ब्रह्माजी के द्वारा परमतत्त्व के रूप में भगवान् शिव की ही महत्ता का प्रतिपादन, उनकी कृपा को ही सब साधनों का फल बताना तथा उनकी आज्ञा से सब मुनियों का नैमिषारण्य में आना
ब्रह्माजी ने कहा – मुनियो! जिन्हें न पाकर मन सहित वाणी लौट आती है, जिनके आनन्दमय स्वरूप का अनुभव करनेवाला पुरुष कभी किसी से नहीं डरता, जिनसे सम्पूर्ण भूतों और इन्द्रियों के साथ ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र और इन्द्रपूर्वक यह समस्त जगत् पहले प्रकट होता है, जो कारणों के भी स्त्रष्टा और विचारक परम कारण हैं, जिनके सिवा और किसी से कभी भी जगत् की उत्पत्ति नहीं होती, सम्पूर्ण ऐश्वर्य से सम्पन्न होने के कारण जो स्वयं ही सर्वेश्वर नाम धारण करते हैं, सब मुमुक्षु जिन शम्भु का अपने हृदय-आकाश के भीतर ध्यान करते हैं जिन्होंने सबसे पहले मुझे ही अपने पुत्र के रूप में उत्पन्न किया और मुझे ही सम्पूर्ण वेदों का ज्ञान दिया, जिनके कृपाप्रसाद से मैंने यह प्रजापति का पद प्राप्त किया है, जो ईश्वर अकेले ही वक्ष की भाँति निशचल भाव से प्रकाशमान आकाश में विराजमान है, जिन परमपुरुष परमात्मा से यह सम्पूर्ण जगत् परिपूर्ण है, जो अकेले ही बहुत-से निष्क्रिय जीवों के शासक एवं उन्हें सक्रियता प्रदान करनेवाले हैं, जो महेश्वर एक बीज को अनेक रूपों में परिणत कर देते हैं, जो सबका शासन करनेवाले ईश्वर इन जीवों सहित इन समस्त लोकों को वश में रखते हैं, सब रूपों में जो एकमात्र भगवान् रुद्र ही हैं, दूसरा कोई नहीं है, जो सदा ही मनुष्यों के हृदय में भलीभाँति प्रविष्ट होकर स्थित हैं, जो स्वयं सम्पूर्ण विश्व को देखते हुए भी दूसरों से कदापि लक्षित नहीं होते और सदा समस्त जगत् के अधिष्ठाता हैं, जो अनन्त शक्तिशाली एकमात्र भगवान् रुद्र काल से मुक्त समस्त कारणों पर भी शासन करते हैं, जिनके लिये न दिन है न रात्रि है, जिनके समान भी कोई नहीं है, फिर अधिक तो हो ही कैसे सकता है, जिनकी ज्ञान, बल और क्रियारूपा पराशक्ति स्वाभाविक एवं नित्य है।' जो इस क्षर (विनाशशील), अव्यक्त (प्रकृति) पर तथा अमृतस्वरूप अक्षर (अविनाशी) जीवात्मा पर शासन करते हैं, उनका निरन्तर ध्यान करने से, मन को उनमें लगाये रहने से तथा उन्हीं के तत्त्व की भावना करते हुए उनमें तन्मय रहने से जीव अन्त में उन्हीं को प्राप्त हो जाता है। फिर तो सारी माया अपने-आप दूर हो जाती है। उनके पास न तो बिजली प्रकाश करती है और न सूर्य तथा चन्द्रमा ही अपनी प्रभा फैलाते हैं, अपितु उन्हीं के प्रकाश से यह सम्पूर्ण जगत् प्रकाशित होता है। ऐसा सनातन श्रुति का कथन है। एकमात्र महादेव महेश्वर को ही अपना आराध्यदेव जानना चाहिये। उनसे श्रेष्ठ दूसरा कोई पद उपलब्ध नहीं होता। ये स्वयं ही सबके आदि हैं, किंतु इनका न आदि है न अन्त। ये स्वभाव से ही निर्मल, स्वतन्त्र, परिपूर्ण, स्वेच्छाधीन तथा चराचररूप हैं। इनका शरीर अप्राकृतिक (दिव्य) है। ये श्रीमान् महेश्वर लक्ष्य और लक्षण से रहित हैं। ये नित्यमुक्त होकर सबको बन्धन से मुक्त करनेवाले हैं। काल की सीमा से परे रहकर काल को प्रेरित करनेवाले हैं। ये सबके ऊपर निवास करते हैं। स्वयं ही सबके आवास स्थान हैं, सर्वज्ञ हैं तथा छः प्रकार के अध्वा (मार्ग) से युक्त इस सम्पूर्ण जगत् के पालक हैं। उत्तरोत्तर उत्कृष्ट भूतों से वे परम उत्कृष्ट हैं। उनसे बढ़कर दूसरा कोई नहीं है। अनन्त आनन्दराशिरूपी मकरन्द का पान करनेवाले मधुव्रत (भ्रमर) हैं। अखण्ड ब्रह्माण्डों को मसलकर मृत्पिण्ड के समान कर देने की कला में पण्डित हैं। उदारता, वीरता, गम्भीरता और मधुरता के महासागर हैं। इनके समान भी कोई वस्तु नहीं है, फिर इनसे बढ़कर तो हो ही कैसे सकती है। ये उपमारहित हैं। समस्त प्राणियों के राजाधिराज के रूप में विराजमान हैं। ये ही सृष्टि के प्रारम्भ में अपने अद्भुत क्रियाकलाप द्वारा इस सम्पूर्ण जगत् की सृष्टि करते हैं और अन्तकाल में यह फिर इन्हीं में लीन हो जायगा। सब प्राणी इन्हीं के वश में हैं। ये ही सबको विभिन्न कार्यों में नियुक्त करनेवाले हैं। पराभक्ति से ही इनका दर्शन होता है, अन्य किसी प्रकार से कभी नहीं।
व्रत, सम्पूर्ण दान, तपस्या और नियम – इन सब साधनों को पूर्वकाल में सत्पुरुषों ने भावशुद्धि तथा अनुराग की उत्पत्ति के लिये ही बताया था, इसमें संशय नहीं है। मैं, भगवान् विष्णु, रुद्रदेव तथा दूसरे-दूसरे देवता एवं असुर आज भी उग्र तपस्याओं के द्वारा उनके दर्शन की इच्छा रखते हैं। धर्मभ्रष्ट, मूढ़, दुष्ट और घृणित आचार-विचारवाले लोगों को उनका दर्शन होना असम्भव है। भक्तजन भीतर और बाहर भी उन्हीं का पूजन एवं ध्यान करते हैं। यह रूप तीन प्रकार का है – स्थूल, सूक्ष्म और इन दोनों से परे। हम सब देवता आदि जिस रूप को प्रत्यक्ष देखते हैं, वह स्थूल है। सूक्ष्मरूप का दर्शन केवल योगियों को होता है और उससे भी परे जो नित्य, ज्ञानस्वरूप आनन्दमय तथा अविनाशी भगवत्स्वरूप है, वह उसमें निष्ठा रखने वाले भजन परायण भक्तों की ही दृष्टि में आता है। भगवद्व्रत का आश्रय लेनेवाले भक्त ही उसको देख पाते हैं। इस विषय में अधिक कहने से क्या लाभ, गुह्य से भी गुह्यतर एवं उत्कृष्ट साधन है भगवान् शिव के प्रति भक्ति। जो उस भक्ति से युक्त है, वह संसार-बन्धन से मुक्त हो जाता है – इसमें संदेह नहीं है। वह भक्ति भगवान् शिव की कृपा से ही उपलब्ध होती है और उनकी कृपा भी भक्ति से ही सम्भव होती है – इस प्रकार ये दोनों एक-दूसरे के आश्रित हैं – ठीक वैसे ही, जैसे अंकुर से बीज और बीज से अंकुर होता है। जीव को भगवत्कृपा से ही सर्वत्र सिद्धियाँ मिलती हैं। सम्पूर्ण साधनों से अन्त में भगवान् की कृपा ही साध्य है। अन्तःकरण की शुद्धि या प्रसाद का साधन है धर्म और उस धर्म के स्वरूप का प्रतिपादन वेद ने किया है। वेदों के अभ्यास से पहले के पुण्य और पापों में समता आती है, उस समता से प्रसाद (प्रसन्नता या अन्तःशुद्धि) का सम्पर्क प्राप्त होता है और उससे धर्म की वृद्धि होती है। धर्म की वृद्धि से पशु (जीव) के पापों का क्षय होता है। इस तरह जिसके पाप क्षीण हो गये हैं, उस जीव को अनेक जन्मों के अभ्यास से क्रमशः उमा-महेश्वर के तत्त्व का ज्ञान प्राप्त होकर उसके हृदय में उनके प्रति भक्ति का उदय होता है। उस भक्तिभाव के अनुरूप ही महेश्वर के कृपाप्रसाद का उद्रेक होता है। उस प्रसाद से कर्मों का त्याग होता है। कर्मों के त्याग का अभिप्राय उनके फलों के त्याग से है, कर्मों के स्वरूपतः त्याग से नहीं। अतः यह सिद्ध हुआ कि कर्मफलों के त्याग से शिवधर्म में मंगलमयी प्रवृत्ति होती है।
इसलिये शिव का कृपाप्रसाद प्राप्त करने के उद्देश्य से तुम सब लोग अपने स्त्री-पुत्रों और अग्नियों के साथ वाणी और मन के दोषों से रहित होकर एकमात्र भगवान् शिव का ही ध्यान करते रहो। उन्हीं में निष्ठा रखकर उनके भजन में तत्पर हो जाओ। उन्हीं में मन लगाकर उनके आश्रित होकर रहो। सब कार्य करते हुए मन से उन्हीं का चिन्तन किया करो। एक सहस्त्र दिव्य वर्षों के लिये दीर्घकालिक यज्ञ का आरम्भ करके उसे पूर्ण करो। यज्ञ के अन्त में मन्त्र द्वारा आवाहन करने पर साक्षात् वायुदेवता वहाँ पधारेंगे। फिर वे ही तुम सब लोगों के कल्याण का साधन एवं उपाय बतायेंगे। तत्पश्चात् तुम सब लोग परम सुन्दर पुण्यमयी वाराणसीपुरी को जाना, जहाँ पिनाकपाणि श्रीमान् भगवान् विश्वनाथ भक्तजनों पर अनुग्रह करने के लिये देवी पार्वती के साथ सदा विहार करते हैं। द्विजोत्तमो! वहाँ तुम्हें बड़ा भारी आश्चर्य दिखायी देगा। उस आश्चर्य को देखकर तुम फिर मेरे पास आना, तब मैं तुम्हें मोक्ष का उपाय बताऊँगा। उस उपाय से एक ही जन्म में मुक्ति तुम्हारे हाथ में आ जायगी, जो अनेक जन्मों के संसार-बन्धन से छुटकारा दिलानेवाली होगी। यह मैंने मनोमय चक्र का निर्माण किया है। इस चक्र को मैं यहाँ से छोड़ता हूँ। जहाँ जाकर इसकी नेमि विशीर्ण हो जाय – दूट-फूट जाय, वही तपस्या के लिये शुभ देश है।
ऐसा कहकर पितामह ब्रह्मा ने उस सूर्यतुल्य तेजस्वी मनोमय चक्र की ओर देखा और महादेवजी को प्रणाम करके उसे छोड़ दिया। वे सब ब्राह्मण उन लोकनाथ ब्रह्माजी को प्रणाम करके उस स्थान के लिये चल दिये, जहाँ उस चक्र की नेमि जीर्ण-शीर्ण होने वाली थी। ब्रह्माजी का फेंका हुआ वह सुन्दर चक्र मनोहर शिलाखण्डों से युक्त और निर्मल एवं स्वादिष्ठ जल से पूर्ण किसी वन में गिरा। उस चक्र की नेमि के शीर्ण होने से वह मुनिपूजित वन नेमिष नाम से विख्यात हुआ। अनेक यक्ष, गन्धर्व और विद्याधर वहाँ आकर रहने लगे। पूर्वकाल में जगत् की सृष्टि की इच्छा रखने वाले विश्वस्त्रष्टा एवं गार्हपत्य अग्नि के उपासक ब्रह्मज्ञ प्रजापतियों ने वहीं दिव्य यज्ञ का आरम्भ किया था। वहीं शब्दशास्त्र, अर्थशास्त्र तथा न्यायशास्त्र के ज्ञाता विद्वान् महर्षियों ने शक्ति, ज्ञान और क्रियायोग के द्वारा शास्त्रीय विधि का अनुष्ठान किया था। उसी स्थान पर वेदवेत्ता विद्वानू सदा वाद और जल्प के बल से युक्त वचनों द्वारा अतिवाद करनेवाले वेदबहिष्कृत नास्तिकों को पराहत या पराजित करते थे। तभी से नेमिषारण्य ऋषियों की तपस्या के योग्य स्थान बन गया। स्फटिकमणिमय पर्वत की शिलाओं से झरते हुए अमृत के समान मधुर एवं स्वच्छ जल के कारण वह वन बड़ा रमणीय प्रतीत होता है। वहाँ प्रायः अत्यन्त रसीले फल देने वाले वृक्ष हैं तथा उस वन में हिंसक जीव जन्तुओं का अभाव है।
(अध्याय ३)