महावाक्यों के अर्थ पर विचार तथा संनन्यासियों के योगपट्ट का प्रकार
स्कन्दजी कहते हैं – मुने अब महावाक्य प्रस्तुत किये जाते हैं – *
१ - प्रज्ञानं ब्रह्म – ब्रह्म उत्कृष्ट ज्ञानस्वरूप अथवा चैतन्यरूप है।
२ - अहं ब्रह्मास्मि – वह ब्रह्म मैं हूँ।
३ - तत्त्वमसि – वह ब्रह्म तू है।
४ - अयमात्मा ब्रह्य – यह आत्मा ब्रह्म है।
५ - ईशा वास्यमिदं सर्वमू – यह सब ईश्वर से व्याप्त है।
६ - प्राणोऽस्मि – मैं प्राण हूँ।
७ - प्रज्ञानात्मा – प्रज्ञानस्वरूप हूँ।
८ - यदबेह तदमुत्र तदन्विह – जो परब्रह्म यहाँ है, वही वहाँ (परलोक में) भी है; जो वहाँ है, वही यहाँ (इस लोक में) भी है।
९ - अन्यदेव तद्विदितादथो अविदितादधि – वह ब्रह्म विदित (ज्ञात वस्तुओं) से भिन्न है और अविदित (अज्ञात) से भी ऊपर है।
१० - एष त आत्मान्तर्याम्यमृतः – वह तुम्हारा आत्मा अन्तर्यामी अमृत है।
११ - स यश्चायं पुरुषो यश्चासावादित्ये स एकः – वह जो यह पुरुष में है और वह जो यह आदित्य में है, एक ही है।
१२ - अहमस्मि परं ब्रह्म परात्परम्। – मैं परा परस्वरूप परात्पर परब्रह्म हूँ।
१३ - वेदशास्त्रगुरूणां तु स्वयमानन्दलक्षणम्। – वेदों, शास्त्रों और गुरुजनों के वचनों से स्वयं ही हृदय में आनन्दस्वरूप ब्रह्म का अनुभव होने लगता है।
१४ - सर्वभूतस्थितं ब्रह्म तदेवाहं न संशयः। – जो सम्पूर्ण भूतों में स्थित है, वही ब्रह्म मैं हँ – इसमें संशय नहीं है।
९५ - तत्त्वस्य प्राणोऽहमस्मि पृथिव्याः प्राणोऽहमस्मि, – मैं तत्त्व का प्राण हूँ, पृथ्वी का प्राण हूँ।
१६ - अपां च प्राणोऽहमस्मि तेजसश्च प्राणोऽहमस्मि, – मैं जल का प्राण हूँ, तेज का प्राण हूँ।
१७ - वायोश्च प्राणोऽहमस्मि आकाशस्य प्राणोऽहमस्मि, – वायु का प्राण हूँ, आकाश का प्राण हूँ।
१८ - त्रिगुणस्य प्राणोऽहमस्मि, – मैं त्रिगुण का प्राण हूँ।
१९ - सर्वोऽहं सर्वात्मको संसारी यद्भूतं यच्च भव्यं यद्वर्तमानं सर्वात्मकत्वा दद्वितीयोऽहम्, – मैं सब हूँ, सर्वरूप हूँ, संसारी जीवात्मा हूँ; जो भूत, वर्तमान और भविष्य है, वह सब मेरा ही स्वरूप होने के कारण मैं अद्वितीय परमात्मा हूँ।
२० - सर्वं खल्विदं ब्रह्म – यह सब निश्चय ही ब्रह्म है।
२१ - सर्वोऽहं विमुक्तोऽहम्। – मैं सर्वरूप हूँ, मुक्त हूँ।
२२ - योऽउसौ सोऽहं हंसः सोऽहमस्ति। – जो वह है, वह मैं हूँ। मैं वह हूँ और वह मैं हूँ।
इस प्रकार सर्वत्र चिन्तन करे। अब इन महावाक्यों का भावार्थ कहते हैं – 'प्रज्ञानं ब्रह्म' का वाक्यार्थ पहले ही समझाया जा चुका है। (अब 'अहं ब्रह्मास्मि' का अर्थ बताया जाता है।) शक्तिस्वरूप अथवा शक्तियुक्त परमेश्वर ही 'अहम्' पद के अर्थभूत हैं। 'अकार' सब वर्णों का अग्रगण्य, परम प्रकाश शिवरूप है। 'हकार' व्योमस्वरूप होने के कारण उसका शक्तिरूप से वर्णन किया गया है। शिव और शक्ति के संयोग से सदा आनन्द उदित होता है। 'मकार' उसी आनन्द का बोधक है। 'ब्रह्म' शब्द से शिवशक्ति की सर्वरूपता स्पष्ट ही सूचित होती है। पहले ही इस बात का उपदेश किया गया है कि वह शक्तिमान् परमेश्वर मैं हूँ, ऐसी भावना करनी चाहिये। 'तत्त्वमसि' इस वाक्य में तत्पद का वही अर्थ है, जो 'सोऽहमस्मि' में 'सः' पद का अर्थ बताया गया है अर्थात् तत्पद शकत्यात्मक परमेश्वर का ही वाचक है, अन्यथा 'सोऽहम् ' इस वाक्य में विपरीत अर्थ की भावना हो सकती है। क्योंकि 'अहम्' पद पुँल्लिंग है, अतः 'सः' के साथ उसका अन्वय हो जायगा; परंतु 'तत्' पद नपुंसक है और 'त्वम्' पुल्लिंग, अतः परस्पर विरोधी लिंग होने के कारण उन दोनो में अन्वय नहीं हो सकता। जब दोनों का अर्थ 'शक्तिमान् परमेश्वर' होगा, तब अर्थ में समान लिंगता होने से अन्वय में अनुपपत्ति नहीं होगी। यदि ऐसा न माना जाय तो स्त्री-पुरुषरूप जगत् का कारण भी किसी और ही प्रकार का होगा। इसलिये 'सोऽहमस्मि ' का 'सः' और 'तत्त्वमसि' का तत् – ये दोनों समानार्थक हैं। इन महावाक्यों के उपदेश से एक ही अर्थ की भावना का विधान है।
'अयमात्मा ब्रह्म' इस वाक्य में 'अयम्' और 'आत्मा' – ये दोनों पद पुल्लिग रूप हैं। अतः यहाँ अन्वय में बाधा नहीं है। 'अयम्' शक्तिमान् परमेश्वर रूप आत्मा ब्रह्म है – यह इस वाक्य का तात्पर्य है। (अब 'ईशा वास्यमिदं सर्वम्' का भावार्थ बता रहे हैं –) परमेश्वर से रक्षणीय होने के कारण यह सम्पूर्ण जगत् उनसे व्याप्त है। (अब 'प्राणोऽस्मि' 'प्रज्ञानात्मा' और 'यदेवेह तदमुत्र०' इन वाक्यों के अर्थ पर विचार किया जाता है–) मैं प्रज्ञानस्वरूप प्राण हूँ। यहाँ प्राण शब्द परमेश्वर का ही वाचक है। जो यहाँ है, वह वहाँ है – ऐसा चिन्तन करे। यहाँ 'यत्, तत्' का अर्थ क्रमशः 'यः' और 'सः' है अर्थात् जो परमात्मा यहाँ है, वह परमात्मा वहाँ है – ऐसा सिद्धान्तपक्ष का अवलम्बन करनेवाले विद्वानों ने कहा है। उपर्युक्त वाक्य में 'यदमुत्र तदन्विह' इस वाक्यांश का भाव यह है कि 'योऽमुत्र स इह स्थितः' अर्थात् जो परमात्मा वहाँ परलोक में स्थित है, वही यहाँ (इस लोक में) भी स्थित है। इस प्रकार विद्वानों को पहले के समान ही परमपुरुष परमात्मारूप अर्थ यहाँ अभीष्ट है।
मुने! 'अन्यदेव तद्विदितादथो अविदितादधि' इस वाक्य में जिस प्रकार फल की भी विपरीतता की भावना होती है, उसे यहाँ बताता हूँ; सुनो। 'विदितात्' यह पद 'अयथाविदितात्' के उन्हीं का इन समस्त उत्कृष्ट गुणों से नित्य सम्बन्ध है। अपने और पराये के 'भेदसतात्' के अर्थ में प्रवृत्त हो सकता है। वह विदित से भिन्न है अर्थात् जो असम्यग्-रूप से ज्ञात है, उससे भिन्न है। इसी प्रकार जो यथावत् रूप से विदित नहीं है, उससे भी पृथक है। इस कथन से यह निश्चित होता है कि मुक्तिरूप फल की सिद्धि के लिये कोई और ही तत्त्व है, जो विदिताविदित से परे है। परंतु जो आत्मा है, वह सर्वरूप है, वह किसी से अन्य नहीं हो सकता। अतः आत्मा या ब्रह्म आदि पद पूर्ववत् शक्तिमान् परमेश्वर शिव के ही बोधक हैं, यह मानना चाहिये।
(अब 'एष त आत्मा' तथा 'यश्चायं पुरुषे ' इन दो वाक्यों के अर्थ पर विचार किया जाता है) यह तुम्हारा अन्तर्यामी आत्मा है, जो स्वयं ही अमृतस्वरूप शिव है। यह जो पुरुष में शम्भु है, वही सूर्य में भी स्थित है। इन दोनों में कोई भेद नहीं है। जो पुरुष में है, वही आदित्य में है। इन दोनों में पृथक्ता नहीं है। वह तत्त्व एक ही है। उसी को सर्वरूप कहा गया है। पुरुष और आदित्य – इन दो उपाधियों से युक्त जो अर्थ किया जाता है, वह औपचारिक है। उन शम्भुनाथ को सब श्रुतियाँ हिरण्यमय बताती हैं। 'हिरण्यवाहने नमः' इसमें जो बाहु शब्द है, वह सब अंगों का उपलक्षण है। अन्यथा उसे हिरण्यपति कहना किसी भी यत्न से सम्भव नहीं होता। छान्दोग्योपनिषद् में जो यह श्रुति है – 'य एषोऽन्तरादित्ये हिरण्यमयः पुरुषो दृश्यते हिरण्यश्मश्रुर्हिरण्यकेश आप्रणखात् सर्व एव सुवर्णः। (छान्दोग्य० १।६। ६) इसके द्वारा आदित्यमण्डलान्तर्गत पुरुष को सुवर्णमय दाढ़ी-मूंछोंवाला, सुवर्णसदृश केशोंवाला तथा नख से लेकर केशाग्रभागपर्यन्त सारा-का-सारा सुवर्णमय – प्रकाशमय ही बताया गया है। अतः वह हिरण्यमय पुरुष साक्षात् शम्भु ही हैं।
अब 'अहमस्मि परं ब्रह्म परापरपरात्परम्' इस वाक्य का तात्पर्य बताता हूँ, सुनो। 'अहम्' पद के अर्थभूत सत्यात्मा शिव ही बताये गये हैं। वे ही शिव मैं हूँ, ऐसी वाक्यार्थयोजना अवश्य होती है। उन्हीं को सबसे उत्कृष्ट और सर्वस्वरूप परब्रह्म कहा गया है। उसके तीन भेद हैं – पर, अपर तथा परात्पर। रुद्र, ब्रह्मा और विष्णु बद्ध, ये तीन देवता श्रुति ने ही बताये हैं। ये ही क्रमशः पर, अपर तथा परात्पररूप हैं। इन तीनों से भी जो श्रेष्ठ देवता हैं, वे शम्भु 'परब्रह्म' शब्द से कहे गये हैं।
वेदों, शास्त्रों और गुरु के वचनों के अभ्यास से शिष्य के हृदय में स्वयं ही पूर्णानन्दमय शम्भु का प्रादुर्भाव होता है। सम्पूर्ण भूतों के हृदय में विराजमान शम्भु ब्रह्मरूप ही हैं। वही मैं हूँ, इसमें संशय नहीं है। मैं शिव ही सम्पूर्ण तत्त्वसमुदाय का प्राण हूँ।
ऐसा कहकर स्कन्दजी फिर कहते हैं – मुने! मैं शिव आत्मतत्त्व, विद्यातत्त्व और शिवतत्त्व – इन तीनों का प्राण हूँ। पृथिवी आदि का भी प्राण हूँ। पृथ्वी आदि के गुणों तक का ग्रहण होने से यह समझ लो कि यहाँ सारे आत्मतत्त्व गृहीत हो गये। फिर सबका ग्रहण विद्यातत्त्व और शिवतत्त्व का भी ग्रहण कराता है। इन सब तत्त्वों का मैं प्राण हूँ। मैं सर्व हूँ, सर्वात्मक हूँ, जीव का भी अन्तर्यामी होने से उसका भी जीव (आत्मा) हूँ। जो भूत, वर्तमान और भविष्यत्काल है, वह सब मेरा स्वरूप होने के कारण मैं ही हूँ। 'सर्वो वै रुद्रः (सब कुछ रुद्र ही है) – यह श्रुति साक्षात् शिव के मुख से प्रकट हुई है। अतः शिव ही सर्वरूप हैं; क्योंकि उन्हीं का इन समस्त उत्कृष्ट गुणों से नित्य सम्बन्ध है। अपने और पराये के भेद से रहित होने के कारण मैं ही अद्वितीय आत्मा हूँ। 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म' इस वाक्य का अर्थ पहले बताया जा चुका है। मैं भावरूप होने के कारण पूर्ण हूँ। नित्यमुक्त भी मैं ही हूँ। पशु (जीव) मेरी कृपा से मुक्त होकर मेरे स्वरूप को प्राप्त होते हैं। जो सर्वात्मक शम्भु हैं, वही मैं हूँ। मैं शिवरूप हूँ। वामदेव! इस प्रकार सम्पूर्ण वाक्यों के अर्थ भगवान् शिव ही बताये गये हैं। ईशावास्योपनिषद् की श्रुति के दो वाक्यों द्वारा प्रतिपादित अर्थ साक्षात् शिव की एकता का ज्ञान प्रदान करनेवाला होता है। गुरु को चाहिये कि शिष्यों को इसका आदरपूर्वक उपदेश करे।
गुरु को उचित है कि वे आधार सहित शंख को लेकर अस्त्र-मन्त्र (फट्) से तथा भस्म द्वारा उसकी शुद्धि करके उसे अपने सामने चौकोर मण्डल में स्थापित करे। फिर ओंकार का उच्चारण करके गन्ध आदि के द्वारा उस शंख की पूजा करे। उसमें वस्त्र लपेट दे और सुगन्धित जल भरकर प्रणव का उच्चारण करते हुए उसका पूजन करे। तत्पश्चात् सात बार प्रणव के द्वारा फिर उस शंख को अभिमन्त्रित करके शिष्य से कहे – 'हे शिष्य! जो थोड़ा-सा भी अन्तर करता है – भेदभाव रखता है, वह भय का भागी होता है। यह श्रुति का सिद्धान्त बताया गया, इसलिये तुम अपने चित्त को स्थिर करके निर्भय हो जाओ। ऐसा कहकर गुरु स्वयं महादेवजी का ध्यान करते हुए उन्हीं के रूप में शिष्य का अर्चन करे। शिष्य के आसन की पूजा करके उसमें शिव के आसन और शिव की मूर्ति की भावना करे। फिर सिर से पैर तक 'सद्योजातादि' पाँच मन्त्रों का न्यास करके मस्तक, मुख और कलाओं के भेद से प्रणय की कलाओं का भी न्यास करे। शिष्य के शरीर में अड़तीस मन्त्ररूपा प्रणव की कलाओं का न्यास करके उसके मस्तक पर शिव का आवाहन करे। तत्पश्चात् स्थापनी आदि मुद्राओं का प्रदर्शन करे। फिर अंगन्यास करके आसनपूर्वक षोडश उपचारों की कल्पना करे। खीर का नैवेद्य अर्पण करके 'ॐ स्वाहा' का उच्चारण करे। कुल्ला और आचमन कराये। अर्घ्य आदि देकर क्रमशः धूप-दीपादि समर्पित करे। शिव के आठ नामों से पूजन करके वेदों के पारंगत ब्राह्मणों के साथ 'ब्रह्मविदाप्नोति परम्' इत्यादि ब्रह्मानन्दवल्ली के मन्त्रों को तथा 'भृगुर्वै वारुणिः' इत्यादि भृगुवल्ली के मन्त्रों को पढ़े। तत्पश्चात् 'यो देवानां प्रथमं पुरस्तात्' – (१० । ३) से लेकर 'तस्य प्रकृतिलीनस्थ यः परः स महेश्वरः' (१० । ८) तक महानारायणोपनिषद् के मन्त्रों का पाठ करे। इसके बाद शिष्य के सामने कह्लार आदि की बनी हुई माला लेकर खड़े हो गुरु शिवनिर्मित पांचास्यक शास्त्र के सिद्धि्स्कन्द का धीरे-धीरे जप करे। अनुकूल चित्त से 'पूर्णोऽहम्' इस मन्त्रतक का जप करके गुरु उस माला को शिष्य के कण्ठ में पहना दे। तदनन्तर ललाट में तिलक लगाकर सम्प्रदाय के अनुसार उसके सर्वांग में विधिवत् चन्दन का लेप कराये। तत्पश्चात् गुरु प्रसन्नतापूर्वक श्रीपादयुक्त नाम देकर शिष्य को छत्र और चरणपादुका अर्पित करे। उसे व्याख्यान देने तथा आवश्यक कर्म आदि के लिये गुर्वासन ग्रहण करने का अधिकार दे। फिर गुरु अपने उस शिवरूपी शिष्य पर अनुग्रह करके कहे – ''तुम सदा समाधिस्थ रहकर 'मैं शिव हूँ' इस प्रकार की भावना करते रहो।'' यों कहकर वह स्वयं शिव को नमस्कार करे। फिर सम्प्रदाय की मर्यादा के अनुसार दूसरे लोग भी उसे नमस्कार करें। उस समय शिष्य उठकर गुरु को नमस्कार करे। अपने गुरु के गुरु को और उनके शिष्यों को भी मस्तक झुकाये।
इस प्रकार नमस्कार करके सुशील शिष्य जब मौन और विनीत भाव से गुरु के समीप खड़ा हो, तब गुरु स्वयं उसे इस प्रकार का उपदेश दे – 'बेटा! आज से तुम समस्त लोकों पर अनुग्रह करते रहो। यदि कोई शिष्य होने के लिये आये तो पहले उसकी परीक्षा कर लो, फिर शास्त्रविधि के अनुसार उसे शिष्य बनाओ। राग आदि दोषों का त्याग करके निरन्तर शिव का चिन्तन करते रहो। श्रेष्ठ सम्प्रदाय के सिद्ध पुरुषों का संग करो, दूसरों का नहीं। प्राणों पर संकट आ जाय तो भी शिव का पूजन किये बिना कभी भोजन न करो। गुरुभक्ति का आश्रय ले सुखी रहो, सुखी रहो।'
मुनिश्वर वामदेव! तुम्हारे स्नेहवश अत्यन्त गोपनीय होने पर भी मैंने यह योगपट्ट का प्रकार तुम्हें बताया है। ऐसा कहकर स्कन्द ने यतियों पर कृपा करके उनसे संन्यासियों के क्षौर और स्नानविधि का वर्णन किया।
(अध्याय १७ - १९)