संन्यासग्रहण की शास्त्रीय विधि – गणपति-पूजन, होम, तत्त्व-शुद्धि, सावित्री-प्रवेश, सर्वसंन्यास और दण्ड-धारण आदि का प्रकार

स्कन्द कहते हैं – वामदेव! तदनन्तर मध्याह्नकाल में स्नान करके साधक अपने मन को वश में रखते हुए गन्ध, पुष्प और अक्षत आदि पूजा-द्रव्यों को ले आये और नैऋत्यकोण में देवपृजित विध्नराज गणेश की पूजा करे। 'गणानां त्वा' इत्यादि मन्त्र से विधिपूर्वक गणेशजी का आवाहन करे। आवाहन के पश्चात् उनके स्वरूप का इस प्रकार ध्यान करना चाहिये। उनकी अंगकान्ति लाल है, शरीर विशाल है। सब प्रकार के आभूषण उनकी शोभा बढ़ा रहे हैं। उन्होंने अपने करकमलों में क्रमशः पाश, अंकुश, अक्षमाला तथा वर नामक मुद्राएँ धारण कर रखी हैं। इस प्रकार आवाहन और ध्यान करने के पश्चात् शम्भुपुत्र गजानन की पूजा करके खीर, पूआ, नारियल और गुड़ आदि का उत्तम नैवेद्य निवेदन करे। तत्पश्चात् ताम्बूल आदि दे उन्हें संतुष्ट करके नमस्कार करे और अपने अभीष्ट कार्य की निर्विघ्न पूर्ति के लिये प्रार्थना करे।

तदनन्तर अपने गृह्यसूत्र में बतायी हुई विधि के अनुसार औपासनाग्नि में आज्यभागान्न* हवन करके अग्निदेवता सम्बन्धी यज्ञविषयक स्थालीपाक होम करना चाहिये। इसके बाद 'भूः स्वाहा' इस मन्त्र से पूर्णाहुति होम करके हवन का कार्य समाप्त करे। तत्पश्चात् आलस्यरहित हो अपराह्वकाल तक गायत्री मन्त्र का जप करता रहे। तदनन्तर स्नान करके सायंकाल की संध्योपासना तथा सायंकालिक उपासना सम्बन्धी नित्य-होम आदि करके मौन हो गुरु की आज्ञा ले चरु पकाये। फिर अग्नि में समिधा, चरु और घी की रुद्रसूक्त से और सद्योजातादि पाँच मन्त्रों से पृथक्-पृथक् आहुति दे। अग्नि में उमा सहित महेश्वर की भावना करे और गौरी देवी का चिन्तन करते हुए 'गौरीर्मिमाय इस मन्त्र से एक सौ आठ बार होम करके 'अग्नये स्विष्टकृते स्वाहा' इस मन्त्र से एक बार आहुति दे।

[* कुशकण्डिका के अनन्तर अग्नि में जो चार आहुतियाँ दी जाती हैं, उनमें प्रथम दो को 'आघार' और अन्तिम दो को 'आज्यभाग' कहते हैं। प्रजापति और इन्द्र के उद्देश्स् से 'आघार' तथा अग्नि और सोम के उद्देश्य से 'आज्यभाग' दिया जाता है।]

इस प्रकार मन्त्र से हवन करने के पश्चात् विद्वान् पुरुष अग्नि से उत्तर में एक आसन पर बैठे, जिसमें नीचे कुशा, उसके ऊपर मृगचर्म और उसके ऊपर वस्त्र बिछा हुआ हो। ऐसे सुखद आसन पर बैठकर मौन भाव से सुस्थिरचित्त हो जागरणपूर्वक ब्राह्ममुहूर्त आने तक गायत्री का जप करता रहे। इसके बाद स्नान करे। जो जल से स्नान करने में असमर्थ हो, वह भस्म से ही विधिपूर्वक स्नान करे फिर उस अग्नि पर ही चरु पकाकर उसे घी से तर करे। उसे उतारकर अग्नि से उत्तर दिशा में कुश पर रखे। पुनः घी से चरु को मिश्रित करे। इसके बाद व्याहृति-मन्त्र, रुद्रसूक्त तथा सद्योजातादि पाँच मन्त्रों का जप करे और इनके द्वारा एक-एक आहुति भी दे। चित्त को भगवान् शिव के चरणारविन्द में लगाकर प्रजापति, इन्द्र, विश्वेदेव और ब्रह्मा के लिये भी एक-एक आहुति दे। इन सबके नाम के आदि में ॐ और अन्त में 'नमः स्वाहा' जोड़कर चतुर्थ्यनत उच्चारण करे (यथा – ॐ प्रजापतये नमः स्वाहा – इत्यादि)। तत्पश्चात् पुण्याहवाचन कराकर 'अग्नये स्वाहा' इस मन्त्र से अग्नि के मुख में आहुति देने तक का कार्य सम्पन्न करे। फिर 'प्राणाय स्वाहा' इत्यादि पाँच मन्त्रों द्वारा घृत सहित चरु की आहुति दे। इसके बाद 'अग्नये स्विष्टकृते स्वाहा' बोलकर एक आहुति और दे। तदनन्तर फिर रुद्रसूक्त तथा ईशानादि पाँच मन्त्रों का जप करे। महेशादि चतुर्व्यह मन्त्रों का भी पाठ करे। इस प्रकार तन्त्र होम करके अपनी गृह्यशाखा में बतायी हुई पद्धति के अनुसार उन-उन देवताओं के उद्देश्य से बुद्धिमान् पुरुष सांग होम करे। इस तरह जो अग्निमुख आदि कर्मतन्त्र को प्रवर्तित किया गया है, उसका निर्वाह करके विरजा होम करे। छब्बीस तत्त्व रूप इस शरीर में छिपे हुए तत्त्व-समुदाय की शुद्धि कि लिये विरजा होम करना चाहिये।

उस समय यह कहे कि 'मेरे शरीर में जो ये तत्त्व हैं, इन सबकी शुद्धि हो।' उस प्रसंग में आत्मतत्त्व की शुद्धि के लिये आरुणकेतुक मन्त्रों का पाठ करते हुए पृथ्वी आदि तत्त्व से लेकर पुरुषतत्त्व पर्यन्त क्रमशः सभी तत्त्वों की शुद्धि के निमित्त घृतयुक्त चरु का होम करे तथा शिव के चरणारविन्दों का चिन्तन करते हुए मौन रहे। पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश ये पृथिव्यादिपंचक कहलाते हैं। शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध – ये शब्दादिपंचक हैं। वाक्, पाणि, पाद, पायु तथा उपस्थ – ये वागादिपंचक हैं। श्रोत्र, नेत्र, नासिका, रसना, और त्वक् – ये श्रोत्रादिपंचक हैं। शिर, पार्श्व, पृष्ठ और उदर – ये चार हैं। इन्हीं में जंघा को भी जोड़ ले। फिर त्वक् आदि सात धातुए हैं। प्राण, अपान आदि पाँच वायुओं को प्राणादिपंचक कहा गया है। अन्नमयादि पाँचों कोशों को कोशपंचक कहते हैं। (उनके नाम इस प्रकार हैं – अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय।) इनके सिवा मन, चित्त, बुद्धि, अहंकार, ख्याति, संकल्प, गुण, प्रकृति और पुरुष हैं। भोक्तापन को प्राप्त हुए पुरुष के लिये भोगकाल में जो पाँच अन्तरंग साधन हैं, उन्हें तत्त्वपंचक कहा गया है। उनके नाम ये हैं – नियति, काल, राग, विद्या और कला। ये पाँचों माया से उत्पन्न हैं। 'मायां तु प्रकृति विद्यात्'। इस श्रुति में प्रकृति ही माया कही गयी है। उसी से ये तत्त्व उत्पन्न हुए हैं, इसमें संशय नहीं है। काल का स्वभाव ही 'नियति' है, ऐसा श्रुति का कथन है। ये नियति आदि जो पाँच तत्त्व हैं, इन्हीं को 'पंचकंचुक' कहते हैं। इन पाँच तत्त्वों को न जाननेवाला दिद्वान् भी मूढ़ ही कहा गया है।

नियति प्रकृति से नीचे है और यह पुरुष प्रकृति से ऊपर है। जैसे कौए की एक ही आँख उसके दोनों गोलकों में घूमती रहती है, उसी प्रकार पुरुष प्रक्रति और नियति दोनों के पास रहता है। यह विद्यातत्त्व कहा गया है। शुद्ध विद्या, महेश्वर, सदाशिव, शक्ति और शिव – इन पाँचों को शिवतत्त्व कहते हैं। ब्रह्मन्! 'प्रज्ञानं ब्रह्म' इस श्रुति के वाक्य से यह शिवतत्त्व ही प्रतिपादित हुआ है। मुनीशवर! पृथ्वी से लेकर शिव पर्यन्त जो तत्त्वसमूह है, उसमें से प्रत्येक को क्रमशः अपने-अपने कारण में लीन करते हुए उसकी शुद्धि करो। १ पृथिव्यादिपञ्चक, २ शब्दादिपञ्चक, ३ वागादिपञ्चक ४ श्रोत्रादिपञ्चक, ५ शिरादिपञ्चक, ६ त्वगादिधातुसप्तक, ७ प्राणादिपञ्चक, ८ अन्नमयादिकोशपञ्चक, ९ मन आदि पुरुषान्त तत्त्व, १० नियत्यादि तत्त्वपञ्चक (अथवा पञ्चकञ्चुक) और ११ शिवतत्त्वपञ्चक – ये ग्यारह वर्ग हैं; इन एकादशवर्ग सम्बन्धी मन्त्रों के अन्त में 'परस्मै शिवज्योतिषे इदं न मम' इस वाक्य का उच्चारण करे। इसके द्वारा अपने उद्देश्य का त्याग बताया गया है।

इसके बाद 'विविद्या' तथा 'कर्षोत्क' सम्बन्धी मन्त्रों के अन्त में अर्थात् 'विविद्यायै स्वाहा', 'कर्षोत्काय स्वाहा' इनके अन्त में स्वत्वत्याग के लिये 'व्यापकाय परमात्म ने शिवज्योतिषे विश्वभूतघसनोत्सुकाय परस्मै देवाय इदं न मम' इसका उच्चारण करे। तत्पश्चात् 'उत्तिष्ठब्रह्मणस्पते देवयन्तस्त्वेमहे। उप प्र यन्तु मरुतः सुदानव इन्द्र प्राशूर्भवाः स चा' इस मन्त्र के अन्त में 'विश्वरूपाय पुरुषाय ॐ स्वाहा' बोलकर स्वत्वत्याग के लिये 'लोकत्रयव्यापिने परमात्मने शिवायेदं न मम' का उच्चारण करे। तदनन्तर अपनी शाखा में बतायी हुई विधि से पहले तन्त्रकर्म का सम्पादन करके घृतमिश्रित चरु का प्राशन एवं आचमन करने के पश्चात पुरोधा आचार्य को सुवर्ण आदि से सम्पन्न समुचित दक्षिणा दे।

फिर ब्रह्मा का विसर्जन करके प्रातःकालिक उपासना सम्बन्धी नित्य होम करे। इसके बाद मनुष्य 'सं मा सिञ्चन्तु मरुतः इस मन्त्र का जप करे। [ * इस मन्त्र से अग्नि का उपस्थान करके उसमें काष्ठमय यज्ञपात्रों को जला दे। यदि पात्र तैजस धातु के हों तो उन्हें आचार्य को दे दे।] तत्पश्चात्' या ते अग्ने यज्ञिया तनूस्तयेह्यारोहात्मात्मानम्' [ * पूरे मन्त्र और अर्थ यों है – हे अग्निदेव! जो तुम्हारा यज्ञिय (यज्ञों में प्रकट होने वाला) स्वरूप है, उसी स्वरूप से तुम यहाँ पधारो और मेरे लिये बहुत-से मनुष्योपयोगी विशुद्ध धन (साधन-सम्पत्ति) की सृष्टि करते हुए आत्मा रूप से मेरे आत्मा में विराजमान हो जाओ। तुम यज्ञरूप होकर अपने कारणरूप यज्ञ में पहुँच जाओ। हे जातवेदा! तुम पृथिवी से उत्पन्न होकर अपने धाम के साथ यहाँ पधारो।] इत्यादि मन्त्रों से हाथ को अग्नि में तपाकर उस अग्नि को अद्वैतधामस्वरूप अपने आत्मा में आरोपित करे। तदनन्तर प्रातःकाल की संध्योपासना करके सूर्योपस्थान के पश्चात् जलाशय में जाकर नाभि तक जल के भीतर प्रवेश करे। वहाँ प्रसन्नतापूर्वक मन को स्थिर कर उत्सुकतापूर्वक वेदमन्त्रों का जप करे। [ * वहाँ जल लेकर उसे 'आशुः शिशानः' इस सूक्त से अभिमन्त्रित करके 'सर्वाभ्यो देवताभ्यः स्वाहा' ऐसा कहकर छोड़ दे। फिर संन्यास का संकल्प ले तीन बार जलांजलि दे।]

जो अग्निहोत्री हो, वह स्थापित अग्नि में 'प्राजापत्येष्टि' * करे तथा वेदोक्त वैश्वानर स्थालीपाक होम करके उसमें अपना सब कुछ दान कर दे। पूर्वोक्तरूप से अग्नि का आत्मा में आरोप करके ब्राह्मण घर से निकल जाय। [ * 'यदिष्टं यच्च पूर्तं यच्चापद्यनापदि प्रजापतौ तन्मनसि जुहोमि। विमुक्तोऽहं देवकिल्बिषात्स्वाहा' ऐसा कह घी की आहुति दे – 'इदं प्रजापतये न मम' कहकर त्याग करे। यही प्राजापत्येष्टि है।]

मुनीश्वर फिर वह साधक निम्नांकित रूप से 'सावित्रीप्रवेश' करे –

ॐ भूः सावित्रीं प्रवेशयामि, ॐ तत्सवितुर्वरेण्यम्, ॐ भुवः सावित्रीं प्रवेशयामि * भर्गो देवस्य धीमहि, ॐ स्वः सावित्रीं प्रवेशयामि, धियो यो नः प्रचोदयात्, ॐ भूर्भुवः स्वः सावित्रीं प्रवेशयामि, तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्। [ * धर्मसिन्धु में 'प्रविशामि' पाठ है।]

– इन वाक्यों का प्रेमपूर्वक उच्चारण करे और चित्त को चंचल न होने दे।

उस समय गायत्री का इस प्रकार ध्यान करे – ये भगवती गायत्री साक्षात् भगवान् शंकर के आधे शरीर में वास करने वाली हैं। इनके पाँच मुख और दस भुजाए हैं। ये पंद्रह नेत्रों से प्रकाशित होती हैं। नूतन रत्नमय किरीट से जगमगाती हुई चन्द्रलेखा इनके मस्तक को विभूषित करती है। इनकी अंगकान्ति शुद्ध स्फटिक मणि के समान उज्ज्वल है। ये शुभलक्षणा देवी अपने दस हाथों में दस प्रकार के आयुध धारण करती हैं। हार, केयूर (बाजूबंद), कड़े, करधनी और नूपुर आदि आभूषणों से इनके अंग विभूषित हैं। इन्होंने दिव्य वस्त्र धारण कर रखा है। इनके सभी आभूषण रत्ननिर्मित हैं। विष्णु, ब्रह्मा, देवता, ऋषि तथा गन्धर्वराज और मनुष्य ही सदा इनका सेवन करते हैं। ये सर्वव्यापिनी शिवा सदाशिवदेव की मनोहारिणी धर्मपत्नी हैं। सम्पूर्ण जगत् की माता, तीनों लोकों की जननी, त्रिगुणमयी, निर्गुणा तथा अजन्मा हैं। इस प्रकार गायत्री देवी के स्वरूप का चिन्तन करते हुए शुद्धबुद्धिवाला पुरुष ब्राह्मणत्व आदि प्रदान करने वाली अजन्मा आदि देवी त्रिपदा गायत्री का जप करे। गायत्री व्याहृतियों से उत्पन्न हुई हैं और उन्हीं में लीन होती हैं। व्याहृतियाँ प्रणव से प्रकट हुई हैं और प्रणव में ही लय को प्राप्त होती हैं। प्रणव सम्पूर्ण वेदों का आदि है। वह शिव का वाचक, मन्त्रों का राजाधिराज, महाबीज स्वरूप और श्रेष्ठ मन्त्र है। शिव प्रणव है और प्रणव शिव कहा गया है; क्योंकि वाच्य और वाचक में अधिक भेद नहीं होता। इसी महामन्त्र को काशाी में शरीर त्याग करनेवाले जीवों के मरणकालन में उन्हें सुनाकर भगवान् शिव परम मोक्ष प्रदान करते हैं। इसलिये श्रेष्ठ यति अपने हृदयकमल के मध्य में विराजमान एकाशक्षर प्रणवरूप परम कारण शिवदेव की उपासना करते हैं। दूसरे मुमुक्षु, धीर एवं विरक्त लौकिक पुरुष भी मन से विषयों का परित्याग करके प्रणवरूप परम शिव की उपासना करते हैं।

इस प्रकार गायत्री का शिववाचक प्रणव में लय करके 'अहं वृक्षस्य रेरिवा' * इन अनुवाक का जप करे। [ * मैं संसार वृक्ष का उच्छेद करनेवाला हूँ, मेरी कीर्ति पर्वत के शिखर की भाँति उन्नत है; अन्नोत्पादक शक्ति से युक्त सूर्य में जैसे उत्तम अमृत है, उसी प्रकार मैं भी अतिशय पवित्र अमृतस्वरूप हूँ तथा मैं प्रकाशयुक्त धन का भण्डार हूँ, परमानन्दमय अमृत से अभिषिक्त तथा श्रेष्ठ बुद्धिवाला हूँ – इस प्रकार यह त्रिशंकु ऋषि का अनुभव किया हुआ वैदिक प्रवचन है।']

तत्पश्चात् 'यश्छन्दसामृषभः' (तैत्तिरीय० ९।४। १) – इस अनुवाक को आरम्भ से लेकर.... 'श्रुतं मे गोपाय' तक पढ़कर कहे – 'दारैषणायाश्च वित्तैषणायाश्च लोकैषणायाश्च व्युत्थितोऽहम्' अर्थात् 'मैं सत्री की कामना, धन की कामना और लोकों में ख्याति की कामना से ऊपर उठ गया हूँ।' मुने! इस वाक्य का मन्द, मध्यम और उच्चस्वर से क्रमशः तीन बार उच्चारण करे। तत्पश्चात् सृष्टि, स्थिति और लय के क्रम से पहले प्रणव मन्त्र का उद्धार करके फिर क्रमशः इन वाक्यों का उच्चारण करे – 'ॐ भूः संन्यस्तं मया', 'ॐ भुवः संन्यस्तं मया', 'ॐ सुवः संन्यस्तं मया', 'ॐ भूर्भुवः सुवः संन्यस्तं मया' * इन वाक्यों का मन्द, मध्यम और उच्च स्वर से हृदय में सदाशिव का ध्यान करते हुए सावधान चित्त से उच्चारण करे।

['जो वेदों में सर्वश्रेष्ठ है, सर्वरूप है और अमृतस्वरूप वेदों से प्रधान रूप में प्रकट हुआ है, वह सबका स्वामी परमेश्वर मुझे धारणायुक्त बुद्धि से सम्पन्न करे। हे देव! मै आपकी कृपा से अमृतमय परमात्मा को अपने हृदय में धारण करनेवाला बन जाऊँ। मेरा शरीर विशेष – फुर्तीला सब प्रकार से रोगरहित हो और मेरी जीह्वा अतिशय मधुमती (मधुरभाषिणी) हो जाय। मैं दोनों कानों द्वारा अधिक सुनता रहूँ। (हे प्रणव! तू) लौकिक बुद्धि से ढकी हुई परमात्मा की निधि है। तू मेरे सुने हुए उपदेश की रक्षा कर।

* मैंने भूलोक का संन्यास (पूर्णतः त्याग) कर दिया मैंने भुवः (अन्तरिक्ष) लोक का परित्याग कर दिया तथा मैंने स्वर्गलोक का भी सर्वथा त्याग कर दिया। मैंने भूर्लोक, भुवर्लोक और स्वर्गलोक – इन तीनों को भलीभाँति त्याग दिया।]

तदनन्तर 'अभयं सर्वभूतेभ्यो मत्तः स्वाहा' (मेरी ओर से सब प्राणियों को अभयदान दिया गया) – ऐसा कहते हुए पूर्वदिशा में एक अंजलि जल लेकर छोड़े। इसके बाद शिखा के शेष बालों को हाथ से उखाड़ डाले और यज्ञोपवीत को निकालकर जल के साथ हाथ में ले इस प्रकार कहे – 'ॐ भूः समुद्रं गच्छ स्वाहा' यों कहकर उसका जल में ही होम कर दे। फिर 'ॐ भूः संन्यस्तं मया', 'ॐ भुवः संन्यस्तं मया', 'ॐ सुवः संन्यस्तं मया' – इस प्रकार तीन बार कहकर तीन बार जल को अभिमन्त्रित करके उसका आचमन करे। फिर जलाशय के किनारे आकर वस्त्र और कटिसूत्र को भूमि पर त्याग दे तथा उत्तर या पूर्व की ओर मुँह करके सात पद से कुछ अधिक चले। कुछ दूर जाने पर आचार्य उससे कहे, 'ठहरो, ठहरो भगवन्! लोक-व्यवहार के लिये कौपीन और दण्ड स्वीकार करो।' यों कह आचार्य अपने हाथ से ही उसे कटिसूत्र और कौपीन देकर गेरुआ वस्त्र भी अर्पित करे। तत्पश्चात् संन्यासी जब उससे अपने शरीर को ढककर दो बार आचमन कर ले तब आचार्य शिष्य से कहे – 'इन्द्रस्य वज्रोऽसि' यह मन्त्र बोलकर दण्ड ग्रहण करो। तब वह इस मन्त्र को पढ़े और 'सखा मा गोपायौजः सखा योऽसीन्द्रस्य वज्रोऽसि वार्त्रघ्न शर्म मे भव यत्पापं तन्निवारय ** – इस मन्त्र का उच्चारण करते हुए दण्ड की प्रार्थना करके उसे हाथ में ले। (तत्पश्चात् प्रणव या गायत्री का उच्चारण करके कमण्डलु ग्रहण करे।)

[** हे दण्ड! तुम मेरे सखा (सहायक) हो, मेरी रक्षा करो। मेरे ओज (प्राणशक्ति) की रक्षा करो। तुम वही मेरे सखा हो, जो इन्द्र के हाथ में वज्र के रूप में रहते हो। तुमने ही वज्र रूप से आघात करके वृत्रासुर का संहार किया है। तुम मेरे लिये कल्याणमय बनो। मुझमें जो पाप हो, उसका निवारण करो।]

तदनन्तर भगवान् शिव के चरणारविन्द का चिन्तन करते हुए गुरु के निकट जा वह तीन बार पृथ्वी में लोटकर दण्डवत् प्रणाम करे। उस समय वह अपने मन को पूर्णतया संयम में रखे। फिर धीरे से उठकर प्रेमपूर्वक अपने गुरु की ओर देखते हुए हाथ जोड़ उनके चरणों के समीप खड़ा हो जाय। संन्यासदीक्षा-विषयक कर्म आरम्भ होने के पहले ही शुद्ध गोबर लेकर आँवले बराबर उसके गोले बना ले और सूर्य की किरणों से ही उन्हें सुखाये। फिर होम आरम्भ होने पर उन गोलों को होमाग्नि के बीच में डाल दे। होम समाप्त होने पर उन सबको संग्रह करके सुरक्षित रखे। तदनन्तर दण्डधारण के पश्चात् गुरु विरजाग्निजनित उस श्वेत भस्म को लेकर उसी को शिष्य के अंगों में लगाये अथवा उसे लगाने की आज्ञा दे। उसका क्रम इस प्रकार है। 'ॐ अग्निरिति भस्म वायुरिति भस्म जलमिति भस्म स्थलमिति भस्म व्योमेति भस्म सर्वँ ह वा इदं भस्म मन एतानि चक्षुँषि' इस मन्त्र से भस्म को अभिमन्त्रित करे। तदनन्तर ईशानादि पाँच मन्त्रों द्वारा उस भस्म का शिष्य के अंगों से स्पर्श कराकर उसे मस्तक से लेकर पैरों तक सर्वांग में लगाने के लिये दे दे। शिष्य उस भस्म को विधिपूर्वक हाथ में लेकर 'त्र्यायुषम्०' तथा 'त्र्यम्बकम्०' इन दोनों मन्त्रों की तीन-तीन बार पढ़ते हुए ललाट आदि अंगों में क्रमशः त्रिपुण्ड्र धारण करे।

तत्पश्चात् श्रेष्ठ शिष्य अपने हृदय-कमल में विराजमान उमा सहित भगवान् शंकर का भक्तियुक्त चित्त से ध्यान करे। फिर गुरु शिष्य के मस्तक पर हाथ रखकर उसके दाहिने कान में ऋषि, छन्द और देवता सहित प्रणव का उपदेश करे। इसके बाद कृपा करके प्रणव के अर्थ का बोध कराये।। श्रेष्ठ गुरु को चाहिये कि वह प्रणव के छः प्रकार के अर्थ का ज्ञान कराते हुए उसके बारह भेदों का उपदेश दे। तत्पश्चात् शिष्य दण्ड की भाँति पृथ्वी पर पड़कर गुरु को साष्टांग प्रणाम करे और सदा उनके अधीन रहे, उनकी आज्ञा के बिना दूसरा कोई कार्य न करे। गुरु की आज्ञा से शिष्य वेदान्त के तात्पर्य के अनुसार सगुण-निर्गुण भेद से शिव के ज्ञान में तत्पर रहे। गुरु अपने उसी शिष्य के द्वारा श्रवण, मनन और निदिध्यासनपूर्वक जप के अन्त में प्रातःकालिक आदि नियमों का अनुष्ठान करवाये। कैलासप्रस्तर नामक मण्डल में शिव के द्वारा प्रतिपादित मार्ग के अनुसार शिष्य वहीं रहकर शिवपूजन करे। यदि गुरु के आदेश के अनुसार वह प्रतिदिन वहीं रहकर मंगलमय देवता शिव की पूजा करने में असमर्थ हो तो उनसे अर्घा सहित स्फटिकमय शिवलिंग ग्रहण कर ले और कहीं भी रहकर नित्य उसका पूजन किया करे। वह गुरु के निकट शपथ खाते हुए इस तरह प्रतिज्ञा करे – 'मेरे प्राण चले जायँ, यह अच्छा है। मेरा सिर काट लिया जाय, यह भी अच्छा है; परंतु मैं भगवान् त्रिलोचन की पूजा किये बिना कदापि भोजन नहीं कर सकता।' ऐसा कहकर सुदृढ़ चित्तवाला शिष्य मन में शिव की भक्ति लिये गुरु के निकट तीन बार शपथ खाय और तभी से मन में उत्साह रखकर उत्तम भक्तिभाव से पंचावरण-पूजन की पद्धति के अनुसार प्रतिदिन महादेवजी की पूजा करे।

(अध्याय १३)