यति के अन्त्येष्टिकर्म की दशाहपर्यन्त विधि का वर्णन
वामदेवजी बोले – जो मुक्त यति हैं, उनके शरीर का दाहकर्म नहीं होता। मरने पर उनके शरीर को गाड़ दिया जाता है, यह मैंने सुना है। मेरे गुरु कार्तिकेय! आप प्रसन्नतापूर्वक यतियों के उस अन्त्येष्टिकर्म का मुझसे वर्णन कीजिये; क्योंकि तीनों लोकों में आपके सिवा दूसरा कोई इस विषय का वर्णन करनेवाला नहीं है। भगवन्! शंकरनन्दन! जो पूर्ण परब्रह्म में अहंभाव का आश्रय ले देहपंजर से मुक्त हो गये हैं तथा जो उपासना के मार्ग से शरीरबन्धन से मुक्त हो परमात्मा को प्राप्त हुए हैं, उनकी गति में क्या अन्तर है – यह बताइये। प्रभो! में आपका शिष्य हूँ, इसलिये अच्छी तरह विचार करके प्रसन्नतापूर्वक मुझसे इस विषय का वर्णन कीजिये।
स्कन्द ने कहा – जो कोई यति समाधिस्थ हो शिव के चिन्तनपूर्वक अपने शरीर का परित्याग करता है, वह यदि महान् धीर हो तो परिपूर्ण शिवरूप हो जाता है; किंतु यदि कोई अधीरचित्त होने के कारण समाधिलाभ नहीं कर पाता तो उसके लिये उपाय बताता हूँ; सावधान होकर सुनो। वेदान्त-शास्त्र के वाक्यों से जो ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय – इन तीन पदार्थों का परिज्ञान होता है, उसे गुरु के मुख से सुनकर यति यम-नियमादिरूप योग का अभ्यास करे। उसे करते हुए वह भलीभाँति शिव के ध्यान में तत्पर रहे। मुने! उसे नित्य नियमपूर्वक प्रणव के जप और अर्थचिन्तन में मन को लगाये रखना चाहिये। मुने! यदि देह की दुर्बलता के कारण धीरता धारण करने में असमर्थ यति निष्काम भाव से शिव का स्मरण करके अपने जीर्ण शरीर को त्याग दे तो भगवान् सदाशिव के अनुग्रह से नन्दी के भेजे हुए विख्यात पाँच आतिवाहिक देवता आते हैं। उनमें से कोई तो अग्नि का अभिमानी, कोई ज्योतिःपुंजस्वरूप, कोई दिनाभिमानी, कोई शुक्लपक्षाभिमानी और कोई उत्तरायण का अभिमानी होता है। ये पाँचों सब प्राणियों पर अनुग्रह करने में तत्पर रहते हैं। इसी तरह धूमाभिमानी, तम का अभिमानी, रात्रि का अभिमानी, कृष्णपक्ष का अभिमानी और दक्षिणायन का अभिमानी – ये सब मिलकर पाँच होते हैं। ये पाँचों विख्यात देवता दक्षिण मार्ग में प्रसिद्ध हैं। महामुने वामदेव! अब तुम उन सब देवताओं की वृत्ति का वर्णन सुनो। कर्म के अनुष्ठान में लगे हुए जीवों को साथ ले वे पाँचों देवता उनके पुण्यवश स्वर्गलोक को जाते हैं और वहाँ यथोक्त भोगों का उपभोग करके वे जीव पुण्य क्षीण होने पर पुनः मनुष्यलोक में आते तथा पूर्ववत् जन्म ग्रहण करते हैं।
इनके सिवा जो उत्तर मार्ग के पाँच देवता हैं, वे भूतल से लेकर ऊर्ध्वलोक तक के मार्ग को पाँच भागों में विभक्त करके यति को साथ ले क्रमशः अग्नि आदि के मार्ग में होते हुए उसे सदाशिव के धाम में पहुँचाते हैं। वहाँ देवाधिदेव महादेव के चरणों में प्रणाम करके लोकानुग्रह के कर्म में ही लगाये गये वे अनुग्रहाकार देवता उन सदाशिव के पीछे खड़े हो जाते हैं। यति को आया देख देवाधिदेव सदाशिव यदि वह विरक्त हो तो उसे महामन्त्र के तात्पर्य का उपदेश दे गणपति के पद पर अभिषिक्त करके अपने ही समान शरीर देते हैं। इस प्रकार सर्वेश्वर सर्वनियन्ता भगवान् शंकर उस पर अनुग्रह करते हैं। उसे अनुगृहीत करके निश्चल समाधि देते हैं। अपने प्रति दास्यभाव की फलस्वरूपा तथा सूर्य आदि के कार्य करने की शक्तिरूपा ऐसी सिद्धियाँ प्रदान करते हैं, जो कहीं अवरुद्ध नहीं होतीं। साथ ही वे जगद्गुरु शंकर उस यति को वह परम मुक्ति देते हैं, जो ब्रह्मजी की आयु समाप्त होने पर भी पुनरावृत्ति के चक्कर से दूर रहती है। अतः यही समष्टिमान् सम्पूर्ण ऐश्वर्य से युक्त पद है और यही मोक्ष का राजमार्ग है, ऐसा वेदान्तशास्त्र का निश्चय है।
जिस समय यति मरणासन्न हो शरीर से शिथिल हो जाय, उस समय उस श्रेष्ठ सम्प्रदायवाले दूसरे यति अनुकूलता की भावना ले उसके चारों ओर खड़े हो जायें। वे सब वहाँ क्रमशः प्रणव आदि वाक्यों का उपदेश दे उनके तात्पर्य का सावधानी और प्रसन्नता के साथ सुस्पष्ट वर्णन करें तथा जब तक उसके प्राणों का लय न हो जाय तब तक निर्गुण परमज्योतिःस्वरूप सदाशिव का उसे निरन्तर स्मरण कराते रहें। सब यतियों का यहाँ समान रूप से संस्कार-क्रम बताया जाता है। संन्यासी सब कर्मों का त्याग करके भगवान् शिव का आश्रय ग्रहण कर लेते हैं। इसलिये उनके शरीर का दाहसंस्कार नहीं होता और उसके न होने से उनकी दुर्गति नहीं होती। संन्यासी के शरीर को दूषित करनेवाले राजा का राज्य नष्ट हो जाता है। उसके गाँवों में रहनेवाले लोग अत्यन्त दुःखी हो जाते हैं। इसलिये उस दोष का परिहार करने के लिये शान्ति का विधान बताया जाता है। उस समय 'नम इरिण्याय' से लेकर 'नम अमीवकेभ्यः' तक के मन्त्र का विनीतचित्त होकर जप करे। फिर अन्त में ओंकार का जप करते हुए मिट्टी से देवयजन* की पूर्ति करे। मुनीश्वर! ऐसा करने से उस दोष की शान्ति हो जाती है। [ * संन्यासी के शरीर को गाड़ने के लिये खोदा गया गड्ढा।]
(अब संन्यासी के शव के संस्कार की विधि बताते हैं।) पुत्र या शिष्य आदि को चाहिये कि यति के शरीर का यथोचित रीति से उत्तम संस्कार करे। ब्रह्मन! मैं कृपापूर्वक संस्कार की विधि बता रहा हूँ, सावधान होकर सुनो। पहले यति के शरीर को शुद्ध जल से नहलाकर पुष्प आदि से उसकी पूजा करे। पूजन के समय श्रीरुद्रसम्बन्धी चमकाध्याय और नमकाध्याय का पाठ करके रुद्रसक्त का उच्चारण करे। उसके आगे शंख की स्थापना करके शंखस्थ जल से यति के शरीर का अभिषेक करे। सिर पर पुष्प रखकर प्रणव द्वारा उसका मार्जन करे। पहले के कौपीन आदि को हटाकर दूसरे नवीन कौपीन आदि धारण कराये। फिर विधिपूर्वक उसके सारे अंगों में भस्म लगाये। विधिवत त्रिपुण्ड्र लगाकर चन्दन द्वारा तिलक करे। फिर फूलों और मालाओं से उसके शरीर को अलंकृत करे। छाती, कण्ठ, मस्तक, बाँह, कलाई और कानों में क्रमशः रुद्राक्ष की माला के आभूषण मन्त्रोच्चारणपूर्वक धारण कराकर उन सब अंगों को सुशोभित करे। फिर धूप देकर उस शरीर को उठाये और विमान के ऊपर रखकर ईशानादि पंचब्रह्ममय रमणीय रथ पर स्थापित करे। आदि में ओंकार से युक्त पाँच सद्योजातादि ब्रह्ममन्त्रों का उच्चारण करके सुगन्धित पुष्पों और मालाओं से उस रथ को सुसज्जित करे। फिर नृत्य, वाद्य तथा ब्राह्मणों के वेदमन्त्रोच्चारण की ध्वनि के साथ ग्राम को प्रदक्षिणा करते हुए उस प्रेत को बाहर ले जाय।
तदनन्तर साथ गये हुए वे सब यति गाँव के पूर्व या उत्तर दिशा में पवित्र स्थान में किसी पवित्र वृक्ष के निकट देवयजन (गड्ढा) खोदें। उसकी लम्बाई संन्यासी के दण्ड के बराबर ही होनी चाहिये। फिर प्रणव तथा व्याहृति-मन्त्रों से उस स्थान का प्रोक्षण करके वहाँ क्रमशः शमी के पत्र और फूल बिछाये। उनके ऊपर उत्तराग्र कुश बिछाकर उस पर योगपीठ रखे। उसके ऊपर पहले कुश बिछाये, कुशों के ऊपर मृगचर्म तथा उसके भी ऊपर वस्त्र बिछाकर प्रणव सहित सद्योजातादि पंचब्रह्ममन्त्रों का पाठ करते हुए पंचगव्यों द्वारा उस शव का प्रोक्षण करे। तत्पश्चात् रुद्रसूक्त एवं प्रणव का उच्चारण करते हुए शंख के जल से उसका अभिषेक करके उसके मस्तक पर फूल डाले। शिष्य आदि संस्कारकर्ता पुरुष वहाँ गये हुए मृत यति के अनुकूल भाव रखते हुए शिव का चिन्तन करता रहे। तदनन्तर ॐकार का उच्चारण और स्वस्तिवाचन करके उस शव को उठाकर गड्ढे के भीतर योगासन पर इस तरह बिठाये जिससे उसका मुख पूर्व दिशा की ओर रहे। फिर चन्दन-पुष्प से अलंकृत करके उसे धूप और गुग्गुल की सुगन्ध दे। इसके बाद 'विष्णो! हव्यमिदं रक्षस्व' ऐसा कहकर उसके दाहिने हाथ में दण्ड दे और 'प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो०' (शु० यजु० २३। ६५) इस मन्त्र को पढ़कर बायें हाथ में जल सहित कमण्डलु अर्पित करे। फिर 'ब्रह्म यज्ञानं प्रथमं०' (शु० यजु० १३। ३) इस मन्त्र से उसके मस्तक का स्पर्श करके दोनों भौंहों के स्पर्शपूर्वक रुद्रसूक्त का जप करे। तत्पश्चात् 'मा नो महान्तमुत०' (शु० यजु० १६। १५) इत्यादि चार मन्त्रों को पढ़कर नारियल के द्वारा यति के शव के मस्तक का भेदन करे। इसके बाद उस गड्ढे को पाट दे। फिर उस स्थान का स्पर्श करके अनन्यचित्त से पाँच ब्रह्ममन्त्रों का जप करे। तदनन्तर 'यो देवानां प्रथमं पुरस्तात् (१०। ३) से लेकर 'तस्य प्रकृतिलीनस्य यः परः स महेश्वरः।' (१०। ८) तक महानारायणोपनिषद् के मन्त्रों का जप करके संसार रूपी रोग के भेषज, सर्वज्ञ, स्वतन्त्र तथा सब पर अनुग्रह करनेवाले उमा सहित महादेवजी का चिन्तन एवं पूजन करे। (पूजन की विधि यों है –)
एक हाथ ऊँचे और दो हाथ लंबे-चौड़े एक पीठ का मिट्टी के द्वारा निर्माण करे। फिर उसे गोबर से लीपे। वह पीठ चौकोर होना चाहिये। उसके मध्य-भाग में उमा-महेश्वर को स्थापित करके गन्ध, अक्षत, सुगन्धित पुष्प, बिल्वपत्र और तुलसीदलों से उनकी पूजा करे। तत्पश्चात् प्रणव से धूप और दीप निवेदन करे। फिर दूध और हविष्य का नैवेद्य लगाकर पाँच बार परिक्रमा करके नमस्कार करे। फिर बारह बार प्रणव का जप करके प्रणाम करे। तदनन्तर (ब्रहीभूत यति की तृप्ति के लिये नारायणपूजन, बलिदान, घृतदीपदान का संकल्प करके गर्त के ऊपर मृण्मय लिंग बनाकर पुरुषसूक्त से पूजा करके घृतमिश्रित पायस की बलि दे। घी का दीप जला पायसबलि को जल में डाल दे) तत्पश्चात् दिशा-विदिशाओं के क्रम से प्रणव के उच्चारणपूर्वक 'ॐ ब्रह्मणे नमः' इस मन्त्र से ब्रह्मीभूत यति के लिये शंख से आठ बार अर्ध्यजल दे। इस प्रकार दस दिनों तक करता रहे। मुनिश्रेष्ठ! यह दशाह तक की विधि तुम्हें बतायी गयी। अब यतियों के एकादशाह की विधि सुनो।
(अध्याय २० - २१)