शैवदर्शन के अनुसार शिवतत्त्व, जगत्-प्रपंच और जीवतत्त्व के विषय में विशद् विवेचन तथा शिव से जीव और जगत् की अभिन्नता का प्रतिपादन

तदनन्तर उत्तम श्रेष्ठ पद्धति का वर्णन करके सृष्टि, स्थिति और संहार – सबको शक्तिमान् शिव की लीला बतलाते हुए वामदेवजी के पूछने पर स्कन्द ने कहा – मुने! कर्मास्तितत्त्व् से लेकर जो विस्तृत शास्त्रवाद है अर्थात् कर्मसत्ता के प्रतिपादक कर्मफलवाद से आरम्भ करके शास्त्रों में जो विविध विषयों का विशद विवेचन है, वह ज्ञान प्रदान करनेवाला है; अतः ज्ञानवान् पुरुष को विवेकपूर्वक इसका श्रवण करना चाहिये। तुमने जिन शिष्यों को उपदेश दिया है, उनमें से कौन तुम्हारे समान है? वे अधम शिष्य आज भी अन्यान्य शास्त्रों में भटक रहे हैं। अनीश्वरवादी दर्शनों के चक्कर में पड़कर मोहित हो रहे हैं। छः मुनियों ने उन्हें शाप दे रखा है; क्योंकि पहले वे शिव की निन्दा किया करते थे। अतः उनकी बातें नहीं सुननी चाहिये; क्योंकि वे अन्यथावादी (शिव-शास्त्र के विपरीत बात करनेवाले) हैं। यहाँ पाँच* अवयवों से युक्त अनुमान के प्रयोग के लिये भी अवकाश है ही। उत्तम व्रत का पालन करनेवाले वामदेव! जैसे धूम का दर्शन होने से लोग अनुमान द्वारा पर्वत पर अग्नि की सत्ता का प्रतिपादन करते हैं, उसी प्रकार इस प्रत्यक्ष प्रपंच के दर्शनरूप हेतु का अवलम्बन करके परमेश्वर परमात्मा को जाना जा सकता है, इसमें संशय नहीं है।

[* प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन – ये अनुमान के पाँच अवयव हैं। 'पर्वतो वह्निमान्' (पर्वत पर आग है) – यह प्रतिज्ञा है। 'धूमवत्त्वात् (क्योंकि वहाँ धूम दिखायी देता है) – यह हेतु है। 'जहाँ-जहाँ धूम होता है, वहाँ-वहाँ आग अवश्य रहती है, जैसे रसोईघर' – यह उदाहरण है। 'यतोऽयं धूमवान्' (चूँकि यह पर्वत धूमवान् है) – यह उपनय है। 'अतः अग्निमान्' (अतः अग्नि से युक्त है) यह निगमन है। इसी तरह ईश्वर के लिये भी अनुमान होता है – यथा – 'क्षित्यङ्कुरादिकं कर्तृजन्यम्' (पृथिवी तथा अंकुर आदि किसी कर्ता द्वारा उत्पन्न हुए हैं) – यह प्रतिज्ञा है। 'कार्यत्वात्' (क्योंकि ये कार्य हैं –)यह हेतु है। 'यत्-यत् कार्यं तत्तत् कर्तृजन्यं यथा घटः कुम्भकारजन्यः' (जो-जो कार्य है, वह किसी-न-किसी कर्ता से उत्पन्न होता है, जैसे घड़ा कुम्भकार से उत्पन्न होता है – यह उदाहरण हुआ। 'यत इदं कार्यम्' (चूँकि ये पृथ्वी आदि कार्य हैं) – यह उपनय हुआ। 'अतः कर्तजन्यम्' (इसलिये कर्ता से उत्पन्न हुए हैं) – यह निगमन हुआ। पृथ्वी आदि कार्य हम-जैसे लोगों से उत्पन्न हुआ है, यह कहना सम्भव नहीं; अतः इसका कोई विलक्षण कर्ता है, वही सर्वशक्तिमान् ईश्वर है।]

यह विश्व स्त्री-पुरुषरूप है, ऐसा प्रत्यक्ष ही देखा जाता है। छः कोशरूप जो शरीर है, उसमें आदि के तीन माता के अंश से उत्पन्न हुए हैं और अन्तिम तीन पिता के अंश से – यह श्रुति का कथन है। इस प्रकार सभी शरीरों में स्त्री-पुरुषभाव को जानने वाले लोग हैं। मुने! विद्वानों ने परमात्मा में भी स्त्री-पुरुषभाव को जाना है। श्रुति कहती है, परब्रह्म परमात्मा सत्, चित् और आनन्द रूप है। असत् प्रपंच को निवृत्त करनेवाला शब्द ही सद्रूप कहा जाता है। चित्-शब्द से जड जगत् की निवृत्ति की जाती है। यद्यपि सत्-शब्द तीनों लिंगों में विद्यमान है, तथापि यहाँ परब्रह्म परमात्मा के अर्थ में पुँल्लिंग सत्-शब्द को ही ग्रहण करना चाहिये। वह सत्-शब्द प्रकाश का वाचक है। 'सन् प्रकाशः' – सन्-शब्द स्पष्ट रूप से प्रकाश का वाचक है। परमात्मा में जो सत्ता या प्रकाशरूपता है, वह उसके पुरुषभाव को सूचित करती है। ज्ञान शब्द का पर्यायवाची जो चित्-शब्द है, वह स्त्रीलिंग है अर्थात् परमात्मा में चिद्रूपता उसके स्त्रीभाव को सूचित करती है। प्रकाश और चित् – ये दोनों जगत् के कारणभाव को प्राप्त हुए हैं। इसी प्रकार सच्चिदात्मा परमेश्वर भी जब जगत् के कारणभाव को प्राप्त होते हैं तब उन एकमात्र परमात्मा में ही 'शिव' भाव और 'शक्ति' भाव का भेद किया जाता है। जब तेल और बत्ती में मलिनता होती है, तब उसके प्रकाश में भी मलिनता आ जाती है। चिता की आग आदि में अशिवता और मलिनता स्पष्ट देखी जाती है। अतः मलिनता आदि आरोपित वस्तु है, उसका निवर्तक होने के कारण परमात्मा के 'शिवत्व' का ही श्रुति के द्वारा प्रतिपादन किया गया है।

जीव के आश्रित जो चिच्छक्ति है, वह सदा दुर्बल होती है। उसकी निवृत्ति के लिये ही परमात्मा में सार्वकालिक सर्वशक्तिमत्ता विद्यमान है। ईश्वर बलवान् हैं, शक्तिमान् हैं – यह व्यवहार देखा जाता है। महामुने वामदेव! लोक और वेद में भी सदा ही परमात्मा की शिवरूपता और शक्तिरूपता का साक्षात्कार कराया गया है। शिव और शक्ति के संयोग से निरन्तर आनन्द प्रकट रहता है, अतः मुने! उस आनन्द को प्राप्त करने के उद्देश्य से ही पापरहित मुनि शिव में मन लगाकर निरामय शिव (परम कल्याण एवं परमानन्द) को प्राप्त हुए हैं। उपनिषदों में शिव और शक्ति को ही सर्वात्मा एवं ब्रह्म कहा गया है। ब्रह्म-शब्द से बृंहिधात्वर्थगत व्यापकता एवं सर्वात्मता का ही प्रतिपादन होता है। शम्भु नामक विग्रह में बृंहणत्व और बृहत्त्व (व्यापकता एवं विशालता) नित्य विद्यमान है। सद्योजातादि पंचब्रह्ममय शिवविग्रह में विश्व की प्रतीति ब्रह्म-शब्द से ही कही गयी है।

वामदेव! 'हंसः' पद को उलट देने से 'सोऽहम्' पद बनता है। उसमें प्रणव का प्राकट्य कैसे होता है यह तुम्हारे स्नेहवश मैं बता रहा हूँ, सावधान होकर सुनो। 'सोऽहम्' पद में से सकार और हकार नामक व्यंजनों को त्याग देने से स्थूल 'ओम्' शब्द बच रहता है, जो परमात्मा का वाचक है! तत्त्वदर्शी मुनि कहते हैं कि उसे महामन्त्ररूप जानना चाहिये। उसमें जो सूक्ष्म महामन्त्र है, उसका उद्धार मैं तुम्हें बता रहा हूँ। 'हंसः' पद में तीन अक्षर हैं – 'हू, अ, स', इन तीनों में जो 'अ' है, वह पंद्रहवें (अनुस्वार) और सोलहवें (विसर्ग) के साथ है। सकार के साथ जो 'अ' है, वह विसर्ग सहित है; वह यदि सकार के साथ ही उठकर 'हं' के आदिय में चला जाय तो 'हंसः' के विपरीत 'सोऽहम्' यह महामन्त्र हो जायगा। इसमें जो सकार है, वह शिव का वाचक है। अर्थात् शिव ही सकार के अर्थ माने गये हैं। शकत्यात्मक शिव ही इस महामन्त्र के वाच्यार्थ हैं, यह विद्वानों का निर्णय है। गुरु जब शिष्य को इस महामन्त्र का उपदेश देते हैं, तब 'सोऽहम्' पद से उसको शक्त्यात्मक शिव का ही बोध कराना अभीष्ट होता है। अर्थात् वह यह अनुभव करे कि 'मैं शकत्यात्मक शिवरूप हूँ।' इस प्रकार जब यह महामन्त्र जीव परक होता है अर्थात् जीव की शिवरूपता का बोध कराता है, तब पशु (जीव) अपने को शक्त्यात्मक एवं शिव का अंश जानकर शिव के साथ अपनी एकता सिद्ध हो जाने से शिव की समता का भागी हो जाता है।

अब श्रुति के 'प्रज्ञानं ब्रह्म' इस वाक्य में जो 'प्रज्ञानम्' पद आया है, उसके अर्थ को दिखाया जा रहा है। 'प्रज्ञान' शब्द 'चैतन्य' का पर्याय है, इसमें संशय नहीं है। मुने! शिवसूत्र में यह कहा गया है कि 'चैतन्यम् आत्मा' अर्थात् आत्मा (ब्रह्म या परमात्मा) चैतन्यरूप है। चैतन्य-शब्द से यह सूचित होता है कि जिसमें विश्व का सम्पूर्ण ज्ञान तथा स्वतन्त्रतापूर्वक जगत् के निर्माण की क्रिया स्वभावतः विद्यमान है, उसी को आत्मा या परमात्मा कहा गया है। इस प्रकार मैंने यहाँ शिवसूत्रों की व्याख्या ही की है।

'ज्ञानं बन्धः' यह दूसरा शिवसूत्र है। इसमें पशुवर्ग (जीवसमुदाय) का लक्षण बताया गया है। इस सूत्र में आदि पद 'ज्ञानम्' के द्वारा किंचिन्मात्र ज्ञान और क्रिया का होना ही जीव का लक्षण कहा गया है। यह ज्ञान और क्रिया पराशक्ति का प्रथम स्पन्दन है। कृष्णयजुर्वेद की श्वेताश्वतर शाखा का अध्ययन करनेवाले दिद्वानों ने 'स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च' इस श्रुति के द्वारा इसी पराशक्ति का प्रसन्नतापूर्वक स्तवन किया है। भगवान् शंकर की तीन दृष्टियाँ मानी गयी हैं – ज्ञान, क्रिया और इच्छारूप। ये तीनों दृष्टियाँ जीवों के मन में स्थित हो इन्द्रियज्ञानगोचर देह में प्रवेश करके जीवरूप हो सदा जानती और करती हैं। अतः यह दृष्टित्रयरूप जीव आत्मा (महेश्वर) का स्वरूप ही है, ऐसा निश्चित सिद्धान्त है।

अब में जगत्प्रपंच के साथ प्रणव की एकता का बोध करनेवाले प्रपंचार्थ का वर्णन करूँगा। 'ओमितीदं सर्वम्' (तैत्तिरीय० १।८। १) अर्थात् यह प्रत्यक्ष दिखायी देनेवाला समस्त जगत् ओंकार है – यह सनातन श्रुति का कथन है। इससे प्रणव और जगत् की एकता सूचित होती है। 'तस्माद्वा' (तैत्तिरीय० २। १) इस वाक्य से आरम्भ करके तैत्तिरीय श्रुति ने संसार की सृष्टि के क्रम का वर्णन किया है। वामदेव! उस श्रुति का जो विवेकपूर्ण तात्पर्य है, उसे मैं तुम्हारे स्नेहवश बता रहा हूँ, सुनो। शिवशक्ति का संयोग ही परमात्मा है, यह ज्ञानी पुरुषों का निश्चित मत है। शिव की जो पराशक्ति है, उससे चिच्छक्ति प्रकट होती है। चिच्छक्ति से आनन्दशक्ति का प्रादुर्भाव होता है, आनन्दशक्ति से इच्छाशक्ति का उद्भव हुआ है, इच्छाशक्ति से ज्ञानशक्ति और ज्ञानशक्ति से पाँचवीं क्रियाशक्ति प्रकट हुई है। मुने! इन्हीं से निवृत्ति आदि कलाएँ उत्पन्न हुई हैं। चिच्छक्ति से नाद और आनन्दशक्ति से बिन्दु का प्राकट्य बताया गया है। इच्छाशक्ति से मकार प्रकट हुआ है। ज्ञानशक्ति से पाँचवाँ स्वर उकार उत्पन्न हुआ है और क्रियाशक्ति से अकार की उत्पत्ति हुई है। मुनिश्वर! इस प्रकार मैंने तुम्हें प्रणव की उत्पत्ति बतलायी है।

अब ईशानादि पंच ब्रह्म की उत्पत्ति का वर्णन सुनो। शिव से ईशान उत्पन्न हुए हैं, ईशान से तत्पुरुष का प्रादुर्भाव हुआ है, तत्पुरुष से अघोर का, अघोर से वामदेव का और वामदेव से सद्योजात का प्राकट्य हुआ है। इस आदि अक्षर प्रणव से ही मूलभूत पाँच स्वर और तैंतीस व्यंजन के रूप में अड़तीस अक्षरों का प्रादुर्भाव हुआ है। अब कलाओं की उत्पत्ति का क्रम सुनो। ईशान से शान्त्यतीताकला उत्पन्न हुई है। तत्पुरुष से शान्तिकला, अघोर से विद्याकला, वामदेव से प्रतिष्ठाकला और सद्योजात से निवृत्तिकला की उत्पत्ति हुई है। ईशान से चिच्छक्ति द्वारा मिथुनपंचक की उत्पत्ति होती है। अनुग्रह, तिरोभाव, संहार, स्थिति और सृष्टि – इन पाँच कृत्यों का हेतु होने के कारण उसे पंचक कहते हैं। यह बात तत्त्वदर्शी ज्ञानी मुनियों ने कही है। वाच्य-वाचक के सम्बन्ध से उनमें मिथुनत्व की प्राप्ति हुई है। कला वर्णस्वरूप इस पंचक में भूतपंचक की गणना है। मुनिश्रेष्ठ! आकाशादि के क्रम से इन पाँचों मिथुनों की उत्पत्ति हुई है। इनमें पहला मिथुन है आकाश, दूसरा वायु, तीसरा अग्नि, चौथा जल और पाँचवाँ मिथुन पृथ्वी है। इनमें आकाश से लेकर पृथ्वी तक के भूतों का जैसा स्वरूप बताया गया है, उसे सुनो। आकाश में एकमात्र शब्द ही गुण है; वायु में शब्द और स्पर्श दो गुण हैं; अग्नि में शब्द, स्पर्श और रूप – इन तीन गुणों की प्रधानता है; जल में शब्द, स्पर्श, रूप और रस – ये चार गुण माने गये हैं तथा पृथ्वी शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध – इन पाँच गुणों से सम्पन्न है। यही भूतों का व्यापकत्व कहा गया है अर्थात् शब्दादि गुणों द्वारा आकाशादि भूत वायु आदि परवर्ती भूतों में किस प्रकार व्यापक हैं, यह दिखाया गया है। इसके विपरीत गन्धादि गुणों के क्रम से वे भूत पूर्ववर्ती भूतों से व्याप्य हैं अर्थात् गन्ध गुणवाली पृथ्वी जल का और रसगुणवाला जल अग्नि का व्याप्य है, इत्यादि रूप से इनकी व्याप्यता को समझना चाहिये। पाँच भूतों का यह विस्तार ही 'प्रपंच' कहलाता है। सर्वसमष्टि का जो आत्मा है, उसी का नाम 'विराट' है और पृथ्वीतत्त्व से लेकर क्रमशः शिवतत्त्व तक जो तत्त्वों का समुदाय है, वही 'ब्रह्माण्ड' है। वह क्रमशः तत्त्वसमूह में लीन होता हुआ अन्ततोगत्वा सबके जीवनभूत चैतन्यमय परमेश्वर में ही लय को प्राप्त होता है और सृष्टिकाल में फिर शक्ति द्वारा शिव से निकलकर स्थूल प्रपंच के रूप में प्रलय-कालपर्यन्त सुखपूर्वक स्थित रहता है।

अपनी इच्छा से संसार की सृष्टि के लिये उद्यत हुए महेश्वर का जो प्रथम परिस्पन्द है, उसे 'शिवतत्त्व' कहते हैं। यही इच्छाशक्तितत्त्व है; क्योंकि सम्पूर्ण कृत्यों में इसी का अनुवर्तन होता है। मुनीश्वर! ज्ञान और क्रिया – इन दो शक्तियों में जब ज्ञान का आधिक्य हो, तब उसे सदाशिवतत्त्व समझना चाहिये; जब क्रिया-शक्ति का उद्रेक हो तब उसे महेश्वरतत्त्व जानना चाहिये तथा जब ज्ञान और क्रिया दोनों शक्तियाँ समान हों तब वहाँ शुद्ध विद्यात्मक-तत्त्व समझना चाहिये। समस्त भाव-पदार्थ परमेश्वर के अंगभूत ही हैं; तथापि उनमें जो भेदबुद्धि होती है, उसका नाम माया-तत्त्व है। जब शिव अपने परम ऐश्वर्यशाली रूप को माया से निगृहीत करके सम्पूर्ण पदार्थों को ग्रहण करने लगता है, तब उसका नाम 'पुरुष' होता है। 'तत्सृष्ट्वा तदेवानु प्राविशत्' (उस शरीर को रचकर स्वयं उसमें प्रविष्ट हुआ) इस श्रुति ने उसके इसी स्वरूप का प्रतिपादन किया है अथवा इसी तत्त्व का प्रतिपादन करने के लिये उक्त श्रुति का प्रादुर्भाव हुआ है। यही पुरुष माया से मोहित होकर संसारी (संसार-बन्धन में बँधा हुआ) पशु कहलाता है। शिवतत्त्व के ज्ञान से शून्य होने के कारण उसकी बुद्धि नाना कर्मों में आसक्त हो मूढ़ता को प्राप्त हो जाती है। वह जगत् को शिव से अभिन्न नहीं जानता तथा अपने को भी शिव से भिन्न ही समझता है। प्रभो! यदि शिव से अपनी तथा जगत् की अभिन्नता का बोध हो जाय तो इस पशु (जीव) को मोह का बन्धन न प्राप्त हो। जैसे इन्द्रजाल-विद्या के ज्ञाता (बाजीगर) को अपनी रची हुई अद्भुत वस्तुओं के विषय में मोह या भ्रम नहीं होता है, उसी प्रकार ज्ञानयोगी को भी नहीं होता। गुरु के उपदेश द्वारा अपने ऐश्वर्य का बोध प्राप्त हो जाने पर वह चिदानन्दघन शिवरूप ही हो जाता है।

शिव की पाँच शक्तियाँ हैं – १-सर्व-कर्तत्वरूपा, २-सर्वतत्त्वरूपा, ३-पूर्णत्वरूपा, ४-नित्यत्वरूपा और ५-व्यापकत्वरूपा। जीव की पाँच कलाए हैं – १-कला, २-विद्या, ३-राग, ४-काल और ५-नियति। इन्हें कलापंचक कहते हैं। जो यहाँ पाँच तत्त्वों के रूप में प्रकट होती है, उसका नाम 'कला' है। जो कुछ-कुछ कर्तृत्व में हेतु बनती है और कुछ तत्त्व का साधन होती है, उस कला का नाम 'विद्या' है। जो विषयों में आसक्ति पैदा करने वाली है, उस कला का नाम 'राग' है। जो भाव पदार्थों और प्रकाशों का भासनात्मक रूप से क्रमशः अवच्छेदक होकर सम्पूर्ण भूतों का आदि कहलाता है, वही 'काल' है। यह मेरा कर्तव्य है और यह नहीं है – इस प्रकार नियन्त्रण करने वाली जो विभु की शक्ति है, उसका नाम 'नियति' है। उसके आक्षेप से जीव का पतन होता है। ये पाँचों ही जीव के स्वरूप को आच्छादित करनेवाले आवरण हैं। इसलिये 'पंचकंचुक' कहे गये हैं। इनके निवारण के लिये अन्तरंग साधन की आवश्यकता है।

(अध्याय १५ - १६)