प्रणव के अर्थों का विवेचन

वामदेवजी बोले – भगवान् षडानन! सम्पूर्ण विज्ञानमय अमृत के सागर! समस्त देवताओं के स्वामी महेश्वर के पुत्र! प्रणतार्ति के भंजन कार्तिकेय! आपने कहा है कि प्रणव के छः प्रकार के अर्थों का परिज्ञान अभीष्ट वस्तु को देनेवाला है। यह छः प्रकार के अर्थों का ज्ञान क्या है? प्रभो! वे छः प्रकार के अर्थ कौन-कौन से हैं और उनका परिज्ञान क्या वस्तु है? उनके द्वारा प्रतिपाद्य वस्तु क्या है और उन अर्थों का परिज्ञान होने पर कौन-सा फल मिलता है? पार्वतीनन्दन! मैंने जो-जो बातें पूछी हैं, उन सबका सम्यक्-रूप से वर्णन कीजिये।

सुब्रह्मण्य स्कन्द बोले – मुनिश्रेष्ठ! तुमने जो कुछ पूछा है, उसे आदरपूर्वक सुनो। समष्टि और व्यष्टिभाव से महेश्वर का परिज्ञान ही प्रणवार्थ का परिज्ञान है। मैं इस विषय को विस्तार के साथ कहता हूँ। उत्तम व्रत का पालन करनेवाले मुनीश्वर! मेरे इस प्रवचन से उन छः प्रकार के अर्थों की एकता का भी बोध होगा। पहला मन्त्ररूप अर्थ है, दूसरा यन्त्रभावित अर्थ है, तीसरा देवताबोधक अर्थ है, चौथा प्रपंचरूप अर्थ है, पाँचवाँ अर्थ गुरु के रूप को दिखानेवाला है और छठा अर्थ शिष्य के स्वरूप का परिचय देनेवाला है। इस प्रकार ये छः अर्थ बताये गये। मुनिश्रेष्ठ! उन छहों अर्थों में जो मन्त्ररूप अर्थ है, उसको तुम्हें बताता हूँ। उसका ज्ञान होने मात्र से मनुष्य महाज्ञानी हो जाता है। प्रणव में वेदों ने पाँच अक्षर बताये हैं, पहला आदिस्वर – 'अ', दूसरा पाँचवाँ स्वर – 'उ', तीसरा पंचम वर्ग पवर्ग का अन्तिम अक्षर 'म', उसके बाद चौथा अक्षर बिन्दु और पाँचवाँ अक्षर नाद। इनके सिवा दूसरे वर्ण नहीं हैं। यह समष्टिरूप वेदादि (प्रणव) कहा गया है। नाद सब अक्षरों की समष्टिरूप है; बिन्दु युक्त जो चार अक्षर हैं, वे व्यष्टिरूप से शिववाचक प्रणव में प्रतिष्ठित हैं।

विद्वन्! अब यन्त्ररूप या यन्त्रभावित अर्थ सुनो। वह यन्त्र ही शिवलिंगरूप में स्थित है। सबसे नीचे पीठ (अर्घा) लिखे। उसके ऊपर पहला स्वर अकार लिखे। उसके ऊपर उकार अंकित करे और उसके भी ऊपर पवर्ग का अन्तिम अक्षर मकार लिखे। मकार के ऊपर अनुस्वार और उसके भी ऊपर अर्धचन्द्राकार नाद अंकित करे। इस तरह यन्त्र के पूर्ण हो जाने पर साधक का सम्पूर्ण मनोरथ सिद्ध होता है। इस प्रकार यन्त्र लिखकर उसे प्रणव से ही वेष्टित करे। उस प्रणव से ही प्रकट होनेवाले नाद के द्वारा नाद का अवसान समझे।

मुने! अब मैं देवतारूप तीसरे अर्थ को बताऊँगा, जो सर्वत्र गूढ़ है। वामदेव! तुम्हारे स्नेहवश भगवान् शंकर के द्वारा प्रतिपादित उस अर्थ का मैं तुमसे वर्णन करता हूँ। 'सद्योजातं प्रपद्यामि' यहाँ से आरम्भ करके 'सदाशिवोम्' तक जो पाँच मन्त्र हैं, श्रुति ने प्रणव को इन सबका वाचक कहा है। इन्हें ब्रह्मरूपी पाँच सूक्ष्म देवता समझना चाहिये। इन्हीं का शिव की मूर्ति के रूप में भी विस्तारपूर्वक वर्णन है। शिव का वाचक मन्त्र शिवमूर्ति का भी वाचक है; क्योंकि मूर्ति और मूर्तिमान् में अधिक भेद नहीं है। 'ईशान मुकुटोपेतः' इस शलोक से आरम्भ करके पहले इन मन्त्रों द्वारा शिव के विग्रह का प्रतिपादन किया जा चुका है। अब उनके पाँच मुखों का वर्णन सुनो। पंचम मन्त्र 'ईशानः सर्वविद्यानाम्' को आदि मानकर वहाँ से लेकर ऊपर के 'सद्योजात' मन्त्र तक क्रमशः एक चक्र में अंकित करे। फिर 'सद्योजात' से लेकर 'ईशान' मन्त्र तक क्रमशः उसी चक्र में अंकित करे। ये ही पाँच भगवान् शिव के पाँच मुख बताये गये हैं। पुरुष से लेकर सद्योजात तक जो ब्रह्मरूप चार मन्त्र हैं, वे ही महेश्वर देव के चतुर्व्यूह पद पर प्रतिष्ठित हैं। 'ईशान' मन्त्र सद्योजातादि पाँचों मन्त्रों का समष्टिरूप है। मुने! पुरुष से लेकर सद्योजात तक जो चार मन्त्र हैं, वे ईशानदेव के व्यष्टिरूप हैं।

इसे अनुग्रहमय चक्र कहते हैं। यही पंचार्थ का कारण है। यह सूक्ष्म, निर्विकार, अनामय परब्रह्मस्वरूप है। अनुग्रह भी दो प्रकार का है। एक तो तिरोभाव आदि पाँच* कृत्यों के अन्तर्गत है, दूसरा जीवों को कार्यकारण आदि के बन्धनों से मुक्ति देने में समर्थ है। [* सृष्टि, स्थिति, संहार, तिरोभाव तथा अनुग्रह – ये परमेश्वर के पाँच कृत्य हैं।] यह दोनों प्रकार का अनुग्रह सदाशिव का ही द्विविध कृत्य कहा गया है। मुने! अनुग्रह में भी सृष्टि आदि कृत्यों का योग होने से भगवान् शिव के पाँच कृत्य माने गये हैं। इन पाँचों कृत्यों में भी सद्योजात आदि देवता प्रतिष्ठित बताये गये हैं। वे पाँचों परब्रह्मस्वरूप तथा सदा ही कल्याणदायक हैं। अनुग्रहमय चक्र शान्त्यतीत* कलारूप है। [ * कलाएं पाँच हैं – निवृत्तिकला, प्रतिष्ठाकला, विद्याकला, शान्तिकला तथा शान्त्यतीताकला।] सदाशिव से अधिष्ठित होने के कारण उसे परम पद कहते हैं। शुद्ध अन्तःकरणवाले संन्यासियों को मिलने योग्य पद यही है। जो सदाशिव के उपासक हैं और जिनका चित्त प्रणवोपासना में संलग्न है, उन्हें भी इसी पद की प्राप्ति होती है। इसी पद को पाकर मुनीश्वरगण उन ब्रह्मरूपी महादेवजी के साथ प्रचुर दिव्य भोगों का उपभोग करके महाप्रलयकाल में शिव की समता को प्राप्त हो जाते हैं। वे मुक्त जीव फिर कभी संसारसागर में नहीं गिरते।

ते ब्रह्मलोकेषु परान्तकाले परामृताः परिमुच्यन्ति सर्वे ॥ (मुण्डक० ३। २। ६) – इस सनातन श्रुति ने इसी अर्थ का प्रतिपादन किया है। शिव का ऐश्वर्य भी यह समष्टिरूप ही है। अथर्ववेद की श्रुति भी कहती है कि वह सम्पूर्ण ऐश्वर्य से सम्पन्न है। सम्पूर्ण ऐश्वर्य प्रदान करने की शक्ति सदाशिव में ही बतायी गयी है। चमकाध्याय के पद से यह सूचित होता है कि शिव से बढ़कर दूसरा कोई पद नहीं है। ब्रह्मपंचक के विस्तार को ही प्रपंच कहते हैं। इन पाँच ब्रह्ममूर्तियों से ही निवृत्ति आदि पाँच कलाएँ हुई हैं। वे सब-की-सब सूक्ष्मभूत स्वरूपिणी होने से कारणरूप में विख्यात हैं। उत्तम व्रत का पालन करनेवाले वामदेव! स्थूलरूप में प्रकट जो यह जगत्-प्रपंच है, इसको जिसने पाँच रूपों द्वारा व्याप्त कर रखा है, वह ब्रह्म अपने उन पाँचों रूपों के साथ ब्रह्मपंचक नाम धारण करता है। मुनिश्रेष्ठ! पुरुष, श्रोत्र, वाणी, शब्द और आकाश – इन पाँचों को ब्रह्म ने ईशान रूप से व्याप्त कर रखा है। मुनीश्वर! प्रकृति, त्वचा, पाणि, स्पर्श और वायु – इन पाँच को ब्रह्म ने ही पुरुष रूप से व्याप्त कर रखा है। अहंकार, नेत्र, पैर, रूप और अग्नि – ये पाँच अघोररूपी ब्रह्म से व्याप्त हैं। बुद्धि, रसना, पायु, रस और जल – ये वामदेवरूपी ब्रह्म से नित्य व्याप्त रहते हैं। मन, नासिका, उपस्थ, गन्ध और पृथिवी – ये पाँच सद्योजातरूपी ब्रह्म से व्याप्त हैं। इस प्रकार यह जगत् पंचब्रह्मस्वरूप है। यन्त्ररूप से बताया गया जो शिववाचक प्रणव है, वह नादपर्यन्त पाँचों वर्णों का समष्टिरूप है तथा बिन्दुयुक्त जो चार वर्ण हैं, वे प्रणव के व्यष्टिरूप हैं। शिव के उपदेश किये हुए मार्ग से उत्कृष्ट मन्त्राधिराज शिवरूपी प्रणव का पूर्वोक्त यन्त्ररूप से चिन्तन करना चाहिये।

(अध्याय १४)