जगत् में कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जिसके लिये तुम-जैसे वीतराग महर्षि याचना करें; तथापि धर्म की रक्षा और सम्पूर्ण जगत् पर अनुग्रह करने के लिये तुम-जैसे साधु-संत भूतल पर विचरते रहते हैं। ब्रह्मन! यदि इस समय मुझसे कुछ सुनना हो तो कहो; मैं लोक पर अनुग्रह करने के लिये उस विषय का वर्णन करूँगा।'
स्कन्द की वह बात सुनकर महामुनि वामदेव ने विनयावनत हो मेघ के समान गम्भीर वाणी में कहा।
वामदेव बोले – भगवन्! आप परमेश्वर हैं। अलौकिक और लौकिक – सब प्रकार की विभूतियों के दाता हैं। सर्वज्ञ, सर्वकर्ता, सम्पूर्ण शक्तियों को धारण करनेवाले और सबके स्वामी हैं। हम साधारण जीव हैं। आप परमेश्वर के समीप बोलने की शक्ति या बात करने की योग्यता हम में नहीं है; तथापि यह आपका अनुग्रह है कि आप मुझसे बात करते हैं। महाप्राज्ञ मैं कृतार्थ हूँ। कणमात्र विज्ञान से प्रेरित हो आपके समक्ष अपना प्रश्न रख रहा हूँ। मेरे इस अपराध को आप क्षमा करेंगे! प्रणव सबसे उत्तम मन्त्र है। वह साक्षात् परमेश्वर का वाचक है। पशुओं (जीवों) के पाश (बन्धन) को छुड़ानेवाले भगवान् पशुपति ही उसके वाच्यार्थ हैं। 'ओमितीदं सर्वम्' (तै० उ० १। ८। १) – ओंकार ही यह प्रत्यक्ष दीखनेवाला समस्त जगत् है, यह सनातन श्रुति का कथन है। 'ओमिति ब्रह्म (तै० उ० १। ८। १) अर्थात् 'ॐ यह ब्रह्म है' तथा 'सर्वं ह्योतद् ब्रह्म' (माण्डू० २) – 'यह सब-का-सब ब्रह्म ही है।' इत्यादि बातें भी श्रुतियों द्वारा कही गयी हैं। इस प्रकार मैंने समष्टि तथा व्यष्टिभाव से प्रणवार्थ का श्रवण किया है। तात्पर्य यह है कि समष्टि और व्यष्टि – सभी पदार्थ प्रणव के ही अर्थ हैं, प्रणव के द्वारा सबका प्रतिपादन होता है – यह बात मैंने सुन रखी है। महासेन! मुझे कभी आप-जैसा गुरु नहीं मिला है, अतः कृपा करके आप प्रणव के अर्थ का प्रतिपादन कीजिये। उपदेश की विधि से तथा सदाचार परम्परा को ध्यान में रखकर आप हमें प्रणवार्थ का उपदेश दें।
मुनि के इस प्रकार पूछने पर स्कन्द ने प्रणवस्वरूप, अड़तीस श्रेष्ठ कलाओं द्वारा लक्षित तथा सदा पार्श्वभाग में उमा को साथ रखने वाले और मुनिवरों से घिरे हुए भ्रगवान सदाशिव को प्रणाम करके उस श्रेय का वर्णन आरम्भ किया, जिसे श्रतियों ने भी छिपा रखा है।
(अध्याय १ - ११)