प्रणव के वाच्यार्थरूप सदाशिव के स्वरूप का ध्यान, वर्णाश्रम-धर्म के पालन का महत्त्व, ज्ञानमयी पूजा, संन्यास के पूर्वांगरभूत नान्दीश्राद्ध एवं ब्रह्मयज्ञ आदि का वर्णन
श्रीस्कन्द ने कहा – महाभाग मुनीश्वर वामदेव! तुम्हें साधुवाद है; क्योंकि तुम भगवान् शिव के अत्यन्त भक्त हो और शिवतत्त्व के ज्ञाताओं में सबसे श्रेष्ठ हो। तीनों लोकों में कहीं कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जो तुम्हें ज्ञात न हो। तथापि तुम लोक पर अनुग्रह करनेवाले हो, इसलिये तुम्हारे समक्ष इस विषय का वर्णन करूँगा। इस लोक में जितने जीव हैं, वे सब नाना प्रकार के शास्त्रों से मोहित हैं। परमेश्वर की अति विचित्र माया ने उन्हें परमार्थ से वंचित कर दिया है। अतः प्रणव के वाच्यार्थभूत साक्षात् महेश्वर को वे नहीं जानते। वे महेश्वर ही सगुण-निर्गुण तथा त्रिदेवों के जनक परब्रह्म परमात्मा हैं। मैं अपना दाहिना हाथ उठाकर तुमसे शपथपूर्वक कहता हूँ कि यह सत्य है, सत्य है, सत्य है। मैं बारंबार इस सत्य को दोहराता हूँ कि प्रणव के अर्थ साक्षात् शिव ही हैं। श्रुतियों, स्मृति-शास्त्रों, पुराणों तथा आगमों में प्रधानतया उन्हीं को प्रणव का वाच्यार्थ बताया गया है। जहाँ से मन सहित वाणी उस परमेश्वर को न पाकर लौट आती है, जिसके आनन्द का अनुभव करनेवाला पुरुष किसी से डरता नहीं, ब्रह्मा, विष्णु तथा इन्द्र सहित यह सम्पूर्ण जगत् भूतों और इन्द्रिय-समुदाय के साथ सर्वप्रथम जिससे प्रकट होता है, जो परमात्मा स्वयं किसी से और कभी भी उत्पन्न नहीं होता, जिसके निकट विद्युत्, सूर्य और चन्द्रमा का प्रकाश काम नहीं देता तथा जिसके प्रकाश से ही यह सम्पूर्ण जगत् सब ओर से प्रकाशित होता है, वह परब्रह्म परमात्मा सम्पूर्ण ऐश्वर्य से सम्पन्न होने के कारण स्वयं ही सर्वेश्वर 'शिव' नाम धारण करता है। हृदयाकाश के भीतर विराजमान जो भगवान् शम्भु मुमुक्षु पुरुषों के ध्येय हैं, जो सर्वव्यापी प्रकाशात्मा, भासस्वरूप एवं चिन्मय हैं, जिन परम पुरुष की पराशक्ति शिवा भक्तिभाव से सुलभ मनोहरा, निर्गुण, अपने गुणों से ही निगूढ़ और निष्कल हैं, उन परमेश्वर के तीन रूप हैं – स्थूल, सूक्ष्म और इन दोनों से परे। मुने! मुमक्षु योगियों को नित्य क्रमशः उनके इन स्वरूपों का ध्यान करना चाहिये। वे शम्भु निष्कल, सम्पूर्ण देवताओं के सनातन आदिदेव, ज्ञान-क्रिया-स्वभाव एवं परमात्मा कहे जाते हैं, उन देवाधिदेव की साक्षात् मूर्ति सदाशिव हैं। ईशानादि पाँच मन्त्र उनके शरीर हैं। वे महादेवजी पंचकला रूप हैं। उनकी अंगकान्ति शुद्ध स्फटिक के समान उज्ज्वल है। वे सदा प्रसन्न रहनेवाले तथा शीतल आभा से युक्त हैं। उन प्रभु के पाँच मुख, दस भुजाएँ और पंद्रह नेत्र हैं। 'ईशान' मन्त्र उनका मुकुटमण्डित मस्तक है! 'तत्पुरुष' मन्त्र उन पुरातन प्रभु का मुख है। 'अघोर' मन्त्र हृदय है। 'वामदेव' मन्त्र गुह्य प्रदेश है तथा 'सद्योजात' मन्त्र उनके पैर हैं। इस प्रकार वे पंचमन्त्र रूप हैं। वे ही साक्षात् साकार और निराकार परमात्मा हैं। सर्वज्ञता आदि छः शक्तियाँ उनके शरीर के छः अंग हैं। वे शब्दादि शक्तियों से स्फुरित हृदय-कमल के द्वारा सुशोभित हैं। वामभाग में मनोन्मनी नामक अपनी शक्ति से विभूषित हैं।
अब में मन्त्र आदि छः प्रकार के अर्थों को प्रकट करने के लिये जो अर्थोपन्यास की पद्धति है, उसके द्वारा प्रणव के समष्टि और व्यष्टिसम्बन्धी भावार्थ का वर्णन करूँगा; परंतु पहले उपदेश का क्रम बताना उचित है, इसलिये उसी को सुनो। मुने! इस मानवलोक में चार वर्ण प्रसिद्ध हैं। उनमें से जो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य – ये तीन वर्ण हैं; उन्हीं का वैदिक आचार से सम्बन्ध है। त्रैवर्णिकों की सेवा ही जिनके लिये सारभूत धर्म है, उन शूद्रों का वेदाध्ययन में अधिकार नहीं है। यदि सब त्रैवर्णिक अपने-अपने आश्रम-धर्म के पालन में हार्दिक अनुराग के साथ लगे हों तो उनका ही श्रुतियों और स्मृतियों में प्रतिपादित धर्म के अनुष्ठान में अधिकार है, दूसरे का कदापि नहीं। श्रुति और स्मृति में प्रतिपादित कर्म का अनुष्ठान करनेवाला पुरुष अवश्य सिद्धि को प्राप्त होगा, यह बात वेदोक्तमार्ग को दिखानेवाले परमेश्वर ने स्वयं कही है। वर्णधर्म और आश्रम-घधर्म के पालनजनित पुण्य से परमेश्वर का पूजन करके बहुत-से श्रेष्ठ मुनि उनके सायुज्य को प्राप्त हो गये हैं। ब्रह्मचर्य के पालन से ऋषियों की, यज्ञकर्मों के अनुष्ठान से देवताओं की तथा संतानोत्पादन से पितरों की तृप्ति होती है – ऐसा श्रुति ने कहा है। इस प्रकार ऋषि-ऋण, देव-ऋण तथा पितृ-ऋण – इन तीनों से मुक्त हो वानप्रस्थ आश्रम में प्रविष्ट होकर मनुष्य शीत, उष्ण तथा सुख-दुःखादि द्वन्द्वों की सहन करते हुए जितेन्द्रिय, तपस्वी और मिताहारी हो यम-नियम आदि योग का अभ्यास करे, जिससे बुद्धि निश्चल तथा अत्यन्त दृढ़ हो जाय। इस प्रकार क्रमशः अभ्यास करके शुद्धचित्त हुआ पुरुष सम्पूर्ण कर्मों का संन्यास कर दे। समस्त कर्मों का संन्यास करने के पश्चात् ज्ञान के समादर में तत्पर रहे। ज्ञान के समादर को ही ज्ञानमयी पूजा कहते हैं। वह पूजा जीव की साक्षात् शिव के साथ एकता का बोध कराकर जीवन्मुक्तिरूप फल देने वाली है। यतियों के लिये इस पूजा को सर्वोत्तम तथा निर्दोष समझना चाहिये। महाप्राज्ञ तुम पर स्नेह होने के कारण लोकानुग्रह की कामना से मैं उस पूजा की विधि बता रहा हूँ, सावधान होकर सुनो।
साधक को चाहिये कि वह सम्पूर्ण शास्त्रों के तत्त्वार्थ के ज्ञाता, वेदान्तज्ञान के पारंगत तथा बुद्धिमानों में श्रेष्ठ आचार्य की शरण में जाय। उत्तम बुद्धि से युक्त एवं चतुर साधक आचार्य के समीप जाकर विधिपूर्वक दण्ड-प्रणाम आदि के द्वारा उन्हें यत्नपूर्वक संतुष्ट करे। फिर गुरु की आज्ञा ले वह बारह दिनों तक केवल दूध पीकर रहे। तदनन्तर शुक्लपक्ष की चतुर्थी या दशमी को प्रातःकाल विधिवत् स्नान कर शुद्धचित्त हुआ विद्वान् साधक नित्य-कर्म करके गुरु को बुलाकर शास्त्रोक्त विधि से नान्दीश्राद्ध करे। नान्दीश्राद्ध में विश्वेदेवों की संज्ञा सत्य और वसु बतायी गयी है। प्रथम देवश्राद्ध में नान्दीमुख-देवता ब्रह्मा, विष्णु और महेश कहे गये हैं। दूसरे ऋषिश्राद्ध में उन्हें ब्रह्मषि, देवर्षि तथा राजर्षि कहा गया है। तीसरे दिव्य श्राद्ध में उनकी वसु, रुद्र और आदित्य संज्ञा बतायी गयी है। चौथे मनुष्यश्राद्ध में सनक आदि चार मुनीश्वर [सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार।] ही नान्दीमुख-देवता हैं। पाँचवें भूत-श्राद्ध में पाँच महाभूत, नेत्र आदि ग्यारह इन्द्रियसमूह तथा जरायुज आदि चतुर्विध प्राणिसमुदाय नान्दीमुख माने गये हैं। छठे पितृश्राद्ध में पिता, पितामह और प्रपितामह – ये तीन नान्दीमुख-देवता हैं। सातवें मातृश्राद्ध में माता, पितामही और प्रपितामही – इन तीनों को नान्दीमुख-देवता बताया गया है तथा आठवें आत्मश्राद्ध में आत्मा, पिता, पितामह और प्रपितामह – ये चार नान्दीमुख देवता कहे गये हैं। मातामहात्मक श्राद्ध में मातामह, प्रमातामह और वद्ध-प्रमातामह – ये तीन नान्दीमुख देवता सपत्नीक बताये गये हैं। प्रत्येक श्राद्ध में दो-दो ब्राह्मण करके जितने ब्राह्मण आवश्यक हों, उनको आममन्त्रित करे और स्वयं यत्नपूर्वक आचमन करके पवित्र हो उन ब्राह्मणों के पैर धोये। उस समय इस प्रकार कहे – 'जो समस्त सम्पत्ति की प्राप्ति में कारण, आयी हुई आपत्ति के समूह को नष्ट करने के लिये धूमकेतु (अग्नि) रूप तथा अपार संसारसागर से पार लगाने के लिये सेतु के समान हैं, वे ब्राह्मणों की चरणधूलियाँ मुझे पवित्र करें। जो आपत्तिरूपी घने अन्धकार को दूर करने के लिये सूर्य, अभीष्ट अर्थ को देने के लिये कामधेनु तथा समस्त तीर्थों के जल से पवित्र मूर्तियाँ हैं, वे ब्राह्मणों की चरणधूलियाँ मेरी रक्षा करें।'
ऐसा कह पृथ्वी पर दण्ड की भाँति पड़कर साष्टांग प्रणाम करे। तत्पश्चात् पूर्वाभिमुख बैठकर भगवान् शंकर के युगल चरणारविन्दों का चिन्तन करते हुए दृढ़तापूर्वक आसन ग्रहण करे। हाथ में पवित्री ले शुद्ध हो नूतन यज्ञोपवीत धारण कर तीन बार प्राणायाम करे। तदनन्तर तिथि आदि का स्मरण करके इस तरह संकल्प करे – 'मेरे संन्यास का अंगभूत जो पहले विश्वेदेव का पूजन, फिर देवादि अष्टविधि श्राद्ध तथा अन्त में मातामहश्राद्ध है, उसे आपलोगों की आज्ञा लेकर मैं पार्वण की विधि से सम्पन्न करूँगा।' ऐसा संकल्प करके आसन के लिये दक्षिण दिशा से आरम्भ करके उत्तरोत्तर कुशों का त्याग करे। तत्पश्चात् आचमन करके खड़ा हो वर्णक्रम का आरम्भ करे। अपने हाथ में पवित्री धारण करके दो ब्राह्मणों के हाथों का स्पर्श करते हुए इस प्रकार कहे – 'विश्वेदेवार्थं भवन्तौ वृणे। भवद्भयां नान्दीश्राद्धे क्षणः प्रसादनीयः।'
अर्थात् 'हम विश्वेदेव श्राद्ध के लिये आप दोनों का वरण करते हैं। आप दोनों नान्दीश्राद्ध में अपना समय देने की कृपा करें।' इतना सभी श्राद्धों के ब्राह्मणों के लिये कहे। सर्वत्र ब्राह्मणवरण की विधि का यही क्रम है।
इस प्रकार वरण का कार्य पूरा करके दस मण्डलों का निर्माण करे। उत्तर से आरम्भ करके दसों मण्डलों का अक्षत से पूजन करके उनमें क्रमशः ब्राह्मणों को स्थापित करे। फिर उनके चरणों पर भी अक्षत आदि चढ़ाये। तदनन्तर सम्बोधनपूर्वक विश्वेदेव आदि नामों का उच्चारण करे और कुश, पुष्प, अक्षत एवं जल से 'इदं वः पाद्यम्' कहकर पाद्य निवेदन करे। [* प्रथम मण्डल में दो विश्वेदेवों के लिए, फिर आठ मण्डलों में क्रमशः देवादि श्राद्धों के अधिकारीयों के लिए तथा दसवें मण्डल में सपत्नीक मातामह आदि के लिए पद्य अर्पण करने चाहिए।]
इस प्रकार पाद्य देकर स्वयं भी अपना पैर धो ले और उत्तराभिमुख हो आचमन करके एक-एक श्राद्ध के लिये जो दो-दो ब्राह्मण कल्पित हुए हैं, उन सबको आसनों पर बिठाये तथा यह कहे – 'विश्वेदेवस्वरूपस्य ब्राह्मणस्य इदमासनम्।' – विश्वेदेवस्वरूप ब्राह्मण के लिये यह आसन समर्पित है, यह कह कुशासन दे स्वयं भी हाथ में कुश लेकर आसन पर स्थित हो जाय। इसके बाद कहे – 'अस्मिन्नान्दीमुखश्राद्धे विश्वेदेवार्थे भवद्भयां क्षणः क्रियताम् – इस नान्दीमुख श्राद्ध में विश्वेदेव के लिये आप दोनों क्षण (समय प्रदान) करें।' तदनन्तर 'प्राप्नुतां भवन्तौ – आप दोनों ग्रहण करें।' ऐसा कहे। फिर वे दोनों श्रेष्ठ ब्राह्मण इस प्रकार उत्तर दें 'प्राप्नुयाव – हम दोनों ग्रहण करेंगे।' इसके बाद यजमान उन श्रेष्ठ ब्राह्मणों से प्रार्थना करे – 'मेरे मनोरथ की पूर्ति हो, संकल्प की सिद्धि हो – इसके लिये आप अनुग्रह करें।'
तत्पश्चात् (पद्धति के अनुसार अर्थ्य दे, पूजन कर) शुद्ध केले के पत्ते आदि धोये हुए पात्रों में परिपक्व अन्न आदि भोज्य पदार्थों को परोसकर पृथक्-पृथक् कुश बिछाकर और स्वयं वहाँ जल छिड़ककर प्रत्येक पात्र पर आदरपूर्वक दोनों हाथ लगा 'पृथिवी ते पात्रम्' इत्यादि मन्त्र का पाठ करे। वहाँ स्थित हुए देवता आदि का चतुर्थ्यन्त उच्चारण करके अक्षत सहित जल ले 'स्वाहा' बोलकर उनके लिये अन्न अर्पित करे और अन्त में 'न मम' इस वाक्य का उच्चारण करे। सर्वत्र – माता आदि के लिये भी अन्न-अर्पण की यही विधि है।
अन्त में इस प्रकार प्रार्थना करे – यत्पादपद्मस्मरणाद् यस्य नामजपादपि। न्यूनं कर्म भवेत् पूर्णं तं वन्दे साम्बमीश्वरम्॥ 'जिनके चरणारविन्दों के चिन्तन एवं नाम-जप से न्यूनतापूर्ण अथवा अधूरा कर्म भी पूरा हो जाता है, उन साम्ब सदाशिव (उमामहेश्वर) की मैं वन्दना करता हूँ।'
इसका पाठ करके कहे – 'ब्राह्मणो! मेरे द्वारा किया हुआ यह नान्दीमुख श्राद्ध यथोक्तरूप से परिपूर्ण हो, यह आप कहें।' ऐसी प्रार्थना के साथ उन श्रेष्ठ ब्राह्मणों को प्रसन्न करके उनका आशीर्वाद ले और अपने हाथ में लिया हुआ जल छोड़ दे। फिर पृथ्वी पर दण्ड की भाँति गिरकर प्रणाम करे और उठकर ब्राह्मणों से कहे – 'यह अन्न अमृतरूप हो।' फिर उदारचेता साधक हाथ जोड़ अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक प्रार्थना करे। श्रीरुद्रसूक्त का चमकाध्याय सहित पाठ करे। पुरुषसूक्त की भी विधिवत् आवृत्ति करे। मन में भगवान् सदाशिव का ध्यान करते हुए 'ईशानः सर्वविद्यानाम्' इत्यादि पाँच मन्त्रों का जप करे। जब ब्राह्माण लोग भोजन कर चुकें, तब रुद्रसूक्त का पाठ समाप्त कर क्षमा-प्रार्थनापूर्वक उन ब्राह्मणों को पुनः 'अमृतापिधानमसि स्वाहा' यह मन्त्र पढ़कर उत्तरापोशन के लिये जल दे।
तदनन्तर हाथ-पैर धो आचमन करके पिण्डदान के स्थान पर जाय। वहाँ पूर्वाभिमुख बैठकर मौनभाव से तीन बार प्राणायाम करे। इसके बाद 'मैं 'नानदीमुख' श्राद्ध का अंगभूत पिण्डदान करूँगा' ऐसा संकल्प करके दक्षिण से लेकर उत्तर की ओर नौ रेखाएँ खींचे और उन रेखाओं पर क्रमशः बारह-बारह पूर्वाग्र कुश बिछाये। फिर दक्षिण की ओर से देवता आदि के पाँच स्थानों [*देव, ऋषि, दिव्य मनुष्य और भूत] पर चुपचाप अक्षत और जल छोड़े। पितृवर्ग के तीनों स्थानों पर क्रमशः अक्षत, जल छोड़कर नवें मातामहादि के स्थान पर भी मार्जन करे'। तत्पश्चात् 'अत्र पितरो मादयध्वम्' कहकर देवादि के पाँचों स्थानों पर क्रमशः अक्षत, जल छोड़े। इस प्रकार अवनेजन दे पाँचों स्थानों पर प्रत्येक के लिये तीन-तीन पिण्ड दे। (इसी तरह शेष स्थानों पर भी करे।) अपने गृह्यसूत्र में बतायी हुई पद्धति के अनुसार सभी पिण्ड पृथक्-पथक् देने चाहिये। फिर पितरों के साद्गुण्य के लिये जल अक्षत अर्पित करे। तत्पश्चात् अपने हृदयकमल में सदा शिवदेव का ध्यान करे और पूर्वोक्त 'यत्पादपद्मस्मरणात्.......' इत्यादि शलोक का पुनः पाठ करके ब्राह्मणों को नमस्कारपूर्वक यथाशक्ति दक्षिणा दे। फिर त्रुटियों के लिये क्षमा-प्रार्थना करके देवता-पितरों का विसर्जन करे। पिण्डों का उत्सर्ग करके उन्हें गौओं को खाने के लिये दे दे अथवा जल में डाल दे। तत्पश्चात् पुण्याहवाचन करके स्वजनों के साथ भोजन करे।
दूसरे दिन प्रातःकाल उठकर शुद्ध बुद्धिवाला साधक उपवासपूर्वक व्रत रखे। काँख और उपस्थ के बालों को छोड़कर शेष सभी बाल मुँड़वा दे, परंतु शिखा के सात-आठ बाल अवश्य बचा ले। फिर स्नान करके धुले हुए वस्त्र पहनकर शुद्ध हो दो बार आचमन करके मौन हो विधिवत् भस्म धारण करे। पुण्याहवाचन करके उससे अपने-आपका प्रोक्षण कर बाहर-भीतर से शुद्ध हो होम, द्रव्य और आचार्य की दक्षिणा के द्रव्य को छोड़कर शेष सभी द्रव्य महेश्वरार्पणबुद्धि से ब्राह्मणों और विशेषतः शिवभक्तों को बाँट दे। तदनन्तर गुरुरूपधारी शिव के लिये वस्त्र आदि की दक्षिणा दे, पृथ्वी पर दण्डवत् प्रणाम करके डोरा, कौपीन, वस्त्र तथा दण्ड आदि जो धोकर पवित्र किये गये हों, धारण करे। तदनन्तर होमद्रव्य और समिधा आदि लेकर समुद्र या नदी के तट पर, पर्वत पर, शिवालय में, वन में अथवा गोशाला में किसी उत्तम स्थान का विचार करके वहाँ बैठ जाय और आचमन करके पहले मानसिक जप करे। फिर 'ॐ नमों ब्रह्मणे' इस मन्त्र का तीन बार जप करके 'अग्निमीळे पुरोहितम्' इस मन्त्र का पाठ करे। इसके बाद 'अथ महाव्रतम्', 'अग्निवै देवानाम्', 'एतस्य समाम्नायम्', 'ॐ इषे त्वोर्जे त्वा वायवस्थ', 'अग्न आयाहि वीतये' तथा 'शं नो देवी रभीष्टये' इत्यादि का पाठ करे। तत्पश्चात् '(म य र स त ज भ न ल ग 'पञ्चसंवत्सरमयम्', 'समाम्नायः समाम्नातः, 'अथ शिक्षां प्रवक्ष्यामि', 'वृद्धिरादैच्', 'अथातो धर्मजिज्ञासा,' 'अथातो ब्रह्मजिज्ञासा' – इन सबका पाठ करे। तदनन्तर यथासम्भव वेद, पुराण आदि का स्वाध्याय करे। इसके बाद ॐ ब्रह्मणे नमः', 'ॐ इन्द्राय नमः', 'ॐ सूर्याय नमः', 'ॐ सोमाय नमः', 'ॐ प्रजापतये नमः', 'ॐ आत्मने नमः', 'ॐ अन्तरात्मने नमः', 'ॐ ज्ञानात्मने नमः', 'ॐ परमात्मने नमः' इत्यादि रूप से ब्रह्मा आदि शब्दों के आदि में 'ॐ' और अन्तमें 'नमः' लगाकर उनके चतुर्थ्यन्त रूप का जप करे। इसके बाद तीन मुट्ठी सत्तू लेकर प्रणव के उच्चारणपूर्वक तीन बार खाय और प्रणव से ही दो बार आचमन करके नाभि का स्पर्श करे। उस समय आगे बताये जानेवाले शब्दों के आदि में प्रणव और अन्तमें 'नमः स्वाहा' जोड़कर उनका उच्चारण करे। यथा – 'ॐ आत्मने नमः स्वाहा', 'ॐ अन्तरात्मने नमः स्वाहा', 'ॐ ज्ञानात्मने नमः स्वाहा', 'ॐ परमात्मने नमः स्वाहा', 'ॐ प्रजापतये नमः स्वाहा' इति। तदनन्तर पृथक्-पृथक् प्रणवमन्त्र से* ही दूध-दही मिले हुए घी को (अथवा केवल जल को) तीन बार चाटकर पुनः दो बार आचमन करे। इसके बाद मन को स्थिर करके सुस्थिर आसन पर पूर्वाभिमुख बैठकर शास्त्रोक्त विधि से तीन बार प्राणायाम करे।
[* धर्मसिन्धुकार ने इसके लिये तीन मन्त्र लिखे हैं। प्रथम बार चाटकर कहे ' त्रिवृद्सि', द्वितीय बार 'प्रवृदसि' और तृतीय बार 'विवृदसि'।]
(अध्याय १२)